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आईनासाज़:परछाइयां और आहटें पकड़ने का अजब खेल

अनामिका के उपन्यास ‘आईनासाज़’ की कथा को लेकर बहुत लिखा गया है लेकिन उसके विजन को लेकर बात कम हुई है। राजीव कुमार की यह समीक्षा मेरे जानते इस उपन्यास की शायद पहली ही समीक्षा है जो ‘आईनासाज़’ के विजन की बात करती है, अमीर खुसरो, सूफ़ी परम्परा, स्त्री-पुरूष के रिश्ते, धर्मों की एकता, रूहानियत- आख़िर क्या है इस उपन्यास की थीम। बहुत जटिल है कथानक लेकिन इसका विजन बड़ा है। उपन्यास अपनी कथा से नहीं अपने विजन से बड़े या छोटे बनते हैं। आप भी पढ़िए अनामिका के उपन्यास ‘आईनासाज़’ पर यह दीर्घ टिप्पणी- जानकी पुल।

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उपन्यास के कथानक में प्रवेश करने से पूर्व इस उपन्यास के उस कथा कौशल की चर्चा भी अपेक्षित है जो इस उपन्यास को एक यादगार उपन्यास का रूप देता है। वे कौन सी और कैसी कथा और कथा युक्ति और कथ्य हैं जिनके कारण यह उपन्यास अद्वितीय बन पड़ा है। दोहरे स्तर पर कहानी दो अलग अलग और सुदूर की शताब्दियों में गुंथी हुई क्या बयान करने जा रही है। क्या कोई अंतर्निहित संवेदना है जो इतिहास के इन दो अलग छोरों पर बैठे पात्र और उनके परिवेश को जोड़ते हों। “जब भी हम किसी बिसरे हुए कालखंड से कोई कहानी उठाते हैं, परछाइयां और आहटें पकड़ने का अजब खेल हमें खेलना होता है। यह प्रक्रिया हाहाकार में डूबे समंदर से मछलियां पकड़ने जैसी प्रक्रिया है।”

अमीर खुसरो और सूफीवाद  की प्रमाण पुष्ट, तिथि निर्देशित ऐतिहासिकता  को जिस रूप में बार बार वर्तमान में दिल्ली जैसे शहर  में  घट रही घटनाओं, इन घटनाओं से प्रभावित सामान्य पात्र और उनके जीवन के साथ अन्तर्भुक्त किया गया है वह वर्तमान में नायक नफीस और नायिका सपना की प्रेम या मौन प्रेम कथाओं को और भी तीव्र प्रभाव देता है।

आईना साज के पिछले पृष्ठ पर स्पष्ट लिखा हुआ है कि यह उस खुसरो की आत्मकथा से रचा हुआ  उपन्यास है जिसमें खुसरो की चेतना को जीनेवाले आज के कुछ सूफी मन वालों की कहानी भी साथ में पिरो दिए गई है। सूफियों और हठयोगियों की अंतरंग अनुभूतियों में सब कुछ तो साझा ही है और यही विरासत है। परन्तु  उपन्यास खुसरो की आत्मकथा से बहुत दूर निकल गया है और डॉक्टर नफीस, सिद्धू, सपना और ललिता जी जैसे किरदारों ने परवर्ती कथा का वितान घेर लिया है। मूर्तियां स्पष्ट तौर पर खुद सौन्दर्य और विस्तार का बयान करने लगी हैं।

एक स्वाभाविक सा प्रश्न उठता है कि आईनासाज की कथा कहने के लिए अमीर खुसरो और इतिहास के उस कालखंड के आख्यान क्यूं लिए गए। इतिहास के उस अध्याय में क्यूं जाता है कथानक जब दिल्ली सल्तनत अपने प्रारंभिक  वर्षों में भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी उपादेयता सिद्ध कर रहा था  और सामाजिक और धार्मिक स्तर पर सूफीवाद अपनी जड़ें जमाने में लगा था और अपने नए सिद्धांतों और एकाकार की परिकल्पना के लिए सामाजिक मान्यताएं तलाश रहा था। इसके उत्तर की तलाश वहां जाकर खत्म होती है कि उपन्यास का केन्द्रीय संवेदन ही समग्रता, एकीकृत और समाहित प्रवृत्तियों का संयोजन है, ऐसी सामाजिक अवस्था की तलाश है जहां स्त्री-पुरुष, हिन्दू-मुसलमान, अच्छा-बुरा का परंपरागत छद्म न रहे और एक सह अस्तित्व का वातावरण अपेक्षित हो बरक्स उसके जब आधुनिक जीवन की जटिलताएं और  इन जटिलताओं से उपजे विमर्श घृणा का माहौल लगातार बना रहे हैं।

समवेत समाज, समवेत व्यक्तित्व, स्त्री पुरुष सह अस्तित्व, समवेत गायन, समवेत भाषा का उत्कर्ष है अमीर खुसरो और निज़ामुद्दीन औलिया का काल, इतिहास में। अमीर खुसरो को नात, कव्वाली की प्रेरणा ही अयोध्या के मंदिरों में गाए जानेवाले समवेत गायन वादन की सुरलहरियों से मिली। “तरन्नुम में कुरआन की आयतें गाई जाने लगीं और धीरे धीरे डफ के साथ रबाब, यंग, नय, कंगोरा और ताली बजाकर मैंने शागिर्दों से तरन्नुम में आयतें सुनना शुरू की … फिर आयतों की जगह अपने लफ़्ज़ों में जिक्रे खुदा शुरू किया जिसमें आशिक माशूक सा रिश्ता खुदा और बंदे में बखाना गया था। बाद में यही बंदिशें नातिया  कव्वाली के नाम से मशहूर हुई।”

उपन्यास में जिस विराटता की परिकल्पना है उसमें स्त्री केन्द्रीय अस्तित्व लिए हुए है: “और मेरे मन में यह बात गहरे घर कर चुकी थी कि युद्ध हों या दंगे फसाद – सबका क्रूरतम कोप झेलता है औरत का शरीर, उसका मन, उसका संवेदन। कायनात की सबसे खूबसूरत चीज औरत, सिरजन हार के नूर का खज़ाना और हमने उसका क्या हाल कर रखा है?  मेरी पूरी शायरी, सूफियों का पूरा दीनो मजहब एक ही फेर में लगा है कि कैसे हम ऐसी फिजा रच सकें जहां औरत, मुफलिस, बुजुर्ग, बच्चे और प्रकृति , जो खुदा का आईना हैं, शैतानी ताकतों के जूतों तले चूर चूर होने से बच जाएं।”

जब अनामिका जी का कथाकार  काव्यात्मक संवेदना से स्त्री की एकांतिक अनुभूतियों को चित्रित करने में प्रवृत्त होता है तो उसकी भाषा के बिम्ब और उपमान तैलीय क्लासिक रंगचित्रों के आकर्षण से उपस्थित होते हैं। इन अनुभूतियों के आईना की कई सदियों में बिखरी किरचियां वे समेटती हैं, फिर अनूठी आईनासाजी के लिए किरदारों को कई बार हाशिए से निकलकर मध्य में डालती हैं। खुसरो और शायरी के इल्म पर लेखिका का आग्रह है “शायरी का मकसद ही है भीतर छुपी प्रीत की लौ सुलगा देना –  सारे भीतरी – बाहरी फसाद मिटा देना।”  हिंदी साहित्य में समानांतर आठ सदियों में बिखरे कथानक को जिस शिल्प में बुना गया वह उपन्यास जगत  की एक महत्त्वपूर्ण कृति बन सका है।

