दुष्यंत कुमार वरिष्ठ कथाकार कमलेश्वर के अभिन्न मित्र थे।दुष्यंत के नहीं रहने के बाद कमलेश्वर ने अपनी बिटिया ममता का रिश्ता दुष्यंत के बेटे आलोक त्यागी से किया। इस संस्मरण में दुष्यंत को उनके अभिन्न मित्र कमलेश्वर से बातचीत करके याद करते हैं। कमलेश्वर से संगीता की बातचीत पर आधारित यह संस्मरण पहली बार लिटरेट वर्ल्ड में अप्रैल 2003 में छपा था-अमृत रंजन
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फक्कड़, जीवंत, शरारती, खिलंदर, अक्खड़, लतीफ़ेबाज़, प्रतिभा सम्पन्न… क्या ये सभी शब्द आपस में जुड़कर भी दुष्यंत के व्यक्तित्व का पूरा परिचय बन पाते हैं। या कि मुमकिन नहीं है दुष्यंत को कुछ शब्दों में लपेट पाना।उन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है वरिष्ठ कथाकार कमलेश्वर के बताए प्रसंगों द्वारा, उन्हें समझने की कोशिश की जा सकती है। इस संस्मरण में कमलेश्वर दुष्यंत को याद करते हुए कई बार उस दौर में चले जाते हैं जब इलाहाबाद में उनकी तिकड़ी यानी कमलेश्वर, दुष्यंत एवं मार्कण्डेय अपने शरारतों से तत्कालीन साहित्य की दुनिया में धमाचौकड़ी मचाए हुए थे। उन घटनाओं को कमलेश्वर कुछ ऐसे दोहरा रहे थे जैसे वे अभी–अभी घटी हो। इस दरम्यान वे जोर से ठहाके लगाना चाह रहे थे पर वे उन ठहाकों को भीतर ही भरसक दबा ले रहे थे जो उनके उम्र के फासले या कहें कि युवा और प्रौढ़ होने के फर्क को बता रहा था।
दुष्यंत हमारे सहपाठी थे, क्लासफ़ेलो, और हमने 1954 में एम. ए. पास किया। दुष्यंत… वैसे तो वे बिजनौर के रहने वाले थे। वो खड़ी बोली का इलाका था। दुष्यंत शुरू में कविताएँ लिखते थे। एक तरह से कहना चाहिए कि गीत भी लिखते थे। जब वे गीत लिखते थे तब उन्होंने अपने नाम के साथ एक उपनाम ‘परदेशी’ लगाया था। वे दुष्यंत कुमार ‘परदेशी’ लिखने लगे थे और जब दुष्यंत ने गंभीर तरीके से लोकवादी कविताएँ लिखनी शुरू कि तब उन्होंने अपने नाम से ‘परदेशी’ उपनाम हटा दिया। और उस दौर से भी दुष्यंत ने बहुत अच्छी कविताएँ लिखी जिनको खूब सराहा गया। और उनका पहला संग्रह ‘सूर्य का स्वागत’ था। उसके बाद उन्होंने काव्य नाटक ‘एक कंठ विषपायी’ लिखी। दो उपन्यास लिखे और उसके साथ साथ तमाम कविताएँ लिखी जो कि बड़े ही चाव से पढ़ी जाती थी और साहित्य में जिनपर विचार विमर्श होता था। उसके बाद दुष्यंत मध्य प्रदेश चले गए थे। वे मध्य प्रदेश में सरकारी नौकर थे। जिस समय आपातकाल, इमरजेंसी घोषित हुई उस वक़्त दुष्यंत बहुत ज्यादा बेचैन और व्याकुल हुए उन स्थितियों से– राजनीतिक रूप से भी सोच के स्तर पर उसके साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर, जो कि हमारा संवैधानिक अधिकार था। तब दुष्यंत ने ग़ज़लें लिखीं। मैं समझता हूँ कि हिंदी में ग़ज़लों की परंपरा थी नहीं हालाँकि भारतेन्दु जी ने भी ग़ज़लें लिखी