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नियति का अर्थ है पैतृकता की पहचान

   कैलाश दहिया आजीवक विचारक हैं और अपने इस लेख में उन्होंने नियति के सिद्धांत पर विचार करते हुए धर्मों में स्थापित भाग्यवाद की तार्किक आलोचना की है। एक ज्ञानवर्धक लेख पढ़ा इसलिए साझा कर रहा हूँ- जानकी पुल।

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भारतीय चिंतन जगत में ‘जन्म’ को ले कर बड़ी बहस चली है। इस में सीधे-सीधे दो पक्ष बन गए। एक वे हैं जो जन्म को ले कर कहते हैं कि यह इन के हाथ में है कि कौन कहां पैदा होगा। ये जन्म लेने को पूर्व या पीछे की घटनाओं का परिणाम मानते हैं। इस के लिए इन्होंने पुनर्जन्म की शब्दावली खड़ी की है। इस में यह अगले और पिछले जन्मों के हिसाब – किताब रखते हैं। इस के लिए ये तरह-तरह के कर्मकांड करते हैं, जिसे ये कर्मवाद, कर्मफल, कर्मविपाक आदि कहते हैं। जन्म लेने की इस पुनर्जन्म की प्रक्रिया को मानने वालों में ब्राह्मण, बौद्ध और जैन धर्मों के लोग हैं‌ इन्हें द्विज भी कहते हैं।

उधर, दूसरे वे लोग हैं जो इस तरह की किसी भी बकवास को नहीं मानते। द्विजों के पुनर्जन्म के सिद्धांत का खंडन करने वाले आजीवक हैं, जिन्हें आज की शब्दावली में दलित कहा जा रहा है। आजीवकों की स्पष्ट मान्यता है कि जन्म निश्चित है – गर्भ निश्चित है। अर्थात जिन माता-पिता के माध्यम से हम पैदा होते हैं वे निश्चित होते हैं। यानी, जन्म होना एक निश्चित प्रक्रिया है, जो नियत है। इसी नियत से ‘नियति का सिद्धांत’ सामने आता है। इस में यह भी बताना है कि जन्म के बाद का जीवन व्यक्ति के हाथ में है, जिस में वह जो चाहे कर सकता है। नियति के सिद्धांत के प्रतिपादक मक्खली गोसाल थे।

गोसाल का नियति का सिद्धांत क्या है? चूंकि, द्विज पुनर्जन्म में विश्वास की अपनी धार्मिक शब्दावली खड़ी करते हैं, तब गोसाल क्या कहते हैं? वे कहते हैं- “पुनर्जन्म नहीं होता। उनका पहला सूत्र है – नो धम्मो त्ति। उन का दूसरा सूत्र है – नो तवो त्ति। उन का तीसरा सूत्र है – नत्थि पुरिस्कारे। ऐसा कोई धर्म नहीं है जो तुम्हें मरने के बाद अमुक योनि में पैदा कर देगा;  ऐसा कोई तप नहीं है जो तुम्हें मरने के बाद अमुक योनि में पैदा कर देगा; ऐसा कोई पुरस्कार नहीं है जो तुम्हें मरने के बाद पुनर्जन्म के रूप में मिलने वाला है। तभी पुनर्जन्म को हटा कर मक्खलि गोसाल ने  ‘नियति’ का शब्द दिया है।”(१) तो, जैसा कि बताया गया है नियति जन्म की निश्चितता से है।

नियति को लेकर आजीवक विरोधियों ने भारतीय चिंतन जगत में भ्रम खड़ा कर रखा है। ये इसे भाग्य – भाग्य कह कर इस की आलोचना करते हैं। और किस की कही जाए, खुद बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर इन के झांसे में आए हुए हैं। उन्होंने नियति के बारे में लिखा है – “एक दूसरी विचार-धारा का नाम था नियतिवाद। इसके मुख्य उपदेशक का नाम था मक्खली गोसाल। उसका मत एक प्रकार का भाग्यवादी अथवा पूर्व निश्चयवादी था। उसकी शिक्षा थी कि न कोई कुछ कर सकता है और न होने से ही रोक सकता है। घटनाएं घटती हैं। कोई अपनी इच्छा से उन घटनाओं को घटा नहीं सकता है। न कोई दुःख को दूर कर सकता है और न कोई उसे घटा – बढ़ा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को सांसारिक अनुभवों से गुजरना ही पड़ता है।”(२) इस के आगे डॉ. अंबेडकर लिखते हैं, ‘यदि गोसाल का सिद्धांत ठीक मान लिया जाए तो आदमी भाग्य का दास बन जाता है। वह अपने को उससे मुक्त नहीं कर सकता।'(३) आगे डॉ. अंबेडकर बताते हैं, ‘मक्खली गोसाल ने स्वीकार किया कि हर घटना का कारण होना चाहिए। लेकिन वह प्रचार करता था कि कारण आदमी की शक्ति से बाहर किसी ‘प्रकृति’ किसी ‘आवश्यकता’ किसी निहित नियम अथवा किसी ‘भाग्य’ में ही खोजना चाहिए।'(४) देखा जा सकता है डॉ. अंबेडकर किस प्रकार भ्रम के शिकार हो गए हैं। पूछा जाए, डॉ. अंबेडकर अपने जन्म लेने; अपने छोड़िए क्या किसी के भी जन्म लेने के बारे में कुछ बता सकते हैं? जन्म लेना ऐसी प्राकृतिक घटना है जो नियत होते हुए भी कोई इस के बारे में नहीं बता सकता।