असाधारण शिल्प का प्रयोग

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उपन्यास न केवल  आधे भाग में  अमीर खुसरो और उसके  युग और प्रतीकों का तथा जीवन शैली का विषद चित्रण करता है अपितु समय की ज्वलंत समस्यायों पर अपना विमर्श रच एक स्वस्थ दृष्टि प्रदान कर साहित्य के बड़े उद्देश्यों में अपना हस्तक्षेप भी करता है।  व्यक्ति के स्तर पर मनुष्य अगर सहजीवी नहीं हुआ, दूसरे अपने जैसे व्यक्तियों का आदर नहीं कर सका, स्त्री और परिवार की आकांक्षाओं को समाहित नहीं कर सका तो वह अपने युग की तादात्म्य स्थापित कर सकने वाली निर्मिती नहीं कर सकता।  व्यक्तित्व के निर्माण के लिए सूफीवाद की संवेदना और सह धर्म अस्तित्व के लिए लेखिका इस्लामी शासन के भारत में स्थापना की सदियों में प्रवेश करती हैं।  “मैंने अपनी ज़िन्दगी की मसनबियां तभी लिखीं जब चारों तरफ़ खुशहाली थी।”  जब इस्लाम के सह अस्तित्व के बाद रहन-सहन, वैचारिक घात-प्रतिघात, ईश्वर और व्यक्ति के आदर्शों के निर्धारण में उच्च स्तरीय विमर्श सूफी संतों और उनके शागिर्दों के चलते शुरू हुआ। भक्ति आंदोलन भी अपना विराट स्वरूप लेनेवाला ही था। कोई ऐसा मानवीय पहलुओं को प्रभावित करनेवाला क्षेत्र नहीं था जहां नवीन विवादों और बहसों ने अपनी जगह घेरना शुरू नहीं कर दिया था।  विराट व्यक्तित्व और  पाक उद्देश्य के लिए बुने गए  कथ्य से पाठक एक सही दिशा और समस्याओं के रू ब रू होने की नई ऊर्जा प्राप्त करता है।

कई बार उपन्यास में प्रेम के उदात्त स्वरूप का बिम्ब अनायास  ही नहीं आया है अपितु उपन्यासकार ने इस कथा युक्ति से प्रेम कथा की अनुगुंज और सुगंध जिस रूप में बार बार दी है वह इसकी संघर्षशील नायिकाएं सपना और सरोज कुंडू की साहित्य और कला जगत में बेचारगी की कथा के साथ साथ, समानांतर चलती हुई , प्रेम कथा को भी उतना ही महत्त्वपूर्ण बना देती है। प्रेम यहां जीवन संघर्ष के साथ अनुस्यूत है,  उपन्यास को अविस्मरणीय रूप देने का यह गुण विरलता से मिलता है। बात प्रेम कहानी की चल ही गई तो कथा शिल्प की दृष्टि से प्रेम के धीरोदात्त स्वरूप को यहां जिस संयम, कलात्मक अनुशासन से चित्रित किया गया है, वह उसे दिव्यता और नैसर्गिक कथात्मकता से मंडित करता है।

उपन्यास कथ्य की यतकिंचित चर्चा तो असाधारण रूप से रचे गए शिल्प गत उपलब्धियों के संदर्भ में हो सकती है, जिसमें एक बड़ा हिस्सा अमीर खुसरो और उसके साहित्यिक और सामाजिक अवदानों के बनने और उस समय के परिवेश और व्यक्तियों के निर्माण का है, किन्तु उसमें कुछ प्रमुख पक्षों का विवेचन अभीष्ट होगा। दोनों हिस्सों के कथन  उपकथन में कथ्य और शिल्प बिल्कुल अलग हो जाते हैं। पहले भाग में जहां सूफी आदर्शों की नन्ही और महीन बुनाई है, दूसरे भाग में आधुनिक दिल्ली में सामान्य जीवन के संघर्षों और उच्च आदर्शों के खुरदुरे ताने बाने हैं।

अमीर खुसरो से संबद्ध वह हिंदवी काव्य जिसे विभिन्न स्रोतों से एकत्र करके लाली ए अम्मान में को जवाहर -ए -खुसरवि के नाम से जाना जाता है जिसमें पहेलियां, मुकरियां, दोसुखने, अनमोल, दोगे, गीत आदि सम्मिलित हैं। अमीर खुसरो का हिंदवी काव्य अपनी लोकप्रियता के कारण पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा है और इन सात शताब्दियों में वह हमारी लोक परंपरा या लोक साहित्य का अंग बन गया है।  अमीर खुसरो  अपने इन साहित्यिक अवदानों के चलते हिन्दू मुस्लिम साझा-संस्कृति के सबसे ओजस्वी और विराट प्रतीक हैं।

जनश्रुति है कि निम्नांकित दोहा अमीर खुसरो ने अपने पीर- मुर्शीद निज़ामुद्दीन औलिया के निधन का दुखद समाचार सुनकर कहा था:

गोरी सोवे सेज पर अरू मुख पर डारे केस

चल खुसरो घर आपने रैन भाई चहुं देस।

लोक तत्त्व के अनुशीलन से हम पाते हैं कि आचार, रीति रिवाजों से लेकर धर्म, दर्शन, शिल्प, सौन्दर्य, तक में सर्वत्र  नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है। कोई नैतिक मूल्य अंतिम नहीं है, कोई शिल्प विधि सर्वोत्तम नहीं कहीं जा सकती, कोई अभिव्यक्ति पद्धति सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकती। इस तरह लोक वार्ता साहित्य ने अभिजात साहित्य को यथार्थ परिप्रेक्ष्य में देखने की दृष्टि दी। इतिहास और शैली के अंतःसंबंधों की विवेचना में लोक अथवा लोक वार्ता तत्त्व अनिवार्य होता है।

ऐतिहासिक तथ्यों  और व्यक्तित्व और विचार निर्माण की नए प्रकाश में प्रस्तुति  सिद्ध करती है कि लेखिका ने उपन्यास का कच्चा माल इकट्ठा करने और उससे कथानक का पूरा श्रृंगार करने में कितना परिश्रम किया है। इतिहास के उन गहरे खज़ानों से रत्न निकालने की युक्तिसंगत खोज, नवीन कथा युक्तियों के प्रयोग और प्रचलित कथा प्रयोगों में एक नव कौशल लाते हुए उपन्यास के प्रचलित ढांचे फार्म में तोड़ – फोड़ कर उसे सशक्त बनाते हैं अपितु उपन्यास के अभिनव शिल्प का भी सृजन करने में सक्षम हुए हैं। जब आधुनिक परिवेश में कथा प्रवेश करती है तो शाही खानदान के  चरित्रों और ज़िन्दगी से बड़े किरदारों का सायास निषेध होता है। लोक जीवन, आधुनिक शहरी मिश्रित जीवन और इसके साथ ही  लोक जीवन से गहरी संपृक्ति और सरसता से युक्त एक नई अभिव्यक्ति भाषा के अनुपम लालित्य के साथ प्रस्तुत होकर उनकी किस्सागोई के प्रति आश्वस्त करती है।

द्वंद्व की निर्मिति उपन्यास हर जगह अनायास शुरू कर देता है। ज़्यादातर पात्र अपनी प्रतिक्रिया या तो अवसरानुकूल भाषा या आचरण से प्रकट करते हैं। दृष्टा लेखकीय कथन है और पात्रों की चेष्टाएं हैं। वस्तुत: उपन्यास अपनी कथा के माध्यम से इस्लाम की सूफी धारा और हिंदुत्व की  उदार और विवेकवान विचारधारा के पल्लवन का सार्थक प्रयास करता है।

शिल्प का एक पहलू नायक और नायिका का अद्वितीय चयन है। उपन्यास का नायक अमीर खुसरो है तो नायिका सपना जैन। दोनों दो शताब्दियों में सिर्फ कथा के  अंतः सूत्र  और संवेदना से जुड़ते हुए।  घटनाओं और प्रतिफल के भोक्ता यही दोनों हैं। कथा विस्तार इन्हीं दो चरित्रों के इर्द गिर्द लेती है। प्रथम भाग अगर खुसरो का है तो द्वितीय भाग सपना जैन का है। नायक और नायिका आठ सौ वर्षों के अलग अलग  वातावरण से जुड़े हों फिर भी कहानी की बनावट में वही  पात्र सब कुछ हो जाय, यह असाधारण कथा-शिल्प है।

तीन पत्र : केंद्रीय संवेदन

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उपन्यास में आए तीन पत्र इसे कथा विस्तार ही नहीं देते, बल्कि कथ्य की परिधि भी तय करते हैं। एक  सिद्धू का पत्र सपना को, जो कि नायिका है, दूसरा ललिताजी का पत्र सपना को और उपन्यास के अंत में सपना का पत्र सिद्धू के नाम। सिद्धू का पत्र उपन्यास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि बनाता है, ललिताजी का पत्र  उपन्यास के केंद्रीय संवेदन स्त्री की पूरी कथायात्रा में स्व त्व की खोज, और सपना का पत्र सूफी विचारधारा का लेखिका का विचार  और जीवन में उसके महत्त्व का निरूपण।

