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प्रकृति करगेती की कहानी ‘चमगादड़’

युवा लेखिका प्रकृति करगेती की कहानियों से हम भली भाँति परिचित हैं। उनको ‘राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान भी प्राप्त हो चुका है।इस बार अरसे बाद स्मृति के सहारे एक अलग सा गल्पलोक रचती हुई आई हैं। यह प्रकृति करगेती की नई कहानी है–  

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मैं

इस कहानी के चमगादड़ की साफ़ तस्वीर नहीं है दिमाग में. पर इस बात की गारंटी दे सकती हूँ कि इस कहानी का चमगादड़ असल में था. मैंने उसे देखा था.

मैं महरौली में रहती हूँ. यहाँ कीकड़ के जंगल हैं. बड़ा बर्बाद सा जंगल है. पर शुक्र है कि बुगनवेलिआ की बेलें कीकड़ से चिपकी हुई उसके भद्देपन को ज़रा कम कर देती हैं. दोनों ही काँटों से भरे हुए, झेल लेते होंगे एक दूसरे को.

खैर.

चलते चलते मैंने कुछ देखा जो चमगादड़ सा दिखा. पास जाकर देखा तो वो बस एक काला नेट का कपड़ा था. मुझे बचपन की याद कौंध गयी. मुझे याद आया कि मेरी माँ ने एक बार मेरे घर आने पर मुझे बोतल में बंद एक चमगादड़ दिखाया था. मेरी माँ को वो मरा हुआ चमगादड़ बैठक की सफ़ाई करते हुए मिला था. उसने ख़ास मुझे दिखाने के लिए उसे बोतल में बंद करके रख दिया था. जैसे मैंने पहले कहा, मुझे चमगादड़ याद नहीं. पर मेरी माँ के चेहरे के हावभाव आज भी याद हैं. बोतल दराज से उतारते हुए उसमें बच्चे सी उत्सुकता थी. उसने मुझे दिखाते हुए कहा, ‘ बता ये क्या है ? पहचान?’. पूछ तो ऐसे रही थी कि कोई दूर का रिश्तेदार हो. जब मैंने उसके मुड़े हुए पंख देखे, तब मैं पहचान गयी कि चमगादड़ है.

 

डब्बे मेँ बंद मैं

जिस चमगादड़ की ये बात कर रही है, वो मैं ही हूँ. वो सूखा हुआ सा चमगादड़। और मैं अभी भी हूँ. उसी डब्बे में बंद.  मैंने साँस लेना कब का छोड़ दिया था. साँसें  लेना मेरे लिए घातक हो चुका था. मैं साँस लेते लेते ही मरा था. और साँस लेना बंद करते ही ज़िंदा हो गया था. ये कोई चमत्कार नहीं था. ये तो असल में आम बात है. यहीं सत्य भी है. इंसानों के लिए भी. आपको मैं पत्थर बना दिख सकता हूँ. बिलकुल निर्जीव. पर कभी सोचा है कि दुनिया में इतने पत्थर क्यों हैं?

 

माँ

अब आप सोच रहे होंगे कि चमगादड़ बोतल में रखना किस तरह की मोर्बिडिटी है ! मैंने भी ऐसा ही कुछ सोचा था. पर आपको बता दूँ कि मेरी माँ एक अध्यापक की तरह मुझे ऐसी चीज़ें दिखाती रही है. ट्रेन में सफ़र करते हुए वो हर बार ईंट की भट्टियों की ओर इशारा करती. साँची का स्तूप देखने को बोलती और जब ट्रेन काकोरी से गुज़रती तो उसका इतिहास भी बताती थी.

मेरी माँ बिलकुल आलसी नहीं थी. पर मैं हूँ. मैं अपनी माँ जैसा बनना चाहती हूँ. पर मैं जानती हूँ कि मेरे आलस के कण इतने गहरे, शुक्ष्म और अनगिनत हैं, कि माँ से मिले जीन पर हमेशा हावी रहते हैं. और कहीं न कहीं इस बात की शुक्रगुज़ार भी हूँ. और यहीं तो कहानी है.

