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’90s किड’ की निगाह में बासु चटर्जी का सिनेमा

बासु चटर्जी की फ़िल्मों को आज का युवा वर्ग किस तरह देखता है। 90 के दशक में जन्मा, पला-बढ़ा वर्ग। इसकी एक झलक इस लेख में है। लिखा है दिल्ली विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र की पढ़ाई करने वाली भूमिका सोनी ने। मूलतः राजस्थान की रहने वाली भूमिका आजकल बैंगलोर में एक बहुराष्ट्रीय बैंक में काम करती हैं। हिंदी अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में लिखती हैं। यह लेख पढ़िए-

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तब शहर में नया नया DTH का प्रचलन शुरू हुआ था। पापा ने जल्द से जल्द उसे घर में लगाने का प्लान बनाया। इसके कई कारण थे। सबसे पहला और बड़ा पैसे की बचत। कुछ चैनल फ्री थे और कुछ जो चैनल आपको पसंद हो उनको आप खरीद सकते थे। ज़ाहिर सी बात है, पापा ने सिर्फ़ फ्री वाला सब्सक्रिप्शन लिया। दूसरा कारण था पिक्चर क्वालिटी केबल टीवी से कई गुना अच्छी थी और DTH में टीवी और रेडियो दोनों चला सकते थे। तीसरा, जो मुझे बहुत खला वह था कि इसमें वे सारे फ़ैंसी चैनल नहीं आते थे जिस से बच्चों की पढ़ाई खराब हो। मैं उस समय कुछ चौथी-पाँचवीं कक्षा में थी। अफ़सोस इस बात का था कि मेरा सबसे पसंदीदा प्रोग्राम चला गया- सोन परी। ख़ैर, पूरे घर को इस नीरस टीवी की आदत हो गई, जो सिर्फ़ पापा को भाता था। ज़्यादातर चैनल न्यूज़ के थे और कुछ पुराने चैनल जो अब कोई देखता भी नहीं था उनपर सिर्फ़ पुरानी फिल्में आती थीं। जब मेरी उम्र के सारे बच्चे हॅना मोंटेना, सब्रीना- द टीनेज विच और शाकालाका बूम बूम देख रहे थे। इसी समय मेरा परिचय हुआ बासु चटर्जी की फिल्मों से। हालाँकि यह बात मुझे उस समय नहीं पता थी। छोटी सी बात, रजनीगंधा, बातों बातों में, चितचोर और भी कई पुरानी फिल्में, सब देख डाली। उस समय में इन्हे अमोल पालेकर की फिल्मों के नाम से जानती थी। थी में ‘90s किड’ पर पापा की जिद्द की वजह से में 70s में जी रही थी। देखा जाए तो अच्छा ही हुआ। हमारी पीढ़ी ने शोले, दीवार, अमर अकबर ऐंथनी तो देखी होगी (या नाम तो सुना ही होगा), लेकिन बासु चटर्जी की फिल्मों के नाम नहीं जानते होंगे। ऋषि कपूर के जाने पर जहाँ मेरे दोस्तों ने हर सोशल मीडिया प्लॅटफॉर्म पर उनके लिए श्रद्धांजलि लिखी,  उन्होंने शायद बासु चटर्जी की जाने की खबर भी ध्यान से नहीं पढ़ी होगी। अंताक्षरी में जब ‘ग’ से गाना होता है तो चाहे वो बड़ा हो या छोटा सबसे पहले जो गाना याद आता है वह चितचोर का “गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा” ही होता है। पर अफ़सोस, ज़्यादार लोगों ने यह फिल्म नहीं देखी होगी। इस से एक और बात याद आती है कि हम ऑडियेन्स को किरदार याद रहता है, उस किरदार को निभाने वाला याद रहता है पर किरदार को गढ़ने वाला नहीं। कहानी याद रहती है, पर कहानी सुनाने वाला नहीं। लेकिन यहाँ में इस लेख को नकारात्मक नहीं बनाउंगी और उन फिल्मों के बारे में बात करना चाहूँगी जो मुझे बहुत पसंद आई और शायद इसे पढ़ कर ही मेरे कुछ दोस्त उन बेहतरीन फ़िल्मों को देखें, एक अरसे बात ही सही!