सिद्धू का पत्र  इस्लाम के भारतीय महाद्वीप में आगमन के इतिहास का छिछला  रूप ही पेश कर पाता है पर सूफी विचारधारा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि देने में सफल हो जाता है।  वस्तुत: सूफीवाद की वह धारा जो ईरान तथा भारत में फैला उस पर जरथुष्ट्र ,मानी, वेदांत तथा बौद्ध सिद्धांतों के प्रभाव दीख पड़ते हैं। दो मुल्कों के बीच, दो संस्कृतियों के बीच, दो  भिन्न सिराओं की ऐतिहासिकता के बीच सौहार्द्र क्यूं स्थापित नहीं हो पाता सिद्धू का पत्र उसकी छानबीन करता है।

“शांति वार्ताएं इसलिए भी असरकारी नहीं होती कि उनसे संबद्ध लोग समस्याओं का केवल बौद्धिक विश्लेषण करते हैं, सीढ़ियों का हृदय नहीं रखते। स्वयं उनके मन में बहुत ऊंचा नीचा होता है, कथनी करनी में बहुत अंतर होता है। व्यक्तिगत जीवन उनका पाक साफ और पारदर्शी रह नहीं पाता।”

इस्लामिक संस्कृतियों के पनपने और व्यापार तथा अन्य मेल जोल से उगनेवाले विचारों की कोख यात्राओं से संभव है। “सिल्क रूट पर जो रेशमी और नक्काशीदार संस्कृतियां पनपीं, उनके पीछे संघर्ष का घना इतिहास भी है, पर पन्यों के साथ विचारों, रवायतों, किताबों और मजहबों की गुफ्तगू-सी जो संभव हुई, उसी में राज छिपा है उनके उत्कर्ष का। पर हर उत्कर्ष का एक अपकर्ष भी होता है। जुड़वां ही जनमते हैं ध्रुव अंत। ” बाद में कोलंबस और वास्कोडिगामा आए और उसमें सिर्फ व्यापार, संघर्ष और अहंकार आया। सूफियों ने  सांस्कृतिक संवाद का को सिलसिला कायम किया था, इस्लाम और ईसाइयत के बीच वर्षों तक चलनेवाले उस धर्मयुद्ध ने उसकी चूलें हिलाकर रख दीं।

सिद्धू के पत्र के बाद सपना और नफीस आते हैं। सपना का पुनरावलोकन आता है। बहुत कुछ रीत जाने और बीत जाने के क्षणों में अपने परिवेश का बयान है। दोनों का जीवन समर्पित है वंचितों की सहायता के लिए और जिसकी महक पूरी उपन्यास यात्रा में है: “दो बड़े हॉल हैं जिनमें लड़के रह लेते हैं और लड़कियों के रहने का इंतजाम उस ‘ मातृ सदन ‘ में है जहां कुछ ऐसी औरतें रहती हैं जिनका जीवन किसी कारण पटरी से उतर गया और जो स्वयं को दुबारा गढ़ रही हैं।”

इसके बाद ललिता दीदी का पत्र। यह पत्र उपन्यास की आत्मा की तरफ लेखिका का इंगित है। अनामिका जी के पत्र-लेखन कला का नायाब नमूना।

“आकाश कितना सुंदर शब्द है। आकाश से मिलता जुलता, ‘ काश ‘ – सा अनंत। अवकाश  अपने भीतर झांक लेने  का, अपने दरवाजे खटकाने का और अगर वे लाख खटकने पर भी खुल न पाए तो फिर खुद से दूर चले जाने का -उस अनंत में जिसे संसार कहते हैं।”

“सांस की तरह हमें बार बार लौटना ही पड़ता है – कभी अपने भीतर, कभी अपने बाहर, जब तक कहीं एक ठाव न मिल जाए। और ठाँव मिलती ही कितनों को है? कोई ऐसा अंतरंग कोना, अहसास या व्यक्ति भी कहां मिलता है जहां चित्त रम जाए, जहां हम घर – बार कर लें ? “

“एक ही दोष है जिससे दोनों को निजात पानी है –  “श्रेष्ठता ग्रंथि” का दोष, ‘ जो हूं, मैं ही हूं ‘ और अंतिम सत्य मेरी ही जेब में है का अहसास ही शायद इन दोनों के ध्वंस का कारक बना। दरबदर हो गए दोनों – धर्म और मार्क्सवाद।”

सपना का पत्र सिद्धू के नाम उपन्यास का पटाक्षेप  भी है और केंद्रीय संवेदना भी।  सपना स्त्री नायकत्व ग्रहण करती है।

“आज मैं तुमसे ये कहूं क्या की जो बहिर्जगत का सत्य है, अंतर्जगत पर भी वैसे ही लागू होता है ? जैसे मस्त कलंदर नहीं बीता, जैसे बोली – बानियों , कहावतों और ग्रंथों में सुरक्षित प्रीत और अमन के पैगाम नहीं बीतते – तुम भी नहीं बीते सिद्धू और बीतने की हिम्मत भी नहीं करना। हमेशा बाने रहना मैं में – एक सुखद, सूफी अहसास कितारः। ज़िन्दगी एक सूफी सिलसिला इस तरह भी है कि चिराग से चिराग रोशन होता है, मशाल से मशाल।”

पात्र : इतिहास के ध्रुवों में बिखरे हुए

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अमीर खुसरो उपन्यास के प्रथम भाग के नायक हैं और सूत्रधार भी।  साहित्यिक फारसी और हिंदवी के भारतीय उपमहाद्वीप  में प्रवर्तक। पहला प्रबुद्ध नायक जो भाषा, संस्कृति, धर्म और राजनीति सभी विधाओं को आत्मसात किए हुए था। जो। खुद भी पूर्णता में अभिव्यक्त हो रहा था और युगीन अभिव्यक्ति को समझ भी रहा था। उसे टूटते व्यक्ति की चिंता भी थी और खुद को समेटकर खड़े हो जाने की भी। “शायरों में, कलाकारों में एक खास बात देखी है। टूटते हैं तो कुछ देर की खातिर भर भराकर टूट जाते हैं, उसके बाद अपने टूटे कतरे जोड़कर फिर से खड़े भी खुद ही होते हैं। “

 महरु, उपन्यास के प्रथम भाग की कहानी की नायिका। शायर, आज़ाद खयाल और नारी के जिस रूप की चाहत लेखिका को है उसका प्रतिफलन। “आहत औरत का तेज – उसके आगे तो सूरज भी पानी भरे। फिर मेरी महरु तो साधारण औरत नहीं है। ऊंचे दर्जे की शायर है। पानी सा मन उसका। एक फूल की चोट से भी सिहर जाता है – देर तक वह कंपकंपाहट नहीं थमती।”

जिन्हें हिन्दुओं के नाट्यशास्त्र के रचयिता भरत मुनि  पद्मिनी नायिका कहते हैं – मुंह से कुछ नहीं उचारती, ऊपर से सब खिदमतें और भी गहरे विनय से की जाती हैं, लेकिन धरान नहीं देती । थाह ही नहीं पाता आदमी की इनके मन में क्या चल रहा है। बस, आंखें ही राज खोल देती हैं कि वहां पिंजरा खाली लटक रहा है, पंछी तो दूर उड़ गया। खुसरो का सूफी दर्शन  में व्याप्त तनज़्जुल (रूप ) और रूह(  आत्मा) पर बार बार ध्यान जाता है महरू और कायनात के प्रसंगों में।

अमीर खुसरो की बेटी कायनात अजीब भंवरों में पड़ती है। शायर, आज़ाद खयाल, बिंदास और अपने युग से बहुत आगे और बहुत बाहर की फकीर । एक स्त्री दरवेश, कलंदरी जो रूह में लिए इस जहां में आई। एक उलझी हुई प्रेम संबंधों की धुरी, जहां प्रेम सिर्फ जरिया था रब की ऊंचाइयों तक जाने का। जहां गरीबी और बदहाली की ज़िन्दगी भर की शर्मिंदगी से बचाती है इश्क़ ए हकीकी या इश्क़ ए मजाजी।  ” शाहिद को बेशक नमरूद से इश्क़ हो, लेकिन हमारी यह कायनात भीतर भीतर उसको चाहने लगी है। ” महरू का यह वाक्य कायनात की उलझी कहानी का दस्तावेज़ है।

