पटना कॉलेज, पटना में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर कलीमुद्दीन अहमद को उर्दू के बड़े आलोचकों में गिना जाता है। उनके जीवन, उनके कार्यों पर एक शोधपरक लेख लिखा है केंद्रीय विश्वविद्यालय पंजाब में हिंदी के प्रोफ़ेसर पंकज पराशर ने। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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पटना कॉलेज, पटना के अँगरेजी के प्रोफेसर और उर्दू साहित्य के सबसे बड़े आलोचक प्रो कलीमुद्दीन अहमद के बारे में जब-जब सोचा किया, तो बार-बार मेरा ध्यान बिहार की ज़मीन से जुड़े अनेक संयोगों की ओर चला गया! मसलन पटना विश्वविद्यालय के हिंदी के आचार्य नलिन विलोचन शर्मा के पिता महामहोपाध्याय राम अवतार शर्मा बड़े तेजस्वी विद्वान थे. उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय परिसर में अध्यापकों पर थोपी गई पं. मदन मोहन मालवीय के ‘ड्रेस कोड’ को मानने से साफ इनकार कर दिया था और यह कहते हुए बनारस से पटना लौटने का निर्णय कर लिया कि मेरा बिहार बहुत ग़रीब है और यहाँ से अधिक बिहार को मेरी जरूरत है. सन् 1922 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से त्याग-पत्र देकर उन्होंने पटना कॉलेज ज्वाइन कर लिया. दूसरा इत्तफ़ाक देखिये कि मैथिली के सर्वाधिक लोकप्रिय लेखक और पटना विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर रहे हरिमोहन झा के पिता जनार्दन झा ‘जनसीदन’ भी अपने समय के बड़े पंडित और लेखक थे. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवदी के वे बहुत घनिष्ठ मित्र थे. तीसरा इत्तफाक देखिये, अपने समय के बड़े विद्वान और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके प्रो अमरनाथ झा के पिता महामहोपाध्याय डॉ सर गंगानाथ झा की विद्वता के तो ख़ैर क्या कहने! इसकी अगली कड़ी में पटना कॉलेज के प्रोफेसर रहे कलीमुद्दीन अहमद (15 सितंबर, 1908-22 दिसंबर, 1983) आते हैं, जिनके बारे में जब पढ़ना शुरू किया, तो ऊपर बयान किये गये तमाम इत्तफ़ाकों ने एक दफा फिर मुझे अपनी गिरफ़्त में ले लिया! विद्वता और पांडित्य के मामले में कैसे-कैसे लोग हुए! …और एक परिवार में कोई एक ही नहीं, बल्कि पूरे खानदान में जिसे भी देखिये, सब एक पर एक! जिस पटना कॉलेज में कलीमुद्दीन अहमद लेक्चरर नियुक्त हुए थे, उसी पटना कॉलेज के वे 1952 से 1957 तक प्राचार्य रहे. इसके बाद बिहार उच्च शिक्षा विभाग के निदेशक भी रहे.
