सुहैब अहमद फ़ारूक़ी ज़िम्मेदार पुलिस अधिकारी हैं और शायर हैं। उनका यह सफ़र 25 साल का हो चुका है। उन्होंने अपने इस सफ़र की दास्तान लिखी है, जो प्रसिद्ध लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक की भूमिका के साथ प्रस्तुत है- मॉडरेटर
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दिल्ली-पुलिस:10.05.1995 से सफ़र जारी है।
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चौथाई सदी माने 25 साल, समय-काल का एक साइज़ेबल खण्ड है। मगर अभी कल ही की बात लगती है जब, सन 1995 की मई की 10 तारीख को शिद्दत वाली गर्मी में मैंने पार्लियामेंट स्ट्रीट थाने के गोल लंबे सतूनों के पीछे डिस्ट्रिक्ट लाइन में अन्य बारह-तेरह लड़कों के साथ दिल्ली पुलिस को जॉइन किया था। इससे क़रीब 20-25 दिन पहले दिल्ली पुलिस के तब के मुख्यालय, एमएसओ बिल्डिंग, आईपी एस्टेट जिसको आमतौर पर आईटीओ पुकारा जाता है, की सबसे ऊँची मंज़िल शायद बारहवीं पर सबइंस्पेक्टरी की परीक्षा में सफल हम उम्मीदवारों के काग़ज़ात चैक किए गए थे। इतनी ऊँचाई पर बुलाने का कारण सिर्फ़ यह था कि क़रीब साढ़े तीन सौ कामयाब उम्मीदवारों को वह अपेक्षाकृत ख़ाली फ्लोर ही अकोमोडेट कर सकता था।
दिल्ली में हालांकि, ख़ाकसार 1993 में आ चुका था और नगर निगम प्राथमिक विद्यालय में सेवाएं दे भी रहा था। लेकिन क़स्बाती और ग्रामीण पृष्ठभूमि से (और फिर एनसीसी वाले भी ) आए हुए मेरे जैसे युवक का ड्रीम, यूनिफ़ॉर्म वाली सरकारी नौकरी ही था। तब पहली बार दिल्ली को इतनी ऊंचाई से देखा था। मीडियम लेवल की एक सरकारी नौकरी के पाने की ख़ुशी के एहसास के साथ-साथ महानगर में ज़ाती पहचान खो जाने का भय भी था। मैं जब दिल्ली आया था तो मेरे ज़ाती सामान में पापा का होल्डऑल, अम्मी के जहेज़ का एक आहनी संदूक़ और मीडियम साइज़ का एक सूटकेस था। ये मेरा कुल क़स्बाती असासा था। उस होल्डाल में एक जगह पैबन्द था। संदूक़ का वज़्न, उसमें महफ़ूज़ किए सामान से ज़्यादा था और मोडर्निटी एवं कंटेम्परेनेटी की मिसाल, उस सूटकेस का हाल यह था कि उसकी बाईं चिटख़नी का स्प्रिंग जज़्बए बग़ावत के सबब, बिना चाबी के बन्द नहीं होता था। वह बग़ावत पे आमादा यूँ था कि दिल्ली को आते हुए सफ़र में ट्रेन में सीट न मिलने पर सूटकेस को खड़ा कर उस पर बैठना मजबूरी था। इस निजता का वर्णन यूँ आवश्यक है कि हमें याद रहे कि जब हम इस शहर में और इस नौकरी में आए थे तब क्या थे? और अब क्या हैं? यह इज़्ज़त, यह शुहरत, यह दौलत सब इसी शहर और इस नौकरी की देन है। बस एक ख़लिश है और वह रहनी भी चाहिए। मैं अपने वतन में अपने पुरखों, अपने ख़ानवादे के हवाले से जाना जाता था बल्कि अब भी जाना जाता हूँ। मगर इस शहरे दिल्ली में अपने नाम से पहले लगे ओहदे से जाना जाता हूँ। बात भटक गई।
हज़रात जब बारहवीं मंज़िल से मैं अपने जैसे औसतन साठ किलो वाले उम्मीदवारों के साथ दिल्ली देख रहा था तो उस समय सबके नौजवानी वाले सपने थे। सरकारी नौकरी को पाने की संतुष्टि थी। समाज और देश के लिए कुछ करने का जज़्बा था। तब हमें मौखिक रूप से डिस्ट्रिक्ट और यूनिट अलॉट कर दिए गए। उस वक़्त दिल्ली पुलिस के 9 ज़िले थे। मेरे बाद आठ-नौ उम्मीदवारों को नई दिल्ली ज़िला मिला और उसके बाद एफआरआरओ, सिक्योरिटी व अन्य युनिट्स बँटी । युनिट्स वाले कुछ लड़के मायूस थे कि उनको थाने या जिलों में काम करने को नहीं मिलेगा। तभी किसी डिपार्टमेंल केंडिडेट ने शंका निवारण कर दिया और ख़ुलासा किया कि यह अलॉटमेंट सिर्फ़ तनख्वाह परपज़ के लिए है। तब जाकर आज के कई सफल एसएचओज़ के मुखारविंद पर मुस्कान आई थी। पांच दिन बाद हम सबको ट्रेनिंग की किट के संग नई दिल्ली डिस्ट्रिक्ट के महकमे के ओपन ट्रक में लादकर पीटीएस,झडौदा-कलाँ, दिल्ली-72 में आमद करा दी गयी थी।
