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मृदुला शुक्ला की कहानी ‘सगुनी’

कल फ़ेसबुक लाइव में प्रसिद्ध लेखिका प्रतिभा राय को सुन रहा था। उन्होंने कहा कि उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं लिखा जिसका उनको अनुभव न रहा हो। असल में यह अनुभव लेखक का ऑबजर्वेशन होता है। लेखिका मृदुला शुक्ला की कहानी ‘सगुनी’ पढ़ते हुए यह बात याद आ गई। विस्थापित मज़दूरों के जीवन से जुड़ी यह कहानी बहुत सूक्ष्म ऑबजर्वेशन में जाती है। अपने गाँव-घर छोड़ कर महानगरों में मेहनत मजूरी करने आने वालों के कितने छोटे छोटे सपने होते हैं, बिस्कुट खाने का सपना, पति-बच्चों के साथ अकेले रहने का सपना। लेकिन सब कुछ इतना आसान होता है क्या? मृदुला शुक्ला की एक कहानी जानकी पुल पर 31 जनवरी पर आई थी ‘प्रेमी के साथ फ़रार हुई औरत’, जो वायरल हो गई थी। उस कहानी का मिज़ाज अलग था इसका अलग है लेकिन कहानी कहने की कला प्रभावित करती है, कहानी भी। आप भी पढ़कर बताइएगा- जानकी पुल।

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सगुनी को बहुत थके होने पर भी नींद नहीं आ रही थी। केशव बगल में सोया था बिटिया को दोनों ने बीच में सुला रखा था।

ऐसा पहली बार हुआ है जब वे अकेले रहे हो और रात को अलग अलग अलग सोये हों। केशव जब गांव आता तो दोनों मौका देखते रहते जैसे ही मौका मिलता एक दूसरे से लिपट जाते मगर यहां जब दोनों साथ हैं तो बिटिया को बीच में सुरक्षा से सुला कर मानो दोनों उसकी पहरेदारी पर जाग रहे हों।

सामान रखने के बाद झुग्गी में एक चटाई भर की जगह बची थी। चटाई के ऊपर उसने कथरी बिछा ली फिर भी जमीन होने के कारण उसे डर लग रहा था कहीं बिटिया को कोई कीड़ा मकोड़ा न काट ले।

वह बार बार केशव के मोबाइल में टाइम देख रही थी रात केशव ने उसे कहा था कि तीन बजे तक रोटी बना कर रख ले।

यहां पर सरकार दिवाली के मौसम में चूल्हा जलना बंद करवा देती है कहती है चूल्हे के धुएँ से हवा खराब हो जाती है जिससे सांस लेने में परेशानी होती है।

सगुनी सोचने लगी,

“जाने कौन मर गया है सरकार जी का जो चूल्हा जलाना मना है हमारे गांव में तो किसी की मौत पर ही किया जाता है चूल्हा बन्द।

वह भी सरकार बंद नहीं करती इंसान खुद के रिवाज के लिए नहीं जलाता चूल्हा।”

केशव ने उसे बताया कि चूल्हा जलाने वालों से पुलिस जुर्माना वसूलती है। अब मनई मजूर अपना पेट भरें की चूल्हा जलाने का जुर्माना।

सगुनी झट से उठ कर बैठ गई मुंह धोकर तरकारी काट छौंक कर रोटी बनाने लगी वह जल्दी-जल्दी हाथ चला रही थी उसको पुलिस वाले को पैसा नहीं देना था उसके आदमी की कमाई बड़ी मेहनत की है।

सगुनी का शहर में यह दूसरा दिन था बड़ी मुश्किल से सास ने आने दिया था।

पहले जब भी केशव आने को कहता तो अम्मा हमेशा यही कहती,

“साल दो साल बीत जाने दो नहीं तो गांव देश के लोग क्या कहेंगे आज बिआह हुआ कल मेहरारू लेकर शहर चला गया।”

अम्मा जानती थी उसके शहर जाने के बाद बेटे की कमाई घर आना बंद हो जाएगी यही कारण था वह हर बार मना कर देती थी सगुनी और केशव मन मसोस कर रह जाते।

धीरे-धीरे उनके ब्याह को तीन साल हो गए थे। साल भर में बिटिया हो गई और अब तो बिटिया भी दो बरस की हो गई।

नाऊ  होने के कारण ससुराल मायके दोनों जगह जजमानी थी ठाकुर बाभन अब खुद ही खाने के लिए मर रहे थे तो परजा को कौन दे।

शादी ब्याह के दो चार महीना तो दो जून की रोटी मिल जाती थी मगर बिटिया को दूध मिलना मुश्किल हो जाता है।

जाड़े भर तो बुजुर्ग पटापट मरते उनके काम कल्याण की जजमानी से काम चल जाता था।

मगर चौमासा में जब देवता जी सो जाते शादी ब्याह न होता यह समय नाई पंडित पर बहुत भारी गुजरता था।

अब नान्ह जाति भी नही थे कि हरवाही चरवाही कर लेते। जिनके घर में कोई परदेसी कमासुत हो उनका काम तो चल जाता था तेल नमक मसाला का पैसा परदेस से आ जाता।

मगर जिसके घर बाहर की कमाई नही उनका तो भगवान ही मालिक है।

केशव हर महीना  किसी के हाथ से पैसे भिजवा देता बाबू अम्मा को दे देते। अम्मा उधार बाढ़ी का हिसाब कर थोड़ा पैसा तीज त्यौहार आफत विपत के लिए रख लेती थी।

मगर खाने का तो हर समय लाला पड़ा रहता है सगुनी को शक रहता कि गाहे-बगाहे आने वाली ननद अम्मा से सारा पैसा ले जाती हैं।

बड़ी मुश्किल से अम्मा तेल साबुन के लिए पैसे देती थीं।

दो दिन से बिटिया को खांसी आ रही थी हल्का बुखार भी था। अम्मा से बार बार कहने पर बाबू को भेज मेडिकल स्टोर से खांसी की दवाई मंगवाई बिटिया एकदम में कमजोर दिखने लगी थी खाना-पीना छोड़ दी थी।