प्रोफेसर कलीमुद्दीन अहमद के पिता अज़ीमुद्दीन अहमद अँगरेजी, जर्मन, अरबी, फारसी तथा उर्दू भाषा-साहित्य के बड़े विद्वान तो थे ही, इसके अलावा वे उर्दू के शायर भी थे. अज़ीमुद्दीन साहब एक नज़्म की चंद पंक्तियाँ देखें, ‘सबा उस से ये कह जो उस तरफ़ होकर गुज़रता हो/ क़दम ओ जाने वाले रोक मेरा हाल सुनता जा/ कभी मैं भी जवाँ था मैं भी हुस्न-ओ-इल्म रखता था/ वही मैं हूँ मुझे अब देख अगर चश्म-ए-तमाशा हो.’ सन् 1909 में वे पढ़ाई के लिए जर्मनी गए थे और बिहार के वे ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने विदेश जाकर पी-एच.डी. की थी. उनकी थीसिस प्रसिद्ध Gible Memorial Series में छपी थी. लगें हाथों यह भी जान लीजिए कि जर्मनी से लौटकर जब वे पटना आए, तो संयुक्त बिहार (यानी आज के बिहार-झारखंड और उड़ीसा तीनों) के सर्वाधिक प्रतिष्ठित कॉलेजों में से एक पटना कॉलेज, पटना में फारसी के लेक्चरर के रूप में ज्वाइन किया. यह जानना और भी दिलचस्प होगा कि लेक्चरर के रूप में पटना कॉलेज ज्वाइन करने वाले अज़ीमुद्दीन अहमद पहले भारतीय शिक्षक थे. इस तथ्य को जान लेने के बाद तो मेरे मन में कलीमुद्दीन अहमद के ख़ानदान के बारे में और ज़्यादा जानने की जिज्ञासा बढ़ गई. अज़ीमुद्दीन अहमद साहब को दो बेटे थे-कलीमुद्दीन अहमद और अलीमुद्दीन अहमद. कलीमुद्दीन अहमद साहब की बेगम जोहरा अहमद शादी से पहले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अँगरेजी विभाग में प्रोफेसर थीं. हालाँकि अलीगढ़ से ही उनकी सियासत में थोड़ी-बहुत दिलचस्पी थी, लेकिन शादी के बाद जब वे पटना गई, तो हालात कुछ ऐसे बने कि सियासत में उनकी दिलचस्पी बढ़ती गई. पटना सिटी से बेगम जोहरा अहमद ने काँग्रेस पार्टी के टिकट पर तीन बार 1952, 1957 और 1962 में चुनाव लड़कर विधायक बनीं. बेगम जोहरा अहमद के वालिद भी अँगरेजी हुकूमत में कलकत्ता शहर में बड़े हाकिम थे. कलीमुद्दीन अहमद को दो बेटियाँ थी-फरीदा कलीम और जायरा कलीम। जायरा कलीम मगध महिला कॉलेज में अँगरेजी की प्रोफेसर थीं, जो अब रिटायर हो गई हैं. यहाँ कलीमुद्दीन अहमद साहब की बेटी का ज़िक्र आया, तो बताते चलें कि सन् 1863 में पटना कॉलेज की स्थापना काल से वहाँ सिर्फ़ लड़कों की पढ़ाई चल रही थी. सन् 1925 में इस कॉलेज में पहली लड़की ने दाखिला लिया, जिसका नाम था शोभना गुप्ता. शोभना ‘बिहार हेराल्ड’ के संस्थापक अनुकूल चंद्र गुप्ता की बेटी थी. यह लड़की पढ़ने में इतनी होशियार थी कि डिस्टिंक्शन के साथ उसने बी.ए.पास किया. इस तरह संयुक्त बिहार में बी.ए. पास करने वाली वह लड़की उसी पटना कॉलेज से निकली, जिसमें कलीमुद्दीन अहमद जैसे उस्ताद पढ़ाते थे. शोभना गुप्ता का विवाह सुधांशु भट्टाचार्य नामक युवक के साथ हुआ. पटना में जो भट्टाचार्या रोड है, वह इन्हीं सुधांशु भट्टाचार्य के नाम पर है.