आजीवकों का तो यहां तक कहना है विज्ञान भी इस विषय पर मौन है। जिस दिन विज्ञान किसी के पैदा होने के बारे में पहले से कोई निश्चित घोषणा कर देगा उसी पल से आजीवक अपने नियति के सिद्धांत को विज्ञान के अनुरूप ढाल लेंगे। लेकिन, अभी तो विज्ञान ही नियति के अधीन है। महान मक्खलि गोसाल के ढाई हजार साल पहले दिए गए सिद्धांत में अभी तक तो किसी तरह का कोई बदलाव नहीं आया है‌ यह ज्यों का त्यों खरा है। तब डॉ. अंबेडकर के नियति की आलोचना करने के जो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं, वे हैं :

1. डॉ. अंबेडकर को नियति का सिद्धांत समझ ही नहीं आया और भी पूर्व प्रचलित अवधारणाओं के शिकार हो गए।
2. डॉ. अंबेडकर को बुद्ध को छोड़ कर सभी की आलोचना करनी ही थी।
3. यह उन की धर्मांतरण की रणनीति थी। गोसाल की मानते ही उन्हें रैदास और कबीर को मानना पड़ता। जो शायद उन्हें स्वीकार नहीं था।
4.रैदास और कबीर की मानने से दलितों का नेतृत्व उत्तर भारत, विशेषतः चमारों  के हाथ में चला जाता। यह डॉ. अंबेडकर को स्वीकार नहीं था। वह पहले ही चमारों के सर्वमान्य नेता स्वामी अछूतानंद और बाबू मंगू राम को नकार चुके थे।
5. फिर, अगर डॉ. अंबेडकर नियति को समझ गए थे तो भी जिस तरह से तीस के दशक में वे बौद्ध होने का निर्णय ले चुके थे। वहां से उन का वापस लौटना संभव नहीं था।
इन सब कारणों के चलते डॉ. अंबेडकर ने नियति पर जो बोला है वह बेहद आपत्तिजनक है। आजीवक ऐसी किसी की भी समझ पर सवाल ही सवाल खड़े कर सकते हैं। यहां एक बात और बतानी है कि द्विजों की देखा – देखी डॉ. अंबेडकर ने गोसाल के प्रति जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया है वह सही नहीं मानी जा सकती।

बाबा साहेब डा. भीमराव अंबेडकर ने नियति को भाग्य बता कर जो लिखा है और आगे उस की जो व्याख्या की है उस पर डॉ. धर्मवीर बताते हैं – “नियतिवाद के नाम से मक्खलि गोसाल का यह कहना बिलकुल ठीक था कि अपना जन्म लेने के बारे में न कोई कुछ कर सकता है और न ही उसे होने से रोक सकता है‌। जन्म की घटना होती है- कोई स्वेच्छा से उस घटना को घटा नहीं सकता। बाबा साहेब को मक्खलि गोसाल की नियति को ले कर यहीं तक सीमित रहना चाहिए था। आगे जो उन्होंने fatalism और determinisim  (पूर्व निश्चयवाद) की शब्दावली का प्रयोग किया है, वह ठीक नहीं है। नियति को जन्म लेने की घटना से आगे बढ़ाना ही अनुचित है अन्यथा यह वृद्धि- प्राप्त दोष के तर्क से ग्रस्त हो जाती है।”(५) असल में,  द्विज पुनर्जन्म की झूठी बहस खड़ी कर रहे थे और उस के लिए कर्म- फल और कर्म- विपाक की शब्दावली गढ़ रहे थे। महान मक्खली गोसाल ने उसे नियति के द्वारा काट दिया था।

दरअसल, ‘आजीवक दर्शन की नियति पुनर्जन्म के खण्डन को ले कर अपना अर्थ ग्रहण करती है। नियति है – अर्थात पुनर्जन्म नहीं है – नियति को इसी रूप में समझा जाना है। जब भी ‘नियति’ शब्द का प्रयोग किया जाए, समझ लो, यह तब तक पूरे और सच्चे अर्थ वाला नहीं है जब तक इसे ‘पुनर्जन्म नहीं है’ न माना जाए। ‘नियति’ न कहो ‘पुनर्जन्म नहीं है’ कह दो – एक ही बात है। अंतर यही है कि आजीवक दर्शन की नियति में पूर्व कर्म, पुराकृत कर्म, पूर्वभव और पूर्वभव के पाप- पुण्य तथा उन से जुड़े पुरुषार्थ और क्रिया का कोई स्थान नहीं है।'(६)