आप, यानि पाठक, आपका कोई न कोई ऐसा दोस्त ज़रूर होगा जिसने अपने माँ या पिता का नाम अपने फ़ोन पर ‘हिटलर’ के नाम से सेव किया होगा. अगर नहीं भी होगा, तो किसी फ़िल्म या धारावाहिक में ये होते हुए ज़रूर देखा होगा. ऐसा वो क्यों करते हैं ? साफ़ सी बात है, उनकी नज़र में उनके माता या पिता हिटलर जैसे सख्त और दुष्ट होते हैं. और ऐसे लोगों की कुछ ख़ासियत होती हैं, जैसे अनुसाशन, संस्कार और  कट्टरता. मैंने अपनी माँ का नाम ‘माँ’ करके सेव किया है. क्योंकी मुझे वो ‘हिटलर’ नहीं लगती. पर हाँ, उसमें ये तीनों गुण कूट-कूट कर भरे हैं. अनुसाशन, संस्कार और कट्टरता।

मेरी माँ ने कभी मुझपर हाथ नहीं उठाया. मैं पढने में ठीक ही रही हूँ. पर मैं ख़ुद को ज़हीन नहीं कह सकती. मैं बचपन से ही जानती थी कि मैं चाहे जितने सपने देख लूँ कल्पना चावला बनने के, पर मुझमें वो ख़ास बात नहीं थी. आलस भी एक कारण है. पर दिमाग का इस्तेमाल सबसे बड़ा कारण. ऐसा मैंने अपनी माँ को ख़ुद कहते हुए सुना था. वो मुझे रात में तारों के बारे में बताती थी, वो भी बड़े चाव से. पर मेरी बड़ी बहन से अक्सर ये भी कहती थी कि “ क्या ये लड़की हमेशा ही इतनी कन्फ्यूज्ड रहेगी?”. स्पष्ट और तीखे तौर पर नहीं, पर बड़े प्यार से मुझे ये जता दिया जाता कि मेरी अक्ल का इंजन कम हॉर्स पॉवर का है. मेरी बहन की तुलना में बहुत कम. ऐसा कुछ कि अगर अंजू दी कि गाड़ी और मेरी गाड़ी की रेस लगी तो उनका इंजन “ धड़धड़धड़धड़ धड़धड़ धड़धड़ धड़धड़ धड़धड़” करेगा और मेरा तो शायद “ ध    ड   ध    ड    ध    ड    ध    ड” .

 

समानता

मैं आपको बता दूँ कि इंसान और चमगादड़ में बहुत सी समानताएं होती हैं. पर इंसान इन समानताओं से दूर भागना चाहता है इसलिए वो मुझे शक की नज़र से देखता है. वो मुझे परलोक का प्राणी मानता है. मुझे लगता है इंसान मुझसे जलता है. क्योंकी मैं स्तनधारी होने के बावजूद, उड़ सकता हूँ.

पर ये लड़की मुझसे जलती नहीं। इतना मैं इसके हाव भाव से जान गया था कि ये मेरे उड़ने को या मेरे डब्बे में बंद होने को बराबर ही आँकेगी। इसे मेरी स्थिरता से प्यार हो गया था. शायद इसीलिए इसने मुझे अपने पास रख लिया था.

ये घंटों मुझे देखती रहती थी. जैसे मुझसे बात करना चाहती हो. पर बोलती कुछ नहीं थी.

 

अचम्भा

वो डब्बे में बंद चमगादड़ एक अच्छी याद बन मेरे पास कई साल रहा. असल में, जब माँ ने मुझे उसे पहली बार दिखाया था, तब मैंने पहली बार माँ से झलकती आत्मीयता को महसूस किया था. मैं आपको बता नहीं सकती कि इस बात का एहसास कितना अनमोल था कि वो चमगादड़ मेरी माँ ने मेरे लिए संभाल कर रखा था. ये जानना कि आपके अचम्भे के लिए किसीने ऐसा किया है, ये बहुत बड़ी बात थी. ये बात जितना बल देती थी, उतना पिघला भी देती थी.

उसी दिन घर पहुँची थी. और घर पहुँचते ही सबसे पहला काम जो मेरी माँ करती थी वो था चाय बनाना। अच्छी नहीं बनाती. दूध और शक्कर दोनों कम डालती. फिर भी उसे अमृत की तरह पिया जाता. और घर आने का पहला दिन उत्सुकता से भरा होता था. वो चाय बनाते बनाते खबरें बताती। चूल्हे के सामने खड़े खड़े हम दोनों बहुत बातें करते. मैं किचन में नज़र दौड़ा कुछ चटर-पटर खाने का ढूंढती। वो हाव-भाव समझ जाती। खौलती चाय पर चमच्च फिरा, वो थोड़ी चाय उसमें भरती और मेरी हथेली पर रखती हुई कहती ,

“ चख तो ! चीनी ठीक है ?”