पट्टीदारी में भैंस लगती थी सगुनी वहां से दूध मांग कर ले आई मगर दूध देखते ही बाबूजी के दूध वाली चाय की चहास लग गई।

उनके लिए चाय बनाकर भी बिटिया भर का दूध बच गया सगुनी ने बिटिया को दूध दिया और अम्मा से बिटिया के लिए थोड़े बिस्कुट मांगे।

अम्मा भी कम मिरचुक नही थीं। बड़ी मुश्किल से काँखते काँखते पांच बिस्कुट बक्से से निकाल कर दीं।

सगुनी का बहुत मन कर रहा था एक बिस्कुट खा ले। उसे बचपन से बिस्कुट बहुत पसंद था।

जब  कभी केशव आता तो खूब बिस्कुट लाता, मग़र सब अम्मा हड़प कर बैठ जाती दुइ दुइ बिस्कुट तरसा तरसा कर देती।

वह सोचती थी जब अपने केशव के साथ शहर जाएगी तो दो चार रोज तो खाली बिस्कुट ही खाकर रहेगी।

अम्मा वहीं जमीन पर बैठी थी हटने का नाम ही नहीं ले रही थी। जब बिटिया ने आखिरी बिस्कुट चाय में डुबाई तब तक बाबूजी का फोन बजा। अम्मा जोर से भागी। आधा बिस्कुट बचा था झट से सगुनी ने अपने मुंह में डाल लिया।

बिटिया चिंचिया पड़ी।

अम्मा ने उधर से पूछा।

क्या हुआ?

कुछ नहीं कहते हुए बिटिया को गोद में लेकर सगुनी ने झूला झुलाना शुरू कर दिया।

बिटिया चुप होकर दूध पीने लगी तब जाकर सगुनी की जान में जान आई।

बिस्कुट खाते पकड़े जाने पर पेटही जिभुली दरिद्र की बिटिया जैसी अनेक तानों मार कर अम्मा उसके प्राण ले लेती।

केशव जब आता तो चाहे जितना सामान लाता अम्मा बाहर ही धरा लेती और फिर तरसा तरसा के समान निकालती हैं। इस बार केशव एक कैडबरी अपने जेब में रखा था छुपा के खाए दोनों रात को। एकदम में पिघल गई थी मगर केशव के हाथ से सबसे छुप कर खाने में उसे बहुत मजा आया था।

टीवी में वह शहर देखती। नई नई चीजें सजा धजा घर देखती खाने पीने की तमाम तरह की चीज देखती वह मन मसोसकर रह जाती।

अम्मा कहती,

“बिटिया थोड़ा सा पाल दूं  तो जाओ तब तक केशव थोड़ा कमा बचाले घर गिरस्ती बना ले।”

वह कहना चाहती थी कि “कमाई तो सब यहां दे देते हैं बचाएंगे।”

क्या मगर झगड़े के डर से चुप रह जाती थी।

उसके पटीदारी की जेठानी भुवन बहू तो उसी शहर में रहती थी उसी शहर में काहे उसकी झुग्गी भी केशव के पास थी।

भुवन बहू जब गांव आती ऊंची एँड़ी की सैंडल, कढ़ाई वाली साड़ी, बांह भर फैंसी चूड़ी, हर बार नया पायल बिछुआ पहन सिंगार पटार किये ऐंठती रहती थी। वह कहती, “इनकी ज्यादा कमाई नहीं है। हम खुद चार पांच घर काम करते हैं। अपने कमाते हैं, मजे से खाते पीते हैं।”

रसोई बनाते समय, आटा सानते समय, सब्जी काटते समय, तेल मसाला डालते समय अम्मा खोपड़ी पर सवार रहती। हर चीज नाप तौल के देती। जंगल से लाई लकड़ी भी वैशाख जेठ में ज्यादा जल जाए तो चार दिन बड़बड़ाती रहती थी। खाना बनने के बाद सबसे पहले बाबू खाते जितना उनकी भूख रहती ठूंस ठूंस कर खा लेते थे।

फिर सास पतोह बैठते।

सगुनी सास की थाली में ज्यादा सब्जी नहीं नहीं करने पर भी डाल देती। आधे से ज्यादा दिन तो वह अधपेटा खाकर रह खाती है। जिस दिन सब्जी थोड़ा चटकोर बन जाये उस दिन तो उसे सब्जी देखना भी नसीब न होता।

तीज त्यौहार में अम्मा बाबू को जजमानी में पूड़ी कचौड़ी मिल जाती।

मगर वह भी आठ रोज झुरवा कर खाना सगुनी को बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था।

इस बार जाते समय केशव ने उसे पक्का वादा किया है, बरसात खत्म होते ही वह उसको ले जाएगा। बरसात शुरू होने पर आया था। एक महीना रखा। जाते वक्त उसे  छाती से चिपका कर कहा,

“चार महीना और रह ले सगुनी। फिर तो जिंदगी भर साथ ही रहना है”

 सगुनी मन की मन योजना बनाती रहती।

“अपने आदमी को ही नहीं कमाने देगी खाली। वह भी काम करेगी दोनों मिलकर कमाएंगे और ठाठ से रहेंगे।”

और पैकेट भर बिस्कुट एक साथ खाने के बारे में सोच कर खुद पर ही मुस्कुरा देती।

भुवन बहू जब आई थी तभी उसने कह दिया था, “हमारे लिए भी कामकाज देख लेना ज्यादा नहीं तो चार घर कर ही लेंगे।”

इतना पैसा एक साथ हर महीना हाथ में आने के नाम से ही उसे रोमांच हो जाता था।

दिवाली पर भुवन भुवन-बहू केशव और गांव के सारे परदेसी आए। धान का निपटान था। साल भर की जजमानी भी लेनी थी। आते ही भवन बहू ने उसे कहा,

“तुम्हारे लिए दो घर देखे हैं- एक खाना बनाने का है, दूसरा बर्तन झाड़ू का। बाकी वहां पहुंचने पर देख लेंगे। तुम्हारी बिटिया भी छोटी है जितनी हिम्मत हो करना काम की कमी नहीं।”

केशव लगातार मना करता रहता। हम अपनी रानी से काम नहीं करवाएंगे वह भी कहती दोनों जन मिलकर काम करेंगे बिटिया को पढ़ाएंगे लिखाएंगे हमारी तरह मजूर नही बनेगी बिटिया।

दिवाली पर आते ही केशव ने अम्मा बाबू से कह दिया उसे रोटी पानी की बहुत तकलीफ है। बनाए खाए या नौकरी करे। ज्यादा थके रहते हैं तो पानी पी के सो जाते हैं। आधा दिन छोला कुल्चा खाए के रहते हैं।

अम्मा तड़प उठी

“आपन मेहर ले जा काहे उपवास करा ए बाबू।”

केशव ने ना नुकुर नहीं की। पहली बार में हामी भर दी ।

“भले मारा भाय! हम रोविएं रहे।”

 बाबूजी ने पीछे से कमेंट मारा मगर केशव उसे अनसुना कर घर के भीतर चला गया।

बाबू बिल्कुल नही चाहते थे कि सगुनी जाए मगर वे आगे आकर रोकना नही चाहते थे। वे अम्मा को उकसाते रहते हैं, खुद ज्यादातर चुपचाप बने रहते। अम्मा हर जगह मोर्चा खोले रहती। जो मन में न रहे वह भी बड़बड़ाती रहती।

अम्मा बाबू ओसारे में ही बैठे रह गए।

बाबू अब भी अस्फुट स्वर में बड़बड़ा रहे थे,

“परदेस जाईके मन मेंहरी के बा, बहाना रोटी पानी के।”

“रोटी पानी चाही तो कब तक जवान लड़का अकेले रहे?

जब मेहरारू लड़िका हैं तो काहे रहे भाई कुछ

ऊंच नीच होई जाए तो रोवे जिनगी भर।”

अम्मा ने बाबू को शांत करने की कोशिश की।

बाबू उसे आग्नेय दृष्टि से घूरे जा रहे थे।

अम्मा घर मे संतुलन साधने का काम करती थी। बेटे के सामने पति का पक्ष लेती पति के सामने बेटे बहू का। बहू के सामने बेटी का पक्ष लेती और बेटी के सामने बहू का गुणगान। इस तरह अम्मा सबसे बुरी बनी रहती थी। कोई अम्मा को खुद के साथ खड़ा नही पाता मगर अम्मा की इसी खूबी पर घर खड़ा हुआ था।

बाबू के मोबाइल पर केशव ने अपने आने की खबर कर दी थी। केशव के घर पहुंचते तक शाम  हो गई थी सगुनी को अम्मा ने केशव के आने के बारे में बता रखा था। उसने पति के हिस्से का भी खाना बना लिया था।

घर में घुसते ही केशव ने सगुनी को साथ ले चलने की खबर दी।

सगुनी आह्लादित थी। उसकी दिवाली तो केशव के आने की खबर से ही मन गई थी।

बाप बेटे आंगन में खाने बैठे, “आज बेटा आया है दो रोटी ज्यादा खाबे”,

केशव के बाबू ने उत्साह से कहा।

“जैसे रोज बहुत कम खाते हैं।”

सगुनी मन ही मन भर बड़बड़ाई।

आज फिर सबके खाने के बाद उसके लिए एक ही रोटी बची। कड़ाही को पोंछ कर उसी से रोटी खा सगुनी ने खाना खत्म कर पानी पिया।

मगर आज का आधा पेट खाना उसे बिल्कुल बुरा नही लग रहा था। अब जीवन भर उसे पेट भर खाने की उम्मीद जो बंध गयी थी।

धान कट रहे थे। तीस घर की जजमानी थी। अम्मा बाबू घर घर जाकर जजमानी ले आये। इस बार धान अच्छा हुआ था। छह महीना तो चावल नहीं ही खरीदना पड़ेगा।

“अब तो दुलहिन जा रही तो साल भर चल जाएगा।”

आंगन में बैठे हुए अम्मा ने जोर से बाबू जी से कहा।

सगुनी को बहुत बुरा लगा। उसे महसूस हुआ जैसे अम्मा उसी को सुना रही।

“सबसे ढेर हमहीं खाते थे क्या?”

सगुनी ने हंस कर कहा ।

अम्मा ने शायद सुना नही या अनसुना करके बाहर चली गयी।

पाव भर धान के लावा-बताशा से लक्ष्मी पूजी, छुरछुरिया सरग बाण जलाकर मन गयी दिवाली।

वैसे तो त्योहार के चार दिन बाद बयना में चीनी की मिठाई लाई, धान का लावा बताशा पूड़ी कचौरी बहुत घर से आई थी।

परजा का त्योहार तो सबका त्योहार मन जाने के बाद राजा का बचा खुचा जूँठ कांठ खा कर ही मनता है ।

केशव और सगुनी के जाने का दिन नजदीक आ गया। सगुनी भीतर से बहुत उत्साह में थी मगर सास को वह लगातार यह जताती रहती कि उसे घर छोड़कर जाना बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा है।

अम्मा को भी उसका जाना पसंद नहीं आ रहा था, लेकिन वे बार-बार कहती

“तुम्हारे जाने का दुख नहीं मगर हमारी पोती चली जाएगी तो घर सूना हो जाएगा।”

सगुनी ने एक बार बेमन से कहा,

“रख लो अपने पास।” अम्मा ने उतने ही बेमन मना कर दिया था।

गांव से भुवन-भुवन बहु, दो लोग लोहारों के गांव से, सगुनी केशव और उनकी बिटिया- इतने लोग थे कुल जाने वाले। टिकट किसी के पास नहीं था। यात्रा पांच छह घंटे इसलिए ज्यादा चिंता की बात नही थी।

गांव आने वाले का लौटना अक्सर तय नहीं होता। अगर लौटना तय होता भी है तो दिन तारीख अनिश्चित होता है। अगर यह सब भी तय हो तो लौटने वालों की संख्या हमेशा भविष्य के गर्भ में होती है। परदेस लौटते परदेसियों के साथ अक्सर दो-चार नए लोग होते हैं।

दोपहर को निकलना था। अम्मा सवेरे से ही आंख पोछ रही थी। बार-बार बिटिया को गोद मे लेकर दुलारे जा रही थी अनमनी सी अम्मा बेकाज इधर उधर भाग रही थी।

