गीताश्री के उपन्यास ‘वाया मीडिया’ एक अछूते विषय पर लिखा गया है। इसको पढ़ने वाले इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। यह उनके किताब की एक खास समीक्षा है क्योंकि इसे लिखा है वंदना राग ने। वंदना जी मेरी प्रिय लेखिकाओं में हैं और इस साल उनका एक बहुत प्यारा उपन्यास आया है, ‘बिसात पर जुगनू’। आप इस समीक्षा को पढ़िए। कितनी तन्मयता से लिखी गई है- मॉडरेटर
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अनुराधा, अनुपमा,रंजना और शालिनी महज़ लड़कियों के नाम नहीं हैं जो गीताश्री के नए उपन्यास वाया मीडिया में आकार पातीं हैं । बल्कि ये तो उन जांबाजों के नाम हैं जिन्होंने नब्बे के दशक में एक ऐसे महकमे में आमद दर्ज़ की जिसे पितृसत्तात्मक गुरूर के साथ ‘मेल बैस्टियन’ उर्फ़ पुरुषों का क़िला कहा जाता रहा था। एक ऐसा क़िला जिसमें से नित नए अंदाज़ में रोज़ सुबह कागज़ पर अंकित अक्षर, अपने घरों में चाय सुड़कते लोगों के बीच पहुँच देश और दुनिया की ख़बरें बांचा करते थे। यह अखबारों का करिश्माई किला था और पुरुषों से अंटा पड़ा था। यह अपने अंग्रेज़ी कलेवर में गिनती की अभिजात्य स्त्रियों के लिए कुछ सुलभ सा था लेकिन गोबर पट्टी की दुनिया अभी भी उसे ग्लासनोस्त और पेरिस्त्रोयका के साथ स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुई थी, जिसका ऐलान पूरी दुनिया में रूस ने अपने ख़त्म हो जाने के हुनकर के साथ किया था। इसके साथ ही साम्राज्यवाद के नए चलन, ओपन मार्किट इकॉनमी और साम्प्रदायिकतावाद ‘खुला खेल फ़रुक्खाबादी’ की तर्ज़ पर पहले विश्व में और उसके फ़ौरन बाद हैपनिंग ट्रेंड की तरह भारत में पसर गया था। ऐसे में भारत की संस्कारी स्त्रियों के सामने दो तरह की चुनौतियाँ दांत निपोरे उपस्थित हो गयीं थी; विश्व के नए प्रचलनों के साथ अलायन्स करते हुए पितृसत्ता का मुकाबला करना और देश के आज़ाद होने के बाद संविधान द्वारा वैधानिक मान्यता प्राप्त आज़ाद स्त्री के प्रोटोटाइप की छवि को नए तरह से तराश आगे ले जाना।
महानगर में रहने वाली स्त्रियों ने यह चुनौती तो स्वीकारी ही, भारत के कस्बों और छोटे शहरों में रहने वाली स्त्रियों ने भी इस बाबत सपनों को उड़ान देना शुरू कर दिया।
वाया मीडिया उपन्यास की नायिका अनु का जीवन यूँ ही शुरू होता है, “ चलो अनु डिअर …अब बाँध लो अपना बिस्तर ..छोड़ो भूतों के पाँव ,छोड़ो हॉरर फिल्मों सरीखे स्टेशनों की टिमटिमाती रोशनियां ,छोड़ो नाले-नहर का पानी…खेत खलिहान..चमगादड़ो और बंदरों की टोलियाँ..छोड़ो सब चलो , अब वहाँ चलो जहाँ सपनों का उन्मुक्त, खुला और निरभ्र आकाश इंतज़ार में है।”
सबके लिए एक निरभ्र और उन्मुक्त आकाश का वादा सरकार की खुली नीतियों ने कर दिया था.देश खुल गया था और समाज भी अपनी परंपरागत नेहरूवियन कल्याणकारी झिझक छोड़ अपने लिए / व्यक्तिगत सम्पूर्णता के लिए संघर्ष करने को उन्मत्त हो चुका था। चारों ओर नाम, यश और पैसों का सुनहरा जाल बुना जा चुका था, जिसमें से पार पाके ही नयी आइडेंटिटी गढ़ी जा सकती थी और नये भारत की नींव रखी जा सकती थी।