मैं रटेरटाये भाव से कहती- “ हाँ. एकदम बढ़िया”.

आंच को धीमा कर, वो सबसे ऊपर की दराज से एक डब्बा निकालती। हमेशा ही कोई न कोई नमकीन उसमें भरे हुए होते. मैं मुट्ठीभर निकालती। फिर डब्बा बंद. ये हमेशा का क्रम था.

पर उस बार घर गयी तो इन दो क्रमों के बाद मैं इस अपेक्षा में मुस्कुरायी कि मेरी माँ को याद होगा। पर चाय परोसने तक उसे याद नहीं आया तो मुझसे रहा नहीं गया. मैं बोल पड़ी.

“मम्मी, आज मेरा बर्थडे है.”

माँ की तो जैसे चीख निकल गयी- “टचचच ! कैसे भूल गयी मैं !!!!!”

उसने हड़बड़ाते हुए सब कुछ किनारे किया और हाथ साफ़ करते हुए चीनी के डब्बे से एक चमच्च चीनी मुझे खिलाई। वो झेंपती हुई मुस्कुरायी, मेरे सर पर हाथ फेरा और कहा।

“मीठे में यहीं है अभी। ”

 

लकी बर्ड

वो फुदकती हुई आयी थी इस घर में. एक मकसद से कि घोंसला बनाएगी. उसने बनाया भी. क्योंकी किसीने रोका ही नहीं. क्योंकी उसका आना शुभ माना जाता है. उसे लकी बर्ड इसीलिए कहते हैं. कहते हैं कि ये जिस घर जाती है बरकत लाती है. अब कितना सच है ये नहीं मालूम. पर इस घर ने उस असत्यापित मान्यता को मान लिया।  लकी बर्ड का घोंसला बन गया. और बेबी-लकी बर्डस को मिला ‘रेडी-टू -मूव इन घोंसला’ जो दंपत्ति ने साथ मिलकर बनाया था ’.

और मुझे ?

मैं भटकता हुआ आया था इस घर में. बैठक की खिड़की से. खिड़की के कोनों से घुसता हुआ. इस बात से अनजान कि बाहर जाने का रास्ता नहीं रहेगा. पर निकलने की फड़फड़ाहट में ही चित्त हो गया. और जब कई महीनों बाद सूखा हुआ सा मैं माता जी के हाथ आया तो मुझे मेरा पहला घर मिला। ये डब्बा।

 

तोहफ़ा

तो क्या हुआ! अगर जन्मदिन याद नहीं था. मैंने चमगादड़ को ही तोहफ़ा समझकर रख लिया. मैंने सोच लिया कि वो अरण्यक काल का तोहफ़ा था, जिसमें माँ हिडिम्बा ने अपनी २० वर्षीय राक्षसनी बिटिया को जंगल की नायब चीज़ तोहफ़े में दी है। अब ये और बात थी कि अंजू दी को सांप की केंचुली या घोंघे का कवच कभी नहीं मिला तोहफ़े में।

मैं क्या माँ के लिए इतनी अलग थी?

अंजू दी पढ़ने में अच्छी थी. मैं भी होना चाहती थी. पर मेरा ध्यान बहुत सी और चीज़ों में लगा रहता था. उनमें ज़्यादा मज़ा भी आता था. जैसे मुझे याद है, एक बार हमारे इलाके में तारों से भरा ट्रक आया था, जो उन तारों को सड़क किनारे फ़ेंक गया था. शायद कोई नयी लाइन बिछ रही थी.  इतना याद नहीं कि असल में किस काम के लिए आयी थी वो तारें. पर जब मैंने उन तारों को देखा तो मेरे वो तार किस काम आएंगी, ये साफ़ समझ आ गया.