बाबू जी ने कहा रास्ते के लिए कुछ पूड़ी-उड़ी बना लो या फिर भी तेल आटा दे दो तो बहू खुद बना ले।

अम्मा ने तीन कटोरी आटा और कड़वा तेल डालकर सगुनी को देकर बक्से में ताला बंद कर दिया।

सगुनी ने चटपट पूरी बनाई। किसी के सीधे में मिर्च का अचार आया था वह भी पूरी के साथ रख पूरी को अखबार में लपेट पॉलिथीन में रख बैग में डाल दिया।

अम्मा आलता घोल कर “गोड़ रंग लिहा” के आदेश के साथ भराई आवाज लिए बाहर चली गई।

केशव का घर गांव के किनारे पर था इसलिए सब परदेसियों का जमावड़ा केशव की दुआरे पर ही हुआ। औरतें बस दो ही थी भुवन बहू और सगुनी। खाने की गठरी भी दो लोगों के पास ही थी बाकी लोगों के चावल, गेहूं, तेल, अचार, सिरका जैसी चीजें थी।

अम्मा ने उसे भी कहा था चावल लेती जाए मगर उसने मना कर दिया जितने दिन साथ थी पेट की रोटी नहीं दी। अभी गेहूं चावल बांध रही हैं।

सब भारी मन से विदा हो रहे थे विदा कर रहे थे केशव अम्मा की तरफ देखता तो दोनों की आंख भर आती बाबू सबसे नजर चुरा रहे थे।

एक सगुनी ही थी जो उत्साह से लबालब भरी हुई थी। मगर वह अपने छलकते उत्साह को कोशिश कर दबा रही थी। उसकी आंखों में छोटे छोटे सपने थे।

दोनों टाइम अपने मन का बनाने खाने का सपना, बिना जिभुली चटनी का ताना सुने, पेट और भर मन भर बिस्कुट नमकीन खाने का सपना, केशव के साथ रोज सोने का सपना। बिटिया को पेट भर दूध पिलाने का सपना।

ऐसे सपनों की गठरी सिर पर लिए सगुनी सबके पीछे चल रहे थी।

ट्रेन रात दस बजे की थी, मगर सब घर से जल्दी निकले।

स्टेशन पर लाइन लगेगी जितनी जल्दी पहुंचेंगे उतना ही आराम से जगह पा जाएंगे। मोड़ पर टेंपो मिल गया। सब जने पास के स्टेशन के लिए चल पड़े तीन बजे तक स्टेशन पहुंच गए।

औरतों को एक जगह बिठाकर आदमी लोग पुलिस वालों के पास नंबर लगाने चले गए। पुलिस वाले ने प्रति व्यक्ति के हिसाब से सौ रुपये लिए और इनका नंबर थोड़ा पहले लगवा दिया।

नंबर की जगह सब ने अपनी एक गठरी रख दी। वहां बहुत धूप होने की वजह से स्टेशन पर गठरी और सामान की लंबी कतार बना लोग छांव में बैठ अपने सामान की निगरानी करने लगे।

पांच बजे सबको भूख लग गई। गठरी में बांधा खाना सब रात को खाना चाहते थे। एक तो उसके ताजा होने की गारंटी थी। दूसरे उसमें थोड़ी घर गांव की खुशबू भी थी।

केशव ने स्टेशन पर बिकने वाली आलू की सब्जी और पूड़ी हरी मिर्च के साथ खुद के लिए ली और सगुनी को भी लाकर दी। उसके देखते देखते ही सब सब्जी पूड़ी लेकर खाने लगे।

ऐसा उसके जीवन में पहली बार हुआ था कि केशव ने सबके सामने खुले में उसके हाथ पर कुछ रखा हो। पूड़ी खाने के बाद केशव ने लाकर उसे चाय दी।

पेट भर खाना उसके बाद चाय वह भी बिना कोई ताना सुने सगुनी के लिए यह सब सपने जैसा ही था।

अभी ट्रेन के आने में कुछ वक्त था। कुछ लोग चादर बिछा कर लेट गए। वह बैठी ही रही उसे गांव वालों के सामने लेटने में संकोच हो रहा था।

स्टेशन पर ट्रेन आती सवारी चढ़ते-उतरते और ट्रेन चली जाती। सगुनी रेलगाड़ी देख रही थी वहां की हर चीज उसके मन में कौतूहल पैदा कर रही थी। रेलगाड़ी के आने से पहले ही चाय पकौड़े वाले सजग हो प्लेटफार्म के पास खड़े हो जाते। रेलगाड़ी के आते ही उसके साथ भागते भागते चलते। जो जितनी अजीब आवाज निकाल सकता था उतनी ही अजीब आवाज में चिल्लाता।

सवारियां उतरती। उनके साथ लाल कपड़े पहने लोग थोड़ी देर साथ चलते। फिर कभी वे उनके सामान उठा लेते तो कभी दूसरी सवारी के साथ चलने लगते। केशव ने उसे बताया कि वे कुली है जो स्टेशन पर लोगों का सामान ढोते हैं।

आठ बजे से पहले सबने मिलाजुला कर खाना खा लिया। पूड़ी, अचार, सब्जी। एक आदमी के साथ रोटी भी थी। उसने कहा कि उसे पूड़ी नहीं पसंद इसलिए उसकी मां ने रोटी बनाई है।

“घर में तेल घी होगा तभी न बनेगी पूड़ी, केशव ने सगुनी के कान में कहा।

खाने के बाद के केशव ने सगुनी को समझाया, बाहर जाना हो तो यहां बाथरूम में चली जाओ और बिटिया को भी करवा लो। रेलगाड़ी में तो पैखाने में भी लोग बैठते हैं वहां जाने की जगह नहीं मिलेगी।

पैखाने में बैठने की बात सगुनी को थोड़ा अजीब लगी। उसने आंखों में अचरज भर कर केशव की तरफ देखा।

अरे! जिसके पास सौ रुपये पुलिस को देने को नही होंगे तो वह क्या करेगा पैखाने में ही बैठेगा न।

केशव सगुनी और बिटिया को लेकर उच्च श्रेणी की वेटिंग रूम में पहुंचा बाहर नीली साड़ी पहने बैठी खडूस सी औरत ने उसे भीतर जाने से पहले कहा।

टिकट चालू है न?