हैं, एकाध ग़ज़ल हरिऔध जी ने भी लिखी। उसके बाद ख़ासतौर से शमशेर बहादुर ने ग़ज़लें लिखीं। लेकिन तब तक ग़ज़ल की कोई पुष्ट या प्रगाढ़ परम्परा नहीं थी। कुछ ग़ज़लें उस समय की जो बहुत अच्छी मानी गई थी बलवीर सिंह रंग ने लिखी थी। उसके बाद एकाएक दुष्यंत का दौर आया। इसने एकाएक ऐसा जिसे कहना चाहिए कि एक झंझावात पैदा किया रचना के क्षेत्र में और अभिव्यक्ति के क्षेत्र में तो इसमें हिंदी कविता की परिपाटी जो बनी–बनाई चली आ रही थी उसको तोड़ दी छंदबद्ध ग़ज़लों में। सबसे बड़ी बात यह कि ‘साये में धूप’ इनका ग़ज़ल संग्रह आया। इससे पहले इसे मुझे छापने का अवसर मिला ‘सारिका’ में। सम्पादकीय पृष्ठों पर मैंने छापी। ‘धर्मयुग’ में छपी, भारती जी ने छापी। जिसे कहना चाहिए कि एक तूफान इस देश में आया और लोगों को पता चला कि आपातकाल या एमरजेंसी की कितनी कड़ी मुश्किलें थीं। और ये सब दुष्यंत कुमार ने एक सरकारी अफसर रहते हुए किया। जिसके लिए उन्हें काफी सरकारी तकलीफ़ उठानी पड़ी। सरकार की तरफ से परेशान किया गया । उन्हें धमकाया भी गया। डर दिखाया गया कि उन्हें नौकरी से निकाल देंगे। लेकिन दुष्यंत ने अपना लिखना नहीं रोका। मुझे लगता है दुष्यंत कुमार का स्थान निश्चित रूप से भारतीय ग़ज़ल जिसे आप हिन्दुस्तानी ग़ज़ल कहेंगे उसमें सर्वोपरि है। जो काम फ़ैज़ पाकिस्तान में नहीं कर सके ग़ज़लों से जिसे हो जाना चाहिए। हालाँकि फ़ैज़ ने बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़लें लिखी है। आज़ादी की, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की, मनुष्य के साहस की, मानवता की। वो काम इस देश में दुष्यंत ने कर दिखाया। उसकी ग़ज़लों ने। एक बार मुझे लोकसभा के जो सेक्रेटरी जनरल थे, उन्होंने बताया कि जितनी बार और जितनी तरह से दुष्यंत के ग़ज़लों की लाइन को कोट किया गया, उतना कोई कवि आजतक कोट नहीं हुआ। तो ये एक बड़ी बात है।

बाद में दुष्यंत में साथ मेरी रिश्तेदारी भी हुई। मेरी एक ही बिटिया है उसकी शादी दुष्यंत के बड़े बेटे से हुई। लेकिन ये रिश्तेदारी बाद की बात है। ये दुष्यंत के नहीं रहने के बाद की बात है। मैंने ऐसा किया ये सोच के कि मेरी अपनी लड़की जिसका नाम ममता है, प्यार से जिसे हम मानु बुलाते हैं, उसको एक ऐसा सांस्कारिक घर मिले, जहाँ माहौल एैसा ही मिले जिसमें वो पली-बढ़ी है और वह सुखी रहे।
दुष्यंत के साथ बहुत मजे की कई घटनाएँ हैं मेरे जेहन में। दुष्यंत बहुत ही फक्कड़, बहुत उन्मुक्त और बहुत सुसंस्कृत व्यक्ति था। लेकिन एक गांव का अक्खड़पन भी उसमें था। एक दफ़ा वो नौकरी के लिए दिल्ली आए थे। ये शायद सन् 1957–58 की बात है क्योंकि 1959 में दूरदर्शन में आया था। पहली नौकरी थी, दूरदर्शन से शुरू हुआ था। तो उससे पहले दुष्यंत दिल्ली आए थे । एक घटना यही है कि वो चाहते थे कि… वहाँ मैथिलीशरण