हम पुनः आते हैं बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर की बात पर, जो कह रहे हैं, ‘उसका (मक्खलि गोसाल) मत था कि न कोई कुछ कर सकता है और न होने से रोक सकता है। घटनाएं घटती हैं। कोई अपनी इच्छा से उन घटनाओं को घटा नहीं सकता है।'(७) पूछा जाए, गोसाल क्या गलत कह रहे हैं? प्रखर आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर बताते हैं- “यह भी सही है कि मक्खलि गोसाल के अनुसार जन्म लेने की घटना का कारण होना चाहिए, लेकिन वह कारण मनुष्य के जानने की शक्ति से बाहर है। वह प्रकृति, आवश्यकता, वस्तुओं के आंतरिक नियमों या इसी तरह की अन्य चीजों का हो सकता है। तब, गोसाल सही तो कह रहे हैं कि अपने जन्म लेने के मामले में कोई आदमी क्या कर लेगा? कौन मनुष्य अपना जन्म खुद ले रहा है? कौन अपने जन्म को बदल सकता है कि वह अमुक मां-बाप के घर जन्म न ले या अमुक मां बाप के घर जन्म लेगा? अपने जन्म को बीच में रोक देगा यह जान कर कि वह अकबर के घर में जन्म नहीं ले रहा है?”(८) उधर, डॉ.अंबेडकर लिख रहे हैं – “सुमेध नाम का एक बोधिसत्व उसके (महामाया) सामने प्रकट हुआ और बोला, मैंने अपना अंतिम जन्म पृथ्वी पर धारण करने का निश्चय किया है, क्या आप मेरी माता बनना स्वीकार करोगी?”(९) अब पूछा जाए, डॉ. अंबेडकर सही हैं या मक्खलि गोसाल? निश्चित ही गोसाल सही ठहरते हैं, क्योंकि, ‘चिकित्सा विज्ञान के प्रोफेसर एस.एम. बोस ने अपनी पुस्तक ‘कैंसर’ में यही उद्धृत किया है कि you cannot choose your parents  (अर्थात) आप अपने माता-पिता का चुनाव नहीं कर सकते।'(१०)

अगली बात, जन्म के बाद का बाकी का जीवन मनुष्य के हाथ में है, तब वह क्या नहीं कर सकता? वह समुद्र की गहराइयों से लेकर यूनिवर्स में नित नई खोजों में जुटा ही है। यही नियति का विज्ञान में विकास भी है। लेकिन, जब कोई पूछ कर गर्भ में आ सकता है, तब विज्ञान की आंखें मूंद जाती हैं। विज्ञान की सारी संभावनाओं पर रोक लग जाती है। पुनर्जन्मवादियों ने इस देश के साथ ऐसा ही दुर्व्यवहार किया है, फिर चाहे वह बुद्ध हों,  ब्राह्मण हो या महावीर। पूछना यह है कि डॉ. अंबेडकर कैसे बुद्ध के बहकावे में आ गए?

बताना यही है – “आजीवकों की नियति का ब्राह्मणों, बौद्धों और जैनियों के भाग्य और उनकी मजबूरी से कोई रिश्ता नहीं है। ब्राह्मण, बौद्ध और जैन जिसे पुनर्जन्म के सिद्धांत से जोड़ कर धर्म- कर्म और कर्म- विपाक कहते हैं, आजीवकों की नियति का उससे कुछ भी लेना – देना नहीं है। आजीवकों का कर्म लौकिक है और संतान के पालन- पोषण से जुड़ा हुआ है। इसलिए, आजीवकों  को ब्राह्मणों के मोक्ष, बौद्धों के निर्वाण और जैनियों के कैवल्य की प्राप्ति की आवश्यकता नहीं है। इनकी प्राप्ति के लिए उन्हें संन्यासी, भिक्षु और मुनि बनने की भी जरूरत नहीं है।

आजीवक लोग लौकिक जगत में एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य की दासता के बंधन से काटते हैं। कोई व्यक्ति, कोई समूह, कोई वर्ग दूसरे व्यक्ति, समूह या वर्ग का दास नहीं रहेगा – यही आजीवकों की मोक्ष, निर्वाण और कैवल्य की पारलौकिकताओं के मुकाबले में लौकिक स्वतंत्रता है।… कायरता, समझौता और मजबूरी नियति से अलग चीजें हैं।”(११) ऐसे में, बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर से पूछना तो बनता ही है कि वे कैसे नियति को भाग्य से जोड़ रहे हैं?

नियति का अर्थ चूंकि जन्म से है अर्थात माता-पिता के निश्चितता से, कोई भी अपना जन्म लेना खुद निर्धारित नहीं कर सकता। जन्म- जन्मांतर के लिए ब्राह्मण, बौद्ध और जैन जो  कर्मकांड करते हैं वह झूठ और महाझूठ है। कोई अपना जन्म भला कैसे निर्धारित कर सकता है? हां, कौन किस के गर्भ से उत्पन्न होगा यह निश्चित है,  यह भी निश्चित है कि किस माता-पिता के माध्यम से पैदा होगा। इस में अगली बात जो बतानी है वह यह है, कि कोई इसे जान नहीं सकता और ना ही कोई इसे बता  सकता। फिर, इस में जो बात सामने आती है वह  है पिता की वैधानिकता। पिता वैधानिक होगा या जार?

