Home / Featured / सुमेर सिंह राठौड़ की लॉकडाउन डायरी

सुमेर सिंह राठौड़ की लॉकडाउन डायरी

सुमेर सिंह राठौड़ पक्के न्यू एज राइटर हैं। न्यू एज राइटर से मेरा मतलब यह नहीं है कि जो कैम्पस पर लिखे, प्रेम पर लिखे बल्कि वह जो अलग अलग माध्यमों को समझे, उनकी सम्भावनाओं-सीमाओं को समझते हुए उनका बेहतरीन उपयोग करे। आप अगर सुमेर जी के चित्रों को देखेंगे तो उनकी हर चित्र में एक कहानी होती है, उनके फ़ेसबुक स्टेटस में भी कुछ नयापन होता है और जब वे गद्य या पद्य में लिखते हैं तो उसकी अलग छटा होती है। कहने का मतलब है कि प्रत्येक माध्यम में उनकी अभिव्यक्ति का रूप अलग होता है। आज उनकी लॉकडाउन डायरी पढ़िए-मॉडरेटर

==================

ऐसा लगा कि अब हम इसी जीवन के आदी हो जाएंगे। लेकिन अब कोफ़्त होने लगी है। इन दिनों से निकलने को जी करता है। कितनी भली चीज़ें यादों की शक्ल में ज़ेहन में उभरने लगी हैं। वे सब जगहें, व सब लोग, वे सब बातें जिन्हें आगे बढ़ते-बढ़ते किनारे लगाते गए अब फिर से खींचने लगी हैं। अब वे दिन भी याद आने लगे हैं जो खरोंचों की तरह आए थे और फिर एक दिन सूखकर बिना पता चले ही गायब हो गए थे।

कितने दिन बीत गए। दिन क्या अब तो महीने बीत गए हैं। लिखे हुए को फिर से लिखने बैठा हूँ। आज भी देर से छत पर बैठा आसमान देख रहा हूँ। आसमान वैसे ही भरा हुआ है लेकिन अब वैसी शांति नहीं है। खूब आवाज़ें हैं। जीवन के चलते रहने की आवाज़ें। अब इस जगह पर बैठकर छलावा नहीं हो रहा कि मैं अपने रेगिस्तान में बैठा हूँ। रेगिस्तान याद बनकर उभर रहा है। इन दिनों का रेगिस्तान का जीवन मुझे खींच रहा है। गर्म दिनों के सुख याद आ रहे हैं।

यहाँ तो इन दिनों सारे मौसम इसी एक घर में सिमटे हुए हैं। कमरे में ठंड है। छत पर गर्मी है। और कूलर के आगे सो जाओ तो बूँदें बरसने लगती हैं। साठ से ज्यादा बीत चुके हैं बाहर की दुनिया को देखे हुए। जिस बाहर की दुनिया से बचकर भागते रहे अब वह बहुत याद आने लगी है। बाहर की दुनिया से भागने का सुख भी बाहर की दुनिया में रहते हुए ही मिलता है। कितनी चीज़ें ऐसी जिन्हें अब लगभग भूल ही चुके हैं हम। अंतिम बार घर का ताला कब लगाया था यह भी याद नहीं। अब जब हम अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी की ओर फिर से लौटने के लिए घरों से बाहर निकल रहे हैं तब घर का ताला लगाने के लिए बहुत देर तक हमें अपनी-अपनी चाबियाँ खोज रहे होंगे। बाहर निकलकर कहीं पहुँचने के लिए हमें सिर्फ अपने घरों और गाड़ियों की चाबियाँ ही नहीं बसों के पास, मेट्रो के कार्ड और भी ऐसी तमाम जरूरी चीज़ें खोज रहे होंगे जिन्हें भूलने लगे हैं हम। शायद ये सब ऐसी चीज़ें जिन्हें किसी भी क़ीमत पर छोड़ नहीं सकते हैं हम।

अपनी दुनिया जो हमसे बार-बार छूट जाती है उस दुनिया के पास होने का सुख मौत के दुख पर बहुत भारी पड़ता है। घर से लगातार फोन आते रहे कि अपने घर लौट आना चाहिए मुझे। पर मैंने खुद को रोके रखा। अब भी खुद को रोके हुए हूँ ना जाने क्यूँ। इन दिनों कई-कई बार खुद को कोसता हूँ अपने फैसलों के लिए। पर आसपास को देखते हुए लगता है कि सिर्फ अपने बारे में सोचकर फैसले नहीं लेने चाहिए। हमारी भावुकताओं का खामियाजा जाने कितनी ज़िंदगियों को उठाना पड़ जाए। मैं खुद को इसलिए भी रोके रह पाया क्योंकि एक घर के अंदर रहने के लिए तमाम सुविधाएँ मौजूद हैं मेरे पास। इन दिनों हम सबको जिनके पास सुविधाएँ हैं उन्हें सबसे ज्यादा जो चीज़ कचोट रही है वो ये सुविधाएँ ही हैं। जिन्हें भोगते हुए कभी कोई तस्वीर याद आ जाती तो कभी कोई फोन कॉल। तस्वीरें सड़कों और पटरियों पर बिखरी उन तलाशों की जिसके लिए लोग घर छोड़कर हज़ारों किलोमीटर दूर गए थे। तस्वीरें हज़ारों किलोमीटर पैदल, रिक्शा चलाकर, ट्रकों में छिपकर जो लोग अपने घरों को निकल पड़े हैं उनकी। फोन कॉल्स उन लोगों के बारे में जो कहीं फंसे रह गए बिना किसी बुनियादी सुविधा के।