गुप्त शायद नार्थ एवेन्यू में रहते थे… तो दुष्यंत उनसे कुछ रिकमेंडेशन चाहते थे ताकि रेडियो में उन्हें नौकरी मिल सके। तब यहाँ उस समय फटफट चला करते थे। सेकेंड वर्ल्ड वार की मोटरसाइकिलों से बने हुए। आजकल तो फटफट दूसरी सेवा हो गई है तब ये खुले होते थे। मोटरसाइकिल पर चार सीट का फटफट होता था। अब ये बंद होते हैं। गाड़ी की तरह से। तो उसमें दुष्यंत कुमार बैठे नार्थ एवेन्यू कहकर। बारह आने पैसे तय हुए वहाँ जाने के। तो दुष्यंत अपनी डिग्रियाँ-विग्रियां सब लिए हुए, सूट पहने हुए जा रहे थे, अपना जरा प्रभाव डालने के लिए। मैथिलीशरण गुप्त उस समय राज्य सभा में थे। उनके कहने से या अगर उनका सर्टिफ़िकेट मिल जाएगा तो सुविधा होगी। फटफट वाले ने नार्थ एवेन्यू के बजाय दुष्यंत को पार्लियामेंट के पास छोड़ दिया। दुष्यंत ने आठ आने पैसे दिए। तो फटफट वाला बिगड़ गया, ‘बारह आने दीजिए साहब।’ तो दुष्यंत ने कहा ‘बारह आने क्यूँ दूँ?’ वो कहने लगा ‘पार्लियामेंट का सेशन चल रहा है। इसलिए फटफट को आगे नहीं ले जा सकता।’ तो कहने लगे कि हमारा तो तय हुआ था। दुष्यंत जी कहा कि नहीं तुमने मुझे वहाँ तक नहीं पहुंचाया तो मैं आठ ही आने दूँगा। वो बिगड़ गया, ये चलने लगे। उसने शायद इनको रोका–वोका होगा तो दुष्यंत जी ने अपने सूट की बांहे ऊपर खींची, डिग्रियाँ जो थीं वो पॉकेट में लगाई और कहा कि क्या तू मुझे पढ़ा-लिखा शरीफ़ आदमी समझता है? तू मुझसे ज़बरदस्ती पैसे ले लेगा?’
उसी तरह से मुझे कुंभ का (इलाहबाद) याद है। इलाहाबाद में जब मैं पढ़ता था, तो हम तीनों मार्कण्डेय और दुष्यन्त अपनी साइकिलों पर जाते थे। एक बार वहाँ गए। घूमते-घूमते भूख लगने लगी। पैसे नहीं थे। दुष्यंत के पास शायद कुछ होंगे। लेकिन खैर हमलोग काफी भीड़-भाड़ वाली मिठाई व पूरी–कचौरियों की दुकान में घुस गए। और खा-पी लिया। इस सहारे से, कि शायद दुष्यंत के पास होगा। दुष्यन्त यह सोचकर कि शायद मार्कण्डेय के पास होगा। मार्कण्डेय ये सोच कर कि कमलेश्वर के पास होगा, खा भी लिया, हाथ धोने के लिए उठे। वहाँ लगी रहती थी टंकी। तो ये हुआ कि वो बता गया यार इतने हुए पैसे। मैंने पूछा भैया कितने हो गए। हो गए परेशान। पैसे तो थे ही नहीं। तो जो गल्ले पर बैठता है हलवाई, वो लेता है पैसे, कैश। कई लोग थे भीड़-भाड़ में जो पैसे दे रहे थे, ले रहे थे। दुष्यन्त कुमार था बोला तुम और मार्कण्डेय उधर जाओ, सड़क पार करके। हम वहाँ सड़क पार करके देखते रहे कि ये करते क्या हैं? दूर से देखा हमसे बहुत दूरी नहीं होगी, 10 फीट की दूरी। देखा कि दुष्यंत जी भीड़ में जो लोग थे, उनके पीछे से अपना हाथ आगे–आगे ले जाते थे, खाली हाथ, ऐसे–ऐसे कुछ करते थे। दो–तीन बार ऐसा किया। फिर जब मौका मिला तो उसने पूछा हलवाई से कि साहब पैसे दीजिए। कहने लगा कि आपको दिया न पैसे, आपसे कब से माँग रहा हूँ, वापस कीजिए पैसे। तो हलवाई ने पूछा कि क्या मतलब हुआ? उन्होंने कहा कि आपको दस का नोट दिया मैंने। उसके गल्ले में तो बहुत से दस दस के नोट पड़े हुए थे। आपको दस दिया, नौ रूपया हुआ है, एक रुपया वापस कीजिए। तो एक रुपया वापस लेकर आ गए। तो इस तरह की हरकतें होती रहती थीं। बहुत होती थीं। बड़े मज़े की हरकतें। और भी बहुत हैं संस्मरण इस तरह के।
