आज महापंडित राहुल सांकृत्यायन की जयंती है। ‘वोल्गा से गंगा’ की दो कहानियों के माध्यम से एक लेख में श्रुति कुमुद ने उनके नवजागरण संबंधी विचारों को परखने की कोशिश की है।श्रुति कुमुद विश्वभारती शांतिनिकेतन में पढ़ाती हैं और विमर्श के मुद्दों को बहुत गम्भीरता से उठाती हैं। उनका एक सुचिंतित लेख पढ़िए-
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सभ्यताएँ पुनर्जागरण या नवजागरण के दौर से गुजरती हैं। नवजागरण का नामकरण तो बहुत बाद में सम्भव हुआ लेकिन जो इसके मूलभूत तत्व हैं, उनसे लैस अनेक आंदोलन दुनिया में हुए जिन्होंने अपने तरीके से समाज और दुनिया को बदला। हिंदी समाज के दो महत्वपूर्ण नवजागरण की बात करें तो प्रथम लोकजागरण भक्तिकालीन युग का है और द्वितीय वह नवजागरण, जिसके बारे में हिंदी समाज प्रचलित मुहावरों में बात करता है, जो आजादी की लड़ाई वाले युग में आकार लिया। इस नवजागरण पर मूर्धन्य विद्वानों ने कलम चलाई है और अपने मन-मस्तिष्क पर जो कुछ भी छवि नवजागरण की बनी है, वो इन्हें पढ़ समझ कर ही बनी है। यह नवजागरण युगीन मूल्यबोधों से संचालित हुआ और इसने हिंदी भाषा तथा समाज के भीतर की अनेक जड़ताओं से लड़ाई लड़ी। बांग्ला समाज के नवजागरण के अनुकरणीय पथ से अनेक तत्व इस हिंदी नवजागरण में भी शामिल हुए। उनमें से एक जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है उसका जिक्र नामवर जी ने अपने सुचिंतित आलेख ‘हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’ में बंकिम चंद्र के हवाले के किया है, जिसमें बंकिम यह कहते हैं: ‘कोई राष्ट्र अपने इतिहास में अस्तित्व ग्रहण करता है; इसलिए अपने इतिहास का ज्ञान ही किसी जाति का आत्मज्ञान है।’ यह जो इतिहासबोध और इतिहास के ज्ञान की जरुरत है यह जरुरत ही नवजागरण को राहुल सांकृत्यायन के विपुल रचना संसार से जोड़ती है। अगर राष्ट्रनिर्माण और जातीय ( मनुष्यगत) आत्मज्ञान की अभिलाषा और संघर्ष को हम प्रस्थान बिंदु मान लें तो राहुल सांकृत्यायन का साहित्यिक वैभव उस बिंदु को लेकर खींची गई लकीर है। एक और बात है कि हिंदी नवजागरण के जो शिखर हैं वो तो राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं में लक्षित होते ही है, अपितु जो इसकी सीमाएँ हैं वो भी इनकी कहानियों से जाहिर हो जाता है।
यहाँ मैं अपनी बात राहुल सांकृत्यायन की दो कहानियों के मार्फत रखूँगी। वो दो कहानियाँ उनके प्रसिद्ध संग्रह वोल्गा से गंगा नामक किताब से हैं। पहली कहानी है, निशा, जिसका समय बकौल रचनाकार, 631 पीढ़ी पहले का है, यानी तबकी कहानी है जब मनुष्य अपने आप को जानवरों से विलगाने के सारे जतन कर रहा था। पाषाण युग की कहानी है। और यह पक्ष कहानी में उभरा है कि कैसे मनुष्य पत्थर के औजार इस्तेमाल कर ले रहा है जबकि अन्य जानवर नहीं कर पा रहे। मातृ सत्ता का समय है। यानी सबकुछ प्राकृतिक है। मनुष्य का दखल इतना भर हो पाया है कि उसने पत्थर साध लिया है। और इस पत्थर साधना से मनुष्य, भेड़ियों तथा सफेद भालुओं ( पोलर बियर ) पर भारी पड़ने लगा है। यह उस दौर की कहानी है। यह संग्रह की पहली कहानी भी है, यानी राहुल सांकृत्यायन जहाँ अपनी जड़ों की तलाश में लौटते हैं, उसका पहला छोर।