गोबर पट्टी में अख़बारों का मेला उतर आया था और अचानक से पुरुषों के बजाय स्त्रियों को अखबारों के दफ्तर में नियुक्त किया जाने लगा गया था। उपन्यास इसको ठीक से रेखांकित करता है कि कैसे योग्यता के मानदंडों में बिंदास होना, युवा होना और कुछ हद तक कामुक होना उत्तम माना गया और इस तरह की स्त्रियों या इस तरह की महत्वकांक्षी स्त्रियों के लिए अखबारों में रोज़गार के नए दरवाजे धड़ल्ले से खुल गए। ऐसा नहीं था कि इस बीच प्रतिभा का सर्वथा अनादर हुआ, लेकिन प्रतिभाशाली स्त्रियों पर भी ऐसी ही बदिशें लागू की गयीं और सर्विवाल ऑफ़ द फिट्टेस्ट के सिद्धांत पर स्त्रियों से कहा गया कि वे अपने को (डम्ब डाउन कर लें ) कमअक्ली से सजा लें /आक्रामक हो जाएँ या चित्रपट की नायिकाओं का रूप अख्तियार कर लें। और जो नहीं कर पायें वे यह जगत छोड़ कर कुछ सीधा –सादा, अहानिकर सा पेशा अपना लें अथवा शादी कर लें।
अब क्या करें जो अनुराधा, अनुपमा,रंजना और शालिनी अपने –अपने तेवरों और साहसिकों की फितरत संग, अखबारों की इस चौंकाती, चुंधियाती दुनिया में इस दशक में प्रवेश करती हैं? वे नवोन्मेष की चमकती बिजलियाँ हैं। वे छोटे शहरों से आयीं हों या दिल्ली की आबोहवा में पली हों उनके अन्दर महत्वकांक्षा की आग जलती है- जो स्त्री की असल मुक्ति के लिए ज़रूरी है।
लेकिन अफ़सोस यह थियरी में है। असल में तो –भारत में स्त्री मुक्ति के प्रश्न और आयाम अधिक पेचीदे हैं। यहाँ जाति-धर्म और वर्ग की पेचीदगियां से लड़ने के बाद ही स्त्री अपनी पहचान की नींव रखती है। इतनी परतें हैं हमारी सामाजिक संरचना कि उतारते –उतारते कई बार स्त्रियों की ज़िन्दगी हलाक हो जाती है ।
उपन्यास यही बात अपनी नायिकाओं के माध्यम से हमें बार –बार बतलाता है। उपन्यास की पृष्ठभूमि हमें बार-बार चेताती है और आगाह करती है-कि बाजारवाद के छल की शिकार स्त्रियाँ सबसे अधिक होती हैं,फिर वे किसी पेशे में हों कितनी भी प्रतिभाशाली क्यों न हो जाएँ!
“कुर्सी पर बैठे संपादक नाम के प्राणी ने चश्मा उतारा और उसे घूरा ।मानो पूछ रहा हो कि यहाँ क्या खरीदने या क्या बेचने आई हो?”
प्रतिभा /इच्छा /आकांक्षा को रेड्युस करने की यह प्रवृत्ति –“ आज तुम्हें कब्रिस्तान पर एक स्टोरी करनी है । रात में कब्रिस्तान कैसा दीखता है?……..अँधेरा ..वहाँ का माहौल कैसी फंतासी बुनते हैं। हैडिंग होगी- एक रात कब्रिस्तान,” कदाचित पहले भी रही होगी। लेकिन नब्बे के दशक में नवउदारवाद ने उसे एक पुख्ता सी व्यापकता प्रदान कर दी। एक निस्सीम सी वैधता।
पितृसत्तात्मक आत्मविश्वास के अतिरेक से स्त्रियों को बारहा कमतर जताया जाने लगा। भारत में सामंतवादी मूल्यों से पलायन का रास्ता ढूंढती स्त्रियाँ कस्बों से बड़े शहरों में कैरियर बनाने आयीं तो उन्हें पता भी नहीं चला था कि वे कितनी सारी शातिर संरचनात्मक कुटिलताओं की शिकार होने वाली हैं।
जब अनुराधा हरियाणा के गाँवों में भ्रूण हत्या की स्टोरी कवर करने जाती है तो उसे अंडरकवर ही जाना पड़ता है। उनकी सच्चाई उजागर करती रिपोर्टर वह हो नहीं सकती है। गाँव की स्त्रियाँ अपने गम साझा करने से घबराती हैं। पितृसत्ता का आतंक इतना गहरा है कि वे दबे- छिपे ढंग से ही अपने मन की बात कहती हैं, “हम भी अपने मायकेवालों को मना करते हैं ,ईहाँ लड़की न देवो। देखें कैसे करते लड़कों का ब्याह।” ज़ाहिर है इनकी कोख़ लड़कियों से ख़ाली की गयी है। इस दौर के बाद हरियाणा के कई गाँवों में लड़कियां नहीं रहीं और बिहार और उड़ीसा से ग़रीब लड़कियों को खरीद कर लाना पड़ा था वंश बढाने के लिए। अनुराधा कहती है-दुखों की गठरी अपनी पीठ पर लादे औरतों को देखकर मन भर जाता था।
यह उदासी हरियाणा के गाँव से दिल्ली शहर आकर ख़त्म नहीं हो जाती बल्कि अपने अलग कलेवर में नासूर की तरह टीसती रहती है हर दम। अखबार की दुनिया में एक हवस से भरी दौड़ है जो हवस की दौड़ से अधिक बेदम करने वाली है। खबरों के लिए एक दूसरे का इस्तेमाल, खबर छिपाने के लिए करीबी दोस्त से भी दगा आम बात है, बस अनुराधा को ये बातें खास समझ में नहीं आती और वह हर बार दंग रह जाती है- शालिनी की बात हो, “शालीनी समरेश की करीबी थी…कास्ट फैक्टर की बड़ी भूमिका थी” या अनुपमा की छातियों की बात हो जिसे पुरुष सहकर्मी ‘मेरा भारत महान’ के नाम से रेफेर करते थे!
लड़कियाँ काबिल अखबारनवीसों से ज़्यादा,हास-परिहास, दफ्तरों में बीसवीं सदी की ऐतिहासिक खानापूर्ति ड्राइव या सिर्फ दिल बहलाने के साधन के रूप में देखी गयीं उस दौर में। उनको युद्ध राजनीति और सामाजिक मुद्दों से दूर रख फीचर और कला संस्कृति की बीट पर रखा जाता था। “ लड़कियों की अपर स्टोरी ख़ाली होती है…राजनैतिक चेतना नहीं होती…वे विश्लेषण नहीं कर सकतीं .. वे तो .’खाना पकाओ-फुलवारी लगाओ…टाइप रंग- बिरंगे पेज बनायें और शाम को घर जाएँ..।” पुरुष सहकर्मी और संपादक अक्सर फ़तवा पारित करते रहते। ‘अनुपमा यह सुन-सुनकर पक चुकी थी। उसी के सामने उसकी प्रतिभा को, शालिनी की प्रतिभा को ख़ारिज किया जा रहा था।’
कॉस्मेटिक ढंग की सतही ‘तथाकथित’ स्वतंत्रता प्राप्त करना भी लम्बे समय तक कारगर साबित नहीं होता। यह बहुत बाद में समझ में आता लड़कियों को। जैसे ही सिगरेट, शराब और बदन दिखाऊ कपड़ों की नवीनता बीत जाती संपादक और पुरुष सहकर्मी बोर हो जाते और नयी रिपोर्टर्स तलाशने लगते। अख़बारों के इक्कीसवीं सदी के अश्लील बाज़ारीकरण के उन्नत दौर की यह मुकम्मल शुरुआत थी, जिसका विस्फोटक रूप 21वीं सदी में आज हमारे सामने पूरी मक्कारी से उजागर है। उसकी पूर्वपीठिका का दलदल अख़बारों के दफ्तर में तभी से जमा होने लगा था।
एक मार्मिक प्रसंग का ज़िक्र है-“इसका मतलब संपादक की पहले से कोई दिलचस्पी नहीं।किसानों की आत्महत्याएं और उनकी दूसरी समस्याएं उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। उनके लिए तो…पर्यटन विशेषांक ..ज्यादा ज़रूरी था..बिकाऊ माल…।”
“विदर्भ के किसानों की समस्या पर सिर्फ दो पेज की रिपोर्ट!” उसने अनमने भाव से जवाब दिया था।
कायदे से भारतीय समाज स्त्रियों को हक की बात क्यों और कितनी करनी है, कभी भूले से भी नहीं सिखाता है। उस वक़्त तो और भी नहीं सिखाता था। स्त्रियों को खुद ही तलाशने थे अपने हथियार और अपने रास्ते। वाया मीडिया के बहाने गीताश्री उन रास्तों का ज़िक्र करती चलती हैं, जो उनकी नायिकाएं अख्तियार करतीं हैं और आने वाली अख़बारनवीस स्त्री पीढ़ियों के लिए थोड़ी बहुत राहें आसान कर जातीं हैं।