कोरोना और लॉकडाउन के दिनों का यह मौसम गाँव में गर्म दिनों का मौसम है। लोग फसलों से निभर चुके हैं। इस मौसम में गाँव से पहले तस्वीरें आई खेतों से। कोई कटती फसलों की तो कोई निकलते अनाज की। यह दीवाली बाद की पूरी मेहनत के, ठिठुरती रातों के रतजगों के फलने की तस्वीरे थीं। इन दिनों में जब अचानक से आसमान बादलों से भरने लगता था तब माथे पर उभरती लकीरें उन्हें किसी भी भय से अंदर बैठे रहने के लिए नहीं रोक पाती। जीवन जीने के जतन मौत के डर से कितने ज्यादा जरूरी हैं। इन दिनों सूखे मौसम के सुख भरे हैं तस्वीरों में। जाळों के पेड़ पीलूओं से भरे हैं। खेजड़ियाँ सांगरियों से और कैर के झाड़ियों में झूल रहे हैं लदे हुए कैर। पगडंडियों की सुबहें पीलूओं से बरतन भरकर लौट रही हैं। बरामदों की दोपहरें कैर और सांगरियाँ चूंटते हुए ऊँघ रही हैं। इन दिनों की साँसें गर्म हवा के झोंकों को ठंडा करने के जतन कर रही हैं।

इस बीच इन लम्बी दूरियों के दिनों हम सब कितने पास आ गए हैं। कितने ऐसे लोग जो हमारी निजी दुनियाओं से खो गए थे अचानक से लौटने लगे हैं। यह वक्‍़त शायद दोस्तियों, रिश्तों को एक नये सिरे से समझने की कोशिश करने का भी है। ये पिछले कुछ महीने दिनोंदिन कैसे भारी होते चले गए हैं। शाम के धुंधलके में अपने होने के सुखों से कोसों दूर जानी-पहचानी अनजान जगहों पर आसमान निहारते हुए आने वाले दिनों के बारे में सोचते हुए अचानक फूट पड़ते हैं हम और धीरे-धीरे रात के अंधेरे में छिपाने लगते हैं खुद को। एक अजीब सा खालीपन और डर हावी होने लग जाता है। कभी दूर अपने गाँव पैदल लौटते लोगों की तस्वीर देखकर घर की याद आ जाने पर। कभी जिम्मेदारों की तमाम लापरवाहियों को भुलाकर उनके द्वारा बुने जा रोशनियों, आवाज़ों और झूठ के जाल में फंसते लोगों की मुर्खताओं पर। कभी इन तमाम मौकों पर जहाँ बोलना जरूरी होता है खुद को अपनों के ही सामने खड़ा पा कर।

पर तमाम अंधेरों के बाद, तमाम सूखे के बाद भी रेगिस्तान के इन दिनों के मौसम की तरह हरेपन की उम्मीद तमाम पतझड़ों से उबर जाने का सुख देती है। कि इस मौसम में भी जीवन खिलेगा। किसी बरामदे से आयेगा ठंडी हवा का झोंका और सुखा जायेगा पसीने से तरबतर माथा। कि एक दिन यह बीमारी भी बीत जायेगी। इसका डर भी बीत जायेगा। हमारे थमे हुए पाँव फिर से चलने लगेंगे। चलते हुए पाँवों के छाले भी मिट जायेंगे। अपनों को कँधों पर उठाये लोगों का रोना भी चहक में बदलेगा। कि हम अपनी-अपनी दुनियाओं में बिना किसी डर के हँसते हुए लौटेंगे। कि जीवन हर बार की तरह फिर से अपने ढर्रे पर लौटेगा।

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

अनुकृति उपाध्याय से प्रभात रंजन की बातचीत

किसी के लिए भी अपनी लेखन-यात्रा को याद करना रोमांच से भरने वाला होता होगा …

5 comments

  1. Pingback: נערות ליווי

  2. Pingback: 늑대닷컴

  3. Pingback: Peruvian Cocaine

  4. Pingback: KIU

  5. Pingback: สมัครเน็ต ais

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *