निधि अग्रवाल पेशे से डॉक्टर हैं। अच्छा लिखती हैं। पिछले दिनों उन्होंने जानकी पुल पर मैत्रेयी देवी के उपन्यास ‘न हन्यते’ पर जानकी पुल पर बहुत अच्छी टिप्पणी लिखी थी। आज उनकी एक दिलचस्प कहानी पढ़िए, दिल्ली मेट्रो के सफ़र पर-
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एनसीआर में और कुछ अच्छा हुआ हो या न हुआ हो लेकिन मेट्रो का चलना किसी नेमत से कम नहीं। स्त्रियों के लिए तो यह किसी जन्नत सरीखी है। पहले गाजियाबाद से दिल्ली जाने में जहाँ भरी हुई बस की धक्का मुक्की, पसीने की चिपचिपाहट और न जाने कितने अवांछित लिजलिजे स्पर्श और नज़रें बर्दाश्त करनी पड़ती थी वहीं अब मेट्रो के वातानुकूलित डिब्बे का आरामदायक सफर होने से मानो प्रतिदिन आने-जाने वालों की उम्र में कम से कम पाँच-पाँच वर्ष का तो इजाफा हो ही गया है।
सफर की खूबसूरती यों और भी बढ़ जाती है कि उत्तर प्रदेश रोडवेज और डीटीसी की मारामारी से बच अपने निजी वाहन से ही चलने वाला सम्पन्न युवा वर्ग भी अब मेट्रो को स्टाइल स्टेटमेंट की लिस्ट में रखता है। ईयर फोन या हेडफोन लगाए विदेशी धुनों के साथ स्पंदित होते उनके सिर या पैरों की थाप हो या मोबाइल पर चले आए किसी मैसेज को पढ़ खिल आई अधरों की विस्तृत स्मित या सेल्फी ले इंस्टा पर स्टोरी डालने को बेताब हो बनाया पाउट….. मुझ 58 साल के विधुर की यात्रा को कुछ पूर्व स्मृतियों का स्मरण करा और कुछ नई स्मृतियों का रोपण करा, मनोहारी बनाने के लिए पर्याप्त हैं।
चार साल पहले बेटे के विदेश बस जाने और बेटी के अपने घर-परिवार में रम जाने के बाद जब दो साल पहले सुधा भी साथ छोड़ गई तब से कहने-सुनने वाला बचा ही कौन है? अब दृश्य कोई भी हो, मैं हर जगह बस एक मौन दृष्टा होता हूँ। भले ही यह अनुचित जान पड़े लेकिन लोगों के हाव-भाव का अवलोकन कर सहयात्रियों के जीवन और व्यक्तित्व के विषय मे मेरा स्वकल्पित व स्वरचित सम्पूर्ण विकिपीडिया बना हुआ है। मेरे ही साथ जल कर खाक हो जाने वाली इन जीवनियों पर मैं इनके वास्तविक स्वामियों के पुष्टि सूचक हस्ताक्षर इसलिए भी आवश्यक नहीं समझता क्योंकि उन्होंने भी कभी मुझसे कोई संवाद स्थापित करने की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जिज्ञासा जाहिर नहीं की है। वैसे भी जब सबके हाथों में स्मार्ट सहयात्री हो तब जगत की नई रीतियों और चलन से अनजान इस ‘आउटडेटिड वर्ज़न’ में किसको रुचि होगी। यह अलग रहस्य है कि अखबार के संग आए रंगीन पेजों की भी मैं एक-एक पंक्ति पढ़ लेने के कारण इतना आउटडेटिड हूँ नहीं, लेकिन लोग किताब को उसके कवर से ही जज करते हैं। किताब पढ़ने का संयोग बनना भी मेट्रो में भाग्य पर ही निर्भर करता है। मेट्रो की अनवरत सर्विस में प्रतिदिन के यात्रियों से प्रतिदिन ही मिलना सम्भव नहीं, तथापि मेरी अनुभवी आँखें जानती हैं कि प्रायः मेरे साथ ही वैशाली से काँधे पर बैग टाँगे चढ़ने वाले जीन्स-टॉप वाले लड़के और और हमेशा उसके साथ ही सदा दुप्पटे को अपने काँधों पर करीने से फैला कर ओढ़ने वाली लड़की के हाथों की अंगुलियाँ एक दूसरे में उलझी रहती हैं। आसपास अन्य लोगों की उपस्थिति में वह कोई वार्तालाप भले ही उचित नहीं समझते हो किन्तु मन मे खिलते बसंत में आँखें मौन रहना भी नहीं जानती।