असल में सभी बच्चे उन दिनों उन तारों की बातें कर रहे थे और जब मौका मिलता थोड़ा-थोड़ा काटकर चुरा भी रहे थे. अंजू दी और अज्जू ने तो अंगूठी बनायीं थी उनसे। और बचपन के प्यार के खेल में दी भी थी एक दूसरे को. मेरे आसपास कोई नहीं था जिसे अंगूठी बना दी जा सके. उसमें उतना मज़ा भी नहीं था. बहुत ही उबाऊ सी प्रक्रिया थी. कॉपर की भूरे-नारंगी रंग की तार का एक लम्बा टुकड़ा काटना होता था. एक सिरे से गोल-गोल घुमाना होता ताकि अंगूठी के नगीने जैसा कुछ बन जाए. और दूसरे हिस्से को ऐसे समेटकर घूमाना होता कि ऊँगली के लिए एक छल्ला बन जाए. ऐसी बेढ़ंगी सी अँगूठी अंजू दी ने अज्जू को पहनाई और अज्जू ने अंजू दी को. इस खेल-खेल की सगाई में सिर्फ़ मैं ही आमंत्रित थी. और वो भी एक चौकीदार के तौर पर. घर वापस आते हुए अंजू दी ने शर्माते लजाते, अपनी अंगूठी पर उँगलियाँ फिराते मुझसे कहा था

“ मम्मी को मत बताना चमची! समझी !?”

मैंने मम्मी को कुछ नहीं बताया। बताने लायक ऐसा कुछ था भी नहीं. कहना नहीं चाहिए पर, अज्जू के दाँत  देखे होते तो आप समझ जाते।

बल्कि मैं तो उस तारों वाली जगह से एक अलग किस्म की तार उठा लायी थी. मुझे उसका उत्साह ज़्यादा था. और तार कोई ख़ास तार नहीं। बस एल्युमीनियम की हल्की पर मोटी तार. मोटी तार देखते ही मेरे ज़हन में कुछ तैर गया था. इसी तार से बना हुआ कुछ.

मेरा एक कोना था. मैं अपने खुरापात वहीँ बैठ किया करती. बिना किसी को बताये। बताने में कोई दिक्कत नहीं थी. पर वो तेज़ औज़ारों वाली जगह थी, जहाँ हमें जाना मना था. पर हर बार वहीँ बैठे बैठे मैंने कितनी चीज़ें बनायीं थी. अब वहां, जाना मना था. पर वहाँ से कुछ बनाकर लाना नहीं. कैन से बना पेंसिल-होल्डर जब मैंने माँ को दिखाया तो उसने विरोध नहीं किया था. संभालकर रख ही दिया था. शायद इसलिए क्योंकी मैं हाथ काट कर नहीं लायी थी.

पर, वो एल्युमीनियम के तार ज़रा ढ़ीठ निकले. मैंने बहुत ज़ोरों से हथौड़ा मारने पर भी वो चपटे नहीं हो रहे थे. गुस्से में मैंने ज़रा तेज़ मार दिया होगा. सीधे बाएं हाथ की बीच की ऊँगली में जाकर लगा. दर्द का अगर कोई ब्रह्माण्ड होता है, तो मैं वहाँ तैरकर-डूबकर-मरकर-जीकर  वापस आयी. पर ख़ून से भीगने के बजाये, मैं जैसे उसे एक शीशी में भर लायी थी. नाख़ून पर खून जम गया था.

बाद में माँ ने वो नुस्खा अपनाया जो वो हर अंदरूनी चोट के लिए अपनाती थी: नमक डालकर गरम के पानी में सेक। और पानी को हल्का ठंडा करने में फु-फु-फु के साथ एक स्वाभाविक सवाल पूछा,“ क्या कर रही थी हथौड़े से ?”

मैंने चुहिया सी आवाज़ में सच कहा, “ सॉरी मम्मी। साँप बना रही थी।”

 

नया जीव होने की इच्छा

अगर साँस रुकने को मौत कहते हैं, तो मैंने मौत देख ली है. पर इसका मतलब ये नहीं कि मैंने जीना बंद कर दिया है. मेरे अंदर एक नया जीव बनने की इच्छा अभी भी पनपती है.

