Home / Featured / ईशान त्रिवेदी की कहानी ‘गुलाबी पेड़’

ईशान त्रिवेदी की कहानी ‘गुलाबी पेड़’

ईशान त्रिवेदी टीवी, फ़िल्मों की दुनिया के जाने पहचाने नाम हैं। आजकल उनकी लिखी वेबसीरिज़ सोनी पर दिखाई जा रही है ‘योर ऑनर’। वे अच्छे लेखक हैं। राजकमल प्रकाशन समूह से हाल में उनका उपन्यास प्रकाशित हुआ है ‘पीपलटोले के लौंडे’। उनकी कहानियाँ हम जानकी पुल पर पढ़ते रहे हैं। इस बार कुछ अंतराल के बाद उनकी यह कहानी आपके लिए-

=========================

मे्रे कस्बे में कई मंदिर होते थे। बम्मनों के मोहल्ले के दोनों मंदिर ऊंचे और झपझप करते थे। अग्गरवाल समाज के मंदिरों के तो खैर क्या कहने। सुगन्धियां उड़ा करतीं और उनके फर्श पर पैर फिसलते। वहां के प्रसाद में मिलने वाली बर्फी भी दानेदार होती। एक मंदिर था ढेला के इस पार। छोटा सा। पुराना और काई चिपटा। क़स्बे से थोड़ा बाहर निकल कर। वहाँ कभी कभी ही लोग जाते। अंदर भगवान् श्रीकृष्ण की मूरत थी लेकिन अगर कोई बताता नहीं तो ये पता भी नहीं चलता कि ये मूरत किसकी है। ये उस समय की बात है जब कसबे के आधे से ज्यादा घरों में बिजली नहीं आई थी तो भला ऐसे मंदिर के लिए तार कौन खिंचवाता। मंदिर के पीछे एक छोटा सा घर था और उस में गिरी परिवार रहता था। बाप माँ और एक बेटा। कभी कभी बाप गिरी कसबे में घूम घूम कर भिक्षा लेने आते। जिसने उनकी झोली में कुछ डाल दिया उसे हाथ उठा कर आशीर्वाद देते और जिसने नज़रें फिरा लीं उसे मन से।

माँ गिरी मंदिर और घर के बहुत से काम करतीं और हमेशा मुस्कुराती रहतीं। मंदिर के अंदर हमेशा अँधेरा ही रहता और कुछ भी नहीं सूझता। किशन कन्हैया भी सुझाई नहीं देते। लेकिन जब जब माँ गिरी वहां दिया जलातीं तो श्री कृष्ण भी दिए की रौशनी में मुस्कुराते हुए दिखते। मुझे शक था कि वो सिर्फ माँ गिरी के आने पे ही मुस्कुराते थे। शक क्या ये पक्की बात थी क्योंकि एक बार जन्माष्टमी से कुछ रोज़ पहले जब चारों तरफ बादली अँधेरा था और ढेला के उस पार ज़ोर से बिजली कड़की थी तो पकडे गए थे किशन कन्हैया। मुंह सुजा के बैठे थे भाई साब । मैंने सोचा ऐसा भी क्या – सबका अपना अपना भाग्य होता है। दादी तो यही कहती है। अब अग्ग्रवालों और बंमनों के मंदिरों में ताम-झाम है तो हुआ करे। आप भी तो भगवान् हो। यही नसीबा कम है क्या। गिरी माँ झाड़ू बुहारती बातें करतीं किशन से। कुछ सुनाई नहीं देता बस होंठ हिला करते। जब जब सूजी भिक्षा में मिलती तो माँ हलवा बनातीं। घी आया तो भी ठीक जो ना आया हो तो हलवे के नाम पे लप्सी बन जाती। सबसे पहला भोग किशन जी को मिलता और जो अगर मैं हुआ तो बाकी सबसे पहले मुझे। बेटा गिरी मेरे साथ पढता था। ये सातवीं की बात है। बारिशों के मौसम की। तीन फसलें गुज़र चुकी थीं लेकिन गन्ना क्रेशर मालिक रुपये का सिर्फ चार आना देके बैठे थे। बस अनाज छोड़कर किसान के पास कुछ नहीं था। जब जब ज़रुरत पड़ती वो अनाज लेके हाट पहुँचता और औने पौने में लुट के चला जाता। कभी कभी तो खुद अन्न उगाने वालों के चूल्हे ठन्डे ही रह जाते।