दुष्यंत जी ने जब यहाँ नौकरी की। वे यहाँ आकाशवाणी दिल्ली में नियुक्त हुए तो वो यहाँ नहीं रहते थे, वो मेरठ में रहते थे। आजकल तो खैर बहुत भीड़ हो गई है। तब इतनी भीड़ नहीं थी। इसलिए वहाँ से उनके पिताजी ने उनको दिए थे 1200–1500 रुपए कि मोटर साइकिल ले लो। अच्छे ज़मींदार घर का था दुष्यंत का। बजाए मोटरसाइकिल लेने के उन्होंने कुछ ख़र्चा-वर्चा कर लिया। बाद में पैसा बचा तो उन्होंने एक सेकिंड हैंड मोटरसाइकिल ख़रीद ली। वो भी किस्तों पर ख़रीद ली। शायद 700–800 रुपये की होगी। जब मैं मिलने गया दुष्यंत से, जब में दिल्ली आया, तो ये मुझसे से ठीक मिले ही नहीं। यार हेलो, हलो…मैं मिलता हूँ अभी आया…यह कहकर हवा हो लिए । मैंने दूरदर्शन में ज्वाइन किया था तो देखा शाम को… ये आया तो कहा कि क्या यार ये तरीका क्या है तुम मुझसे मिले क्यों नहीं ठीक से।उसने कहा देखो असल बात मैं तुम्हें बता दूँ। वो जो है न मोटरसाइकिल वाला वो मुझसे किस्त माँगने के लिए मेरे पीछे पड़ा हुआ था। मेरे पास थे ही नहीं पैसे। उसको एवाइड करने के लिए तुम्हें एवाइड करना पड़ा और मैं चला गया। मैंने कहा कि मोटरसाइकिल कहाँ है। तो कहने लगा कि ठीक है। अब कहाँ होगा… इसने छुपा दी होगी।
ऐसे कोई बेईमानी नहीं होती थी मन में। लेकिन ठीक है मौक़ा अगर आ गया…जैसा कि मैं बताता हूँ। इलाहाबाद में हमलोगों को कुछ ज़रूरत पड़ी फ़ोटो खिंचाने की। हम तीनों, हम, दुष्यंत, मार्कण्डेय गए चौक एरिया में। वहाँ एक मिठाई वाले की दुकान बड़ी अच्छी थी, बंगाली मिठाई की दुकान। ये सन् 52–53 की बात है। वहाँ पर तस्वीरें ली जानी थी। मिठाई वाले के ऊपर फ़ोटो स्टूडियो था। साइकिलें कहाँ खड़ी करें? साइकिलें बड़ी चोरी होती थीं। और हमलोग ऊपर जा रहे थे तो मिठाई वाले दुकानदार से दुष्यंत कहने लगे कि आप ऐसा करिए ये मिठाइयाँ आप एक-एक दर्जन यहाँ रखिए और साइकिलें देखते रहिएगा। हम अभी आते हैं, ऊपर जा रहे हैं ऊपर चले गए। फिर कहाँ उसको ध्यान रहता है। हमने साइकिलें निकाली और कहा कि हो गई रक्षा, अब चले चलें। तो इस तरह की हरकतें थीं।