कलीमुद्दीन अहमद के छोटे भाई अज़ीमुद्दीन अहमद भी अरबी, फारसी और अँगेरीज के अच्छे विद्वान थे. उन्होंने भी कुछ समय तक पटना विश्वविद्यालय में पढ़ाया, लेकिन बाद में वे बिहार न्यायिक सेवा में चले गए. उनके बेटे कयामुद्दीन अहमद (09 सितंबर, 1930-27 अगस्त, 1993) भी पटना विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के नामवर प्रोफेसरों में गिने जाते थे. मध्यकालीन इतिहास के जाने-माने विद्वान डॉ इम्तियाज अहमद इन्हीं कयामुद्दीन अहमद साहब के बेटे हैं. कलीमुद्दीन अहमद के दादा अब्दुल हमीद पटना शहर के बड़े नामी हकीम और अपने ज़माने के उर्दू के मशहूर शायर माने जाते थे. उनके परदादा मौलवी अहमदुल्लाह भी काफी पढ़े-लिखे इनसान थे. उनके पूरे ख़ानदान को पटना सिटी के ख़्वाजाकलाँ मोहल्ले के बेहद इज्जतदार और कुलीन परिवारों में गिना जाता था. मौलवी अहमदुल्लाह के पिता इलाहीबख़्श भी बेहद रौशनख़याल और नामवर शख़्स थे. कलीमुद्दीन अहमद साहब के परदादा मौलवी अहमदुल्लाह साहब बहुत बड़े वतनपरस्त, वहाबी आंदोलनकारी और अँगरेजों के विरोधी थे. गदर के विद्रोह में उन्होंने खुलेआम बग़ावत की थी, नतीज़तन 18 अप्रैल, 1865 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा देकर कालापानी भेज दिया गया. उसके बाद अँगरेजी हुकूमत ने सन् 1880 में उनकी पूरी जायदाद ज़ब्त करके उसे एक लाख, इक्कीस हजार, नौ सौ, अड़तालीस रुपये, चार आना और एक पाई में बेच दिया. उनकी जायदाद बेचने के बाद मिले हुए पैसे की क़ीमत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि सन् 1880 में एक तोला सोने की कीमत थी 20 रुपये. इस हिसाब से मौलवी अहमदुल्ला की ज़ब्त की गई जायदाद से मिले रुपये से उन दिनों पाँच हजार, आठ सौ, सतहत्तर तोला सोना खरीदा जा सकता था. आज क़ीमत के हिसाब से अगर हम पाँच हजार, आठ सौ, सतहत्तर तोला सोने की क़ीमत का अंदाज़ा लगाएँ, तो वह तकरीबन छब्बीस करोड़, इकहत्तर लाख, नौ हजार, छह सौ पचास रुपये बैठता है. अँगरेज़ी हुकूमत की कुदृष्टि के कारण एक ओर मौलवी अहमदुल्लाह को आजीवन कारावास की सज़ा देकर कालापानी भेज दिया गया, जहाँ 20 नवंबर, 1881 को उनका इंतकाल हो गया. इधर उनकी जायदाद जब्त करके बेच दी गई, सो अलग.
मौलवी अहमदुल्लाह की जब्त की गई जायदाद को बेचकर अँगरेजी हुकूमत जो पैसा वसूल हुआ, उस पैसे से पचास हजार रुपये खर्च करके पटना के मंगल तालाब की सफाई और मरम्मत का काम करवाया गया. इसके अलावा पटना सिटी नगरपालिका को 33,497 रुपये दिये गये, ताकि उस स्थान पर एक बाज़ार बनवाया जा सके, जो चौकोर रूप का हो और जिसके तीन तरफ बाजार हो और चौथे तरफ आने-जाने का रास्ता हो. तीस हजार रूपये से बेगमपुर रेलवे स्टेशन से पूर्वी रेलवे के पटना घाट तक जाने वाली सड़क बनवाई गई. इतना ही नहीं, सन् 1881-82 में अहमदुल्लाह की जब्त संपत्ति को बेचकर जुटाई गई रकम से पटना कॉलेज के भवन का विस्तार किया गया, जिसमें लकड़ी की वह सीढ़ियाँ भी शामिल थीं, जो पटना कॉलेज में आज तक मौज़ूद हैं और आज भी इस्तेमाल की जा रही हैं. पटना कॉलेज की इमारतें आज जिस ज़मीन पर खड़ी हैं, वहाँ सन् 1863 से पहले बादशाही बाग़ था और उस इलाके को पटना के गवर्नर अफजल खाँ (1608-12) के नाम पर अफ़जलपुर के नाम से जाना जाता था. अज़ीम-उस-शान औरंगजेब के पोते थे. उन्होंने ही अपने नाम पर सन् 1712 में पटना का नाम अज़ीमाबाद रखा था. उस वक्त के बिहार के गवर्नर सैयद हुसैन अली खाँ की दावत पर वे अपनी सेना के साथ बाग अफ़जल खान में आकर ठहरे थे. इसी बाग अफ़जल खान के पूर्वी छोर पर एक छोटा-सा मस्ज़िद है, जहाँ 27 मार्च, 1712 में फर्रुखसियर की पहली ताज़पोशी हुई थी. इससे यह अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है कि पटना कॉलेज के बनने से पहले ही उसके आसपास इतिहास के कितने तथ्य दफ़्न हैं और इस कॉलेज के बनने के बाद भी कितने तथ्य ऐसे बने-बिगड़े जिसे तब तक जाना नहीं जा सकता, जब तक इतिहास के धूल-धूसरित पन्नों भी साफ करके पढ़ा न जाए.