किसी दिन वह लड़की अकेले आए तो मैं उसे कहना चाहता हूँ कि यह फिसलन भरा सफर है… आँखें खुली ही रखना। कंजी आँखों वालों पर कभी पूर्ण विश्वास नहीं करना चाहिए, जबकि मैं जानता हूँ कि इन आँखों के रंगों से ही उसकी दुनिया के सब रंग जुड़े हैं और इन आँखों के फिरते ही बदरंग दुनिया का सामना करने की हिम्मत भी हार जाएगी। यूँ भी यह कंजी आँखें लड़की की काली आँखों की तरह केवल अपने साथी पर ही केंद्रित नहीं रहती यदा कदा मैंने इन्हें इसके रंग का अवलोकन करती अन्य आँखों के साथ भी मुस्कुराते हुए पकड़ा है। रूप पर गर्व और रूप की प्रशंसा का मोह केवल स्त्रीगत विशेषता हो, यह सत्य प्रतीत नहीं होता।
कौशाम्बी से चढ़ने वाली अधेड़ उम्र की स्त्री अवश्य ही किसी स्कूल में टीचर हैं। उनके साथ एक बड़ा-सा पर्स और एक जूट का थैला रहता है। जिस मुश्किल से वह घुटनों पर हाथ रख चढ़ती हैं, ट्रैन के कंपार्टमेंट के भरे होने पर भी कोई न कोई उन्हें सीट दे ही देता है। शायद उन्हें घर पर भी काफी काम करना पड़ता है और वह नाश्ता नहीं कर पाती। कौशाम्बी से लक्ष्मी नगर कुछ ताजे फलों को खा लेने पर भी उनके चेहरे पर स्थायी थकान बनी ही रहती है। अगर कुछ समय खाली मिलता है तो वह आँखें मूंद पीछे सिर टिका लेती हैं।
वह अधिकतर सलवार सूट पहनती हैं लेकिन कभी जब साड़ी पहन कर आती हैं तो एक अलग ही गरिमा दिखाई देती है उनके व्यक्तित्व में। उस दिन वह फल भी नहीं खाती दिखती– सम्भवतः लिपस्टिक बिगड़ जाने के डर से! उन्हें साड़ी में देख एक क्षम्य-सी गुस्ताख़ कल्पना मन में उमड़ने लगती है। लगता है काश किसी दिन मैं हाथ पकड़ उन्हें भी अपने ही स्टेशन पर उतार लूँ। कुछ देर स्टेशन पर ही बैठ सुख-दुख की कुछ बातें हों। तब मैं उन्हें बताऊँ कि अभी से अपने लिए जीना सीख लो। उतना ही भागो कि उम्र बीतने पर पैरों में अपने लिए चलने की शक्ति बची रहे। उम्र बढ़ने के साथ चश्मा लगाने पर भी कोई कंधा समीप नजर नहीं आता।
आनंद विहार से चढ़ने वाली साँवली लड़की जिसका नाम सलोनी के अलावा कुछ और हो ही नहीं सकता, मेरी ही भाँति औरों को पढ़ने की अभ्यस्त दिखती है।आत्मकेंद्रित होने का स्वांग करती,वह अपने आस-पास की हर हलचल पर नजर रखती है और कंजी आँखों से आँखें मिलने पर नजर फेर लेती है। कंजी आँखों वाले के अहम को आहत करने की उसकी यह चेष्टा मुझे आनन्द से भर देती है। पिछले दो महीनों में मैंने उसे बस एक बार किसी मैसेज का रिप्लाई करते हुए मुस्कुराते देखा है और मैं चाहता हूँ कि उस नम्बर पर वह कुछ ज्यादा बाते करे। मुस्कुराहट उसके चेहरे की अकारण ही ओढ़ी कठोरता को हर जो लेती है, जैसे बरसात के बाद पत्तियां हो जाती हैं कुछ जवां-जवां सी! कभी फिर मुस्कुराती मिली तो अवश्य ही अपनी काँपती उँगलियों से कुछ धुंधला ही सही उसका फ़ोटो खींच उसे दिखा उम्र से आगे न भागने की सलाह दूँगा… अभी पँखों को बांधे रखने पर भी पँखों को समय के साथ बेदम हो ही जाना है। वह अनन्त आकाश की उन्मुक्त उड़ान के सुख से यूँ विमुख क्यों रहे?