जो कहते हैं कि मौत के बाद नयी योनि में जन्म होता है, वो जूठ कहते हैं. पहली बात ये कि मौत कुछ होती ही नहीं। दूसरा जन्म भी नहीं। अगर होता भी है तो कैसे कहा जाए कि होता है. अलग-अलग दुनियाओं में एक सी चेतना लिए हुए कितने लोग हुए हैं ? जब तक पुष्टि नहीं हो जाती, तब तक एक भी नहीं. दूसरी दुनिया की पुष्टि भी मैं नहीं कर सकता, क्योंकी मैंने देखी ही नहीं. बस लोगों से दूसरी दुनिया सुनी है. एक चमगादड़ होने के नाते मैं सुनता बहुत हूँ. जैसे इस साँप बनाती लड़की को मैंने बस सुना था. बल्कि हमारी बातें सुनने-सुनने में ही हो जाया करती, ऐसा कहा जा सकता है. जैसे वो किसी से कुछ कहती, मैं सुन लेता। और मैंने सुना है, इस बात को वो भी सुन लेती थी. और हमारी सुनने-सुनने की बातों का निचोड़ हमेशा यहीं होता था कि हम दोनों में ही एक नया जीव बनने की इच्छा पनपती थी. क्या इसे ही एक-दूसरे को समझना कहते हैं ?

 

लोमड़ी की शादी

बारिश और धूप एक साथ होती, तो हम बच्चे एक ही बात कहते- लोमड़ी की शादी हुई है कहीं. मैं हमेशा से उस लोमड़ी की शादी के ‘कहीं’ में जाना चाहती थी. भले ही बिन बुलाये मेहमान की तरह. बड़े होते होते ऐसा हुआ भी. पर मैं उसमें बिन बुलाई मेहमान नहीं थी. मैं दुल्हन से बस एक ओहदे नीचे थी बस. दुल्हन की बहन!

अंजू दी की शादी हो रही थी. उस दिन, जिस दिन बारिश और धूप साथ आये थे.

तो क्या मेरी बहन लोमड़ी है? ये मैं कह नहीं रही. पर इसे सिद्ध किया जा सकता है. स्कूल में गणित का एक सिद्धांत हमें सिखाया गया था:

उस सिद्धांत के चलते, अगर ‘ ए बी है, और बी सी है, तो ए सी भी हुआ।

उसी तरह, अगर लोमड़ी की शादी धूप और बारिश साथ होने पर होती है, तो मेरी बहन की शादी में धूप और बारिश साथ होने का मतलब हुआ कि मे  री बहन एक लोमड़ी थी/ है ! उस वक़्त मुझे ऐसा ही लग रहा था। लोमड़ी विश्वास करने लायक जानवर नहीं होता न।

वैसे शादी से पहले घर में बहुत हंगामा हो चुका था. बल्कि अंजू दी ने शादी से इंकार तक कर दिया था. उस समय पहली बार मुझे अंजू दी पर गुस्सा आया था. वो तो मम्मी-पापा की हर बात मानती थी. फिर ऐसा क्या हुआ कि अचानक वो विद्रोह पर उतर आयी. बचपन में फ्रॉक कौनसी पहननी है से लेकर जवानी में कौनसे कॉलेज में दाख़िला लेना है तक, सब कुछ तो मम्मी-पापा की रज़ामंदी से होता था. बल्कि मेरा आधा जीवन यहीं सोचते बीता कि माँ की तरह बनने से पहले अंजू दी जैसा बनना होगा । एक आदर्श बच्चा!

मैंने उसकी शादी में तैयार होने के, नाचने के और जीजाजी के जूते चुराने के सपने देखे थे. चचेरी-ममेरी बहनों के साथ मिलकर ये तय हुआ था कि लड़के वालों से इक्कीस हज़ार रुपये ऐंठे जायेंगे। पर ये हो न सका क्योंकी हमारे परिवार की आधी शक्ति तो रूठी हुई अंजू दी को मनाने में लग गयी. पैसे ऐंठने वाली लड़कियों की टोली की लीडर होने का एकलौता मौका मेरे हाथों से निकल गया. मम्मी-पापा तो इस बात की ख़ैर मना रह थे कि उनकी लड़की भागी नहीं।

विदाई पर मेरे आँसूं जो निकले, वो शायद जूते न चुरा पाने के कारण हों. और शायद इसलिए भी क्योंकी दुल्हन के न रो पाने की कमी किसी को तो पूरी करनी थी. जब तक वो गाड़ी में नहीं बैठ गयी, तब तक अंजू दी से ऐसे चिपक के रोती रही कि मेरा रोया उसका रोया हो जाए. मेरे गालों पर लगे आँसूं उसके गालों पर लगे आँसूं हो गए. उस समय  वो विद्रोह में चुप थी और मैं उसका विद्रोह छुपाने में रोती रही.  उस वक़्त मैं उसके विद्रोह से असहमत थी.