दूसरी कहानी है, सुमेर। इस कहानी का समय काल ईस्वी सन 1941 बताया है। यानी वह दौर जिसमें मनुष्य ने प्रकृति पर लगभग विजय पा लिया है। सत्ता पितृसत्ता हो चुकी है। और जैसा कि लुटेरे करते हैं, यानी विजय पाने के बाद विजित इलाकों को नष्ट करना, उसी पथ पर मनुष्य भी अग्रसर है।
इस संग्रह के दोनों छोर की कहानियों को पढ़ते हुए प्रथम दृष्टया जो बात खुलती है कि जहाँ पहली कहानी में मानव सभ्यता स्थापित करने के लिए रक्तिम संघर्ष है वहीं आखिरी कहानी में एक दूसरे के खून की प्यासी हो चुकी मानव निर्मितियों का संघर्ष है। इसी में ‘सुमेर’ जैसे इक्के दुक्के पात्र भी हैं जो वास्तविक संसार का प्रतिनिधित्व कम करते हैं, बल्कि वो लेखक की सदिच्छा का मूर्त रूप हैं।
वोल्गा से गंगा में जिस इतिहास बोध या जाति बोध की यात्रा रचित है वो इस मुकाम पर पहुँचेगा, इसकी कल्पना शायद राहुल सांकृत्यायन स्वयं में भी नहीं की होगी। जबकि उनके विचार पक्ष इतने उजले किन्तु हावी हैं कि कहानियों को पल भर के लिए वो भटकने नहीं देते। फिर भी अगर यह सभ्यता यात्रा हाथ से निकलती दिख पड़ती है तो उसके संकेत भी इसी सभ्यता में दिखते हैं।
‘निशा’ कहानी छः सौ इक्कतीस पीढ़ियों पहले की कहानी है। कहानी एंगेल्स की उस स्थापना को जैसे पारिभाषित करती है जिसमें वो ‘वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका’ की बात करते हैं। कहानी का प्रस्थान बड़े सलीके से राहुल सांकृत्यायन मनुष्य बनाम जानवर के विचार से काढ़ते हैं। दो पहाड़ी गुफा हैं। एक के भीतर कुछ मनुष्यों का निवास है। जिसमें एक बूढ़ी औरत ‘रोजना’ और कुछ बच्चे हैं। बच्चे खेल रहे हैं। बाकी जो अधेड़ तथा युवा स्त्री-पुरुष हैं, और जिनका नेतृत्व निशा नामक महिला कर रही है, वो शिकार यात्रा पर निकले हैं। वो ‘दूसरी’ पहाड़ी गुफा तक पहुंचते हैं। इस गुफा में चार पहाड़ी भालू या सफेद भालू ( पोलर बियर ) हैं, उनमें एक भालू का बच्चा है।
ठीक इसी बिंदु से ‘वोल्गा से गंगा’ की सभ्यता यात्रा शुरु होती है।
हालाँकि परिवार शब्द और उसके अर्थ उस समय आकार नहीं लिए हुए हैं लेकिन वर्तमान की जमीन पर खड़े होकर अगर देखें तो कहेंगे कि मनुष्य का परिवार बुद्धि विवेक का प्रयोग जहाँ शुरु कर चुका है, अन्य जीव शक्तिशाली होने के बावजूद परास्त हुआ जाता है। जितने मनुष्य शिकार पर गए हैं वो घात लगाकर उन चारो भालुओं को मार देते हैं। कहानी उस समय को रचने का हर सम्भव सार्थक प्रयास करती है।