कोई बालक जिस पिता से पैदा हुआ है, वह उस नाम और पहचान  को सारी दुनिया को बताना चाहता है। पिता भी अपनी संतान के बारे में गर्व से घोषणा करता है। यही नियति है। जार बाप की पैदाइश अपने पिता की पहचान के लिए लड़ती रहती है, फिर चाहे वह कर्ण हो या शरण कुमार या रोहित शेखर। यानी, वह ऐसे पैदा होने के खिलाफ लड़ती है। चूंकि नियति निश्चित है, उधर, जारकर्म से पैदा औलाद अपने जार बाप के खिलाफ लड़ती है यानी वह नियति नहीं है‌। अर्थात, जारकर्म से पैदाइश नियति नहीं है‌। इसीलिए जारकर्म के खिलाफ आजीवक चिंतन में महासंग्राम है। डीएनए टेस्ट की मांग इसी नियति का विस्तार है। पुनर्जन्मवादी या कर्मकांडवादी भला क्यों डीएनए टेस्ट होने देंगे? क्योंकि, ये अपने कर्मकांड से किसी का जन्म करवाते फिरते हैं। और  तो और, ये अगले-पिछले जन्मों की श्रृंखला बनाते हैं। इन्हें भला औरस या जारज संतान के पैदा होने से क्या फर्क पड़ता है। फिर, संतान के लिए तो वही लड़ता है जो नियति को मानता है, जो यह मानता है कि वैवाहिक पति- पत्नी के माध्यम से ही संतान पैदा होनी है।

देखा जाए तो नियति का मतलब ही पिता की पहचान से है। इसीलिए, अक्करमाशी अपने जार बाप को खोजता है। यह जार बाप अपनी जिम्मेदारियों से बचता फिरता है। वेश्या से उत्पन्न बच्चों का दुख क्या होता है? उन का दुख यही तो है कि वे अपने पैदा करने वाले को जानना चाहते हैं। लेकिन वेश्या किस का नाम बताए, क्योंकि, एक रात में वह कितनों के साथ सोती है यह वह खुद ही नहीं जानती। ऐसे में वेश्या से पैदा लड़के का मानसिक विकास भाडू और दलाल के रूप में होता है। जो थोड़ा ठीक- ठाक रह जाता है वह अपने बाप को ढूंढता फिरता है, ताकि उसे सबक सीखा सके।

उधर, जारिणी को पता रहता है कि उस ने किस से संतान पैदा की है। वह इस बात पर इतराती भी है कि ‘प्रकृति ने उसे ही यह जानने की शक्ति दी है कि वह बता सके गर्भ का पिता कौन है।’ लेकिन, विज्ञान प्रकृति से एकाकार होकर चलता है। विज्ञान अपने ढंग से प्रकृति को अनावृत करता है, तभी विज्ञान डीएनए की खोज में मनुष्य की मदद करता है। यानी नियति का सिद्धांत एकदम खरा है। अब जार कैसे बचेगा भला? उसे अपने जारकर्म की पैदाइश के साथ जारिणी का भी भरण – पोषण करना पड़ेगा। इस रूप में आजीवकों  का ‘जारकर्म पर तलाक’ नियति का ही विस्तार ठहरता है‌। क्योंकि, जिस ने भ्रूण को उत्पन्न किया है वही उसका पालन-पोषण करें। इस रूप में ही आगे के सारे कानूनों का निर्माण होता है, यानी नियति का सिद्धांत आजीवकों की विजय का झंडा बुलंद करता आया है। यूं समझिए,  महाशिला खंडों के संग्राम की हमारी विजय का नगाड़ा बजा हुआ है, जिसे जारकर्म समर्थकों ने महाभारत के नाम पर छुपा दिया था।

बताया जाए, महाशिला खंडों का संग्राम नियतिवादियों और पुनर्जन्मवादियों के बीच हुआ था। इस युद्ध में खुद मक्खलि गोसाल ने हिस्सा लिया था और वे रणक्षेत्र में मारे गए थे। एक तरह से यह युद्ध औरस संतान के पक्षधर और जारकर्म के समर्थकों के बीच हुआ था। आचार्य महाप्रज्ञ ने बताया है, ‘महाशिलाकंटक संग्राम में चौरासी लाख तथा रथमुसल संग्राम में छियानवें लाख- कुल मिलाकर एक करोड़ अस्सी लाख मनुष्य मारे गये।'(१२) बाद में एक  अक्करमाशी ने असली युद्ध को छुपा कर महाभारत नाम से पुराण लिख दिया। जिस में जारकर्म की परंपरा को विजयी दिखा दिया गया। इस से देश गलत दिशा में ही बढ़ना था। यह भी बताया जाए, आचार्य महाप्रज्ञ ने गोसाल का मृत्यु वर्ष 543 ईसा पूर्व तय किया है, यानी यही वह समय है जब महा शिलाखंडों का संग्राम हुआ था।

बताना यह है कि द्विज धर्मों ने अपराधियों, बलात्कारियों, जारों, वेश्याओं, हत्यारों को अपने शरणागत किया है‌। इतना ही नहीं इन्हें बचाने का ही दर्शन भी दिया है। लेकिन स्वतंत्रता के बाद से देश के कानून नियति के हिसाब से बनते जा रहे हैं। और आगे भी इसी दिशा में बढ़ने हैं। जिन में अपराधी को दंड दिया जाना है, फिर चाहे वह अंगुलिमाल हो या आम्रपाली। यह तो बिल्कुल नहीं सुना जाना कि ‘चाहे निन्यानवे अपराधी छूट जाए एक निरपराधी को सजा नहीं होनी चाहिए।’ आजीवकों का कहना है निन्यानवे अपराधियों को सजा हो। एक निरपराधी को इस चक्कर में अगर सजा हो जाती है तो वह इतनी नुकसानदायक नहीं है जितनी अभी ये निन्यानवे अपराधी छुट्टे घूम कर देश और समाज को पहुंचा रहे हैं।  जार ही हैं जो नियति से डरे – छुपे घूम रहे हैं।