व्यावसायिक सिनेमा और पैरेलल सिनेमा के बीच जो एक लंबा सफ़र है उसको बासु चटर्जी की फिल्में बखूबी पूरा करती है। बात कह भी जाती है और मन दुखी भी नहीं करतीं। उन्होंने एक सर्वोत्कृष्ट नायक दिखाने के बजाए अपनी फिल्मों में आम आदमी को अपना हीरो चुना। उसके जीवन की कश्मकश को दर्शाया। फिल्म छोटी सी बात में बिना हीरोईन के घर के चक्कर लगाए, बिना विलेन को पीटे, हीरो हीरोईन को प्रभावित कर लेता है। पूरी फिल्म में आपके चेहरे पर मुस्कान रहती है और किसी भी पात्र के खून का एक कतरा नहीं बहता। कैसे परिस्थियों से कहानी में मोड़ लाया जा सकता है, यह हम बासु चटर्जी की फिल्मों से सीखते हैं। जैसे फिल्म बातों बातों में एक माँ अपनी बेटी के लिए एक सुयोग्य जीवनसाथी ढूँढना चाहती है। उसे एक लड़का पसंद भी आता है पर कहानी में मोड़ तब आ जाता है जब उसे पता लगता है की उस लड़के की तनख़्वाह उसकी बेटी से कम है। दिलचस्प बात यह है की आगे की फिल्म में इस बात को लेकर बिना वजह का रोना धोना या ड्रामा नहीं दिखाया गया है, बल्कि हास्य से भरपूर रिश्तों की पेचीदगी दिखाई गई है। बासु चटर्जी की  ज़्यादातर फिल्मों में “कॉमेडी इन ट्रॅजिडी” की तर्ज़ पर हास्य प्रस्तुत किया गया है। फिल्म खट्टा मीठा में एक विधुर आदमी और एक विधवा औरत की जिंदगी के खट्टे मीठे पलों को दर्शाया गया है।  जब उनका एक दोस्त उनकी आपस में शादी का प्रस्ताव रखता है तो उनके जवान बच्चों का परस्पर साथ रहना घर में मुश्किल खड़ी कर देता है और इन्ही मुश्किलों के क्रमचक्र में पैदा होता है हास्य।  इस से यह भी पता चलता है की बासु चटर्जी की फिल्में वक़्त से कई ज़्यादा आगे थी। चमेली की शादी में अंतरजातीय विवाह की परेशानियाँ दिखाई गई हैं और फिल्म रजनीगंधा नायिका के दृष्टिकोण से दिखाई गई है। यह फिल्म मन्नू भंडारी की कहानी ‘यही सच है’ पर आधारित थी। इसमें नायिका अपने जिंदगी में आए दो लड़को को लेकर असमंजस में है और पूरी फिल्म में उसकी इस दुविधा का बड़ा ही सुंदर प्रस्तुतिकरण है।  ‘कमला की मौत’ और ‘त्रियाचरित्तर’ आदमी और औरत के प्रति समाज के भेद भाव पर कटाक्ष करती है। यह दो फिल्म मैने हाल में ऑनलाइन प्लॅटफॉर्म पर देखी, तो लगा की पहले भी ऐसी फिल्में बनती थी जो समाज के दोहरेपन पर वार करती थीं। सिनेमा बहुत पहले से समाज को आईना दिखाने का काम कर रहा है और बासु चटर्जी जैसे दिग्गज निर्देशकों ने इसमें प्रमुख भूमिका निभाई है।

एक और बात है जो उनकी फिल्मों में बहुत ख़ास थी, वो है मुंबई।  उनकी ज़्यादातर फिल्मों में मुंबई उनका कैनवास रहा। वह मुंबई जिसमें आज जितनी भीड़भाड़ नहीं थी, गाड़ियों का शोर नहीं था और जब ज़्यादातर लोग बेस्ट बसों का सफ़र करते थे। मैं जब पहली बार मुंबई गई तो मरीन ड्राइव पर मैं उनकी फिल्म मंज़िल का वह सीन ढूँढ रही थी जहाँ अमिताभ बच्चन मौसमी चटर्जी का हाथ पकड़े गाना गा रहे हैं- ‘रिम झिम गिरे सावन।’ हालाँकि, मेरे आसपास लोगों का हुज़ूम था। कहाँ से आ गए इतने लोग? और लहरें भी शांत थी!  उस गाने में समंदर के उफान के बावजूद एक शीतलता थी। ऐसा जादू सिर्फ़ बासु चटर्जी ही पैदा कर सकते थे।

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लेखिका का ईमेल-sonibhumika3@gmail.com

 
      

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17 comments

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    В футере сайта, а также в шапке клиентского договора указан один и тот же адрес на Сент-Винсент и Гренадинах: First Floor, First St. Vincent Bank Ltd Building, James Street, Kingstown. Здание действительно существует, и оно напрямую связано с финансовой системой. Находится в нём ровно то, что мошенники не удосужились вычистить из адреса: First St. Vincent Bank Ltd Building. То есть главный банк страны.

    Несмотря на миниатюрность учреждения в карликовом государстве, офшорный банк не бедствует и уж точно не докатился до сдачи в аренду первого этажа здания всяческим проходимцам. Банкам по любым протоколам безопасности запрещается делить помещения с любыми арендаторами, поскольку это создаёт дополнительную уязвимость.

    Ровно этим же адресом прикрылись лохоброкеры Pro Trend и Moon X. При этом признаков клонирования у этих ресурсов с Esperio нет, так что скорее мы имеем дело с новым популярным резиновым адресом. Выбор удачный: координаты ещё не растиражированы по сотням и тысячам сайтов, рисков, что на далёкий офшорный остров нагрянет русскоязычный клиент мало. Да ещё и поверхностная проверка через поисковик покажет, что адрес существует и там что-то про финансы. Так что для целей мошенников отлично подходит.

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