पर अब मुझे उनका विद्रोह समझ में आता है. बल्कि मैं उसी विद्रोह को जीती हूँ. हर दिन.

 

लकी बर्ड फुर्ररर…

 

एक न एक दिन तो जाना ही था. उसको घरों की कमी नहीं थी. इसीलिए लकी बर्ड एक दिन फुर्ररर हो गयी अपने पूरे परिवार के साथ. अपना घोंसला पीछे छोड़ गयी. मैं सोचता था कि ये जगह की कितनी बर्बादी थी. सोचिये न. ये लोग वो घोंसला तोड़ने वाले नहीं थे. ये सोचकर कि कितनी दुर्लभ चीज़ थी . याद की तरह था न.

पर याद बनाकर किया क्या ? याद से पहले चिड़िया थी. जब चिड़िया थी, तब शोर था. शोर न करते, तो चिड़िया न सहमती, न भागती घर से. इंसान याद संवारने का नाटक अच्छा कर लेता है.

उस दिन पहली बार लकी बर्ड के भाग्य से जलन हुई। पहले तो लगता था कि जीवन जीने की बेईमानी जीने से तो मेरी स्थिरता ही अच्छी है। अगर ज़िंदा सफ़ेद कबूतर होता तो पिंजरा तोड़कर निकल जाता, पर अपनी स्थिरता में डब्बे में ही बंद रह जाना मेरे हिस्से की ख़ुराक थी। वैसे तो हर अवस्था ही आपको कुछ न कुछ देकर, आपसे कुछ ले ही जाती है। लकी बर्ड को आज़ादी मिली, पर मिथ्या के रूप में। और मुझे ठहराव मिला, वरदान की पन्नी में लिपटा हुआ। पन्नी उतारो तो चलते रहने की अपेक्षाओं की मखियाँ चिपक जाती हैं।

 

मेरा विद्रोह

आप ज़िन्दगी के शुरुवाती साल एक लक्ष्य तक पहुँचने में बिताते हो. फिर वहाँ पहुँचने का आधे से ज़्यादा रास्ता आप तय कर चुके होते हो और पता चलता है कि आपका लक्ष्य ही ग़लत था. बेमानी था. आप क्या करते हो ? वापस आने की तैयारी ? या वहीँ से कोई नया रास्ता ढूँढ़ने की कोशिश ? उस आधे से ज़्यादा रास्ते में- पढ़ाई-लिखाई, व्यसन मुक्त कॉलेज के दिन, लड़कों से कोशों की दूरी वगेहरा-वगेहरा बहुत कुछ था जो निभाया था मैंने। मेरे सामने भी यहीं सवाल था कि मुझे क्या करना चाहिए ?

कुछ समझ नहीं आया इसलिए मैं कई सालों तक उस आधे से ज़्यादा तय किये रास्ते पर ही बैठी रही. हाथ में वो डब्बे में बंद चमगादड़ लिए हुए. तब बचपन की एक याद लेकर उस पड़ाव पर बैठना एक ज़रूरी अनुभव था. ज़रूरी था मेरे विद्रोह के लिए.

एक दिन याद आ रही थी तो मैंने अंजू दी को कॉल कर लिया। उनके डाइवोर्स के दो साल बाद पहली बार बात कर रही थी। जब पहली बार डाइवोर्स की ख़बर सुनी, तो मन किया कि अंजू दी को खूब सुनाऊँ। पर माँ और पिता इतने टूटे हुए लग रहे थे कि उन्हें सँभालते हुए, समय ही नहीं लगा।  बड़ी मुश्किल से खाना खिला पाती थी उन्हें। माहौल ऐसा था जैसे कोई मर गया हो।  लेकिन इतने सालों बाद बात करी अंजू दीदी से तो रोने के अलावा हम दो बहनों को कुछ और नहीं सूझा। जब आप बचपन से किसी के साथ रहे हो, तो आप उसके रोने की आवाज़ भी अलग से पहचान सकते हो। अंजू दी वहीँ सिसकी भरा हल्का रो रही थी मेरे फूट-फूट कर रोने के साथ। वो रो रही थी और मुझे सुनाई दे रहा था “ शादी में नहीं रोई इसकी शिकायत मत करना। डाइवोर्स में तो कर रही हूँ न कसर पूरी।”