यूं भी कहा जा सकता है कि नियति का सिद्धांत मानव के विकास की प्रक्रिया से जुड़ा है। जैसे राज्य और कानूनों का उदय होता है, उसी के साथ, बल्कि उस से पहले परिवार का उदय होता है। इसी में वैधानिक संतान उत्पत्ति का सिद्धांत नियति के रूप में सामने आता है। यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि गोसाल ने नियति के रूप में दुनिया को अनुपम सिद्धांत दिया है। इस संदर्भ में डॉ. धर्मवीर ज्यां पाल सार्त्र के माध्यम से बताते हैं – “यूरोप का अस्तित्ववाद भी इस सोच को लेकर आगे बढ़ता है कि कोई व्यक्ति यहूदी पैदा हुआ है या अश्वेत पैदा हुआ है या फ्रेंच पैदा हुआ है या अपंग पैदा हुआ है। इस घटना को प्रश्नों के घेरे में नहीं लिया गया है कि कोई यहूदी पैदा क्यों हुआ है, या अश्वेत पैदा क्यों हुआ है, या फ्रेंच पैदा क्यों हुआ है या अपंग पैदा क्यों हुआ है? यदि उन से ( ज्यां पाल सार्त्र) जोर देकर पूछा जाए कि इन प्रश्नों का उत्तर दिया जाए तो वह क्या उत्तर देंगे। एक बात निश्चित है कि उन में से कोई भी यह उत्तर नहीं देगा कि उस व्यक्ति के पूर्वजन्मों के कर्मफलों  के कारण उस का ऐसा जन्म हुआ है। यह उत्तर न होने की वजह से उन का दूसरा उत्तर शेष बचता है वह यही है जो भारत में आजीवकों ने पुनर्जन्मवादियों को दे रखा है – अर्थात पुनर्जन्म का खंडन करते हुए नियतिवाद का। इस दृष्टि से पूरा पाश्चात्य दर्शन नियतिवाद ठहरता है।”(१३) इसी नियतिवाद से जन्म के बाद की भेदभाव पर टिकी व्यवस्थाओं से लड़ने का रास्ता खुलता है। नियति ही नई खोजों की तरफ बढ़ जाती है।

लौकिक जीवन में नियति का विकास संघर्ष और महासंग्राम में होता है। चूंकि, किसी का पैदा होना नियति के अधीन है, ऐसे में कोई किसी व्यवस्था के चलते गुलाम या दास पैदा होता है तो नियति उसे संघर्ष और महासंग्राम करने से नहीं रोकती‌।  यह नियति का ही विकास था कि मक्खलि गोसाल रण में उतरे हैं। उन्होंने इस देश के सबसे बड़े युद्ध में भाग लिया था, जिसे महा शिलाखंडों का संग्राम नाम से जाना जाता है। यह युद्ध जारकर्म के पक्षधरों के खिलाफ था, जो  पुनर्जन्म के खोल में छुपते हैं। जैसा की बताया गया है,  वर्णवादियों ने महाभारत नाम से पुराण ही नहीं रचा बल्कि इस में ‘बीजक’ के मूल सवाल को भी छुपा दिया गया। और, जारवादी- वर्णवादियों को विजयी दिखा दिया गया। इसे यूं समझें, शरण कुमार जारकर्म की पैदाइश हैं। क्या यह इनकी नियति है, लेकिन ऐसी संतान की उत्पत्ति को वैधानिक, कानूनी या सामाजिक मान्यता नहीं मिलती। लेकिन इस में शरण कुमार का कसूर तो नहीं माना जा सकता। इस में अगली बात जो होती है वह है अपने अधिकारों के लिए संघर्ष या लड़ाई की। शरण कुमार के जो अधिकार बनते हैं वह इस के जार बाप के खिलाफ बनते हैं। जो इन्हें पैदा कर के भाग खड़ा हुआ। ऐसे में आजीवक चिंतन में नियति का विकास कानून निर्माण की दिशा में बढ़ जाता है कि ऐसी संतान के क्या अधिकार होंगे। यूं, ‘आजीवक  धर्म अच्छे और बुरे  को इसी जन्म में पुरस्कार और दण्ड के रूप में मान्यता देता है‌। इसलिए ,आजीवक धर्म का सारा जोर राज्य और कानून पर होता है। आज के संदर्भ में वह संसद और सुप्रीम कोर्ट को मान्यता देता है।'(१४) उधर पुनर्जन्मवादी ऐसे अपराध और अन्य अपराधों पर स्वर्ग – नरक का भय दिखा कर अपराधी को दंड से बचाते रहे हैं। यहां पूछा जा सकता है, बलात्कार से उत्पन्न संतान की क्या यह नियति होती है? जवाब में यही कहना है  कि बलात्कार जघन्य अपराध है और नियति अपराधों के सख्त खिलाफ है। इसलिए जारकर्म और बलात्कार से पैदा संतान को उन की नियति नहीं  माना जा सकता।