यह पढ़ते हुए हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि वो कौन सी पीढी थी जो जानवरों की भांति शिकार का गर्म गर्म रक्त पीती थी, बिना पकाए मांस खाती थी, और फिर जो बच जाए उसे खींच कर गुफा तक ले आती थी। इसी क्रम में यानी मारे हुए भालुओं को गुफा तक लाने के क्रम में मनुष्यों के इस झुंड का सामना भेड़ियों के झुंड से होता है। सभ्यता यात्रा में यह संघर्ष, भेड़ियों और मनुष्यों का, शायद मनुष्यों बनाम मनुष्यों के संघर्ष के बाद सबसे लंबे समय तक चला संघर्ष है।
कहानी में भेड़ियों से हुए संघर्ष का पक्ष बड़े सजीव ढंग से वर्णित है। आप देखते हैं कि मानव समूह पहली बार रणनीति बनाता दिख रहा है। वो सभी स्त्री पुरुष इकट्ठा हो जाते हैं। संभवत: सबकी पीठ एक दूसरे से सट जाती है और वो गोलाई में खड़े हो जाते हैं। लेकिन हथियार के नाम पर उनके पास पत्थर के चाकू और कुछ लट्ठ हैं। पहले घेराव में वो एक भालू को भेड़ियों के लिए छोड़कर उन्हें चकमा देने में सफल हो जाते हैं। मानव झुंड भाग निकलता है। लेकिन यह चकमा सफल नहीं हो पाता। भालू खत्म करने के बाद भेड़ियों का झुंड फिर उन तक पहुँच जाता है और उन्हें घेर लेता है। यहाँ निर्णायक संघर्ष होता है। मनुष्य जहां कुछ भेड़िये मार गिराता है और भेड़िये भी इस मानव समूह से दो इंसानों को खींच लेने में सफल हो जाते हैं। बड़ा ही कारुणिक दृश्य है। बाकी बचे मनुष्य जानते हैं कि अगर भेड़ियों के चंगुल से अपने दो साथियों को बचाने की कोशिश करेंगे तो और न जाने कितने लोग मारे जाएंगे। इसलिए उन्हें छोड़ कर ये लोग लौट आते हैं। गुफा में उनका इतंजार हो रहा है।
बाहरी दुनिया से उस युग के मनुष्य का संघर्ष रचने के बाद कथाकार मानव समूह के भीतर के संघर्ष की तरफ रौशनी करता है। एक बार पुनः हम उसी मुश्किल से दो चार पाते हैं कि आज के समय में खड़े हो कर उस समय की संरचना को कैसे समझें? जैसा पहले मैंने बताया कि परिवार का ‘कॉन्सेप्ट’ नहीं है लेकिन वह प्रक्रिया भी न हो, प्रेम लालसा आदि की प्रक्रिया, यह तो संभव नहीं, इस क्रम में सन्ततियाँ तो हैं लेकिन इनके-उनके बीच मानवीय संवेदना के अलावा दूसरा कोई कायम रिश्ता नहीं है। इस बात को राहुल सांकृत्यायन ठहर कर समझाते हैं। प्रेम या संसर्ग के लिए भी कोई बंधन नहीं है। मसलन् समूह में जो सुदर्शन युवक ‘चौबीसा’ युवक है, जो निशा की ही संतति है, निशा खुद उसके साथ रहती है क्योंकि निशा ही उस समूह का नेतृत्व करती है, इसलिए यहाँ वो अपनी सत्ता और शक्ति का इस्तेमाल कर लेती है, जबकि ‘लेखा’ नामक युवती के लिए उस समूह के अधेड़ पुरुष रह जाते हैं।
आज की खुर्दबीन से देखें तो न जाने क्या क्या दिख जाए लेकिन हमें यह समझना होगा कि दरअसल वह वास्तव में मानव का सभ्यता की ओर बढ़ाया गया पहला कदम है, मनुष्य के पास सिवाय ‘बेसिक इंस्टिंक्ट’ के और कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। सबकुछ विकसित होना बाकी है। कहानी में एक जगह कथाकार कहता भी है कि अभी मेरा-तेरा वाद वाला युग नहीं आया था।