स्टेशन के बाथरूम में जाओ कहते हुए भीतर आने से मना कर दिया।

वहां कहां बाथरूम है?

कहते हुए केशव ने उसकी तरफ 10 का नोट बढ़ा दिया। नोट को ब्लाउज में रखते हुए उस औरत ने कहा सिर्फ लेडीज और बच्ची जाएगी, तुम यहीं रहो, उसने आवाज की खडूसता बरकरार रखते हुए कहा।

सगुनी घबराते हुए अंदर गई। एकदम झक्कास सफेद पखाना। तीन चार नल में पानी आ रहा था। सगुनी को बहुत अच्छा लगा था। इतना साफ पखाना इतना पानी उसे घर से बाहर निकल कर अच्छा लग रहा था। उसके सपने सच हो रहे थे। उसने टी वी ऐसे ही पैखाना देखा था। बस केशव का दस रुपये देना उसे अखर गया।

फ्रेश होकर सगुनी केशव और बिटिया फिर से लोगों के पास आ गए ट्रेन आने का समय हो गया था सब लोग अपनी अपनी गठरी और सामान के पास आकर खड़े हो गए।

केशव ने बिटिया और झोला ले लिया था। भुवन बहू को कहा की भाभी सगुनी को चढ़ाने में मदद कर देना। वह रेलगाड़ी में पहली बार चढ़ रही है।

भुवन बहू ने अपनी ऊंची एँड़ी  का चप्पल उतारकर बैग में रख लिया और हवाई चप्पल पहन लिया।

भुवन बहू को ट्रेन पर चढ़ाने में मदद करने का बोलने और उसे ज्यादा स्मार्ट समझने की बात पर सगुनी जल भुन गई बस कहा कुछ नहीं।

ट्रेन लग गई। डिब्बा खुलते ही दो पुलिस वाले डंडा लिए लोगों को चढ़ाने लगे। पीछे के डिब्बे में कोई पुलिस वाला नहीं था। वहां लोग खुद ही चले जा रहे थे। इतने लोग एक साथ देख कर सगुनी डर गई।

उसका नम्बर डिब्बे के नजदीक था। इसलिए उसका नंबर जल्दी आ गया। पहले वह फिर सामान और बिटिया लिए केशव चढ़े तब उसकी जान में जान आई।

सीट मिल गई थी। खिड़की के थोड़े बाद की सीट थी। उसके बाद लोग भरते गए। इतने जितना वह क्या कोई कभी नहीं सोच सकता था। एक आदमी की जगह आठ दस आदमी।

कहीं कोई जगह खाली नहीं बची थी। लोग एक दूसरे पर चढ़े हुए थे।

बाहर मौसम में हल्की ठंड थी। सगुनी ने बिटिया को दो लेयर कपड़े पहना रखे थे। भीतर गर्मी होने लगी थी। बिटिया ने जोर जोर से रोना शुरू कर दिया। केशव ने बिटिया उसकी गोद में दे दी। वह रोये ही जा रही थी। न तो सगुनी उसे हिला डुला सकती थी झूला ही सकती थी।

इस नए माहौल में वह घबरा भी गई थी। केशव ने  सामान रखने वाली रैक पर दोनों तरफ सगुनी की शॉल बांध कर झूला सा बांध दिया। आसपास के लोग पहले थोड़ा सा कुनमुनाये फिर चुप हो गए।

बिटिया भी रोते-रोते थक कर चुप हो गई। उसे नींद आ गई थी। सगुनी केशव से सटी बैठी हुई बैठी थी।

आज घर से निकलने के बाद बहुत कुछ उसके जीवन में पहली बार हुआ था।

केशव के पास इतनी देर बैठने का मौका भी उसे पहली बार मिला था।

बिटिया के सोते ही सगुनी भी लुढ़क कर सो गई थी। केशव वहां बैठा हुआ था। जरा देर को झपकी लग भी जाती तो चौंक कर बिटिया और सगुनी को देख लेता। वह अभिभावक की भूमिका में था। उसे जिम्मेदारी महसूस हो रहा था।

भोर में ही गाड़ी स्टेशन पर लग गई। गाड़ी भरना जितना मुश्किल था। खाली होना उतना आसान। ऐसे झरर से खाली हो गई जैसे सरसों के भरे बोरे से खाली हो जाती है। सारी सरसों एक छोटा सा छेद होने पर।

सगुनी भुवन बहू भुवन और केशव साथ हो लिए। बाकी साथ के लोगों को कहीं और जाना था। वह चले गए जल्दी जल्दी उतर कर यह स्टेशन से बाहर आ गए।

अभी अंधेरा बना हुआ था। जल्दी से बैटरी का रिक्शा पकड़ यह लोग घर के लिए चल पड़े।

शगुन भौचक्की सी चारों तरफ देख रही थी। हर तरफ रोशनी और ऊंचाई थी। दिवाली की झालर अभी उतरी नहीं थी। बिल्डिंगों से शहर जगमगा रहा था। वह गर्दन को जितना पीछे ले जा सकती थी ले जाती फिर भी कुछ बिल्डिंग को पूरा ना देख पाती।

उसे इतनी रोशनी और ऊंचाई से घबराहट होने लगी उसे उसने सोचा वह कैसे सो पाएगी उसे तो नींद ही नहीं आएगी इतने उजाले में। शहर वाले इतनी ऊंचाई पर कैसे चढ़ते होंगे लोग? थकते नहीं होंगे क्या?