मुझे ख़ुद याद है अच्छी तरह से मैं भोपाल गया हुआ था, दुष्यंत के पास ही ठहरा था। दुष्यंत का सरकारी मकान था। ठीक से पुताई-बुताई नहीं हो रही थी। एक रोज बहुत मुश्किल से वो ठेकेदार आया कि साहब अभी नहीं होगा। उन्होंने कहा दीवाली का मौका है, पुताई कैसे नहीं होगी। तो वह कहने लगे कि साब, नहीं हो पाएगी आप कुछ भी कर लीजिए । तो दुष्यंत बोले अच्छा ठीक है। आइए गाड़ी में बैठिए, तब उनके पास कार थी। कार में उसको बिठाया और वहाँ के गृहमंत्री का जो बंगला था, जिससे उनका कोई परिचय नहीं था, लेकर पहुँच गए। तो वो घबरा गया कि यदि इन्होंने शिकायत कर दी गृहमंत्री से तो…। अब दुष्यंत बिल्कुल नहीं जानता था गृहमंत्री को। कोई लेना-देना नहीं था। कोई दोस्ती नहीं थी। वो कहने लगा अच्छा चलिए साहब दीवाली से पहले हिसाब करते हैं। काहे के लिए मंत्री जी से कहेंगे। तो इस तरह की… जिसे कहते हैं प्रेजेंस आफ माइंड उसमें इतनी ज़बरदस्त थी जिसका कोई हिसाब नहीं। बहुत अद्भुत-अद्भुत क़िस्से हैं। एक बार गायत्री थी, मानू थी – छोटी थी, आने लगे दिल्ली। मैं ‘नई कहानियाँ’ का संपादक था और दरियागंज में बैठता था। तो कहीं से फोन किया कि शाम को ट्रेन है, मैं गायत्री और मानू को ले जा रहा हूँ इस ट्रेन से और तुम अगर आना चाहो तो तुम भी आ जाना। चाबी नीचे मकान मालिक सरदार जी के पास रख देंगे। तुम भी चले चलना। मैं स्टेशन गया देखने इन लोगों को, तो देखा एक भीड़ भरे डिब्बे में जगह नहीं थी, उससे दुष्यंत जी मानू को गोद में लिए बीड़ी पीते हुए बैठे हुए हैं। और वो बीड़ियाँ बांटती थी गोद में लिए सब को। और बीड़िया बाँटकर जगह बनवाती थी। अब मेरे घुसने के लिए जगह नहीं थी। थर्ड क्लास का ही डिब्बा था। यही क्लास था तब हमलोगों के चलने का। उसने कहा तू घुस पाए तो घुस आ, बाकी मैंने इनका हिसाब कर लिया है। खैर अब कुछ कर नहीं सकते थे, गाड़ी चली गई।
इस तरह की हरकतें। बहुत बहुत हैं, कितने क़िस्से मैं सुनाऊं। अब शैतानी भी वो बहुत करते थे। बहुत बहुत शैतान थे। हमारे साथ हिंदी में उस समय एक तुर्की का एक लड़का था मेहजी सुमेर। वो हिंदी पढ़ने आया था। थोड़ा बहुत वो बंगाल से पढ़कर आया था और एम.ए. में हमारे साथ पढ़ता था। उसे बहुत अधिक नहीं मालूम था। थोड़ा बहुत आया था वह पढ़कर। एक दिन वह गुरुदेव के पास जा रहा था। तो दुष्यंत ने उसको दिया लिखके कि तुम जा रहे हो अध्यापक के पास प्रणाम करने तो तुम यह यह बोलकर आओगे जो मैं नहीं कह सकता। कुछ वैसा था कि आप धिक्कार के योग्य हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ अंग्रेजी में शब्द थे। उसने बोल दिया और गुरुवर समझ गए कि दुष्यंत जैसे शैतान लड़के ने ही उससे यह चीज़ कहलवाई है। इस तरह की हरकतें वो करते रहते थे। और एक उनकी मतलब ऐसे ही अगर उनका ध्यान चला गया तो, मतलब मज़े के लिए… ये चौक पर रहते थे, जिसमें उनकी खिड़की के सामने एक खपरैल का मकान था… छोटी सड़क के पार, उस खपरैल के मकान में कोई लड़की रहती थी, जिसको ये देखते-दाखते थे। तो ये अपनी खिड़की से एक चिट्ठी लिखते थे। उनको अच्छी उर्दू आती थी। चिट्ठी लिखकर पत्थर में बाँधकर फेंक देते थे। कभी निशाना लगा, कभी नहीं लगा। एक बार ढेला खपरैल पर गिर गया। अब वो लड़की बड़ी परेशान हो गई कि अगर घर में खबर लग गई तो क्या होगा। इनकी समझ में भी नहीं आ रहा था कि ये क्या करें? परेशान होकर मुझे वहाँ बैठाकर ये चले गए गली में टहलने। मुझे ये घटना मालूम नहीं थी कि ये क्या कर चुके हैं। खपरैल तो आप जानते हैं जरा सा कुछ करो तो टूट टाट जाती है।