तो वह जो पाषाणयुगीन मनुष्य है, जो गुफाओं में रह रहा है, जिसने ‘स्वर्ण-फूल’ यानी आग को अपने अधीन नहीं लिया है, जिसके सामने प्रकाश खुलना बाकी है, उस मनुष्य तक की यात्रा कथाकार करता है, और कथाकार का अभीष्ट वही है, अपना अतीत जानना, पीढ़ियों की यात्रा जानना, समझना तथा उसे पुनःसृजित करना। यही वो बिंदु हैं जहाँ राहुल सांकृत्यायन नवजागरण के प्रमुख उद्देश्य ‘मानव इतिहास का ज्ञान या कह लीजिए, इतिहासबोध’ से मुखातिब होते हैं।
यहाँ से आगे कहानी में एक तेज घुमाव आता है, ठीक उस नदी वोल्गा की तरह जिसमें कथा पात्र डूबते हैं। कहने को तो कथाकार ने यह कह दिया है कि यह युग मेरा तेरा वाद का युग नहीं था लेकिन प्रेम की भाँति ही ईर्ष्या भी मनुष्य का मूल स्वभाव है। जब निशा देखती है कि युवती लेखा शिकार आदि में दक्ष है और वो निशा की जगह ले सकती है तो उसके भीतर असुरक्षा और डाह मिश्रित एक भाव जन्म लेता है और वह ईर्ष्या शक्ति इस कदर ताकतवर है कि निशा, ‘लेखा’ से जन्में एक बालक को बहाने से वोल्गा में बहा देती है। हालाँकि लेखा यह देखकर बालक को बचाने की खातिर वोल्गा में छलाँग लगा देती है लेकिन बालक को बचाने के उपक्रम के साथ वो निशा को भी खींच लेती है।बालक तो बच नहीं पाता और तीनों ही जल समाधिस्थ हो जाते हैं।
जिस निर्दोष युग की रचना राहुल सांकृत्यायन करना चाह रहे होंगे इस कहानी में, उसके मुकाबले यह कहानी का दारुण अंत है। आज जो विमर्शों ने नए मानदंड खड़े किए हैं, जिनमे आप किसी समूह विशेष की तारीफ तो उस पर आरोपित गुणों से कर सकते हैं लेकिन आलोचना या शिकायत आपको वैयक्तिक ही करनी होगी, समूहों को आलोचना से परे मान लिया गया है, वैसे विमर्शवादी दौर में यह काफी ‘बोल्ड’ कहानी मानी जायेगी कि ईर्ष्या जैसे दुर्गुण को कथाकार ने स्त्री समूह पर आरोपित किया है।
जिस तरीके से पाषाण युग के स्थितियों और चरित्रों की रचना राहुल करते हैं वो मानीखेज है। लगता है हम उस युग में ही उतार दिए गए हैं। चरित्रों की वस्त्र सज्जा, उनके हाव भाव, भौगोलिक परिस्थितियाँ, सब की रचना वस्तुनिष्ठता के साथ हुई है। यहाँ तक कि भाषा भी उसी अंदाज में है। कोई भी संवाद पूरे नहीं हैं। संवाद के स्थान पर शब्द भर हैं। संज्ञाएँ भर हैं। यह दर्शाता है कि भाषा भी अभी विकसित हो रही थी।
यहाँ एक खटकती हुई सी बात है जो नवजागरण की सीमाओं के तरफ इशारा करती है। मैं पहले ही स्पष्ट कर दूं कि अगर नवजागरण के संदर्भ में बात न हो रही होती तो इधर ध्यान दिलाना शायद अनुचित होता। लेकिन जो सीमाएँ नवजागरण की उजागर हुईं उनमें से एक है नवजागरण का भाषा के स्तर तक सिमट जाना। मसलन् 1840 के इर्द गिर्द जिस हिन्दू सभ्यता को ईसाई धर्म से खतरा था, वह 1880 आते न आते हिंदी बनाम उर्दू कैसे हो जाता है, यह समझना आज भी मुश्किल है।