तो साहिबो, इसी अहमदुल्लाह साहब के ख़ानदान में सन् 1908 में कलीमुद्दीन अहमद पैदा हुए. जिनके बाप, दादा, परदादा सबको उर्दू शायरी से गहरी मुहब्बत थी. लिहाजा इस ख़ानदान का नाम ज़बान पर आते ही उर्दू अदब और शहर अज़ीमाबाद की पूरी तहज़ीब मेरे ऊपर हावी होने लगती है! शहर अज़ीमाबाद के रग-ओ-रेशे में तवारीख़, फलसफा और अदब इस कदर पैबस्त है कि तमाम वक़्ती और सियासी जलजले आते-जाते रहे, मगर शहर अज़ीमाबाद की तख़्लीकी और तहज़ीबी बलंदी आज भी पूरे शान-ओ-शौकत से कायम है. इसकी बलंदी आगे भी कायम रहेगी-इस बात को लोग ख़ातिर-जमा रखें. मैं पुरउम्मीद हूँ कि शहर अज़ीमाबाद की जिस ज़मीन पर उर्दू अदब के बड़े तवारीख़दां, शायर और नक्काद प्रो कलीमुद्दीन अहमद पैदा हुए, उस आबा-ए-वतन अज़ीमाबाद में ज़नाब कलाम हैदरी, क़ाजी अब्दुल वदूद, गयास अहमद गद्दी, ज़किया मशहदी, मुश्ताक अहमद नूरी, शफी मशहदी, शमोएल अहमद, शहीद जमील और शौकत हयात जैसे शोअरा, अफ़सानानिगार, नाविलनिगार, नक्काद और तवारीख़दां के तख़्लीकी कारनामों से से उर्दू अदब फ़ैज़याब हो रहा है. इसी शहर के कलीम आजिज उन अज़ीम शायरों में से एक थे, जिनकी वज़ह से पूरी अदबी दुनिया में बिहार का नाम रोशन हुआ. करीब आधी सदी तक उर्दू अदब की ख़िदमत उन्होंने की. जिस दिलकश अंदाज़ में उन्होंने ग़ज़लें लिखीं, उसे हमेशा ज़माना याद रखेगा। कलीम आजिज की ग़ज़लें दर्द की कहानियाँ हैं, ‘दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो/ वो दोस्त हो, दुश्मन को भी जो मात करो हो/ मेरे ही लहू पर गुज़र औकात करो हो/ मुझसे ही अमीरों की तरह बात करो हो.’
