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जेंडर गैरबराबरी का आईना कोविड- 19

कोविड-19 के काल में घरेलू हिंसा का पहलू उभरकर आ रहा है। इसके ऊपर यह विश्लेषणपरक लेख लिखा है मधु भट्ट ने। मधु बाला जागोरी नामक प्रसिद्ध संस्था में काम करती हैं और महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं- मॉडरेटर

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कोविड- 19 अपने साथ एक महामारी तो लेकर आया ही लेकिन औरतों, लडकियों तथा हाशिए पर रहने वाले लोगो के लिए मौत भी लेकर आया।

लॉकडाउन एक ऐसी प्रक्रिया है जिस में लोगों को सामाजिक दूरी नही बल्कि शारिरिक दूरी बनानी है। यह प्रक्रिया अलग अलग देशो में अलग अलग दिखाई दे रही है। लॉकडाउन का मतलब है घर परिवार में कैद रहो, कहीं आओ जाओ नही पर इस का अर्थ यह नही कि आप अपना सारा बल घर की औरतों पर लगा दो। लॉकडाउन होने को कहा था न कि हुकुम चलाने या अपनी ताकत दिखाने को कही थी। यह भी सच है कि प्रशासन ने लॉकडाउन करते समय क्या औरतों के विषय में सोचा? क्या हम अपनी पितृसत्तामक समाज को यह बता पाए कि औरतें भी बराबर की हकदार हैं। सरकार या प्रशासन को नही मालूम था अपने पितृसत्तामक समाज का चेहरा। क्या नही जानते थे कि औरतें अपने घरो में कैसे जी रही हैं। क्या NCRB का डाटा सरकार के पास नही जहां घरेलू हिंसा के मामले दर्ज हैं।

सरकार ने लॉकडाउन कर दिया ओर सब को घरों में बंद कर दिया ओर ज्यादातर सेवाएँ बंद कर डाली। लेकिन सवाल ये है कि लॉकडाउन किन शर्तो पर किया गया और किन को हिंसा के मुंह में डाल दिया? सरकार ने एक लक्ष्मण रेखा खींच दी औरकहा घर में कैद हो जाओ। कैद होना का मतलब है कि सुविधाओं से वंचित हो जाना। घर के अंदर किस को सबसे पहले सुविधाओं से वंचित होना होगा? इस प्रश्न को विचारना होगा।

क्या सरकार के पास घरों के अंदर के ताने बाने की समझ है।  किसी भी समाज व वहां की व्यवस्थाओं  की समझ में घर की इकाई की समझ होना बहुत जरुरी है। हमारे देश में घर कैसा है? घर में संसाधन क्या है? क्या हर किसी के पास छत है? क्या औरतों के पास निर्णय लेने का हक है? क्या हमारा समाज औरत को बराबर का दर्जा देता है? क्या हमारी व्यवस्थाओं ने सोचा कि परिवार की परिभाषा हमारे देश में क्या है? क्या हमारे रिश्ते बराबरी के हैं? ऐसे कई सवाल हमारे सामने है। भविष्य की राह में इन प्रश्नों का जवाब निकालना बहुत जरुरी है।

ये तो हम ने इच्छा और बेमन से मान लिया कि हम सार्वजनिक स्थलों पर नही जाएँगे ओर सरकार ने मनवा भी लिया। हमने देखा भी कि कैसे लोग घरों के अंदर रह कर सरकार के आदेशो का पालन किया जिन्होने नही किया उन्होने उस का दंड भी लिया। घरेलू हिंसा अधिनियम कानून 2005 में आया पर क्या इसी तरह से उस का भी पालन हुआ।  इस लॉकडाउन में राष्ट्रीय महिला आयोग ने जब यह रिपोर्ट किया कि इस दौरान घरेलू हिंसा के मामले ज्यादा आए तो सब का थोडा ध्यान महिलाओं की तरफ भी चला गया। घरेलू हिंसा हमारे समाज के लिए कोई नई बात नहीं है। बस इस समय फर्क यही था कि पितृसत्तामक ताक़तों को ज्यादा मौका मिला ओर उन्होंने अपने वार महिलाओं पर करना शुरु कर दिया। इस समय इन को रोकने वाला कोई था नही और इन ताक़तों ने इस बात का पूरा फायदा उठाया। कई ओर कारणों से ये ताकतें ज्यादा शाक्तिशाली हुई। जिस समाज में औरत को देवी माना जाए ओर उस से उम्मीद कि जाए कि वह मुंह ना खोले। जिस समाज में वह गाय जैसी हो जिस को पिटा जाए पर वह दर्द की शिकायत ना करें। जब इसी समाज ने उसे चुप रहने और शोषित करने वाले को शोषण के मौके दिए तो अजीब क्या है। इस तरह के लॉकडाउन में इन घटनाओं को बढना ही था।

