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फ़िल्म गाइड की कहानी आर के नारायण की ज़ुबानी

अभी दो दिन पहले मैंने वहीदा रहमान से बातचीत पर आधारित नसरीन मुन्नी कबीर की किताब के हवाले से गाइड फ़िल्म की चर्चा फ़ेसबुक पर की थी। उसमें यह लिखा था कि अंग्रेज़ी में बनी ‘गाइड’ की पटकथा मशहूर लेखिका पर्ल एस बक ने लिखी थी। इस बात से ‘द गाइड’ उपन्यास के लेखक आर के नारायण खिन्न थे। ख़ैर, आर के नारायण की आत्मकथा में गाइड विवाद का वह सारा प्रसंग मिल गया तो साझा कर रहा हूँ। उनकी आत्मकथा का हिंदी अनुवाद ‘मेरी जीवन गाथा’ नाम से राजपाल एंड संज प्रकाशन से प्रकाशित है- जानकी पुल

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‘दि गाइड’ को पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त हुई, जो, ख़ुश करने के बावजूद, बहुत-से-झंझटों को साथ लेकर आया और अंत में त्रासदी साबित हुआ।

सितंबर 1964 में, देवानंद ने, जो बम्बई का फ़िल्म अभिनेता और निर्माता था, न्यूयॉर्क से मुझे पत्र लिखा और यादवगिरी में आकर मुझ से मिला, कि मैं इस पर फ़िल्म बनाना चाहता हूँ।

मेरे फाटक पर हस्ताक्षर लेने वालों की छोटी सी भीड़ इकट्ठा हो गयी, और ड्रॉइंग रूम में, आवश्यक नमस्ते-नमस्ते करने के बाद उसने अपनी चेक बुक निकाली, पेन खोला, और चेक पर उसे टिकाकर ‘दि गाइड’ के फिल्माधिकार की क़ीमत बताने के लिए मेरी ओर नज़र टिका दी। लगा कि जो मैं कहूँगा, लिख देगा। इससे मैं चकित रह गया। इस अचानक लाभ से मेरी विचार-प्रक्रिया लकवा मार गयी। मैंने उसका हाथ नीचे कर दिया और फ़िल्म के चलने पर उसकी आमदनी से बहुत कम प्रतिशत रॉयल्टी के अलावा मामूली एडवांस के साथ अनुबंध स्वीकार कर लिया।

मैंने गर्व से घोषणा की, “तुम्हारी फ़िल्म के साथ उठूँगा या गिरूँगा। बेजा लाभ नहीं उठाऊँगा”।

उसने कहा, “आपके उदार सहयोग से हम ज़रूर आगे बढ़ेंगे, सारा आकाश हमारी सीमा होगा”।

जैसे-जैसे हम आगे बढ़े, यह आकाश नीचा ही होता चला गया, और जब लाभ से हिस्सा प्राप्त करने का समय आया, आप इसमें छाते से छेद कर सकते थे। अंत में मुझे बताया गया कि ‘दि गाइड फ़िल्म से कोई लाभ नहीं हुआ है’।

उन्होंने मुझे लिखा, ‘हम आपको विश्वास दिलाना चाहते हैं कि जब भी कुछ लाभ होगा, आपका हिस्सा बिना कहे आपके पास पहुँच जायेगा’।

इस बात को सात साल हो चुके हैं। फ़िल्म में उनके एक करोड़ रुपये लगने का अनुमान था, लेकिन इसका ज़्यादातर हिस्सा उन्होंने अपने ऊपर खर्च किया, मोटे-मोटे वेतन और निर्माण के समय आलीशान होटलों में रहना और शाही ढंग से खाना-पीना। कभी-कभी मुझे फ़िज़ूल-सी मीटिंगों में सलाह करने बुला लेते, या प्रेस से मिलवा देते जहां वे अपने अतिथियों को शराब पिलाकर बड़ी-बड़ी बातें करते और घोषणाएँ करते।

एक दफ़ा मुझे लॉर्ड माउंटबेटन के साथ गवर्न्मेंट हाउस में भोजन करने के लिए बम्बई बुलाया गया कि मैं उन्हें लंदन में फ़िल्म के वर्ल्ड प्रीमियर पर क्वीन एलिज़ाबेथ की उपस्थिति के लिए राज़ी करूँ। मुझे एयरपोर्ट से सीधे गवर्न्मेंट हाउस के बैंक्वेट हॉल ले जाया गया। यह विलक्षण प्रस्ताव था- जो शायद (स्व) पर्ल बक की कल्पना की उपज था, जो फ़िल्म निर्माण में देवानंद की भागीदार थीं। शाही बैंक्वेट समाप्त होने के बाद, हमारी मेजबान, जो बम्बई की गवर्नर थीं, फ़िल्म की यूनिट के लोगों को कुशलतापूर्वक अतिथियों से अलग करके हिज़ लॉर्डशिप की तरफ़ ले गयीं, जो बग़ल के एक वरांडे में बैठे हुए थे। हम अपनी पंक्तियाँ बोलने के लिए तैयार थे। लॉर्ड माउंटबेटन अचानक पूछ बैठे, “ ‘दी गाइड’ की कहानी क्या है?” पर्ल बक ने बताना शुरू किया लेकिन वह ज़्यादा नहीं बता सकीं। “एक आदमी था, राजू नाम का-वह गाइड था”।

“कैसा गाइड?” हिज़ लॉर्डशिप ने गहरी आवाज़ में पूछा।

इससे उनका विवरण रुक गया। उन्होंने मेरी तरफ़ देखकर कहा,

“नारायण, तुम बताओ”।

लेकिन मैं बोलना नहीं चाहता था। मैंने अस्सी हज़ार शब्दों में कहानी लिखी थी, अब मैं इसके झमेले में नहीं पड़ना चाहता था। प्रेस घोषणाओं में कहा गया था कि पर्ल बक ने स्क्रीन प्ले लिखा है, और कहा जा रहा था कि दो लाख डॉलर एडवांस में दिए गये हैं, और अब मैं उनकी मदद नहीं करना चाहता था। उन्होंने दयनीय भाव से मेरी तरफ देखा, और दूसरों ने भी मुझे बोलने के लिए प्रेरित किया। मैं अकड़कर बैठा रहा। पर्ल बक ने आगे कहा, “और थी रोज़ी- एक नर्तकी”।

“अच्छा”, लॉर्ड चौंके, “यह कौन है? इसके साथ क्या हुआ?”

उन्होंने रूचि लेते हुए पूछा, जिससे पर्ल बक का तार फिर टूट गया। मैं कहना चाहता हूँ कि उनकी परेशानी मुझे अच्छी लग रही थी और उन्होंने ज्यों-त्यों करके उल्टी-सीधी कहानी सुनाकर ख़त्म की। अन्य अतिथि दूर-दूर से उठकर हमारे दल में शामिल होने लगे। “बड़ी मज़ेदार है, मुझे मानना पड़ेगा,” लॉर्ड माउंटबेटन ने अंत में कहा। फिर वे अपने सहायक की ओर मुड़कर बोले, “विलियम जब हम लंदन जायें तो मुझे याद दिलाना।  पता नहीं, क्वीन के पास समय होगा या नहीं। फिर भी, मैं कर सका, तो करूँगा”। जिस आदमी ने वायसराय के रूप में 1947 में ब्रिटेन से सत्ता लेकर भारतीयों को सौंपी थी, अब ‘दि गाइड’ के प्रचार में सहायक होने जा रहा था- कितनी अजब बात थी। लेकिन इस प्रस्ताव के बारे में फिर कभी कुछ नहीं सुना गया।

 
      

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