महरु और कायनात ने घर का माहौल किस तरह आज़ाद और शायराना कर रखा था स्वयं खुसरो के शब्दों में: “शायरी का एक दौर चल चुका था शर्बत का भी चला होगा  दरवाज़ा हल्का भिड़ाकर छोड़ा गया था। यानी मेरे पीछे रोज़ यहां महफ़िल भी जुटती थी, बिना मुझे इत्तला किए।”

जब से महरू पर उसके संबंधों की उलझनें बढ़ीं हैं, उसे अच्छी तरह समझ में आ गया है कि अब्बू का रानी पद्मिनी से या शमसुल फकीर का अम्मी से क्या रिश्ता बना होगा। जबकि महरू का शाहिद से शाहिद का नमरूद से जो रिश्ता है वह भी रिश्तों की सामान्य व्याख्या से ऊपर है।

शाहिद,  अमीर खुसरो की बेटी कायनात और  साथी दरवेश नमरूद का प्रेमी है। शाहिद उपन्यास के प्रथम भाग का महत्त्वपूर्ण किरदार भी है। दोहरी ज़िन्दगी, दोहरा प्रेम, द्विस्तरीय चिंताएं करता हुआ दरवेश, शायर। इस्लाम में कुफ्र है, जिन जोड़ों में रूहानी रिश्ता है उन्हें अकेला उकेरना।” मैं कितना खुशकिस्मत हूं कि मेरे दो आइने हैं- नमरूद और कायनात। और ये दो आइने कमाल के आइने इस तरह हैं कि दोनों में मेरी नहीं , मेरे खुदा की झलक है।” साथ जीता हुए एक समलैंगिक संबंध और एक  मुकम्मल प्यार। अजीब कशमकश को जीती है कहानी।

शम्सुल , अमीर खुसरो का प्रतिद्वंदी, रकीब और महरु का प्रेमी  एक आज़ाद खयाल और रूहानी रिश्तों और इंसानी तहज़ीब का परसतार। औरतों पर लगाई जाने वाली बंदिशें उसे भाती नहीं और इसे समाज का क्रोध समझता है।

सपना, उपन्यास की नायिका, जो खुद अपना परिचय देती है। मेरी बोली बानी से  आपको यह तो समझ में आ गया होगा की में दिल्ली की नहीं हूं और उर्दू मेरी मदारी जबान नहीं है। मैं एक जैन परिवार में जन्मी और पली बढ़ी। मेरे पिता पटना से निकालनेवाले एक हिंदी अखबार में पत्रकार थे। मैं आठ बरस की थी –  रिपोर्टिंग के सिलसिले में इनका कश्मीर जाना हुआ, वहीं एक बम विस्फोट में इनकी जान गई और हमारा परिवार तितर-बितर हो गया। “पापा के ग्रेच्यूटी-पेंशन के पैसे से मुझे हाईस्कूल करा देने तक मां बची रहीं, फिर कैंसर उनको पूरा ही कुतर गया… पर वे एक बहादुर मौत मरीं।”

सपना का सच और उसके तय किए हुए रास्ते क्रूर हैं। उपन्यास को चतुर्दिक फैले अंधेरे की बानगी से समृद्ध करते हैं : “अहमद ले गया था तुझे मॉडलिंग रैकेट तक, है न? वहीं के अनुभव इतने कड़वे रहे हैं कि तेरा शादी से जी उचट गया है – इसीलिए शक्ति दा को टालती रही है। गलत कहा क्या?”

डॉक्टर नफीस बहुत कम सुखन हैं बहुत शाइस्ता और संजीदा।  हां ना के अलावा शायद ही कुछ बोलते हो कभी। लेखिका नफीस को प्रस्तुत करती हैं अच्छा मुसलमान तमीजदार तो होता ही है, फिर वे तो अपना चरितार्थ करने की हद तक नफीस थे । नफीस औरत जो चाहती है मर्द का व्यक्तित्व वो हैं। सलीका, तहज़ीब, औरत का आदर, उन्नत खयाल, आजादी पसंद और बिना किसी शोर के प्यार करनेवाला। दूसरे भाग का नायक बनने की क्षमता नफीस में है। सपना का वो पति बनते हैं एक असाधारण परिस्थिति में।

सिद्धू उपन्यास का एक अहम किरदार है। सपना का मित्र और धीरोदात्त चरित्र। सपना का मेंटर भी है और उसे सेक्स और मॉडलिंग के कीचड़ से भी निकालता है। सिद्धू औेर नफीस लेखिका के अनुसार वो पुरुष हैं जो आज की स्त्री अपने जीवन साथी के रूप में देखती है। सिद्धू और नफीस आदर्श चरित्र हैं। खुद सिद्धू ने अपनी सारी ज़िन्दगी यह बाबत जगाने में ही निकाल दी। सिद्धू और नफीस – जैसे सुलझे हुए मर्द हों तभी तो औरत-मर्द और प्रकृति के बीच सूफियाना अहसास जग सकते हैं जिन पर रूमी, खुसरो, फरीद, राबिया, कबीर जैसों कि शायरी ज़िंदा है।

मैंने अपने बचपन के हादसे के बारे में नफीस को अभी कुछ बताया नहीं था, इसलिए मेरी यह बात वह पूरी तरह समझ नहीं पाए और गौर से मेरा मुंह देखने लगे, पर उन्होंने मेरी बात जानी नहीं। चुप रह जाने की कला उनको आती थी। नफीस के बारे में चुप रहना लेखिका का आधुनिक पुरुष के व्यक्तित्व में एक आग्रह है।

शक्ति दा रसीले व्यक्तित्व के हैं, पर कथा को जोड़ने में उनका चरित्र महती भूमिका अदा करता है। इस चरित्र से विरोध रहते हुए भी सपना और ललिताजी के वक्तव्यों में उसके लिए बहुत नफ़रत के शब्द नहीं हैं। शक्ति दा सुबक, सुंदर, रंगीन झूठों के बेताज बादशाह हैं।  दाल भात में मूसलचंद ही बनकर रहना होता तो शक्ति की अनेक गोपिकाओं के साथ ही शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व कायम करके भारत माता भाव से रह न लेती भला? शक्ति बाज़ार की दुनिया के सफल खिलाड़ी थे।

ललिता चौधरी के पति अजय चौधरी का किरदार वामपंथ से जुड़े उन बुद्धिजीवियों का है जो आए तो थे बड़े उद्देश्य से परन्तु गलत तरीकों को अपनाने की वजह से चूँ चूँ का मुरब्बा हो गए।  कुछ का कहना था कि ‘ प्रेशर ग्रुप ‘ की  या ‘नागर-समाज’ की प्रखर भूमिका का जो महा स्वप्न लेकर चले थे, इस कदर उसके चूर चूर होने का मनोताप इनके दिमाग का पेंच ही ढीला कर गया था। उनके पद दलित आदर्शों की सारी खुंदक बीवी बच्चों पर निकलने लगी थी।

ललिता ने उनको नवल पुरुष के रूप में प्रशिक्षित किया है। जिनके साथ रहेंगे, वो बहुत खुश रहेंगी।

यह ज़माना अच्छा है, सब चटपट-झटपट हो जाता है और कहीं कुछ टूट-फ़ूट भी ही जाए तो कोई मातम मनाता नहीं बैठता।

 श्यामा जी सर्जनात्मक और बहादुर चित्त की हैं। सपना उनके यहां काम पर लग जाती है और उसके सूफियाना, रूह को जोड़ने वाले भावों को दृष्टा मिलती है। वाद विवाद और उसके निकष की परंपरा है श्यामाजी। सपना के शब्दों में: “इतिहास की घनेरी छांव और मिथकों का जटा-जूट धारे एक अदृश्य बरगद था इनके ड्राइंग रूम में जिसे हम अंगनैया कहते थे।”