देखा जा सकता है, दुनिया का हर व्यक्ति नियति के अधीन है‌। हां, पुनर्जन्मवादी इस के दायरे से बाहर हैं। वे कर्म – कांड, कर्म – फल और कर्म – विपाक आदि ऐसी अप्राकृतिक गतिविधियों से पैदा होते रहते हैं। यहां तक कि वे पूछ कर गर्भधारण करते हैं। बताइए, डॉ. अंबेडकर जैसे तार्किक व्यक्ति पुनर्जन्मवादियों के चक्कर में आए हुए हैं। अंबेडकर पूछते हैं :
“क्या भगवान बुद्ध पुनर्जन्म में विश्वास करते थे?
उत्तर “हां” में है।”(१५)
अब ऐसे धर्म का दलित क्या करें? यहां एक बात ध्यान देने योग्य यह भी है कि पुनर्जन्म का सिद्धांत आक्रमणकारी और घुसपैठिए आर्यों के दिमाग की उपज है। जबकि नियति का सिद्धांत इस देश के मूल निवासी के दिमाग की देन है।

डॉ. अंबेडकर जानते थे कि महारो को छोड़ कर दलितों द्वारा बुद्ध पर सवाल ही सवाल खड़े किए जाने हैं। ऐसे में वह पहले ही लिख गए, ‘कोई भी ऐसी बात जिसका व्यक्ति (कायदे से यहां भिक्खु लिखा जाना चाहिए) के कल्याण से कोई संबंध नहीं, यदि भगवान बुद्ध के सिर मढ़ी जाती हैं, तो उसे ‘बुद्ध वचन’ स्वीकार नहीं किया जा सकता।'(१६) आज नवबौद्ध इसी तिकड़म में लगे हुए हैं। लेकिन खुद डॉ. अंबेडकर बुद्ध के पुनर्जन्म का समर्थन कर रहे हैं, उस का क्या करें?

नियति का विस्तार जाति में होता है। जब माता-पिता निश्चित हैं तो अगला कदम जाति की निश्चितता में होता है। माता-पिता चमार हैं तो संतान भी चमार ही होनी है। चमार की संतान ब्राह्मण या क्षत्रिय तो हो नहीं सकती, इस अर्थ में नियति व्यक्ति की पहचान बन जाती है। नियति का अर्थ ही पिता की पहचान से है। पिता की पहचान का अर्थ पिता की जाति से है। अब जो ‘जाति तोड़ो’ का नारा लगाते हैं, समझ जाइए वह नारा खोखला है। कोई भला अपने बाप की पहचान क्यों मिटाने लगा? जाति तोड़ो का नारा अगर दलित की तरह से आता है तो यह इसकी हीनता को दर्शाता है और द्विजों की तरफ से ऐसा नारा अपने जारकर्म को ढकने के लिए गढ़ा गया है। जब किसी का भी नियति के माध्यम से जाति विशेष में पैदा होना नियत है, तब उस को ले कर कैसी हीनता?

ध्यान रहे, नियति का अर्थ केवल पैदा होने को ले कर है। यह निश्चित होते हुए भी किसी के हाथ में नहीं है। चूंकि, ब्राह्मण ने जाति अर्थात नस्ल को कर्म में रूढ़ कर दिया है, जिसे ले कर लोगों को जाति को समझने में दिक्कत आती है। लेकिन, इसे खुद ब्राह्मण के उदाहरण से समझा जा सकता है। ब्राह्मण का पैदा होने पर क्या जोर? वह ब्राह्मण के रूप में ही पैदा होता है, और आज के संदर्भ में वह विभिन्न पेशों में संलग्न भी होता  है। यह अलग बात है कि इस ने जिन पेशों यानी कर्मों को नीचा घोषित किया है उन्हें यह अभी भी नहीं करता। बावजूद इस के ब्राह्मण मजदूर हो सकता है और अधिकारी भी। यह सैनिक भी हो सकता है और उच्च अधिकारी भी। लेकिन यह कुछ भी हो रहता ब्राह्मण ही है, यह किसी भी हालत में चमार नहीं हो सकता।  इधर, चमार क्या करे?

चमार को जिस कर्म से रूढ़ कर दिया गया उसे ब्राह्मण ने हीन घोषित कर दिया। अब हीनता के मारे कुछ चमार कुछ और होने को तड़पते रहते हैं। वह बाकायदा जाति तोड़ो आंदोलन चलाते हैं। कुछ चमार आरक्षण के चलते बड़े अधिकारी बन जाते हैं तो जाति छिपाते फिरते हैं। यहीं वे अपनी नियति से कट जाते हैं, और मारे जाते हैं। क्योंकि, नियति से आप बच नहीं सकते। आप की जाति तो नियति है, फिर इस के खिलाफ लड़ना अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारना है। तो, इस अर्थ में जाति तोड़ो खोखला नारा बन जाता है। इतना ही नहीं जाति तोड़ने के नाम पर प्रेम विवाह और अंतरजातीय विवाह व्यर्थ की कवायद बन जाती है।

जाति अर्थात नियति से डरे लोगों का अगला कदम धर्मांतरण की तरफ उठता है। चूंकि, ये अपनी पहचान से इतनी बुरी तरह भयभीत रहते हैं कि उस पहचान को ही छुपाना चाहते है। लेकिन, नियति से कोई कैसे बच सकता है भला? वह तो किसी के गर्भ में आने से पहले ही निश्चित है। तब गर्भ से बाहर आ कर उस से कैसे बच सकते हैं। नियति की स्वीकृति आप को दुनिया का सब से ताकतवर बनाती है और नियति की अस्वीकृति या इस से लड़ना किसी का भी मनुष्य होने से गिरना है।