मैं चढ़ पाऊंगी इन मकानों पर। ऐसे ही तमाम सवालों से घिरी सगुनी को जोर का झटका लगा।

रिक्शे का एक पहिया गड्ढे में चला गया था। केशव और भुवन ने उतरकर रिक्शे को धक्का देकर बाहर निकाला। रिक्शा गली में मुड़ गया।

रोशनी धीरे-धीरे कम होने लगी थी। अब रिक्शा अंधेरे की ओर बढ़ रहा था। चारों तरफ काली रंग की बरसाती से बने हुए छोटे-छोटे टेंटनुमा घर थे। इसी को शायद भुवन बहू और केशव झुग्गी कहते हैं। रिक्शा रुक गया। केशव ने सामान उठा लिया था। सगुनी और बिटिया का हाथ पकड़े केशव अंधेरे में चला जा रहा था। दोनों तरफ झुग्गियां थी। कुछ झुग्गियों के भीतर से आ रही रोशनी से रास्ता धुंधला सा दिख रहा था। मौसम में बहुत धुंध थी। सगुनी को लगा उसकी आंख जल रही थी। उसमें पानी आ रहा है उसकी सांस फूलने लगी थी।

अपने यहां तो माघ पूस में कुहरा पड़ता है। यहां अगहन से कुहरा पड़ने लगा?

सगुनी की आंखों में कौतूहल था।

ये कुहरा नही पलूशन है, केशव ने उसे बताया

सगुनी के लिए नया शब्द था।

उसे लगा कोई कुहरे का समानार्थी है जो इस मौसम में होता होगा।

अचानक सगुनी का पैर गोबर जैसी किसी चीज में चला गया। अचानक जैसे वह गहरी नींद से जाएगी हो। अब वह सतर्क होकर चलने लगी थी।

उसने सिर से पल्लू गिरा दिया था। गिराते हुए केशव की तरफ सहमति के लिए देखा। केशव के आंखों में मूक सहमति थी।

उसने साड़ी ऊपर उठाकर कमर में खोंस ली थी। अचानक केशव रुक गया था।

उनकी झुग्गी आ गयी थी। केशव ने झुग्गी में लगा जुगाड़ का दरवाजा खोला और अंदर चला गया था।

सगुनी बिटिया को लिए बाहर खड़ी रही। दरवाजा इतना नीचा और भीतर घुप्प अंधेरा उसे समझ में नहीं आ रहा था। भीतर कैसे जाए। केशव के लिए वह परिचित जगह थी, मगर सगुनी के लिए बेहद नई।

अपरिचित जगह पर धुंधलका भी अंधेरा लगता है। केशव बड़े आराम से हर काम कर रहा था सगुनी सहमी हुई खड़ी थी।

केशव ने मोबाइल की टार्च जलाकर सगुनी को दिखाया और कहा,

“भीतर आ जा यही अपनी झुग्गी है।”

सगुनी झिझकते घबराते भीतर चली गई,

“घर जाते समय बिजली काट कर गया था शाम को जोड़ लूंगा।”

अभी ऐसे ही काम चला।”

सगुनी पीछे खड़ी ही थी तभी बहू पीछे से भुवन बहू ने आवाज लगाई,

“चलो बाहर से लौट आएं। उजाला हो जाएगा पार्क में लोग बढ़ जाएंगे तो चौकीदार भी घुसने नही देगा।”

सगुनी को केशव ने बोतल में भरकर पानी दे दिया और साथ में टॉर्च भी।

शगुनी टॉर्च लेकर भुवन बहू के पीछे पीछे चलने लगी। भुवन बहू के साथ कुछ और औरतें थी। वे लोग जहां जाकर रुके वहां बड़े फूल पत्तों से भरे मैदान को चारों तरफ दीवार से घेरा हुआ था।

औरतों की बातों से शगुनी समझ गई इसे पारक कहते हैं। वे जहां खड़े थे वहां पर एक छोटा सा गेट था वहां एक आदमी खड़ा था उसने भुवन बहू को दूर से पहचान लिया,

“आ गए तुम लोग गांव से उस आदमी ने पूछा” और तुरन्त ही उसका ध्यान सगुनी पर गया,

“यह नई आई है क्या?”

उसने पूछा था।

“देवरानी है मेरी भुवन बहू ने हंसकर कहा “

“अभी रुको कोई अंदर है।”

यह कहते हुए उसने औरतों को रोक लिया पास में ही एक छोटा सा कमरा था सगुनी समझ गई कि यह शौचालय है।

“पीछे वाला दो खाली है तुम दोनों उधर चली जाओ।”

उसने भवन बहू और साथ की एक औरत से कहा यह दोनों पीछे चली गई।

वहां सगुनी अकेली बची।

शौचालय से कोई निकला तो उस आदमी ने सगुनी को भीतर जाने का इशारा किया।

सगुनी भीतर चली गयी उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह थोड़ी देर बैठी रही भयानक बदबू में उससे रहा नहीं जा रहा था। तभी किसी ने बाहर का दरवाजा खटखटाया।

वह डर कर बाहर आ गई। तब तक भवन बहू और दूसरी औरत भी आ चुकी थी,

“इसका हिसाब आज से लगेगा तुम लोगों का कुछ पिछला भी बाकी है, याद है न?”

उस आदमी ने पीछे से आवाज देकर कहा,

औरतें लौट पड़ी। वे उस आदमी को गरिया रही थी।

सगुनी को समझ आ गया था। वह आदमी उस जगह का रखवाला है जो इनको भीतर जाने देने के पैसे लेता है।

“क्या हमें रोज ऐसे जाना पड़ेगा?”

सगुनी ने बहुत संकोच से पूछा,

“तब क्या हमारे बाप दादा यहां पैखाना थोड़ी बनवाएं हैं।”

दूसरी औरत बेहद कटुता से बोली,

“भली समझो की हम लोग पार्क के पास रहते हैं जहां का चौकीदार थोड़े पैसे लेकर हमें यहां जाने देता है। जहां ऐसी व्यवस्था नही वह झुग्गी वाली औरतें क्या क्या जतन करती हैं कभी तुम्हे बताऊंगी।”

भुवन बहू की आवाज में समझाइश थी।

“तुम लोग जिनके घर काम करती हो उनके यहां नहीं जाती क्या?

उनके घर में तो पैखाना होगा न?”