सरोज कुंडू आदि आदि महिला हैं जिनके इर्द गिर्द उपन्यास का आदिवासी सरोकार गढ़ा जाता है। कवि हैं और त्रासदियों की श्रृंखला से गुजरती हुई। दो बच्चे होते हैं, पति त्रासद स्थिति में मरता है, सांसद के घर में शरण मिलती है, फिर सांसद के साथ ही संबंधों की बदनामी और न्यायालय का चक्कर। सपना सरोज के संघर्ष में उस्के साथ है। उपन्यास में सरोज लेखिका का हृदय लेती है और सारे समाज के मामले एक-एक कर बहुत बारीकी से उद्घाटित होते हैं। सरोज का मानवीय पहलू उसे एक महत्त्वपूर्ण किरदार बना देता है।

अनामिका जी के स्त्री  पात्र सह अस्तित्व में जीती हैं। मर्दों की सामंती प्रवृत्ति और स्टीरियो टाइप सोच का प्रतिकार तो करती हैं पर उनसे नफ़रत नहीं। वो हर जगह पुरुष में वांछित गुणों को उद्धृत भी करती हैं। पुरुष की सहभागिता में उन्हें अगाध श्रद्धा है।  किसी का किसी के साथ संबंध यहां आदरणीय है भर्त्सना योग्य नहीं। हर स्त्री  पात्र के अपने तथा कथित अंधेरे हैं , जिनको वो खुद डील करती हैं और दूसरी स्त्री उस पर न्यायाधीश की मुद्रा इख्तियार नहीं करती। उपन्यास इस मामले में भी अनूठा है।

कथा  – वैशिष्ट्य

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 उपन्यास का प्रथम भाग सल्तनत , सुल्तान, फकीर, दरवेश, खानकाह, दरगाह और मकबरों की दास्तान बयान करता है। सारे जतन में इंसानी फितरत का रेंगता धागा हर सूं है।  अनामिका जी के दिल्ली प्रवास और इस उपन्यास कथा की सोच में निज़ामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो का गहरा प्रभाव है। इस माला को वो सलीकेसे गूंथने में कामयाब हुई हैं।

शाही सल्तनत का मुलाजिम होकर भी सामान्य जीवन के आदर्श और कलम की वफादारी का अंकन  उपन्यास का उद्देश्य है । लेखिका संजीदा हैं उपन्यासकार की इस जवाबदेही पर और बखूबी उसका निर्वाह हुआ है। खुसरो की रचना “मिफता-उल – फूतुह” जलालुद्दीन फिरोज खिलजी के समय में सुल्तान की शान में लिखी गई। अमीर खुसरो के पुराने दोस्त मलिक छज्जू और हातिम खान ने मिलकर सुल्तान के खिलाफ बगावत  ठान ली और मुंह की खा गए।” जिस दिन वे कुचले गए, उस दिन जलालुद्दीन खिलजी की शान में कसीदे पढ़ते हुए मेरा मन बहुत रोया। कलम की आज़ादी के ख्वाब बुनने लगा हूं कि आगे आने वाली कौमों को अपनी कलम गिरवी रखने की मजबूती न हो। ख्वाब देखने का सिलसिला शुरू हो गया तो ख्वाबों की ताबीर का भी मंजर देखेंगे ही आने वाली नस्लें- चाहे जितने दिन लगें, बीज पड़ गया मिट्टी में तो कभी फल भी आएंगे।”

“जी हुजूरी वो भी नाकाबिल सुलतानों की- रूह में सुराख किए देती है। लगातार कुछ मवाद सा रिसता रहता है।”

स्त्री और उसका स्वाभिमान, उसके भविष्य की चिंता उपन्यास की केन्द्रीय संवेदना है। प्रथम भाग में आई स्त्रियां बंदिशें ज़्यादा तोड़ती है, उपन्यास के दूसरे भाग में वहीं भाव स्त्री का संघर्ष हो जाता है। लेकिन पूरे उपन्यास में यह कथा स्त्री चिंता में भींगती हुई चलती है। सौन्दर्य बोध, जीवन बोध और अस्मिता बोध तीनों हैं यहां।

“बहुत दिनों बाद गौर से मैंने अपनी महरू का चेहरा देखा। इस उम्र में इतना हुस्न। सांझ के सूरज का शाइस्ता ठहराव- कहीं कोई धधक, कोई आग नहीं। ज़िन्दगी के सब रहस्य थोड़ा- थोड़ा समझकर नम हुई सी समझदार आंखें, थोड़े से खुले हुए आबदार होंठ जिनसे नूर का चश्मा सा बहता दिखाई दे रहा था।”

 जबरदस्ती औरत के शरीर पर हो भी जाए, पर उसकी रूह हमेशा आजाद रहती है। उस पर काबू करने के मर्दाना इरादे वैसे ही हास्यास्पद हैं, जैसे धूप को आइने में, पानी को घड़े में, हवा को गुब्बारे में, सुर को साज में, हुस्न को तस्वीर और कशिश को शायरी में पकड़ने की कोशिश।” पद्मिनी और अम्मा, मलाइका, महरू और मेरी सबसे छोटी संतान, कायनात, मेरी ज़िन्दगी में खुदा की ओर खुलनेवाली ऐसी नायाब खिड़कियां थीं जिनके बिना मेरे दुविधा भरे दोचित्ता अंधेरों को एक कतरा रोशनी का न मिलता, नूर को तरसती रहा जाती ये आंखें।”

शायरी और दीन का उद्देश्य एक है, उसकी संगत एक, एक हैं उसके निहितार्थ। साहित्य का परम उद्देश्य भी यही है। वक़्त बुरा है, औरतों की खातिर ये दुनिया और खतरनाक है। धीरे धीरे बेहतर हो जाए, इसके जतन में लगे हैं शायरी, दीनोइमान।  स्त्री अस्मिता चिंता और उसका अपनी स्वतंत्रता का सुरूर स्वतः जन्म हो, बिल्कुल फाक़िरी में आबद्ध। नाच हो तो दरवेशों के नाच सा अपने ही सुरूर, अपनी मस्ती में, किसी के इशारे पर नाचने जैसी वाहियात बात हो ही नहीं सकती।

मन्नतों का धागा बांधती इन औरतों में क्या जाने कौन राबिया फक़ीर हो, कौन पद्मिनी, कौन महरू, कौन महिमा, कौन देवालदी, कौन कायनात। और कोई जाने-न-जाने, अपने पीर के बगल में लेटे अमीर खुसरो जानते हैं औरतों के मन की सब बातें, शायद अपने-अपने खुसरो की तलाश में हों ये सारी पनहारियां।

दुनिया में जितना आतंक बढ़ रहा है, हिंसा बढ़ रही है, युद्ध गजगजा रहे हैं, औरतों की मन्नतों का धागा और ऊंचा बांधता जाता है। क्या है इन मन्नतों का सार- वो ही, जो सूफी कहते थे- रूमी, राबिया, खुसरो, बाबा फरीद, बुल्लेशाह, कबीर और दुनिया के सारे कलाधर्मी।

दूसरा भाग: आधुनिक जीवन संघर्ष

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यह भाग बुना हुआ है सपना, ललिता, श्यामा, नफीस, सरोज , शक्ति दा और सिद्धू की जददोजहद और मानवीय मूल्यों की स्थापना के संघर्षों के चित्रण से।

नायिका सपना  ललिता चतुर्वेदी से काम मांगने के सिलसिले में बात करती है। उसका इस कथा में आगे बढ़ना पटना से अपने को संभालकर दिल्ली लाने, यहां जीविकोपार्जन के लिए काम ढूंढने, उसी दौरान बर्बादी की अपनी दास्तां जीने के साथ है। अनामिका जी सपना का चरित्र बुनने में बहुत मेहनत करती हैं और अपना हृदय देती हैं। पहला भाग अमीर खुसरो का है तो दूसरा सपना जैन का। ललीताजी के साथ सहज सपना: “मध्य काल वाला पर्चा ठीक हो गया। सूचनाओं के परे जो सड़क जाती है न, वही जिसे पर्सपेक्टिव कहते हैं, जहां सूचनाओं की पगडंडियां गले मिलती हैं – आपके लेक्चर हमें वहां तक ले गए। फिर यह उपन्यास।”