कलीमुद्दीन अहमद ने उर्दू साहित्य के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ और प्रतिष्ठित समालोचक के रूप में अपनी पहचान बनाई. अँगरेजी साहित्य के विद्वान कलीमुद्दीन अहमद ने उर्दू साहित्य को जिस पैनी दृष्टि और निर्भीकता से समीक्षा की, उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती है. उनकी समीक्षा से उर्दू अदब की दुनिया में कुछ लोगों ने नाइत्तफाकी भी ज़ाहिर की और उनको विरोध का भी सामना करना पड़ा. देश और दुनिया के कई समालोचक कलम की तलवार खींचकर उनके विरोध में खड़े हो गए, लेकिन अंत में लोगों को यह मान लेना पड़ा कि कलीमुद्दीन अहमद की आलोचना ठोस सुबूत और मजबूत दलाएल (तर्कों) की बुनियाद पर खड़ी है, जिसका आप विरोध तो कर सकते हैं, नजरअंदाज किसी तईं नहीं कर सकते. शायद इसलिए इतने तवील अरसे के बाद भी कलीमुद्दीन अहमद की समालोचना को उर्दू की दुनिया में श्रेष्ठता हासिल है. वे आज भी वह उर्दू के सबसे बड़े समालोचक माने जाते हैं, क्योंकि उर्दू आलोचना को जिस अंर्तबोध और निर्भीक तेवर से उन्होंने परिचित कराया, उस परंपरा की शुरुआत भी दरअस्ल उन्हीं से होती है. मौलाना अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ के बाद उर्दू के जिन आलोचकों ने अपने तार्किक लेखन से उर्दू विशिष्ट स्थान प्राप्त किया, उनमें कलीमुद्दीन अहमद का नाम सब से ऊपर है. उर्दू साहित्य में अपनी शुरुआत से ही ग़ज़ल चर्चा का एक विषय बनी रही हैं. एक तरफ तो ग़ज़ल इतनी मधुर हैं कि वह लोगों के दिलों के नाज़ुक तारों को छेड़ देती हैं, तो दूसरी ओर वही ग़ज़ल कुछ लोगों में कुछ ऐसी भावनाएँ पैदा करती हैं कि जनाब कलीमुद्दीन अहमद साहब इसे ‘नंगे-शायरी’ यानी बेहूदी शायरी कहते हैं. ‘उर्दू –शायरी पर एक नज़र’ में उन्होंने लिखा है, ‘हाँ, यदि कुछ कमी (उर्दू –शायरी) है भी तो संसार-निरीक्षण की. उनकी आँखे दिल की ओर देखती हैं, वे सदा दिली जज्बात वो भावों की सैर में निमग्न रहती हैं. यह तो नहीं कहा जा सकता कि वे संसार की बहुरंगी से नितान्त अनभिज्ञ हैं; किन्तु इतनी बात अवश्य है कि इस बहुरंगी की ओर उनका ध्यान नहीं है.’
कलीमुद्दीन अहमद की चर्चित और संपादित किताबें हैं- उर्दू शायरी पर एक नजर, उर्दू तन्कीद पर एक नजर, अमली तन्कीद, अपनी तलाश में, उर्दू जबान और फन-ए-दास्तानगोई, तहलील-ए-नफसी और अदबी तन्कीद, अदबी तन्कीद के उसूल, मेरी तन्कीद एक बाजदीद, इकबाल एक मुतालेआ, कदीम मगरिबी तन्कीद, मीर अनीस, फरहंग-ए-अदबी इस्तेलाहात-ए-उर्दू, आईडोल्स, अंग्रेजी-उर्दू जामेअ लुगत। इनके अतिरिक्त विभिन्न अदबी तजकिरों के परिशुद्ध प्रकाशन, पत्रिका मआसिर के संपादन सहित दीवान-ए-जोशिश और कुल्लियात-ए-शाद का संकलन और अन्य संपादित साहित्य. अँगरेजी में वर्ष 1953 में प्रकाशित उनकी मशहूर किताब है, ‘Psychoanalysis and literary criticism’. उर्दू अदब में अतुलनीय योगदान के लिए उन्हें सन् 1973 में गालिब अवॉर्ड, 1974 में तरक्की उर्दू बोर्ड के अंग्रेजी-उर्दू शब्दकोश के मुख्य संपादक, 1980 में एजाज-ए-मीर, जुलाई 1980 से सितंबर 1982 तक बिहार उर्दू अकादमी के उपाध्यक्ष, 1981 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया.