गीताश्री उन्हें हारकर लौट जाने को नहीं कहतीं। वह उन्हें इसी दलदल में कमल की तरह खिलने को प्रेरित करती है। उत्प्रेरक के रूप में कोमल दिल कवि प्रशांत और कभी साथ न छोड़ने वाले मधुकर जैसे पुरुष साथी तो सरे राह मिलते ही हैं, उनके साथ- साथ ख़ासी लड़ाई लड़ने के बाद बहनापे के सुख का असल मतलब समझती,समझाती हुई अख़बारनवीस दोस्त लड़कियां भी मिलती हैं। वे आपस में चर्चा करतीं हैं-“ स्त्रियों की एकता पैट्रिआर्की को किसी भी कीमत पर पसंद नहीं … न परिवारों में ना वर्कप्लेस में। हमारी दुनिया पूरी तरह मेल डोमिनेटिंग है। कंट्रोल्ड बाई मेल्स,रन बाई मेल्स,गवर्नड बाई मेल्स,….मजदूरों में वैसे भी एकता किसे और क्यों बर्दाश्त हो?” यह चिंतन का वक़्त था और शायद ‘कमिंग आउट ऑफ़ द क्लोसेट’ का भी। यानि अपनी सेक्सुअल अस्मिता के आत्मस्वीकार वाली हिम्मत समाज में शायद तभी आई और लड़कियों ने भी लड़कों की तरह अपने समलैंगिक संबंधों को स्वीकारा और उनकी बाबत स्त्रियों के समूह में बातें साझा करने लगीं।
स्त्रियों ने इस चुनौती भरे दौर में भी अपनी ज़िद को मद्धिम नहीं होने दिया। उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा और पुरुषों के तथाकथित आधिकारिक क्षेत्रों में ज़ोरदार दखल किया। उपन्यास में एक जगह बरखा दत्त का ज़िक्र भी है जो करगिल युद्ध में एक योद्धा की तरह डटी रही और सभी लड़कियों को प्रेरित करती रही।
गीताश्री की नायिकायें हतोत्साहित होती हैं यदा-कदा लेकिन फिर भी भी हारती नहीं। “ ज़ेहन रोशन हो तो बाहर के अँधेरे उतना नहीं डराते।”
उपन्यास स्त्री अखबारनवीसों की वस्तुस्थिति को बयां करता चलता है जैसे उस समय और उस क्षेत्र की यह इनसाइडर की आँखों से देखी जाने वाली एक रिपोर्ट हो। यह इस उपन्यास की सच्चाई और अच्छाई भी है और उसकी कुछ हद तक सीमा भी। उपन्यास इस दौर के गंभीर मुद्दों को -बाबरी मस्जिद का गिराया जाना, करगिल युद्ध के राजनैतिक पहलू और उदारीकरण के आयामों में गहरे उतरकर जूझता नहीं है। यह उस दौर की हिंदी पट्टी की स्त्री अख़बारनवीसों की लाचारी को दिखलाता है। इस बाबत उपन्यास में अनेक संकेत मौजूद हैं। लेकिन फिर भी पाठक की उम्मीद कायम रहती है और वह नायिकाओं को लेखिका की तरह पर्याप्त सहेजता है और उन्हें बेनिफिट ऑफ़ डाउट देता चलता है। नायिकाएं अंततः पितृ सत्ता की विक्टिम ही बनी रहती हैं। यह आज खीज पैदा करता है लेकिन यही उस समय की सच्चाई की तरह नश्तर बन चुभता है।
अंत में उपन्यास की नायिकाओं के नाम से सम्बद्ध एक बात भी कहनी ज़रूरी लग रही है- नायिकाओं के नामों का लगभग एक जैसा होना पाठक को विभ्रम में डाल देता है- वह अनुराधा की कहानी पढ़ रहा है या अनुपमा की। इसे बहुत ध्यान देकर पढ़ना होता है।
गीताश्री की भाषा में चिरपरिचित रवानगी है और कथ्य का निर्वाह भी निहायत गतिशील ढंग से कर लेतीं हैं। यह सुखद बात है!
यह पता चला है कि इस उपन्यास की आगे की दो कड़ियाँ अभी लिखी जाने वाली हैं। जिनकी हमें प्रतीक्षा है। कुछ नए जांबाजों से मुलाकात की इच्छा है। जिस तरह उनकी नायिका अनुपमा जीवन के सबसे सुन्दर बसंत की राह देखती है हम भी उनकी अगली कृति की राह उसी शिद्दत से देख रहे हैं।

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उपन्यास वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है।