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युवा शायर त्रिपुरारि की नज़्म ‘फ़र्ज़’

समकालीन दौर के प्रतिनिधि शायरों में एक त्रिपुरारि की यह मार्मिक नज़्म पढ़िए- मॉडरेटर
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फ़र्ज़ – 
 
यही है हुक्म कि हम सब घरों में क़ैद रहें
तो फिर ये कौन हैं सड़कों पे चलते जाते हैं
कि तेज़ धूप में थकता नहीं बदन जिनका
कि जिनकी मौत के दिन रोज़ टलते जाते हैं
 
हज़ारों मील की दूरी भी तय हुई है मगर
ये बढ़ रहे हैं हथेली पे जान-ओ-दिल को लिए
यतीम पाँव में प्लास्टिक की बोतलें बाँधे
सफ़र की धूल नज़र में उम्मीद साथ किए
 
ये औरतें जो ख़ुशी का पयाम हैं लेकिन
सिरों पे बोझ ख़ुदी का उठाए फिरती हैं
ये मर्द कंधे पे जिनके हसीन बच्चे हैं
उन्हीं की नींदें चटाई को भी तरसती हैं
 
ये चींटियों की क़तारों को मात देते हुए
ये कैमरों की फ़्रेमों से अब भी बाहर हैं
ये जिनकी आह भी सरकार तक नहीं पहुंची
ये टी वी न्यूज़ की ख़ातिर हसीन मंज़र हैं
 
यही वो लोग हैं जिनसे ज़मीं की ज़ीनत है
इन्हीं के दम से हवाओं में ताज़ग़ी है अभी
इन्हीं की वज्ह से फूलों के बाग़ ज़िंदा हैं
इन्हीं के दर्द से रोशन ये ज़िंदगी है अभी
 
अनाज ये ही उगाते हैं उम्र भर लेकिन
इन्हीं के होंट बिलखते हैं रोटियों के लिए
इन्हीं की आँख में ख़्वाबों की जगह आँसू हैं
हलक़ इन्हीं का तरसता है पानियों के लिए
 
अमीर-ए-शहर की ये हैं ज़रूरतें लेकिन
अमीर-ए-शहर के दामन के दाग़ भी हैं ये
अब इनको कौन बताए कि बर्फ़ से चेहरे
भड़क उठें तो किसी पल में आग भी हैं ये
 
इन्हें पता ही नहीं इनकी ज़िंदगी का सबब
है इनका रोग कि हर दौर में ग़रीब हैं ये
किसी भी जाति या मज़हब से इनको क्या लेना
ख़ता से दूर सज़ाओं के बस क़रीब हैं ये
 
ये मेरे लोग हैं और मैं इन्हीं का शायर हूँ
ये लोग कितनी ही सदियों से मुझमें रहते हैं
कि इनका दर्द मिरा दर्द और इनके दुख
किसी नदी की तरह रोज़ मुझमें बहते हैं
 
ये हम पे फ़र्ज़ है इनकी मदद करें हमलोग
वगरना हम भी कभी ज़िंदगी को रोएँगे
समय के रहते अगर हम सम्भल नहीं पाए
बहुत ही जल्द अज़ीज़ों की जान खोएँगे
 
जो मेरी बात न समझी गई तो यूँ होगा
कोई भी साथ नहीं देगा ज़र्द घड़ियों में
कि दिन वो दूर नहीं जब ये बात सच होगी
हमारा गोश्त बिकेगा शहरों की गलियों में
 
जो हम न सोच सकेंगे इन्हीं के बारे में
समाज के लिए फिर और कौन सोचेगा
तमाम मुल्क ही जिस दम यतीम हो जाए
तो ऐसे वक़्त में फिर कौन किसको पूछेगा
 
      

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