मुझे याद है बीसवीं शताब्दी के आख़िरी वर्षों में सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास ‘मुझे चाँद चाहिए’ प्रकाशित हुआ था। नाटकों-फ़िल्मों की दुनिया के संघर्ष, संबंधों, सफलता-असफलता की कहानियों में गुँथे इस उपन्यास को लेकर तब बहुत बहस हुई थी। याद आता है सुधीश पचौरी ने इसकी समीक्षा लिखते हुए उसका शीर्षक दिया था ‘यही है राइट चॉइस’। दो दशक से अधिक हो गए। कवि यतीश कुमार ने मुझे चाँद चाहिए पढ़ा तो उसके सम्मोहन में यह कविता ऋंखला लिख दी। एक ही कृति हर दौर के लेखक-पाठक से अलग तरह से जुड़ती है, इसी में उसकी रचनात्मक सार्थकता है। आप भी पढ़िए- जानकी पुल।
इन कविताओं को समीक्षा नहीं कहेंगे बल्कि किसी रचना का पुनः सृजन कहेंगे ।
अद्भुत लिखा है यतीश आपने…!
अद्भुत !!
कविता 5, 7, 12, 14 और 20 तो कमाल है…
यतीश, आपको पढ़ने के बाद दिल से दुआएँ निकलती है कि आप श्रेष्ठ रचनाकारों में गिने जाएँ… जल्दी ही…
आमीन…!
आपको बहुत बहुत साधुवाद 🌺🌺
आप मोह लेते हैं यतीश जी…पढ़ी हुई किताब का यह पुनर्पाठ है। कथा के साथ कविता इस तरह गुंथ गई है कि नए अर्थ और आयाम नजर आने लगते हैं।
एक पृथक कविता -श्रृंखला रचने के लिए साधुवाद….
आप मोह लेते हैं यतीश जी। पढ़े हुए प्रिय उपन्यास का यह पुनर्पाठ है। कथा और कविता परस्पर इस तरह गूंथ गयी है कि नवीन अर्थ दृष्टिगोचर हो रहा। इस कविता-श्रृंखला के सृजन के लिए आपको साधुवाद!
प्रिय यतीष, इस सृजन के लिए एक चाँद तो आपको भी मिलना चाहिए ! एक साहित्यिक विधा का एक दूसरी विधा में इतना सुन्दर सृजन जैसे एक आत्मा को दो शरीर मिल गए ! आधुनिक कविताओं की सब से अच्छी बात ये है कि वे कविता में कहानी पिरोती हैं, वे सोचने को मज़बूर करती हैं, और कितनी ही नयी उपमाएँ पैदा करती हैं –
बाँटने से दुःख भी मीठा हो जाता है
———–
कलात्मक नींद में
अंतरमनन की आंच
आलोक मंडल बन
सिर के पीछे चमकती है
——-
रंगमंच पर अभिनय से
ज्यादा कठिन है
रंगमंच के लिए संघर्ष
——–
कामनाएं
अधूरी होने के लिए अभिशप्त होती हैं
——–
चांद को छूने की हसरत
और ज़मीन से उखड़ने की शुरुआत
समानांतर प्रक्रिया है
कितना मुश्किल काम है इस तरह लिखना … बहुत अच्छा लगा पढ़ते समय ..किताब को इस अंदाज में बयां करना अपने आप में अनूठा है ..यतीष भाई को लिए इस काम के लिए आनेवाले वर्षों में पुरस्कार मिलना ही चाहिए …प्यार तो बेसुमार मिल ही रहा है उनके शब्दों को
वंडरफुल! सही है, समय के साथ साथ किसी रचना के संदर्भ भी बदल जाते हैं, इसीसे अलग-अलग निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं.
‘मुझे चाँद चाहिए’ पर आपकी कविताओं के टुकड़े अपने पाठ के समय हमको चाँदनी से नहलाने का काम करते हैं।
कलात्मक नींद में
अंतरमनन की आंच
आलोक मंडल बन
सिर के पीछे चमकती है
बहुत ख़ूबसूरत पंक्तियाँ, अब यह किताब पढ़नी होगी। कवि को साधुवाद।
इन कविताओं को समीक्षा नहीं कहेंगे बल्कि किसी रचना का पुनः सृजन कहेंगे ।
अद्भुत लिखा है यतीश आपने…!
अद्भुत !!
कविता 5, 7, 12, 14 और 20 तो कमाल है…
यतीश, आपको पढ़ने के बाद दिल से दुआएँ निकलती है कि आप श्रेष्ठ रचनाकारों में गिने जाएँ… जल्दी ही…
आमीन…!
आपको बहुत बहुत साधुवाद 🌺🌺
आप मोह लेते हैं यतीश जी…पढ़ी हुई किताब का यह पुनर्पाठ है। कथा के साथ कविता इस तरह गुंथ गई है कि नए अर्थ और आयाम नजर आने लगते हैं।
एक पृथक कविता -श्रृंखला रचने के लिए साधुवाद….
आप मोह लेते हैं यतीश जी। पढ़े हुए प्रिय उपन्यास का यह पुनर्पाठ है। कथा और कविता परस्पर इस तरह गूंथ गयी है कि नवीन अर्थ दृष्टिगोचर हो रहा। इस कविता-श्रृंखला के सृजन के लिए आपको साधुवाद!
बहुत खूबसूरत सृजन
प्रिय यतीष, इस सृजन के लिए एक चाँद तो आपको भी मिलना चाहिए ! एक साहित्यिक विधा का एक दूसरी विधा में इतना सुन्दर सृजन जैसे एक आत्मा को दो शरीर मिल गए ! आधुनिक कविताओं की सब से अच्छी बात ये है कि वे कविता में कहानी पिरोती हैं, वे सोचने को मज़बूर करती हैं, और कितनी ही नयी उपमाएँ पैदा करती हैं –
बाँटने से दुःख भी मीठा हो जाता है
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कलात्मक नींद में
अंतरमनन की आंच
आलोक मंडल बन
सिर के पीछे चमकती है
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रंगमंच पर अभिनय से
ज्यादा कठिन है
रंगमंच के लिए संघर्ष
——–
कामनाएं
अधूरी होने के लिए अभिशप्त होती हैं
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चांद को छूने की हसरत
और ज़मीन से उखड़ने की शुरुआत
समानांतर प्रक्रिया है
बहुत सुन्दर! बधाई मित्र !!
कितना मुश्किल काम है इस तरह लिखना … बहुत अच्छा लगा पढ़ते समय ..किताब को इस अंदाज में बयां करना अपने आप में अनूठा है ..यतीष भाई को लिए इस काम के लिए आनेवाले वर्षों में पुरस्कार मिलना ही चाहिए …प्यार तो बेसुमार मिल ही रहा है उनके शब्दों को
मैंने “मुझे चाँद चिहिए” पढ़ा नहीं है पर आप की इस समीक्षा ने उसे पढ़ने की ललक जगादी
ये भावपूर्ण अभिव्यक्तियाँ मन पर छा जाती हैं । विशेषकर १६ से २० तक बहुत अच्छी लगी ।