वैसे दीदी ताना दे भी देती मुझे, तो उनका बनता भी था। मैंने एक बहन के तौर पर उन्हें निराश किया था। वैसे तो मैं कॉलेज में बड़ी विद्रोही बनती थी। उस वक़्त क्या हुआ था ? अज्जू और दीदी के बचपन के प्रेम प्रसंग को खेल समझकर मैंने छुपाये रखा था। पर दीदी के बड़े होने पर लड़कों से उनकी दोस्ती और ख़ासकर राघव भैया के साथ एक नया मोड़ लेता उनका रिश्ता शायद ‘आदर्श-बनने-की इच्छुक’ मुझको रास नहीं आया। ऐसा नहीं था कि शिकायत करी। पर साथ भी नहीं दिया।

उस दिन कॉल किया इतने सालों बाद तो कहती, “ अब भी मम्मी की चमची है या प्रमोशन हो गया तेरा ?”

इस बात पर रोते-रोते, नाक सुड़कते, हँसी निकल गयी और मैंने कहा, “ आपको क्या लगता है ?”

“थोड़ी देर हो गयी प्रमोशन में। नहीं ? ”

“ कुणाल भैया होते तो…”

“ कुणाल होता तो तू नहीं होती। मम्मी-पापा को दो का बैलेंस बनाये रखना था न। ”

“ मतलब मैं स्टैंडबाई वाली खिलाड़ी हूँ।”

इस बात पर अंजू दीदी के भाव थोड़े बदल गए। वो पहले तो खिलखिलाई, और फिर टाँग खींचते कहने लगी,

“दूसरा कोई खेल ढूँढा कि नहीं ?”

“ मतलब ?”

“ २५ साल की हो गयी है, और अब भी अगर मतलब पूछ रही है तो लानत है तुझपर”

मैंने भी ज़रा बेतक्कलुफ़ी दिखाते हुए कह दिया, “ ओह्ह्ह ! वो !!! वो क्या है न दीदी, हमारी जनरेशन के लोग ऐसे दबा-छुपा के नहीं बोलते। खुलके बोलते हैं। साफ़ साफ़ पूछा होता तो साफ़-साफ़ बताती न”

“ अब बता दे नालायक !”

“ मम्मी को मत बताना बस !”

“ लो ! अब क्या हुआ नयी जनरेशन को ? हाँ ?” और फिर रुककर बोली, “ और वैसे भी मम्मी को बताने की ख़ुशकिस्मती अब मेरी तो रही नहीं ”

इस बात पर मैं क्या ही उन्हें बोल पाती। वहाँ से उन्होनें जो लम्बी साँस ली, उसे बस सुनभर लिया। उनके डाइवोर्स के बाद मम्मी-पापा ने बात करना बंद कर दिया था अंजू दीदी से।

“ मम्मी याद करती हैं आपको”

“ शादी की फ़ोटो देखती होंगी ज़रूर। मेरे आँसूं ढूँढती होंगी। उनका बताना अभी भी नहीं आते”

“ मुझे और पापा को बहुत आते हैं। आ जाओ न वापस। ”

उन्होनें इसपर बस ‘हम्म्म’ कहा और अपनी व्यस्तता बताते हुए फ़ोन रख दिया।

मैं बहुत देर वहीँ खड़ी रही। शून्यभाव में ।

 

दफ़्न

आज ये मुझे आखिरी बार देखेगी। दो रास्तों के बीचों-बीच है। हवा नहीं चल रही। इस दृश्य में अगर कोई नाटकीय तत्त्व है तो वो बस इतना ही कि मरुस्थल की धमनियों में समझो घुटन तैर रही है। अभी-अभी इसकी ज़बान ने किरकिरापन चखा है। ये सोच रही है कि शुक्र है कि रेत से बस किरकिरा महसूस हुआ, अगर रेत का दूसरा रूप काँच होता तो गला चीर चुका होता। पर इस शुक्र मनाने में उसने एक निर्णय लिया।