सपना , एक वृहत सामुदायिक संघर्ष में है। तिरहुत और पटना के इलाके से चलकर दिल्ली में रोजगार का जतन एक बड़े तबके का सच है। वह अपने साथ अपनी संस्कृति ले आई है दिल्ली। उसके इलाके के लोग एक अंतरंग संबंध रखते हैं अपने अपने संघर्षों में। कथा इन बारीकियों पर समुचित ध्यान देती है।   तिरहुतिया अंतरंगता जीवंत भाव का उद्बोधन है।” हमारे लिए जो बत रस है, वह यहां के दरबारी समाज को बतबनौअल दिखता है। किसी तरह के प्रयोजन से बिछाया गया वाग्जाल। देश काल से साधारण बात की व्याप्तियां भी बदल जाती हैं।”

दिल्ली विश्वविद्यालय और वहां पढ़ रहे छात्रों के जीवन संघर्ष का चित्रण बखूबी हुआ है उपन्यास में। छात्र तो वैसे भी हुलुकबंदर होते हैं। खुफियागिरी करने पर उतर आएं तो क्या न पता कर लें। “अम्मा कहती थी कि नक्षत्रों का तो नहीं पता, ज्योतिष मैं नहीं जानती, पर अपने अनुभवों से इतना ज़रूर जान गई हूं कि छात्र, संतति और प्रशंसक ईश्वर की आंखें ज़रूर हैं या उनके छोड़े हुए नटखट जासूस।” छात्र जीवन रुपायित है अपनी पूरी समृद्धि में, जिससे गुजर रहे हैं कई पात्र।

श्यामा और सपना की दैनंदिन में शामिल हो जाते हैं खुसरो और उसके जीवन सत्य पर वाद-विवाद। उपन्यास के दूसरे भाग में इन संवादों के जरिए पहले भाग में कही गई कहानियों का आकस्मिक विश्लेषण भी है: “वह उपन्यास तो उनका पढ़ा हुआ है पर उन्हें भी अंतिम हिस्सा सुनने में ही दिलचस्पी है जहां खुसरो की बेटी अगवा करता ली जाती है और शाहिद फकीर को भी इस तरह से दृश्य से हटा दिया जाता है कि संशय शाहिद फक़ीर पर ही आए। जीवन के इस भयावह मोड़ पर राजदरबार से विमुख अमीर खुसरो कैसी बेताबी में हज़रत निज़ाम औलिया की ओर देखते हैं और क्या क्या उनमें बात होती है, यह हिस्सा किसी भी तरह की मुसीबत से घिरे आदमी को एक हल्की सी टेक दे सकता है।”

श्यामाजी का घर सपना और सरोज तथा उससे जुड़े लोगों का रैन बसेरा हो जाता है। घोर संघर्ष और आतप की कहानियां यहां पनाह लेती हैं। श्यामाजी से जुड़े प्रसंगों में ही उपन्यास कथा की उलझनें व्याख्यायित भी करती हैं लेखिका और समाधान की तरफ बढ़ने का भी प्रयास करती हैं: “अगले दिन सोशल मीडिया इस दुष्प्रचार से रंग गया कि श्यामा जी का घर कलंकिनी कुलक्षणाओं की शरणस्थली  बन गया है।दिल्ली का कोई पत्रकार ‘ कलंकिनी’,    ‘कुलक्षणा’  शब्द का प्रयोग तो करेगा नहीं भाषा के इस तत्सम  प्रधान पक्ष से स्पष्ट था कि इस दुष्प्रचार के पीछे की लुत्ती किसकी लगाई हुई है। मैंने ज़िन्दगी में इतना कुछ सहा है, मेरी आंखें खोलने की प्रकृति ने इतने सारे झटके नियोजित कर रखे हैं कि मुझे किसी चीज से खास चोट नहीं लगती – बस सांसें घुटने लगती हैं कभी कभी। उल्टी सी आती है तो मैं कुछ देर के लिए छत पर चली जाती हूं और आसमान की और पसरा शून्य देखने लगती हूं ।”

सामंती सोच बदला नहीं। स्त्री के आकलन का पुरुष द्वारा महफिलों में बैठकर किया जानेवाला  रवैया बदला नहीं। पुरुष की इस ऐतिहासिक सोच का मलामत करती हुई लेखिका स्त्री विमर्श के बड़े आयामों को छूती हैं: “इनके दिमाग में नहीं घुसता कि तन मन धन से बाहर भीतर दोनों खटनेवाली औरत के पास कहां है इतना समय कि वह इधर उधर लोगों से रूमानी रिश्ते बनाती चले। फिर रूमानी रिश्ते बनाने लायक पुरुष भी तो नजर नहीं आते। शिक्षा दीप्त स्त्री उतनी ही अकेली है जितनी कि धुवस्वामिनी थी – रामगुप्त का समाज है, चन्द्रगुप्त नजर ही नहीं आते।”

इस वर्णन में समाज की सोच का वीभत्स चेहरा आता है जो उपन्यास उद्घाटित भी करना चाहता है। प्रश्न स्त्री लेखक की तरफ से विमर्श में लाया गया है और उसकी तह तक जाने की कोशिश भी स्त्री मन से है। ये प्रसंग इतने संयत और समेकित दृष्टिकोण के हैं कि वे उपन्यास की संवेदना को नई ऊंचाई देते हैं: “सारा संकट इसी बात का तो है कि एक औसत स्त्री का नैतिक कद एक औसत पुरुष से इतना ज़्यादा हो गया है कि पुरुष कुंठा में जीने लगे हैं। इसके बजाय की वे खुद को शिक्षा दीप्त नई स्त्री से बात करने योग्य बनाने की कोशिश करें यानी पढ़ें लिखें , शिष्ट और सौम्य बनें, सारी ऊर्जा समेटकर वे औरतों कि ही छवि धूमिल करने में लग जाते हैं और पिच्च पिक्च  गालियां थूकने में। सबसे तकलीफ की बात तो यह है कि औरतें भी कभी कभी इस चरित्रहनन अभियान का हिस्सा हो जाती हैं। “

छत, बाथरूम और भंडार घर औरतों का तीसरा फेफड़ा हैं।  स्त्री मैं की अदम्य इच्छा इन्हीं तीन उपादानों में सांस लेती है। उनकी भिंची हुई सांसें और थमे हुए आंसू एक वृहत्तर आयाम पा जाते हैं वहां।  छत पर जाकर आसमान देखते हुए में कंचन कर सकते हैं। आप उन आहों को सेंक सकते हैं अपने एकांत में जो आपको जीने नहीं दे रहीं। चांदनी और धूप की दो हथेलियां फैलाकर आसमान फफक पड़े आंसू पोंछ देता है, हवा भिंची हुई सांसों में उड़ते हुए पंछियों का वितान भर देती है।

स्त्री मन और उसकी चाहत को समेटकर कंचन रूप में रख देने में उपन्यास सफल रहा है। सपना के माध्यम से स्त्री का यह संसार ज़्यादा खोला गया और रूहानी खिड़की से आती  मद्धिम हवा हर जगह शीतल करती है इनप्रसंगों को। संस्कृत की सारी कालजयी कृतियां इस बात का मर्म समझती हैं कि प्रेम की पहल जीने इशारों में स्त्री की तरफ से होनी चाहिए तो बात बनती है। चिर याचक की मुद्रा में रहनेवाला पुरुष अपना ट्रैक रिकॉर्ड इतना खराब कर चुका है कि उसकी मांगों से या तो मन उकता जाता है या इस पर दया आने लगती है। स्त्री शरीर तो इस पूरी कायनात, पूरी धरती के रहस्यों का खज़ाना है – उतना ही महिमामाय और गरिमामय जितनी स्वयं प्रकृति। कोई उसे राउंड भी डाले तो उसका कुछ बिगड़ता नहीं।

स्त्रियां अपनी यौनिकता बच्चों की परवरिश में ताखे पर रख देती हैं । कभी उस ताखे की तरफ अनायास नजर चली गई तो आंखें भींच लेती हैं। उसके सफल मातृत्व का राज यही था कि उसने बच्चों से कभी कुछ छुपाया नहीं। वह अक्सर कहती थी कि बच्चों की आंखें दुनिया की सबसे बड़ी अदालत हैं – वहां से बड़ी हो गए तो आगे की कोई चिंता नहीं – दुनिया चाहे जो समझे।