नामवर सिंह अपने इसी आलेख में लिखते हैं: 1840 में अक्षयकुमार दत्त ने एक ब्राह्मों सभा में भाषण देते हुए कहा था : ‘हम एक विदेशी शासन के अधीन हैं, एक विदेशी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं, और विदेशी दमन झेल रहे हैं, जबकि ईसाई धर्म इतना प्रभावशाली हो चला है गोया वह इस देश का राष्ट्रीय धर्म हो। …मेरा हृदय यह सोचकर फटने लगता है कि हिंदू शब्द भुला दिया जाएगा और हम लोग एक विदेशी नाम से पुकारे जाएँगे।’ दूसरी तरफ शमशुर्रहमान फारुखी की किताब उर्दू का आरंभिक युग पढ़ते हुए यह ख्याल बार बार मन में बना रहता है कि यह नवजागरण आखिर किसके हित में जाकर खड़ा हुआ।
राहुल सांकृत्यायन का लेखन ऐसी किसी संकीर्णता का शिकार नहीं रहा होगा यह तय है लेकिन जिस अंदाज से क्लिष्ट हिंदी या संस्कृतनिष्ठ हिंदी का प्रयोग इस कहानी में या आगे की कहानियों में दिखता है, उससे बरबस ही यह ख्याल आ जाता है। संस्कृतनिष्ठ हिंदी के प्रयोग के लिए सबसे बड़ा डिफेंस तो इस कहानी का रचनाकाल ही है लेकिन नवजागरण के संदर्भ में पढ़ते ही भाषा का यह द्वंद सामने आ जाता है।
दूसरी कहानी या कह लें संग्रह वोल्गा से गंगा की आखिरी कहानी ‘सुमेर’ में नवजागरणीय अभ्युदय का अचूक पाठ मिलता है। बातचीत के क्रम में सुमेर, ओझा से कहता है, गाँधी के जो विचार जाति व्यवस्था बनाए रखने को लेकर है, वो दरअसल अपनी सभ्यता को अंधकार युग में खींच ले जाने की तैयारी है।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन का यह कथन हैरत में डाल देता है। आज जिस बात को लेकर लंबे लंबे ग्रंथ लिखे जा रहे हैं, उसे वो महज एक वाक्य में इंगित कर गए हैं। इस कहानी का समय वर्ष 1941 है।
अगर निशा नामक कहानी मानव सभ्यता के सृजन के शुरुआती संघर्षों की कहानी है तो सुमेर उस सभ्यता की समीक्षा है। यह मलवे के किसी निराश मालिक का इकबालिया बयान है कि हमने इस दुनिया का क्या कर डाला! ओझा और सुमेर के संवाद और फिर सुमेर का युद्ध में तारपीडो चलाने का आत्मघाती निर्णय उस पूरी संस्कृति का ध्वंश की तरफ इशारा करती है जिसकी कोमल कल्पना कवियों या सूफियों ने की होगी। यह कहानी उस अस्वीकार्य किन्तु अपरिहार्य आगत की दास्तान है जिसमें युद्ध नियम है और वर्चस्व लक्ष्य है। यह वर्चस्व या तो हथियारों के दम पर मिलना है या सिद्धांतों के। निशा ने जिन भेड़ियों से अपने समूह को तीन हजार वर्ष पहले बचाया था, वही भेड़िये बंदूकों और अन्य हथियारों के ट्रिगर पर अपनी उंगली रखे खड़े हैं।
दिखने में यह कहानी मानवीय सद्गुणों से ओतप्रोत और मनुष्य मात्र के सुख के लिए बेचैन युवक सुमेर की कहानी है लेकिन नवजागरण के संदर्भ में देखें तो यह कहानी की शक्ल में मानव सभ्यता पर मानव द्वारा रचे जारहे गुनाहों की चेतावनी भी है।
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