“उनके तो एक-एक घर में तीन तीन चार चार हैं। मगर वह हमें जाने थोड़ी देती हैं

गरीब के गू में ज्यादा गन्ध होती होगी उनका तो सब महकता है न,”

साथ चलती साथी ने मालकिन को गरियाया।

“हमारा चाय का बर्तन और नाश्ते की प्लेट अलग रखते हैं तो हमें पैखाना इस्तेमाल करने देंगे हरामखोर लोग।”

भुवन की औरत ने भी उस औरत की हां में हां मिलाई।

उसे उसके झुग्गी में छोड़ते हुए भुवन बहू अपनी झुग्गी में चली गई उजाला हो गया था केशव कहीं से पानी भर के ला रहा था और पेंट के डिब्बे की बाल्टी और केन  में रख रहा था।

सगुनी नें उजाले में देखा काली पॉलिथीन से टेंट जैसे घर बना हुआ था। वहीं बगल में पत्थर रख के बर्तन मांजने का और कपड़े ओट करके नहाने का इंतजाम था।

कुछ के पास बर्नर लगा सिलेंडर था तो कुछ झुग्गियों में लकड़ी का चूल्हा दिख रहा था।

किनारे वाले घर में तो बगल में एक कोना लहसुन धनिया भी लगा दिया गया था।

वह झुग्गी के अंदर चली गई एक दरी और थोड़े बर्तन थे बिटिया को केशव चटाई पर दरी बिछाकर सुला दिया था।

अचानक केशव पीछे से आया और उसे पकड़ लिया प्यार जताते हुए बोला,

“सामान जादे नहीं है धीरे-धीरे ले लेंगे चिंता ना करो।”

“हम समान की चिंता थोड़ी न कर रहे हैं। सब हो जाएगा दोनों जने कमाएंगे ना,”

सगुनी ने केशव को आश्वस्त किया।

“मंजन कर लो हम चाय ले आते हैं।”

केशव सगुनी को कह ही रहा था की भुवन बहू लोटे में चाय बना कर ले आयी।

केशव ने चाय उड़ेल कर पीनी शुरू कर दी। भुवन बहू वहीं बैठ बिटिया को खिलाने लगी। भुवन बहू जब गांव जाती तब सगुनी की बिटिया उठा ले जाती थी। मालिश करती नहलाती पाउडर लगाती।

अम्मा बड़बड़ाती रहती। कहती थी, उसके तो कोई बाल बच्चा है नही, टोनहिन होती हैं बेऔलाद औरतें। इसीलिए भगवान उनकी गोद सूनी रखता है। किसी बहाने से जितना जल्दी हो सकता किसी को भेज बुलवा लेती थी।

सगुनी को इस तरह की बात पर यकीन नही था। उसने सोच लिया अब चाहे भुवन बहू जितना खेले बिटिया के साथ वह कभी मना नही करेगी।

भुवन बहू और सगुनी बातों में लग गए थे।

“मैं जरा बाहर से जाकर दूध और कुछ खाने का सामान लाता हूँ। बिटिया अपने पापा के घर आ गयी इसे भी तो कुछ खिलाएं पिलाएं।”

केशव ने सोई हुई बिटिया को स्नेहपूर्वक देखते हुए कहा।

वह बाहर चला गया। थोड़ी देर में दूध बिस्किट कुरमुरे और ब्रेड लेकर वापस आ गया। शायद दुकान पास ही होगी।

सगुनी चौंकी हुई थी। उसके व्यवहार में बौखलाहट साफ दिख रही थी। ट्रेन से उतरने के बाद हर पल नया सा घट रहा था। सब इतनी जल्दी जल्दी हो रहा था उसे समझ नही आ रहा था वह क्या रिएक्शन दे।

केशव ने दूध का पैकेट भुवन बहू को थमा कर गर्म कर लाने को कहा। उसने चाय के साथ ब्रेड भी खाई। केशव सगुनी को भी कई बार कहा मगर उसका कुछ खाने का मन नही था। उसके पेट मे गुड़ गुड़ हो रही थी। केशव के बहुत कहने पर सगुनी ने ठंडी हो रही चाय थोड़ी सी पी ली थी।

सगुनी ने नहाने की इच्छा व्यक्त करते हुए केशव से नहाने की जगह के बारे में पूछा। केशव ने उसे झुग्गी के अंदर रखे पत्थर पर नहाने को कहा।

साथ ही उसे नाली दिखाई कि पानी यहां से बह जाएगा। यहां लोग ऐसे ही नहाते हैं। केशव और बिटिया सो गए थे। सगुनी ने दो लोटा डाल कर नहाने की औपचारिकता पूरी की। कपड़ा धो कर बाल्टी में रख दी।

भुवन बहू दूध गर्म करके दे गई थी। सगुनी ने गिलास भर दूध बिटिया को सोते सोते पिला दिया। दूध पिलाते हुए उसे  बहुत अमीर महसूस हो रहा था। कैसे उसकी बिटिया बूंद बूद दूध को तरसती रही है। वह भी जाकर बिटिया के दूसरी तरफ लेट गयी। पिछले दिन और रात की थकान का असर था कि वह पड़ते ही सो गई। नींद खुली तो दोपहर उतर रही थी। उसके पेट में मरोड़ हो रही थी मगर पार्क के टायलेट को याद कर वह घबरा गई।

भुवन बाहर कुछ खाने के लिए जा रहा उसने मुस्कुरा कर पूछा “तुम्हारे लिए कुछ खाने को लाऊं या आज बिस्कुट खाकर रहना है। “

सगुनी ने अनमने ढंग से नकार में सिर हिलाया।

केशव दो प्लेट छोले कुलचे ले आया। बहुत कहने पर भी सगुनी कुछ खाने को तैयार नही थी।

छोले कुलचे खाकर केशव ने तृप्ति से डकार ली।

“तुम काहे कुछ नही खा रही हो?”

केशव ने पूछा ।

बस भूख नही है।

अम्मा की सुधि आ रही है क्या?