पैसे के लिए जो किया जाता है, उस काम में इतना गहरा परितोष तो नहीं होता। किसी बड़े उद्देश्य के लिए किया गया थोड़ा सा संघर्ष भी गहन तृप्ति देता है – वहीं सूफियाना मस्ती, जिसे रूमी हृदय का वसंत कहते हैं।

सूत्र – निक्षेपण: हस्तक्षेप वाक्य

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पाठक को हस्तक्षेप वक्तव्य पसंद आते हैं। ये वक्तव्य कहानी के रचना विधान के अंतरंग होते हैं। वे संप्रेश्य को अर्थ गौरव देते हैं। वस्तुत: वे कथानक को नाट्य प्रदान करते हैं, जैसे बीच-बीच में  सूत्रधार या वाचक आकर कथानक में कुछ जोड़ता है, उसे विकसित करता है, उसी तरह से। कोई भी वक्तव्य रचना का अंतरंग हो सकता है यदि वह कथानक को विकसित करने में साधक होता है।

लोक के शब्द, लोक की भाषा , लोक के आचार व्यवहार  साहित्य के उपजीव्य रहे हैं। उनकी भड्स बुद्धिजीविता और प्रतीक भाषा और कथ्य दोनों को समृद्ध करते हैं।

“जीवन-स्थितियों की जटिलता का सामना करने वालों के  रूप भी विविध होते हैं और उनका चरित्र भी बहुरूपी हो जाता है।”

“माई, का हमसे परतर करती हो। अच्छा लगता है कि सास बहू एक साथ बच्चे जानें? थोड़ी सी शरम करो, बूढ़ा रही हो अब तो।”

“अकेलेपन के साथ एक बात अच्छी है कि वह चाहे न चाहे आकाश मुखी हो ही जाता है। आकाश का खालीपन उसकी अपनी खाला से ऐसी दोस्ती साधता है कि दोनों मिलकर दुनिया के हर अकेले दिल में सेंध लगाने लगते हैं चरणदास चोर की तरह। ”  मुजफ्फरपुर से दिल्ली आकर बिताए वे आरंभिक डेढ़ बरस  बाबा रे।

किसी रूपाकार भाषा और भाषा के उपकरण का प्रभाव हमारे मन में जिस बिम्ब के माध्यम से पड़ा है, उसमें थोड़ा भी परिवर्तन हो, प्रभाव वही नहीं रह जाता, वह खंडित हो जाता है। यह खंडन कहने की क्षमता को किसी और लोक में के जाकर समृद्धि देता है।

“इस बात पर वे भी सटक सीताराम हो गए।”

“प्रेम और मृत्यु – इस दुनिया के दो ऐसे विराट अनुभव हैं ये की करीब से इन्हें देख ले कोई, एक बार हो इनसे आंखें चार तो रातों रात ही वह सयाना हो जाता है।”

 “मर्द के क्रोध का बुरा नहीं मानते बेटी। क्रोध-काम-लोभ- इन महापातकों में सबसे कम घातक क्रोध ही होता है। और यह भी गांठ बांध ले तू कि जो क्रोधी होता है- भरसक कामी नहीं होता और लोभी भी नहीं।”

“मैंने अपनी ज़िन्दगी में बहुतेरे दिलफेंक आशिक देखे हैं और लंगोट के ढीले लोग भी। और मेरा अपना एक नतीज़ा है कि ईश्वर अमूमन काम और क्रोध नाम के दो विकार एक पैकेट में नहीं डालता। कामुक लोग तो नकार सुनकर कभी वहशी हो भी जाते हैं पर दिलफेंक आशिकों के धैर्य की कोई सीमा नहीं होती।”

“चलचित्र की तरह सारा अतीत जिस क्षण आंखों के आगे  घूम जाता है, कुछ देर के लिए होश नहीं रहता कि काल की किस वाली देहरी पर ऐसे गुमसुम पड़े हैं- बीते हुए में या बीतते हुए में या कि उसमें जो बीतना बाकी है अब तक?”

“मीडिया तुझे भमोड़कर रख देगा । फिर से जो लंतरानियां उड़ी कि सांसद की यह बच्ची भी दरअसल तेरी ही बच्ची है तो कैसा लगेगा? और फिर वे सांसद हैं। उनके चट्टे बट्टे की कमी है क्या?”

“मेरा बप्पा आनहर था। उनकी पत्नी जिन्हें हम मालकिन कहते थे।  कितने सुदीप यों ही भूकभुकाकर बुझते रहेंगे।”

“अपनी तकलीफ से निजात पाने का एक ही तरीका है, सरोज,औरों की तकलीफ में अपनी तकलीफ घोल दो। “

विमर्श के रूहानी आयाम

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उपन्यास रूहानी रिश्तों और उन रिश्तों के आधार की बखूबी तलाश करता है। इस तलाश की प्रक्रिया में वह सवालों के समाधान की तरफ बढ़ता है। हर जगह उस समझ से शांत विद्रोह है जो सदियों ने हमें दिए। उपन्यास का आग्रह है कि सच कुछ और है और उसे उसी रूप में समझना होगा। सूफी समस्त दृश्य जगत को अनुभूति के माध्यम से देखते हैं। अनुभूतियां स्वप्न हैं, जीवन बंधन भी एक स्वप्न का नाम है, जिसे मृत्यु जागृत करती है। रूहानी विमर्श का विश्लेषण तो नहीं पर उसकी झलक उपन्यास में बिखरा पड़ा है।

अगर खुसरो ने दाता निज़ामुद्दीन औलिया को न देखा होता, या दाता निज़ामुद्दीन औलिया ने बाबा फरीद को, तो से उन रूहानी बातों का मर्म न समझ पाते जो सभी धर्मों का सार हैं यानी उस अतिशय भौतिकता की दलदल से बाहर आ जाने का उर्द्धबाहू संकल्प न ले पाते जो धीरज, सहिष्णुता, प्रेम और करुणा जैसे महाभावों की ओर प्रेरित करता हुआ हमें वृहत्तर प्रकृति के वैभव से एकसार करता है। कुछ भी हो जाय , हैं मनुष्य नहीं रह पाते, अगर भीतरी चेतावनियां सुनने का सूफी धीरज न हो।

नफीस हैदर के पिता के मरते हुए बयान उपन्यास के विमर्श जो भौतिक जरूरतों या  रूहानी  समझ से सरोकार रक्खते हैं का बेहतर नमूना है। तौबा,सब्र, शुक्र, रज़ा, खौफ़ और फकीरी- ये ही छह सीढ़ियां हैं जहां से हम उस छत पर पहुंचते हैं जहां चाँद, सूरज और यह पूरी कायनात जो हमारे भीतर है और हमारे बाहर भी- देह की बंदिशें तोड़कर एक दूसरे की बांहों में लीन हो जाती हैं….फना हो जाती है। रूह- बूंद समुंदर तक नहीं आती, समुंदर ही बूंद तक उमड़ आता है। इस रूहानी तथ्य की अनुभूति सारे मजहब करते हैं। पर अनुभूति गम्य तथ्य तरखामी तो होते नहीं – तो जिसे यह विराट अनुभूति अब तक नहीं हुई, उसके लिए इस अनुभूति का एक रूपक प्रेम में तलाशना चाहिए।

जिस बंदे के पास बैठकर आपको लगे कि आप पंखुड़ी-पंखुड़ी खिल रहे हैं, आपके भीतर की सारी क्षुद्रताएं ढह रही हैं- समझिए वही आपका पीर है,  आपका सच्चा महबूब। वही आपकी मुक्ति की राह बनेगा, वहीं बताएगा कि एक के बहाने सारी दुनिया अपनी अपनी सी कैसे लगती है।