सवाल यह है कि इस लॉकडाउन करने से पहले सरकार ये सोच पाई कि घरो में जो गैरबराबरी वाले रिश्ते हैं उन रिश्तों की आड  में लॉकडाउन में क्या होगा। आम समय में वैसे भी औरतें अपनी मार की परवाह नही करती उन को लगता है कि हिंसा उनकी नीयति का हिस्सा हैं इसलिए वह हिंसा झेलती हैं। उन को बचपन से यही तो इस समाज ने सिखाया कि पहले दूसरों के लिए सोचो फिर अपने सवाल उठाओ। आम समय में भी औरतें घर के मामलों को कम बाहर ले कर आती है। एक थप्पड, गाली, घमकी, ताने आदि इन सब को मामूली बात मानती है। मामले तब दर्ज होते हैं जब सर से उपर पानी चला जाता है। जो केस लॉकडाउन में आए वह केस वो थे जिनमें साँस लेना मुश्किल था। सोचे अगर औरते हिंसा को छोटा बडा कर के या घर की इज्जत के आईने में ना देखे तो हर थाने में कितने रजिस्टर रोज के भरे जाए ओर कानून को सांस लेने का भी समय ना मिले।

इसी लॉकडाउन में घरो में औरतो को मानसिक तनाव से गुजरना पडा। आम दिनो में जो वह अपना दर्द अपनी सहेली या पडोसन से बांट लेती थी पर इस समय पर वह कहा जाए और  किस को कहे अपना दर्द। अगर घर छोटा है तो कहाँ से माँ को चुपके से फोन करे और अपने हालात बताए। वैसे भी हमारे देश में कितनी औरतों के पास उनके नाम का फोन है। घरेलू हिंसा के मामले इस समय पर उन औरतों के आए जिन 29 प्रतिशत औरतों के पास इन्टरनेट की सुविधा व पहुंच है। जिन औरतों के फोन में पैसा था वही बचाव के लिए फोन कर पाई। बाकि ज्यादातर के पास फोन है, नहीं अगर है तो उस फोन में पैसा डालने को नही है। जब बच्चे भूखे हो तो कोई ओर दर्द सताता नही। खाली पेट रहना भी हिंसा है ओर इस हिंसा की जिम्मेदारी तो प्रशासन को लेनी होगी। आम समय में भी क्या हम जान पाते हैं कि सड़कों और घरों में औरत के पेट में कितना खाना गया, यह तो फिर भी संकट का समय है। अक्सर हम देखते हैं कि परिवार में पुरुष और बच्चे पहले खाना खाते हैं उसके बाद जो बच गया वह औरत के हिस्से में आता है। क्या हम समझ सकते हैं कि इस संकट के समय जब ज्यादातर के पास खाने को नही है ओर राहत के तौर पर जो मिल रहा है उसमे से औरत की थाली तक कितना भोजन पहुंच रहा है। जब घरों में पैसा कम है तो किस की ज़रूरतों को दबा दिया गया है और  भविष्य में किस को प्राथमिकता मिलेगी। जब औरत की थाली में खाना ही नही तो एनिमिया ओर कुषोषण की भी शिकार है। आम समय वाली स्थिति में 53 प्रतिशत औरतों में एनिमिया पाया जाता है और प्रसव के समय पर 74 प्रतिशत के आसपास, शायद हम अब ये अंदाजा लगा सकते हैं कि लॉकडाउन के समय यह प्रतिशत कितना बढा होगा। इस लॉकडाउन में यही नजर आया कि घर जैसी महत्वपूर्ण इकाई के अंदर रहने वाली औरत इस लॉकडाउन में नदारद थी। उसके बारे में कहीं पर कुछ सोचा ही नही गया। जब यह लॉकडाउन हुआ तब प्रशासन ने महिला के मुददे को आपातकालीन सेवाओं में क्यो नही डाला। यह भी तो हो सकता था कि पुलिस विभाग में एक अलग से घरेलू हिंसा से बचाव यूनिट बनता और उस में ऐसी एन.जी.ओ. को शामिल किया जाता जो महिला हिंसा के मुददो पर काम करती हैं ओर इस समय होने वाली धटनाओं को तुरन्त से मदद पहुँचा॰ पाते। अन्य कई ऐसे उपाय थे जिन से औरतों को राहत पहुँचा पाते।

घरेलू हिंसा केवल घर अंदर होने वाली परिस्थितियों से नही उपजती है बल्कि बाहरी तत्व इसमें शामिल होते हैं। हम ये देखते हैं कि औरतें मजदूर हैं। फिर वह घर के अंदर की मजदूरी हो जिसका वेतन उन को मिलता नही वहीं दूसरी तरफ घर के बाहर की मजदूरी जिस में 81 प्रतिशत महिलाए असंगठित हिस्सों में काम रही हैं। उन सब के रोजगार चले गए। बिना वेतन वाली मजदूरी नही गई। वेतन या आय ना होने से भी घर के अंदर हिंसा बढी क्योंकि पहले जब औरत कमा कर लाती थी तो वह घर का काम तो करती थी लेकिन कहीं न कहीं बोलने का थोडा हक परिवार में ले लेती थी लेकिन जब नौकरी गई तो और सवल पैदा हुए कि अब बिन मतलब के वह घर से बाहर नही जा सकती। औरत की गतिशीलता पर अंकुश ज्यादा लगने शुरु हो गए हैं। अगर आय की भी बात करे तो हम पाते हैं कि औरतों की आय पुरुषो के मुकाबले 34 प्रतिशत कम पाई जाती है (ILO के अनुसार)