आनंद विहार से ही चढ़ कड़कड़डूमा उतरने वाले तीन लड़कों और चार लड़कियों का समूह मुझे किन्हीं चंचल पंछियों के समूह सरीखा लगता है। वह सभी अधिकतर कुछ फ़टी और फिट-सी जीन्स में रहते हैं, जिसे वह सम्भवतः ब्रांडेड सेल से खरीद कर लाते होंगे। उनकी टी-शर्ट्स पर या तो कम्पनी का नाम या किसी प्रसिद्ध किरदार की पंक्तियां आदि लिखी रहती हैं। लड़कियाँ कभी-कभी फूल-पत्ती बनी पोशाक भी पहन लेती हैं। वह सभी बोलते कम है और हँसते ज्यादा हैं। मेट्रो का सफर उनके वार्तालाप के सफर में कोई अवरोध भी उत्पन्न नहीं करता। बस ऐसे ही, जैसे पार्क में घूम बातें करते एक बेंच पर न बैठ दूसरी पर बैठ गए और फिर उठ कर चलते हुए बातें करते गए।
यह सभी संभवतः एक ही या फिर आसपास के ही कॉलेजों में पढ़ते होंगे। न अतीत का पछतावा न भविष्य की चिंता। वर्तमान के हिंडोले पर पेंगें बढाते यह बच्चे अपने शोर से डिब्बे में उपस्थित प्रत्येक के मन के अनगिनत शोर को कुछ पल के लिए ही सही, निस्तेज कर देते हैं। हाँ, कौशाम्बी वाली अधेड़ अध्यापिका अवश्य ही किसी दिन अपने जूट के बैग से लकड़ी का बड़ा रूलर निकाल ट्रेन की छत पर बजाते हुए चिल्लाएगी… ‘एवरीबॉडी कीप क्वाइट!’
प्रीत विहार से रोज एक-सी ही वेशभूषा में नीली बॉर्डर की ग्रे साड़ी पहन और बालों को जूड़े में बांध चढ़ने वाली सामान्य नैन-नक्श की लड़की मुझे निर्माण विहार में किसी आभूषण की दुकान की सेल्सपर्सन लगती है। उसके चेहरे की खूबसूरती उसके दोनों गालों पर पड़ते डिंपल हैं और यह तथ्य उसे भी भलीभांति विदित है। मुस्कान उसके चेहरे पर यों खेलती रहती है जैसे किसी माँ की गोदी में शिशु!