क़रीब साढ़े तीन सौ दिल्ली पुलिस के भावी सब इंस्पेक्टरों का विराट बैच था हमारा। रात को रंगबिरंगी पोशाक पहने हमारी पहली और आख़री रोलकॉल हुई थी। अगले दिन सुबह सबको पीटी ड्रेस में बड़े ग्राउंड में डिस्ट्रिक्ट/यूनिट वाइज़ फ़ॉलइन करा दिया गया। इसके बाद हम सबको हाईट वाइज़ लाइन में लगा कर 25-25 लड़कों की प्लाटून बना दी। एक उस्ताद के पूछने पर कि पैन किसके पास है। मेरे सिर्फ़ हाथ उठाने की एलिजिबिलिटी पर तीन नम्बर प्लाटून का मुझे मुंशी बना दिया गया। बाद में भाषाई आधार पर बंटवारा होने पर प्लाटून नम्बर 7 में भी मैं ही मुंशी बरक़रार रहा।
रात की रोल कॉल के बाद ड्यूटी अफसर रूम के बाहर घर पर फ़ोन करने की लाइन लगा करती थी। एक बार एक साथी ट्रेनिंग की सख्ती से परेशान होकर घरवालों को फोन करते समय फूटफूट कर रो पड़ा था। हम सब ने उसकी कायरता पर हंसी उड़ाई थी। मगर वो कायरता नहीं सच्चाई थी। ट्रेनिंग से तो हम सब भागना चाहते थे। कुछ भाग कर चले गए थे, कुछ को घर वालों ने वापस भेज दिया था। कुछ को मुझ जैसे साथियों ने उसका बंधा होल्डाल खोलकर रुकवा लिया था।
ट्रेनिंग किसी भी यूनिफ़ॉर्म सर्विस का सबसे हसीन पीरियड होता है। होस्टल लाइफ़ से भी ज़बरदस्त। क्योंकि होस्टल लाइफ़ में घर वालों पर आर्थिक निर्भरता यहां नहीं थी। लॉ की क्लास में हम सात और आठ नम्बर प्लाटून वालों का एक सेक्शन था। इस सेक्शन में सभी को उनकी फिज़िकल अपीयरेंस और बोलचाल के आधार पर रामायण-महाभारत के किरदारों और पशु-पक्षियों के आधार पर रीक्रिसेंड किया गया था। अब सब मेच्योर हैं । न पूछिये कि किसका का क्या नाम धरा गया था?
पास आउट होकर हम सब फ़ील्ड में आए। सब ने अपने कौशल, पराक्रम और भाग्य से महकमे और दिल्ली में अपनी अपनी जगह बनाई। सन 2010 से हमारा बैच प्रोमोट होना आरम्भ हुआ जो 2014 तक जाकर पूरा हुआ। अफ़सोस है कुछ साथी हमसे जल्दी जुदा भी हो गए।
पासआउट होने के कुछ वर्षों तक गेट-टुगेदर रेगुलर तौर पर हुए। धीरे धीरे सब बिज़ी हो गए। यहाँ तक कि कुछ बैचमेटस से अब तक मुलाक़ात भी नही हो सकी। वह तो भला हो सोशल साइट्स का जिन्होंने रिश्तों को जीवित रखा हुआ है। मैंने अपनी तरफ़ #95ian #95ians के स्टाइल से हैशटैग चला रखा है। अपने सब बैचमेट्स से गुज़ारिश है कि बैच से सम्बंधित सूचना में इस हैशटैग का प्रयोग किया करें।
अंत में अपने सीनियर अधिकारियों एवं मेंटर्स का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ। ख़ास तौर से डी कोर्स वाले थाना मंगोलपुरी के एसएचओ श्री राजेश्वर प्रसाद गौतम साहब का, जिन्होंने हमें दबाव और ज़लालत में काम कैसे करें? सिखाया। जनाब सुभाष टण्डन साहब का, जिन्होंने हमें जूनियर कलीग्स से सम्मान दिलवाया। श्री वेदप्रकाश साहब का, जिन्होंने इंडिपेंडेंट थानेदार बनाया। श्री बलबीर सिंह कुंडू साहब तो मेरे पिता तुल्य ही हैं। अंतरराष्ट्रीय पहलवान श्री कृष्ण कुमार शर्मा साहब जिन्होंने कभी मातहत होने का एहसास ही होने न दिया। एसएचओ तो नहीं रहे मगर जनाब शिवदयाल साहब मेरे हर तरह से मेंटर रहे। अभी तक हर प्रकार की समस्या में, मैं उन्हीं से सलाह लेता हूँ।
मेरी पहचान अब एक शायर और अदीब के रूप में भी स्थापित हो गई है। यह तथ्य स्वीकार करने में कि ‘इसमें भी मेरे महकमे का ही योगदान है’, मुझे कोई हिचक नहीं है। मुझ जैसे अदीब और कवि बहुत घूमते हैं हर तरफ़। यह प्रसिद्धि मुझे दिल्ली पुलिस ने ही दिलवाई है। मैं सभी साथियों का दिल्ली पुलिस में 25 वर्ष पूरा होने पर अभिनंदन करता हूँ। साथ ही यह कामना भी करता हूँ कि आप लोग स्वस्थ रहें और समाज व देश की सेवा करते रहें।
दुआओं में याद रखिएगा।
अंत में यह सूफ़ी कलाम जिसको अताउल्लाह सत्तारी और ज़िया उल हसन शाह साहबान ने लिखा है, सुनियेगा और अमल में लाइएगा।
किसी दर्दमंद के काम आ
किसी डूबते को उछाल दे
ये निगाहें मस्त की मस्तियाँ
किसी बदनसीब पे डाल दे
मुझे मस्जिदों की ख़बर नहीं
मुझे मंदिरों का पता नहीं
मेरी आजज़ी को क़ुबूल कर
मुझे और दर्दो मलाल दे
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सुहैब अहमद फ़ारूक़ी
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