ललिता सपना संवादों में भी  गूढ़ विमर्श का समायोजन है। डाक्टर नफीस के पिता के मृत्यु वाक्य और ललिता जी और सपना के संवाद इन्हीं विमर्शों का आधार हैं। उपन्यास के प्रथम भाग के कई अनुत्तरित प्रश्न दूसरे भाग में इस तरह बुने गए हैं। सपना इन सारे विमर्शों की भोक्ता होने के कारण नायिका होती है।  ललिता जी जब सपना से कहती हैं कि “हमारे भीतर कहीं कोलाहल दबा पड़ा हो , तभी हमें कोलाहल मिलता है। लगातार यह मैंने सोचा है कि क्या होगा मेरे भीतरी कोलाहल का स्त्रोत जो रह रहकर बाहर प्रकट हो लेता है।”  सपना ललिता दीदी से कहती है कि “प्रतिशोध और अहंकार ही तो कोलाहल का आदिम स्त्रोत हैं, बल्कि कभी-कभी तो मुझे लगता है, आप खुद पर अन्याय कर रही हैं। अगर क्षमा बड़ा भाव है तो न्याय शायद उससे भी ज़्यादा बड़ा भाव… स्वयं पर अन्याय भी तो अन्याय ही हुआ न।” और उजड़ते घर में बचता हुआ क्या है  ” मुझे बच्चों में विकास के लक्षण दीखते हैं, अभी मैंने हार नहीं मानी।”

 बेंजामिन के किरदार के जरिए आदिवासी इलाकों में चल रही अतिवादी विचारधाराओं पर भी विमर्श है। वह कई रहस्यमयी गतिविधियों में लगा हुआ है।  “बेंजामिन जैसा प्रेमी जीव भी ऐसा युयुत्सु हो जाएगा, कौन जानता था। घृणा एक बड़ी ताकत तो है ही, – शायद उतनी ही बड़ी, जितना प्रेम। आप खुद ही कहती हैं कि ऋणात्मक ऊर्जाओं की भी अपनी सार्थकता  है। पॉजिटिव नेगेटिव तार जुड़ते हैं, तब ही बिजली दौड़ती है, संसार चलता है।

 इन गरीबों ने इतना झेला है, इतनी भूख, इतना अपमान की भीतर – भीतर चमकती चिंगारियां अब और धीरज नहीं रखना चाहतीं।”

यह किस किस्म के समाज के बदलाव का तरीका है जो समाज के घेरों से बाहर  जाकर बगावत का सोचता है। फिर किसी भी ऐसी गतिविधि का जो मानवता और कानून के विरुद्ध हो उसका निषेध : “ऐसे नहीं होते क्रांतिकारी। उनमें सबकी बातें सुनने का धीरज होता है और वे हदें पार करते भी हैं तो वैचारिक घृणा उनका उचकुन नहीं होती, सार्वजनिक कल्याण की कामना रखनेवाली महान करुणा ही उनकी ईंधन होती है।”

यौनिकता का प्रश्न

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सपना,  नफीस की पहली पत्नी शाहीन का किरदार, पेंटिंग्स और  स्त्री यौनिकता का रहस्य बहुत सुघर तरीके से पिरोए गए हैं। यौन नैतिकता ने आदिम समाज से लेकर पूर्ण विकसित चरण  पर पहुंचे हुए आधुनिक समाज तक, स्त्री पुरुषों के हृदयों पर एक महत्त्वपूर्ण छाप डाली है। सेक्स स्त्री पुरुषों की एक अनिवार्य भूख है। मन यौन पर बंधन नहीं चाहता है। किन्तु बुद्धि एक स्वस्थ समाज के लिए नैतिक बंधन अनिवार्य समझती है।

नफीस की पहली पत्नी शाहीन पेंटर है और  विदेश जाने से पहले कुछ पेंटिंग्स छोड़ जाती है सपना के लिए।  सपना उसे देखने जाती है। “मेरा मन जाने को सहज प्रवृत्त नहीं हुआ, फिर भी मैं चली गई।  मां अक्सर कहती थी  दुविधा हो, खाऊं कि न खाऊं तो कभी मत खाओ, जाऊं की न जाऊं तो जाओ ज़रूर।” देसी कहावतों, देसी कविताओं, रहीम और कबीर, खुसरो और गालिब की कविताओं के प्रज्ञा-कोष  पर पलने वाला मेरा लोकल मन ग्लोबल होने की आकांक्षा से पीड़ित होकर वहां गया, ऐसा नहीं कहा जा सकता। वह गया क्योंकि उसे अपनी रकीब की खूबियों से आल्हादित अपने प्रिय के मन की थाह पानी थी।

शाहीन की सहायिका के जरिए सपना पेंटिंग्स देखती है और स्त्री यौनिकता के गहरे रहस्यों से रू ब रू होती है। एक चित्र में स्त्री के जननांग से  एक लहराती हुई  संदेश-पाती टंगी थी। समाज के विकास क्रम में प्रजनन तंत्र के लिए मानव ने जितने साधनों की कल्पना की थी, उन सबको देवत्व प्राप्त हुआ। यह चिट्ठी प्रतीक है ज्ञान ध्यान और पढ़ाई लिखाई की उस पूरी परंपरा की ,जो स्त्री तत्त्व का समर्पण भीतर जगाए बिना कोई हासिल नहीं कर सकता। एक पेंटिंग्स में दो पुथुल गात स्त्रियां हैं जो देह औरत की शोषण भूमि है का प्रतीक हैं। शाहीन की प्राथमिकता स्त्री ही है। उस पुरुष देह से अवरोध है अपने बचपन और पिता के चलते। पर परिस्थितिवश शाहीन और नफीस शादी करते हैं। शाहिद और नमरूद के बीच समलैंगिक संबंध उपन्यास के प्रथम भाग में वर्णित है।

रीढ़ के निचले हिस्से में इंसान की वकत कुंडली मारकर पड़ी होती है- अपनी वकत जगा लो तो कुंडली खुल जाती है और  नाचती हुई उठती है ऊपर। खुद अपने घेरों से बाहर चली जाए जब वक़त – तब समझो, मुक्ति हुई। यही है औरत-मर्द के बीच का वह खेल जिसे खुसरो शिकार कहते हैं, और बिना सूफियाना हुए जिससे उबरना कठिन क्या, असंभव है।

पुराने ज़माने की औरतों के बारे में सोचते हुए दिल में हौला पड़ जाता है। उसका मन, उसकी यौनिकता उसके सपने, उसका खुलापन कुछ भी समझा नहीं गया समाज द्वारा। हराम हो या अंत:पुर- तंग से घेरे में कोल्हू के बैल की तरह नाचते-नाचते सारा जीवन ही स्वाहा। साथी कभी जंग में, कभी दूसरी औरतों के फेर में- बारहों मास का विरह और बाहरी दुनिया के दुख-सुख में शामिल होने का कोई सुराग नहीं नहीं। किताबें नहीं। पर खुद में बंद बंद भी भीतर की सीढ़ियां तो उतर ही सकता है कोई।

सूफियाना इश्क़ के कितने रंग हैं बाबा- मैंने सोचा और खिड़की खोलकर बाहर देखने लगी। असल बात होती है अना का घेरा बड़ा करते जाना। इससे ही आदमी प्यार के लायक बना रहता है, पर व्यवहार वाणी भी संयत हो तो सोने में सुहागा।

उपसंहार

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आईनासाज अपने विस्तार, अपने कथ्य, अपने वर्णन, अपने शिल्प में अत्यंत महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। एक अति उलझनपूर्ण और बिखरे हुए शाश्वत मूल्यों की अप्रतिम दास्तान है।

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अनामिका के उपन्यास ‘आईनासाज़’ का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन से इसी साल हुआ है। 

 
      

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2 comments

  1. A. Charumati Ramdas

    बहुत गहराई से लिखी है समीक्षा. उपन्यास भी काल और स्थान की परिधि में सभी बंधनों को तोड़ता है….बहुत कुछ Modernist उपन्यास की तरह. बहुत अच्छा लगा पढ़कर…

  2. Sir
    आपका विश्लेषण बहुत पसंद आया ।
    मैंने इसका बंगला अनुवाद करने की इच्छा जताई थी । लेखिका से मेल में संवाद हुआ रहा पर दूसरे कामों की प्रतिबद्धता के कारण समय नहीं मिल रहा है । दिमाग में ।
    आपकी विस्तृत व्याख्या बहुत गहरी है । धन्यवाद
    मधु कपूर

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