उसे देख न जाने क्यों मुझे शादी की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर सपरिवार तनिष्क की विजिट याद आ जाती है। बच्चों की जिद थी सुधा को सोने का हार दिलाने की। जो लड़की हमें आभूषण दिखा रही थी उसने मंजूषा नाम की नेमप्लेट लगाई हुई थी। अंत मे जब दो सेट में से एक के चयन पर सहमति नहीं बन पा रही थी तब दक्षिण के परम्परागत मंदिरों के परिष्कृत डिजाइन वाला हार अपने गले मे लगाते हुए वह बोली थी, ”आँटी जी, मैं होती तो यह लेती! यह खरा सोना है और सदा चलन में रहता है।” शीशे पर टिकी उसकी आँखें चुगली कर रही थी कि वह यह हमसे नहीं स्वयं से ही कह रही थी। उतारने से पहले एक बार और उसने स्वयं को शीशे में निहारा और सुधा के ‘यही ले लेते हैं’ कहने पर उसका बिल बनाने में व्यस्त हो गई। तभी मैंने नोटिस किया कि गले की ही तरह उसकी उँगलियाँ और कलाई भी आभूषण विहीन थीं। केवल कान ही मोती के दो बुंदे पाने का सौभाग्य प्राप्त कर पाए थे। वेलवेट के डिब्बे में हार को पैक कर हमें पकड़ाते हुए अनुबंधित अनुक्रिया के अंतर्गत दी गई मुस्कान के पीछे, वह हार निजी मंजूषा में रख पाने की असमर्थता के दर्द का अनावरण नहीं ही हुआ था।
यह देख मुझे सुकून मिलता है कि ग्रे साड़ी वाली लड़की यूनिफार्म की अनिवार्यता में बंधे होने के बावजूद अपनी नारी सुलभ संवरने की रचनात्मकता का सम्पूर्ण सदुपयोग प्रतिदिन नए आभूषण पहन कर करती है। उसके आभूषणों में भी उसके व्यक्तित्व सी ही एक नजाकत, कमनीयता और ताजगी रहती है। आभूषणों में उसकी सुरुचि मुझे प्रभावित करती है और मुझे लगता है कि उसे यूनिफार्म में बांध देना उसकी कला के साथ अन्याय है। वह कभी फैशन ब्लॉगर बनने के बारे में क्यों नहीं सोचती?
प्रीत विहार से ही प्रतिदिन नहीं भी तो हफ्ते में कम से कम चार बार तो चढ़ने वाला दूधिया चांदनी सा लड़का यूँ लगता है जैसे किसी चित्रपट के परदे से सीधा निकल आया हो। उसके आसपास होते ही डिब्बा उसके परफ्यूम की महक से भर जाता है। इस अल्पकालीन सफर में जितने दीर्घ आश्वासन वह लगातार बजते अपने फोन पर देता है अवश्य ही वह किसी कम्पनी का मार्केटिंग एजेंट है और जरूर ही हर कुछ महीनों में अपना नंबर बदल लेता होगा। इसी के साथ एक मीठा सा ख्याल चला आता है कि शायद… शायद किसी दिन यह एक स्थायी नम्बर रखेगा। शायद….किसी दिन यह अपना नम्बर ग्रे साड़ी वाली लड़की को देगा।
निर्माण विहार के बाद चढ़ने वालों से कुछ कहने-सुनने और रोज के पढ़े सबक पुनः पढ़ने का कार्यक्रम इसलिए भी नहीं बन पाया क्योंकि आज निर्माण विहार से चढ़ने वाली विभू के साथ एक नया अध्याय चला आया है। पाँच फुट पाँच इंच की इस लड़की के चेहरे पर आत्मविश्वास का आलोक सबकी आँखे चुंधिया दे रहा है। क्रॉप टॉप और टखनों तक की घुटनों से फ़टी जींस और सिर पर बान्दाना बांधे इस यौवना पर यूँ भी अनजाने ही नजर टिक गई क्योंकि वह द्वार से प्रवेश करते ही हर्ष से चिल्लाई थी, ‘विभू…उधर!’
और दोनों सखी इंगित की गई मेरे ही समीप की खाली सीटों की तरफ चली आई थी। मैंने देखा कि मेरी ही नहीं कंजी आँखों से लेकर चश्मे के काले लेंसों के पीछे तक की सभी आँखें बिना किसी आमंत्रण के भी निर्लज्जता से उसी ओर उठ रही हैं। इसका जितना श्रेय या दोष उसके लघु वस्त्रों को था उतना ही शायद हमारी लघु मानसिकता का भी!