सगुनी ने हां में सिर हिलाया।

तो पहुंचा दें।

केशव ने ठिठोली की।

सगुनी कुछ नही बोली बस अनमनी सी बैठी रही।

शाम हो गयी थी हवा में धुंध बढ़ रही थी। सगुनी और उसकी बिटिया की आंखे भयानक रूप से जल रही थी। बिटिया आंख मल मल कर रो रही थी। केशव ने सब्जी आटा तेल नमक मसाला लाकर रख दिया था। मगर चूल्हा तो जला नही सकते थे। जुर्माना कौन भरेगा भला।

भाभी को फोन कर दो। मुझे शाम को भी बाहर जाना है सगुनी ने केशव को कहा।

शाम होते ही भुवन बहू आ गयी और सगुनी को लेकर पार्क चली गयी। वहां अब भी वही आदमी था। सगुनी जल्दी से अंदर चली गयी बाहर आई तो उसे बहुत हल्का महसूस हो रहा था।

भुवन बहू दूर बैठी हुई थी। जैसे ही सगुनी बाहर निकली वह आदमी अचानक से सामने आ गया।

ए सुनो! क्या नाम है तुम्हारा।

वह सगुनी से मुखातिब था मारे घबराहट के सगुनी के मुंह से बोल नही फूट रहे थे।

दोनों टाइम के डबल पैसे लगेंगे वह आदमी बोला। सगुनी कोई जवाब नही दी।

वैसे तुम चाहो तो तुम्हारे पैसे नही लगेंगे। उल्टा हम ही तुम्हे कुछ दे देंगे, कहते हुए उसने कस कर सगुनी की छाती पर चिकोटी काट ली। सगुनी के मुंह से चीख निकल गयी। वह भय और दर्द से बिलबिला गयी थी।

अंधेरे में कुछ काट लिया क्या?

उस आदमी का वाक्य प्रश्न वाचक था।

सगुनी ने लौटते हुए भुवन बहू को पूरी घटना बताई। उसे लगा था कि भुवन बहू चौंकेंगी। उसे गुस्सा आएगा। मगर वह शांत बनी रही। उसने कहा,

“औरतों के साथ यह सब चलता रहता है। सतर्कता से रहा करो। अंधेरे में अकेले न जाया करो। बाहर निकलने पर हमें बुला लेती। आदमी तो कुत्ते होते ही हैं। औरतों को उनसे अपनी लाज बचानी पड़ती है।

केशव को बताने के लिए सख्ती से मना किया। समझाया कि छोटी छोटी बातों पर आदमियों को मत उलझाना। हम यहां खाने कमाने आये है फौजदारी लड़ने नहीं।

सगुनी घर आ गयी थी। केशव ढाबे से खाना ले आया था। केशव के बहुत मनुहार पर सगुनी ने एक रोटी बेमन से खाई।

केशव उसके व्यवहार से हैरान था। गांव में इतनी उत्फुल्ल रहने वाली उसकी सगुनी इतनी बुझ कैसे गयी। केशव के बार बार कहने पर उसने बिस्कुट भी नहीं खाया।

बिटिया को खिला पिला कर सुला दिया था। केशव उसे बहुत देर तक छेड़ता रहा मगर वह अनमनी बनी रही। काफी देर मान मनुहार के बाद केशव सो गया। मगर सगुनी की आंखों में नींद कहां? वह तो बस घड़ी में तीन बजने के इंतज़ार में थी।

रोटी सेंक कर सगुनी ने दूध गर्म होने को रखा। तब तक केशव जग गया। उसने चाय बनाने को कहा। “चाय भी बना लो। आज दिन में सिलेंडर का इन्तज़ाम करेंगे। सुबह होने पर चौकीदार चूल्हा जलाने पर परेशान करेगा।

सगुनी ने खूब गाढ़े दूध वाली चाय बनाई। केशव ने उसे बिस्कुट निकालने को कहा।

सगुनी का बिस्कुट प्रेम केशव जानता था। वह चाहता था सगुनी खूब खुश रहे। खाये पिये! हंसे खिलखिलाए।

सगुनी अनमनी सी गिलास में चाय डाल कर बैठी रही।

केशव ने मनुहार कर उसके हाथ में बिस्कुट का पैकेट दिया।

बाहर से भुवन बहू की बाहर जाने के लिए पुकार आयी।

सगुनी मारे घबराहट के पसीने से नहा गयी।

बिस्कुट का पैकेट उसके हाथ से छूट कर गिर गया।

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लेखिका संपर्क-mridulashukla11@gmail.com 

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प्रेमी के साथ फ़रार हुई औरत कहानी का लिंक- https://www.jankipul.com/2020/01/a-short-story-of-mridula-shukla.html#:~:text=%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A6%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%BE%20%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2%20%E0%A4%95%E0%A5%80%20%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80%20’%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A5%80%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A5%20%E0%A4%AB%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B0%20%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%88%20%E0%A4%94%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E2%80%A6′,-Prabhat%20Ranjan%20January&text=%E0%A4%89%E0%A4%B8%20%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%9C%20%E0%A4%AD%E0%A5%80%20%E0%A4%8F%E0%A4%95%20%E0%A4%94%E0%A4%B0%E0%A4%A4,%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A5%20%E0%A4%AB%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B0%20%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%88%20%E0%A4%A5%E0%A5%80%20%E0%A5%A4

 
      

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5 comments

  1. जीवन का पूरा आख्यान है सगुनी की कहानी, जिसमें गाँव है ग्रामीण परिवार में बहुओं की जिंदगी है, बुजुर्गों का जीवन है सगुनी के सपने हैं बारीक से बारीक आख्यान हैं और शहर का नर्क भी है और अंत में ‘मर्द की जात’ भी है, यह जिस पृष्ठभूमि की कहानी है उसमें कुछ छूटा नहीं है।

  2. मुकेश कुमार सिन्हा

    बिस्किट के बारे में पढ़ कर मुस्कुरा रहा था, पर अंत तक आते आते ये बिस्किट भी दर्द दे गया।

    कहानी पूरे फ्लो में हर समय बहती रही। कितना मुश्किल होता है महानगर में जीना।

  3. The whole story is the saga of Indian women and their desire, lose, disillusionment. I loved the treatment of the story which is flawless and subtle. It depicts the condition of slum areas ,where have-nots live ,in a subtle way commenting on social structure set by the system. I loved the middle part of the story, the conclusion would have been better one.

  4. Ramesh Ghildiyal

    Ek aur behtareen..apni ankhon dekhi Kano suni c Kahan k liye…khub chhapachhap kar gai..abhar

  5. बहुत सुंदर कहानी..

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