बहुत ही परेशानी से… इन्होंने वहाँ पर एक था बच्चा… दुष्यंत सनकी भी था, बच्चे से कहा ऐसे करो नीचे से। बच्चे को नीचे से कहाँ दिखाई पड़ेगा। जब बच्चे से नहीं हुआ तो मैंने कहा कि चिन्ता मत करो अभी बारिश आनी है उसमें यूं ही बह जाएगा । दूसरा पत्र जो था वो ढेले में लपेटकर पहुँच गया था।
जैसे दुष्यंत एक बार अपने गाँव चले गए थे। एकाएक आए, कहने लगे – मुझे गाँव जाना है। मैंने कहा मैं क्या करूँ? कहा मुझे पैसे चाहिए हजार रुपए। मैंने कहा भाई मेरे पास कहाँ हैं? उन दिनों हम कुछ काम-वाम करने लगे थे। दुष्यंत ने पूछा काम क्या कर रहे हो आजकल। मैंने कहा कुछ खास काम नहीं है। किताब महल वहाँ एक प्रकाशन है। वो बहुत अच्छी पाठ्यक्रम की पुस्तकें छापते थे। एक बड़ी फ़ेमस अर्थशास्त्र की पुस्तक थी, वो मुझे देने वाले थे अनुवाद के लिए। श्रीनिवास अग्रवाल उसके प्रकाशक का नाम था। मैंने कहा– वो देने वाले हैं। शायद उससे कुछ काम निकलेगा तो कुछ करूँगा। उन्होंने मेरी बात सुनी और ख़ामोश रहे। शाम को घर लौटा तो वे इधर उधर लौटकर आए। वही किताब उनके हाथ में थी। दुष्यंत कहने लगे कि श्रीनिवास साहब से मैं मिल आया हूँ। मैंने कहा वो किताब कमलेश्वर के लिए आप दे दीजिए और एडवांस भी दीजिए। सो वह किताब और 500 रू एडवांस मैं ले आया हूँ। तो एडवांस तो मैंने ले लिया और ये ट्रांसलेशन करके दे दो।
एक दफ़ा, वहाँ पर एक चंद्रशेखर आजाद पार्क है, जहाँ चंद्रशेखर आजाद शहीद हुए है, वहाँ पर एक जकाती रेस्टूरेंट खोला था। हमने कहा कि आप इसका नाम जकाती रास्ते राहत रखो। तो उन्होंने रास्ते राहत कर दिया तो हम लोग वहाँ जाते थे चाय-वाय , कॉफी पीते थे। नाश्ता-वाश्ता करते थे। तो एक रोज़ हम तीनों – ये हम लोगों की तिकड़ी थी दुष्यन्त, मार्कण्डेय और मैं। तीनों वहाँ गए और नाश्ता–वाश्ता किया। और उस दिन पता नहीं क्यों, मार्कण्डेय उस जमाने में अचकन पहना करता था, लम्बाकोट जो खासतौर से मुस्लिम उलेमा लोग पहनते हैं। वो अचकन पहने था, दुष्यंत अपना कोट-वोट पहने हुए थे, मैं अपना जैकेट–वैकेट पहना हुआ था, तो वो आया, छोटी सी प्लेट जो होती है वो कपवाली, उसमें टूथपिक, सौंफ और छोटा सा बिल। उस दिन दुष्यंत ने तय कर लिया था कि आज वो पाप नहीं करेगा। आज मार्कण्डेय से पाप करवाएगा, तो मार्कण्डेय ने उसमें से सौंफ का एक दाना लिया, नफ़ासत से, फिर दुष्यन्त ने सौंफ उठाया – तो इस तरह से दो बार जब प्लेट घूम गई और बैरा खड़ा हुआ था, पैसे लेने के लिए, तो दुष्यन्त ने कहा, मार्कण्डेय की तरफ इशारा करके कि देख लिया तुमने दो बार प्लेट घूम गई।आज इनके पास पैसे नहीं हैं आज। बड़ी ट्रे लेकर आओ। वो समझा नहीं कि बड़ी काहे को मंगवा रहे हैं। उन्होंने कहा कि आज ये अपनी शेरवानी उतारके रखेंगे। इतनी छोटी से प्लेट में कैसे ले जाओगे।