कलीमुद्दीन अहमद के बारे में सोचते हुए आज न जाने क्यों बार-बार पटना कॉलेज का अतीत आँखों में झिलमिलाने लगता है और वर्तमान के गर्दो-गुबार से आँखें बंद-सी हो जाती हैं!

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मैं कलीमुद्दीन अहमद का प्रशंसक हूँ । उनका लिखा देवनागरी में पढा है । उर्दू ग़ज़ल के बारे में उनकी धारणा कि यह नीम-वहशी-सिन्फ़ है और वाहियात विधा है – बहुत विवादास्पद होते हुए भी महत्वपूर्ण है । लेकिन कलीमुद्दीन अहमद साहेब को उर्दू का सबसे बड़ा आलोचक कहना विश्लेषण नहीं फ़तवागिरी है जो इस महत्वपूर्ण शोध आलेख को कमज़ोर बनाता है । पंकज पराशर और जानकीपुल का इसे प्रकाशित करने के लिए आभार ।
शोधपूर्ण और वैदुष्यपूर्ण आलेख। यह एक ऐसे वक्त में भी आया है जब बिहार की शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ाई हुई है और बिहार की छवि प्रवासी मजदूरों के अपमान और तकलीफों से अँटी पड़ी है। शिक्षा और रोजगार के अभाव के कारण पीढ़ियाँ यह अपमान सहने को अभिशप्त हैं। ऐसे समय में बिहार की शैक्षिक उत्कृष्टता को रेखांकित करता यह आलेख समय का एक क्रिटीक भी रचता है। कलीम आजिज की जिस ग़ज़ल का ज़िक्र आपने किया है उसी ग़ज़ल का यह मशहूर शेर है एक प्रकार से हासिल ए ग़ज़ल शेर- न दामन पे कोई छींट न खंज़र पे कोई दाग/तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो
कलीमुद्दीन अहमद निश्चय ही उर्दू के पहले आधुनिक आलोचक थे जो पाश्चात्य आलोचना ख़ासकर अंग्रेज़ी साहित्य और आलोचना के विद्वान थे । उन्होंने आधुनिक दृष्टि से उर्दू के पारंपरिक साहित्य ख़ासकर ग़ज़ल विधा की ‘नीम-वहशी-सिन्फ़’ कहकर धज्जियाँ उड़ा दी । वे ग़ज़ल को वाहियात विधा कहते थे जिसके एक शे’र की दूसरे से कोई संगति नहीं । देवनागरी में उपलब्ध कलीमुद्दीन साहेब की किताबें पढ़ी हैं । लेकिन उनको उर्दू का सबसे बड़ा आलोचक बताना इस शोध पूर्ण आलेख को कमज़ोर बनाता है । अच्छा होता आप उनकी आलोचना पर भी कुछ कहते । उनके आलोचनात्मक सिद्धांतों की थोड़ी व्याख्या करते । बहरहाल पंकज पराशर और जानकीपुल का आभार !
कलीमुद्दीन अहमद पर लिखे लेख को पसंद करने के लिए आप सबका आभार. दोस्तो, जहाँ तक कलीमुद्दीन अहमद को उर्दू के सबसे बड़े आलोचक कहने की बात है, तो ये मैंने नहीं कहा है. बराए-मेहरबानी इसे मेरा फतवा कतई न मानें. बात दरअसल उर्दू के अनेक विद्वानों ने उन्हें उर्दू का सबसे बड़ा आलोचक कहा है, जिसका मैंने केवल यहाँ उल्लेख किया है. चूँकि यह बात मेरी है ही नहीं, इसलिए इस बात से मेरे इस लेख के कमज़ोर और मजबूत होने का कोई संबंध नहीं है. यहां यह भी बताते चलें कि इस लेख को मैं विस्तार दे रहा हूँ, जिसमें उन लोगों को मैं बाकायदा उद्धृत करूँगा, जिन्होंने ऐसा कहा है.