अब जैसा कि मैंने पहले कहा (अगर सुना हो तो )कि:

“यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता।

सोने का सिंघासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।” यहाँ यदि पर ध्यान दीजिये।

उड़ने वालों में सफ़ेद कबूतर के ठाठ होते हैं। उनसे इंसान जैसा बर्ताव होता है। पहले पकड़ा जाता है, पर रखा जाता है बढ़िया से पिंजरे में, और फिर शान्ति फैलाने की ज़िम्मेदारी देकर उसे उड़ा भी देते हैं।

अब मेरी स्थिरता में वो डब्बा खोल मुझे बस झाँक कर देख सकती थी। कबूतर सा उड़ा नहीं। वो निराश हुई थोड़ी देर। पर फिर जैसे ख़ुद को समझाते हुए उसने सोच लिया कि मुझे दफ़न करना ही मुझे उड़ाना समझना होगा।

… कि तभी

कि तभी मेरा फ़ोन बजा। अंजू दी का कॉल था। मैंने उठाया। मेरे हेलो बोलने से पहले ही दीदी बोलने लगी।

“ पता नहीं तुम्हें जानना है या नहीं, फ़र्क पड़ता है या नहीं, पर ये बताना चाहती हूँ कि मैं बहुत ख़ुश हूँ। ज़िन्दगी के ५ साल हटा नहीं सकती। फिर भी उनके रहते-रहते भी ख़ुश हूँ। अगर किसी और को भी ये जानना है तो उन्हें बता देना। पर साथ में ये भी बता देना कि मैं ख़ून के रिश्ते वाले तर्क को मैंने भी मानना छोड़ दिया है। बहुत मुश्किल और जोख़िम भरा होता है, पर तकनीक इतनी आगे बढ़ चुकी है कि ख़ून भी ट्रांसप्लांट हो जाता है आजकल। तो मम्मी को बोलना कि वो अच्छी भविष्वाणी कर लेती हैं। और प्लीज़ सुमु मुझे अबसे कॉल मत करना कभी। ”

“पर दीदी …”

ये बोलने का भी मौका नहीं दिया। फ़ोन कट। टूँ।  टूँ। टूँ। टूँ।

 

लुढ़कना

मुझे दफ़्न करने के ख़याल को ये उसी खोदे हुए गड्डे में फ़ेंक आयी है। और अब मुझे ये पाँव से लुढ़काते-लुढ़काते , घर को निकली है। पता है बहुत अजीब लग रहा है। मुझे अपनी स्थिरता नहीं खोनी। बीच-बीच में झटके लगते हैं तो लगता है कि वापस मैं ज़िंदा हो रहा हूँ। जितना मैं इसे जानता हूँ, ये मुझे नींद में भी लुढ़काती रहेगी। कोई मुझे बचा सकता है क्या ?

अरे हाँ, सड़क पर कुचले जाना भी तो  एक विकल्प है। क्या कहते हैं आप ?

*****

कहा था न मैंने उसे देखा था। नेट के कपड़े जैसी ही तो आभा थी। पहले तो अच्छा लगता था। पर तब उसके बारे में सोचकर घबराहट सी हुई। पर ख़ुदको संभालना आ चुका है। गहरी साँस के अलावा विकल्प भी क्या है। तो ख़ुदको संभालते हुए, पता नहीं क्या सोचते हुए उस जंगल के बाहर निकलने से पहले मैंने उस नेट के काले कपड़े को कीकड़ और बुगनवेलिया के संगम में टाँग दिया। और कपड़े को थामते वक़्त इस बात का ध्यान रखा कि ऐसा भाव बिलकुल न आये चेहरे पर जैसे पोछे के कपड़े को थामकर आता है। मैं पीछे मुड़कर जब भी देखती, तो वो लटके हुए लहराते मिलता।

तबसे यहीं याद शायद नमक डले गरम पानी का सेक बनी है मेरे लिए। जो मेरी माँ को माफ़ कर देती है। पर अंजू दी को तो गरम पानी के सेक की ज़रुरत कभी पड़ी ही नहीं थी । जब पड़ी तब मिला नहीं। उसकी माफ़ी मिलने के लिए तो समय भी लाचार है। और उससे भी बड़ी बात, माँ को कभी माफ़ी चाहिए भी थी कि नहीं ?

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