एक बार की बात है। वहाँ ‘इंडियन प्रेस’ करके अंग्रेजी अखबार निकलता था। ‘भारत’ हिंदी का निकलता था तो एक परमानंद जी, बड़े ही विद्वान आदमी, उसके सम्पादक थे। तो वहाँ पर जो जनरल मैनेजर थे वो दुष्यन्त जी के कहीं से दूर के परिचित निकल आए। ये उनके पास पहुँच गए कि आप मुझे ‘भारत’ में नौकरी दिलवाइए। आप सोचिए ज़्यादा से ज़्यादा क्या कर सकते थे – सबएडीटर होते या फीचर का काम देखते। तो जनरल मैनेजर ने इनको चिट लिखकर दी कि परमानंद जी आप दुष्यंत जी को कहीं लगा दीजिए तो अच्छा रहेगा। दुष्यन्त जी चिट लेकर गए और परमानंद जी से बोले, देखिए श्रद्धेय, अब आपकी ज़रूरत, नहीं रही अब तो आपके जनरल मैनेजर ने मुझे ‘भारत’ सौंप दिया है। वो बहुत बिगड़े, बोले क्या मतलब है इसका, आप सम्पादक होने आए हैं? कहने लगे अगर सम्पादक नहीं हुए, तो उपसम्पादक हो जाएंगे। मतलब–बहुत तेज और हाज़िरजवाब शख़्स थे वो।
हाज़िरजवाब भी और बड़े मज़े करते रहते थे वो। एक दफ़ा उन्होंने रेलवे में आवदेन किया हुआ था। तो रेलवे सर्विस कमीशन वहीं था इलाहाबाद में। तो ये पता लगा कि तिलक जी, बिजनौर इलाके के ही, उसके चेयरमैन थे। मैंने बाहर खड़ा था। गर्मी के दिन थे। चिकें पड़ी हुई थीं। मैं बाहर था परेशान। थोड़ी देर में देखा– दो ही मिनट बाद इनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ी हुई और चले आ रहे हैं। तो मैंने कहा कि दुष्यंत क्या हुआ। वो कहने लगा बताओ मैं तो समझा कि वो हमारे इलाके के हैं, बिजनौर के, जानते हैं। तमाम परिचय दिए। उन्होंने कहा गेट आउट। तो कभी-कभी इस तरह की भी स्थितियाँ हो जाती हैं। मैं सोचने लगा अब मैं उसको कैसे उत्तर दूँ इसका।
तो ये सब चलता रहा था दुष्यंत जी के साथ। यानी ये कहिए बहुत ख़ुशमिजाज जिंदादिल और हाज़िरजवाब इंसान थे वो। एक बार हमलोग बस में बैठकर मालवीय नगर जा रहे थे। देवराज जी के पास, जो गीतकार थे। हम, राकेश और दुष्यंत तीनों चले जा रहे थे। मालवीय नगर तब बहुत वीरान हुआ करता था। राकेश बहुत जोर का ठहाका लगता था, तो दुष्यंत कहाँ उनसे पीछे रहने वाले हैं? तो कुछ बात मज़ाक की हुई और एक छत फाड़ ठहाका लगाया राकेश ने, कुछ और जोर से फिर दुष्यंत ने लगाया तो समझ में नहीं आया बस ड्राइवर को। एक तरफ बस वाले ने बस खड़ी कर दी। कंडक्टर ने पूछा क्या हुआ। कहने लगा इन तीनों को उतार दो। तब मैं बस ले जाऊँगा, ये पैसेंजर्स को परेशान कर रहे हैं। गलती दुष्यंत और राकेश की थी। वो लगातार ठहाके लगाते, बातें करते, ठहाके लगाते थे। यही सब चलता रहता था।
bahut barhiya