पुनः बताते चलें, नियति का संबंध इस देश की बड़ी से बड़ी बहस में पुनर्जन्म के चिंतन को ध्वस्त करने से है। नियति ने पुनर्जन्मवादियों की धज्जियां उड़ाई हैं, बदले में पुनर्जन्मवादियों ने नियति को भाग्य से जोड़ने की तिकड़म रचाई है। लेकिन, बता दिया जाए, नियति का भाग्य से कुछ भी लेना देना नहीं। पुनर्जन्मवादियों ने यह कह कर अपने सिद्धांत का बचाव किया है कि फलां कर्म की वजह से उन्हें फलां जन्म मिला, फलां को फलां की वजह से फलां। इस देश की निरीह और भोली जनता को द्विजों  ने अपने पुनर्जन्मवाद के जाल में फंसा कर कहीं का नहीं छोड़ा। लेकिन, आज महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर ने इस जाल को काट डाला है। पुनर्जन्म को इसके सिद्धांतकारों अर्थात ब्राह्मण, बौद्ध और जैन तक सीमित कर दिया गया है। डॉ. साहब नियति को इस के वास्तविक और मूल अर्थ में सामने ले आए हैं।

नियति का अगला विस्तार मनुष्य की बुद्धि और कौशल में होता है। जन्म के बाद और मृत्यु के बीच कोई भी अपनी बुद्धि से कुछ भी हो सकता है। एक चमार डाक्टर भी बन सकता है और इंजीनियर भी, इस देश का प्रधानमंत्री भी हो सकता है और किसी भी पेशे का सबसे अच्छा कारीगर भी‌ अगर उस का मन देश की गंदगी साफ करने को चाहे तो वह उसे साफ करता हुआ सबसे बड़ा भंगी बन सकता है। यह बनना व्यक्ति के हाथ में है, वह चाहे तो चंड अशोक बन सकता है और अगर चाहे तो कबीर और धर्मवीर भी।

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संदर्भ :
१,५,६,८,१०,१२,१३
महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, ४६९५, २१-ए, दरियागंज, नई दिल्ली ११० ००२, प्रथम संस्करण : २०१७

२,३,४,७,१५
भगवान बुद्ध और उनका धम्म, बोधिसत्व बाबासाहेब डॉ. बी. आर. आंबेडकर, सम्यक प्रकाशन, ३२/३ पश्चिम पुरी, नई दिल्ली ११० ०६३

९,१६
बुद्ध और उनका धम्म, बोधिसत्व बाबासाहेब डॉ. बी. आर. आंबेडकर, बुद्धम पब्लिशर्स, ,२१-ए, धर्म पार्क, श्याम नगर -II,अजमेर रोड, जयपुर -३०२ ०१९ (राजस्थान)

११,१४
बालक श्यौराज : महा शिलाखंडों का संग्राम, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली- ११० ००२,  प्रथम संस्करण : २०१४

 
      

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13 comments

  1. अरुण आजीवक

    मक्खलि गोसाल के नियतिवाद की सटीक व्याख्या करता है यह लेख। कैलाश दहिया जी ने नियतिवाद की व्याख्या के रूप में आजीवक दर्शन के मूल को परिभाषित कर दिया है। यह लेख आजीवक धर्म के नियतिवाद के बारे में विरोधियों द्वारा जो भ्रम फैलाया गया था, उन सभी को चखनाचूर कर देता है।

    ‘नियतिवाद’ भारत ही नहीं पाश्चात्य दर्शनों के मुकाबले कितना मौलिक, लौकिक, वैज्ञानिक, तार्किक और मोरल पर आधारित है, दहिया जी ने इस लेख के द्वारा प्रमाणित कर दिया है। नियतिवाद में पुनर्जन्म के खण्डन के साथ ही पितृत्व की वैधानिकता, जाति, जारकर्म का विरोध, किस तरह समाहित हैं, इस का खुलासा दहिया जी ने अद्भुत तरीके से किया है। सच में, नियति के ही अधीन विज्ञान है। और अपने इसी नियति के पक्ष में विज्ञान ने DNA की खोज कर रखी है। इस तरह, किस प्रकार विज्ञान नियति के अधीन विज्ञान काम करता है और विज्ञान ने नियति के बचाव में किस तरह DNA की खोज कर रखी है, इस लेख में इस की बहुत ही तार्किक रूप से व्याख्या की गई है।

    अपने नियतिवाद सिद्धांत के साथ मक्खलि गोसाल अपने समय के दुनिया के महानतम दार्शनिकों और चिंतकों की श्रेणी में सब से आगे खड़े मिलते हैं। इस लेख द्वारा नियतिवाद की शानदार प्रस्तुति के लिए कैलाश दहिया जी को बधाई!