गिरियों वाले इस मंदिर पे जो यदा कदा चढ़ावा चढ़ता था वो ढेला के इस पार के किसानों का ही होता था। जब अपने ही चूल्हों में बासी राख पड़ी हो तो भगवान मन में रह लेँ वोई बहुत होता है। इस बार की जन्माष्टमी में कृष्ण को टोकरी में उठाये वासुदेव कैसे यमुना पार लगेंगे- ये चिंता गिरी परिवार को थी। किसानों के दान से ही तो मंदिर सजता था। सुना कि गंज वाले मंदिर में बड़ी झांकी सज रही थी। सबसे पहले एक जेल बन रही थी जहाँ कृष्ण का जन्म हुआ था। पाँव की बेड़ियों को झटकते वासुदेव। और फिर नीले झीने कपडे पे लगे झिलमिल सितारे। रामलीला वाली हंडा लाइट्स उस पे पड़तीं तो लगता यमुना उफन रही है। और तो और बारह फुट का हवाई जहाज भी बन रहा था। ख़ास बरेली से आई थीं खपच्चियाँ इतने बड़े जहाज के लिए। उस जहाज के पेट में और पंखों पे 1001 दिए जलने थे। जब अभी से लोगों की भीड़ लगी रहती सारा दिन तो जनमष्टमी की रात तो एकदम लाइन ही लग जानी थी। मैंने और बेटा गिरी ने तय किया कि हम भी झांकी बनाएंगे। बायोलॉजी के होमवर्क में मॉडल बना बना के इतना तो समझ में आ ही गया था कि क्या चाहिए और कैसे बनाना है। जगह जगह जाके सेलोफीन, खपच्ची और बूंदी-सितारों के दाम पूछे तो पता चल गया कि ये मेरे जेब खर्च से बहुत बाहर था। इमरजेंसी के चलते पापा जेल में थे। माँ की अकेली तनख्वाह पे घर जैसे तैसे चल रहा था। दादी से कहा तो उन्होंने अपने पूजा वाले ताम्बे की लुटिया मेरे सामने उल्टा कर दीं। पांच पांच और दस टकिया मिल के होते थे सवा दो रुपये और हमारा बजट इस से कहीं ज्यादा था। कल मंगलवार था और हमें पापा से मिलने जेल जाना था। जेल में अंदर घुसने से पहले हथेली पे इंक का गोल ठप्पा लगता था और पापा मज़ाक करते कि जेल से बाहर निकलने से पहले इसे पोंछ मत देना वरना तुझे भी यहीं रख लेंगे। पापा राजनैतिक कैदी थे इसलिए उन्हें हर रोज़ सुबह दो अंडों वाला नाश्ता मिलता। वो चाहते तो उन्हें बाहर से लाया खाना भी अलाउड था। पढ़ने के लिए अखबार और किताबें। रहने के लिए बस दो लोगों वाला कमरा।

लेकिन पापा ने कोई सुविधा नहीं ली। सिर्फ मंगलवार के रोज़ वो हमसे मिलने के लिए बैरक से निकल के अपने इस कमरे में आ जाते। इस कमरे में उनका रूम पार्टनर एक तस्कर था जो उन्हें मज़ाक में चिढ़ाने के लिए कामरेड गांधी कह के बुलाता था। उस तस्कर के घर से हर रोज़ इतने माल पकवान आते कि जेलर और दूसरे अफसर भी खाने के टाइम का इंतज़ार करते । मैंने भी एक दो बार अंगूरी पेठे और मटर भरी कचौड़ी जैसी कुछ चीज़ें खायी थीं। पापा और माँ खुद तो नहीं खाते लेकिन मुझे खाने से कभी मना नहीं किया। मैंने पापा से झांकी की बात की तो उन्होंने माँ से कहा कि वो मुझे पैसे दे दें। उस दिन जेल में बड़ा हंगामा था। कोई एक लच्छूमल था जो धतूरा खा के मर गया था। उसके घर वाले दहाड़े मार मार के रो रहे थे। पोस्टमोर्टेम होगा तभी उन्हें लाश मिलेगी। किसी ने बताया कि बेचारे की बीवी आज उसके लिए उसकी मन पसंद सट्टी की रोटी और चटनी लेके आई थी। पापा ने बताया वो अपनी ढेला के इस पार वाला ही एक किसान था। क्रेशर वाले से अपना पैसा माँगा जाके तो चोरी चकारी का केस बनवा के अंदर करवा दिया।

हमने तय किया कि हम गोवर्धन पर्वत बनाएंगे। नीचे दिये रखेंगे तो एकदम जगमगा उठेगा। हरा और लाल सेलोफीन ले लिया। हरी पहाड़ियों पे लाल पेड़ जो दिये रख देने पर गुलाबी लगने लगते थे। दादी ने गोंद और नारियल की पंजीरियां बनायीं तो मैं एक डिब्बा भर के मंदिर ले गया। उस रात इतनी बारिश हुई कि लगा जैसे प्रलय आ जायेगी। चार कोस दूर से भी ढेला की हुंकारें हमें मंदिर में भी सुनाई दे रही थीं। इतने दियों के बावजूद कृष्ण मुंह सुजाए ही बैठे थे। मैंने भी सोचा बैठो भाई। आप तो कभी खुश ही नहीं होते। उस रात मुझे एक सपना आया। लच्छूमल के हाथ मुंह पे इंक के गोल ठप्पे लगे थे। पैरों में बेड़ियां थीं जिन्हें वो झटक रहा था। ढेला उफान पे थी और गोवर्धन के गुलाबी पेड़ चमक रहे थे। हज़ार दियों वाला जहाज घुप्प आसमान में कड़कती बिजलियों से होके गुज़र रहा था। कन्हैया हमेशा की तरह वैसे ही बैठे थे- निराश, हताश, उदास।

================

दुर्लभ किताबों के PDF के लिए जानकी पुल को telegram पर सब्सक्राइब करें

https://t.me/jankipul

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

शिरीष खरे की किताब ‘नदी सिंदूरी’ की समीक्षा

शिरीष खरे के कहानी संग्रह ‘नदी सिंदूरी’ की कहानियाँ जैसे इस बात की याद दिलाती …

3 comments

  1. Pingback: ks

  2. Pingback: other

  3. Pingback: aksara178

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *