युवा शायर सीरीज में आज पेश है मोहम्मद मुस्तहसन जामी की ग़ज़लें। जामी, पाकिस्तानी शायरी में एक उभरती हुई आवाज़ हैं। वो आवाज़, जो अपने आप में धूप की नर्मी और बर्फ़ की गर्मी एक साथ समेटे हुए है। वो आवाज़, जो ख़्वाब देखना तो चाहती है मगर जिसे ताबीर की जल्दबाज़ी नहीं है। फ़िलहाल उनकी कुछ ग़ज़लें पढ़िए और लुत्फ़-अंदोज़ होइए – त्रिपुरारि
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ग़ज़ल-1
रूखी-सूखी खा सकते थे
तेरा साथ निभा सकते थे
काट के जड़ इक-दूजे की हम
कितने फूल उगा सकते थे
हम तलवार उठा नहीं पाए
हम आवाज़ उठा सकते थे
ग़ुर्बत का एहसान था हम पर
इक थाली में खा सकते थे
तुम ता’बीर ख़ुदा से माँगो
हम बस ख़्वाब दिखा सकते थे
हम को रोना आ जाता तो
हम भी शोर मचा सकते थे
ख़्वाबों ने जो आग लगाई
उस को अश्क बुझा सकते थे
ग़ज़ल-2
रंग-ओ-सिफ़ात-ए-यार में दिल ढल नहीं रहा
शो’लों की ज़द में फूल है और जल नहीं रहा
वो धूप है कि पेड़ भी जलने पे आ गया
वो भूक है कि शाख़ पे अब फल नहीं रहा
ले आओ मेरी आँख की लौ के क़रीब उसे
तुम से बुझा चराग़ अगर जल नहीं रहा
हम लोग अब ज़मान-ओ-ज़माना से दूर हैं
या’नी यहाँ पे वक़्त भी अब चल नहीं रहा
तू ने कभी आँखों से बहाए नहीं आँसू
तू ने कभी दरियाओं को बहता नहीं देखा
फिर यूँ है कि सूरज को नहीं जानता वो शख़्स
जिस ने मिरे आँगन का अँधेरा नहीं देखा
करते हैं बहुत बात ये वीरानी-ए-दिल की
उन लोगों ने शायद मिरा हुलिया नहीं देखा
गो गर्दिश-ए-दौराँ में हैं दिन-रात मगर याँ
है ऐसी सियाही कि सवेरा नहीं देखा
उस शख़्स को आया नहीं मिलने का सलीक़ा
उस शख़्स ने इस साल भी मेला नहीं देखा
ग़ज़ल-3
खेत ऐसे सैराब नहीं होते भाई
अश्कों के सैलाब नहीं होते भाई
हम जैसों की नींद थकावट होती है
हम जैसों के ख़्वाब नहीं होते भाई
ज़िंदा लोग ही डूब सकेंगे आँखों में
मरे हुए ग़र्क़ाब नहीं होते भाई
अब सूरज की सारी दुनिया दुश्मन है
अब चेहरे महताब नहीं होते भाई
इन झीलों में परियाँ रोज़ उतरती हैं
आँखों में तालाब नहीं होते भाई
सोचें हैं जो दौड़ दौड़ के थकती हैं
थके हुए आ’साब नहीं होते भाई
अब सोच रहे हैं यहाँ क्या क्या नहीं देखा
निकले जो तिरी सम्त तो रस्ता नहीं देखा
तू ने कभी आँखों से बहाए नहीं आँसू
तू ने कभी दरियाओं को बहता नहीं देखा
फिर यूँ है कि सूरज को नहीं जानता वो शख़्स
जिस ने मिरे आँगन का अँधेरा नहीं देखा
करते हैं बहुत बात ये वीरानी-ए-दिल की
उन लोगों ने शायद मिरा हुलिया नहीं देखा
गो गर्दिश-ए-दौराँ में हैं दिन-रात मगर याँ
है ऐसी सियाही कि सवेरा नहीं देखा
उस शख़्स को आया नहीं मिलने का सलीक़ा
उस शख़्स ने इस साल भी मेला नहीं देखा
जानकीपुल ब्लॉग न सिर्फ़ अदब की मौजूदा हवा में सांस लेने का मौका फराहम कराता है बल्कि लफ्ज़ की दुनिया से जुड़ जाने के लिए मजबूर भी करने लगता है.