  2. बहुत ही बेहतरीन लेख…

  3. तमाम लोग नियति को भाग्य समझते हैं। यह लेख नियतिवाद की सरलतम व्याख्या करता है। एक पठनीय लेख। बधाई।

  4. बहुत खूब लेख

  5. कैलाश दहीया साहब का लेख पढा | पढकर अच्छा लगा | इस लेख में दलितों के धर्म ओर दर्शन की भी बात कही है | दलितों के बीच धर्म की जो नकारात्मक परीभाषा बनीं है | उसे महान आजीवक चिंतक दार्शनिक डा धर्मवीर साहब ने परीभाषित किया है कि माँ बहनों ओर बहु बेटियों के रूप में बलात्कारीयो से जबरदस्त रक्षा करने को धर्म कहते हैं धर्म से कौम को ताकत मिलता है | संविधान में भी धर्म का उल्लेख किया है | बाबासाहब को भी धर्म की जरूरत पड़ी थी | लेकिन वो अपनों के बजाय परायों की शरण में चले गए थे | आज भी सरकारी या प्राईवेट नौकरियों या स्कूलों में भी जाती के सर्टिफिकेट की जरूरत पडता है | कुछ दिन पहले मैंने सेना की नोटीफिकेशन देखा जिसमें धर्म का सर्टिफिकेट मागा था | अब जो दलित जाती या धर्म को नकारते है वो ऐसे हालत पर क्या करेगें ? वो लोग खुद भटके हुए है ओर दुसरो को भी भटका रहे हैं | धर्म की ताकत को ऐसे भी देख सकते हैं की सेना के अंदर पर्सनल हथियार रखना वर्जित है | फिर भी सिक्ख कौम के जवान हथियार (किरपान) रख सकते हैं | सिक्ख कौम के लोग देश विदेश में जाते समय हवाई जहाज में भी हथियार (किरपान) साथ रख सकते हैं | यही तो धर्म की ताकत है | पुनः दहीया साहब को बधाई देता हूँ धर्म ओर दर्शन के बारे में विस्तृत से बताने के लिए |🙏

  6. अरुण आजीवक

    कैलाश दहिया जी ने अपने इस शानदार लेख से नियतिवाद के साथ ही कई अन्य अवधारणाओं को भी स्पष्ट कर दिया है, मसलन मातृसत्ता और पितृसत्ता।
    लेख का यह वाक्य कई चीजों को स्पष्ट करता है -“कोई बालक जिस पिता से पैदा हुआ है, वह उस नाम और पहचान को सारी दुनिया को बताना चाहता है। पिता भी अपनी संतान के बारे में गर्व से घोषणा करता है।” अर्थात जब जन्म निश्चित हे तो बच्चे को अपने माता पिता का नाम भी पता है। पिता को भी अपनी औलाद की पहचान है। लेकिन मातृसत्ता में क्या था? उस में पिता की पहचान गायब थी। इस का मतलब है कि मातृसत्ता नियति के एकदम खिलाफ पड़ रही थी। यही कारण है कि मातृसत्ता को इतिहास से मिटना पड़ा। आगे ‘नियति’ के ही पक्ष में और सम्मान में विवाह संस्था आती है। विवाह संस्था नियति के बचाव में ही खड़ी की गई है। जिस ने बच्चे को माता के साथ उस के पिता की पहचान करवायी। और पिता भी अपनी औलाद को अपनी सम्पत्ति उत्तराधिकार मे देते हुए गौरवान्वित होता हुआ आया है। अर्थात पितृसत्ता का अर्थ हुआ पिता की पहचान। इस के अलावा अगर कोई कौम इस की अलग रूप में व्याख्या करता है तो, यह उस कौम की अपनी कमियां हैं। आगे, नियति के रास्ते में एक और समस्या खड़ी हुयी है – जारकर्म की। इसीलिए आजीवक महापुरुष जारकर्म के खिलाफ बिगुल बजा रखा है। आजीवक महापुरुषों के इस आन्दोलन में विज्ञान का पूरा पूरा साथ है जिस ने पैतृकता की पहचान के लिए DNA की खोज कर दी है।

  7. सुनील आजीवक

    आजीवक धर्म और दर्शन को समझने के लिए बहुत ही बेहतरीन लेख

  8. कैलाश दहिया जी आपके इस लेख में बहुत सारी बातों और व्यवस्थाओं का पोस्टमार्टम अच्छा किया गया है । परंतु कई मामले में जो भी अंबेडकरवादी है उनको असुविधा हो सकती है क्योंकि इस बात पे अधिक संख्या में लोग सहमत नहीं होंगे की , खुद बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर इन के झांसे में आए हुए हैं। बाबा साहेब किसी के झाँसे में आ गए होते तो आज हम आप एसी वाले कमरे में बैठकर उन्मुक्त विचारों का आदान प्रदान कर रहे है शायद नहीं कर पाते । बाबा साहेब की आलोचना करना शायद अतिशयोक्ति लगती है । उन्होंने जिन परिस्थियों को झेलते व लड़ते हुए सभी को अभिव्यक्ति की आज़ादी दिलाई है । उनकी तुलना किसी से भी करना न्यायोचित नहीं लगता है । बाक़ी सभी बातें कई व्यवस्थाओं व परम्पराओं को राह दिखाने जैसा है । अच्छा व सार्थक लेख है । बधाई व मेरी शुभकामनाएँ ।

    उन्होंने नियति के बारे में लिखा है – “एक दूसरी विचार-धारा का नाम था नियतिवाद। इसके मुख्य उपदेशक का नाम था मक्खली गोसाल। उसका मत एक प्रकार का भाग्यवादी अथवा पूर्व निश्चयवादी था। उसकी शिक्षा थी कि न कोई कुछ कर सकता है और न होने से ही रोक सकता है।

  9. क्या अंबेडकरवादी किसी व्यवस्था के अंतर्गत नहीं आते?

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