 कोविड के इस समय पर भी किस को पहले बचाया जा रहा है यह भी एक देखने व समझने का पहलू है। front line worker  की बात करें तो उस में भी ज्यादातर औरतें आती हैं जो निचले पायदान पर काम कर रही हैं उन के लिए कि PPE kit मौजूद नही है। front line worker का वर्गीकरण करें तो हम देख पाएँगे  कि उपर वाले पायदान पर ज्यादातर पुरुष डॉक्टर मिलेंगे क्योकि इस पितृसत्तामक समाज में लड़कों को हर क्षेत्र में मौके ज्यादा मिले। उसके बाद नर्स,सफाई कर्मचारी, आशा वर्कर आदि आते हैं। डॉक्टर पूरे समय मरीज़ों के पास नही होते हैं वह एक समय पर आकर उन का निरीक्षण करते हैं ओर चले जाते हैं। पर मरीज़ों के पास लगातार नर्स,सफाई कर्मचारी, आशा वर्कर इन लोगों का काम होता है ओर इन पदों पर ज्यादातर महिलाएं होती हैं। इन औरेतों के लिए अभी तक कहां है PPE Kit। न घर में सुरक्षा दी गई न ही बाहर। तो हम ये मान लेते हैं कि समाज ओर सरकार को इन की जरुरत सिर्फ अपने फायदे तक के लिए ही है। हम सुरक्षित शहर की बात करते हैं पर हमारे एजेंडा में महिला है ही नहीं।

अगर हम आने वाले समय की बात करें तो शायद हम देख पाएँगे कि कैसे औरतों को अब घर में रहने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। जिस समाज में वैसे ही औरतों की आवाजाही पर रोक टोक है वहां पर अब कोविड के बाद उन पर और चौकसी मौजूद होगी। नौकरियां जाने का खतरा सबसे ज्यादा औरतों को झेलना पड़ेगा क्योंकि घर में अब जो भी बीमार होगा उसकी सेवा के लिए घर की औरत को ही देखा जाएगा। हमारे आँकड़े बताते हैं कि 29 प्रतिशत महिलाएँ ही इन्टरनेट का प्रयोग कर पाती हैं बाकि नही तो इसका साफ मतलब है कि work from home जैसी सुविघा पर हक 71 प्रतिशत औरतों को नहीं है। औरतों के हाथ में अब पैसा नही होगा। इसका एक मतलब यह भी है कि घर  में पैसे की किल्लत के चलते महिलाओं की ज़रूरतों पर अब कम खर्च होगा। दहेज से बचने के लिए जबरदस्ती विवाह और बाल विवाह बढ़ेंगे।

कोरोना के इस भय को इतना फैलाया गया है कि हम भविष्य के बारे में सोच ही नही पा रहे हैं। ज्यादातर का ध्यान नही जा रहा कि इस दौर में औरतों और बच्चियों की हालत ओर बिगडने वाली है। इस समय इस दिशा में भी सोचने की जरुरत है कि हम अपने अघिकारो की बात करें। आज के इस दौर में हमारे रिश्ते बराबरी के कैसे बने इस और ध्यान देना होगा। पुरुषों को सोचने की जरुरत है कि लॉकडाउन सब के लिए है। वह अपनी सत्ता का दुरुपयोग न करें। यही समय है जब हम अपने बच्चों को हिंसा मुक्त वातावरण कैसे बने इसका अभ्यास कर के दिखा सकते हैं। जब पुरुष घर में बच्चो के साथ समय बिता कर, घर का काम कर, अपनी जीवन साथी के साथ प्यार हिस्सेदारी की चर्चा फैला कर ना केवल अपने बच्चो को बल्कि समाज में बराबरी का संदेश फैला सकते हैं। अपने बच्चों के हीरो बन सकते हैं।

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मधु बाला

जागोरी और स्त्री मुक्ति संगठन

 

 

 

 

 
      

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4 comments

  1. बहुत ही सतही विश्लेषण किया है आपने और कही न कही इस मुद्दे को आज सरकार और उनके नीति निर्माता भी सामाजिक व्यवस्था के ढांचे में स्वीकार कर चुके है । क्योंकि वे भी इसके प्रति उतने सम्बेदनशील दिखाई नही पड़ते इसको व्यवहारिक मानते हुए इसको केवल जेंडर इक्वलिटी का मुहिम मात्र समझते रहने की भूल करते रहे है।

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