वह शायद इन उठती आँखों के लिए अभ्यस्त थी या इन नेत्र बाणों के वारों को निरस्त करने का ब्रह्मास्त्र लिए चलती थी। वह बेपरवाह-सी सहज रूप में विभू से बातें कर रही थी। हर दो सभ्य शब्दों के बाद असभ्य शब्दों के प्रयोग से भारतीय संस्कृति का चीरहरण करने में व्यस्त वह यह भी संज्ञान नहीं ले पाई कि उसकी उपस्थिति ने डिब्बे में पूर्व में चलायमान हर स्पंदन को शांत कर दिया है।
विभू ने जरूर उसे आँखें दिखाते हुए कहा, ‘नालायक, अपने यह अमृत वचन जगह देख कर तो बोला कर’, और सिर झटक कर हँसने लगी। उसकी हँसी ने मानो घोषणा की कि उसकी सखी को असंस्कारी समझने वाले हम सब उन लोगों के लिए कितने हेय हैं। उतने ही जैसे मंटो को न समझ पाने का दोष उन्हें नहीं अल्पमति पाठक को है।
नज़रों के वार और अमृतवाणी का प्रवचन दोनों जारी रहे केवल नज़रों के स्वामी चढ़ते उतरते रहे और वह दोनों अपनी हँसी से सबको ठेंगा दिखाती रहीं। जितनी गालियाँ वह अभी तक दे चुकी थी वह शायद गिनीज बुक में जगह बनाने की क्षमता रखती हों। मैं सार्वजनिक जगहों पर शायद ही कभी साला के ऊपरी स्तर की कोई गाली मुखरित कर पाया हूँ, और उस पर भी अगर सुधा साथ होती तो वह आग्नेय नेत्रों से घूरना न भूलती। पुरुषों द्वारा माँ-बहन की गाली का प्रयोग करने पर लताड़ने वाले स्त्रीवादी समूह कभी इन लड़कियों का भी घेराव करेंगे क्या? करे भी तो यह अपनी बड़ी बड़ी आँखों को घुमा, कन्धे उचका, इसका दोष भी पितृ सत्ता पर मढ़ देंगी। मासूमियत से कह देंगी कि हमारा शब्दकोश आप ही का दिया है। हमने तो बस वह कुछ पन्ने भी पढ़ डाले जो स्त्रियों के लिए प्रतिबंधित थे।
अधेड़ टीचर के चेहरे पर असहजता तो दिखती है। कौन जाने उनके घुटनों में दर्द न होता तो वह उठकर उसे एक तमाचा ही जड़ देती।कंधे तक कटे श्वेत बगुलों से बालों में सुनहरी चेन वाला चश्मा फंसाये लिनन की हल्की गुलाबी साड़ी पहने हुए
मेरे बराबर बैठी अपरिचित महिला उनकी उपस्थिति से सर्वाधिक असहज हैं।वह कुछ और सिकुड़ कर बैठ गई हैं और अपने आस पास के पुरुषों को आग्नेय नेत्रों से घूर शायद यह संदेश प्रेषित करना चाहती हैं कि मुझे इन जैसा समझने की भूल कदापि न करना।अभी अभी होठों में ही उन्होंने कुछ बुदबुदाया है और सन्नाटे को भी पढ़ लेने को अभ्यस्त मेरे कानों ने उसका अनुवाद बदचलन लड़कियां किया है।
इंद्रप्रस्थ स्टेशन से उन जैसे ही दो बुजुर्ग और चढ़ आये हैं। बुजुर्ग के हाथों में छड़ी है तब भी उसे सहारा देकर वृद्धा अपना पत्नी धर्म निभा कर मिलने वाले पुण्य से स्वयं को वंचित नहीं करना चाहती। कोई खाली सीट न देख उनकी निराश नजरें उसी आलोकपुंज की स्वामिनी का पल भर ठहर निरीक्षण करती हुई वापिस लौट आईं।
अपनी जींस को ऊपर खींचते हुए वह विभू का हाथ पकड़ खड़े हो गई और बुजुर्ग दम्पति से मुखातिब होते हुए बोली, “बैठ जाइए!”
पल भर पहले की वितृष्णा की जगह अब स्नेहिल आशीर्वाद उमड़ आया। हमारे मनोभाव हमारी सभ्यता और समाज से अधिक हमारे व्यक्तिगत हित ही तो निर्धारित करते हैं। जाने क्यों लोग समझते नहीं। गुलाब के फूल का रंग कोई भी हो, महक और गुण तो वही रहते हैं। आधुनिकता की होड़ में भागते, स्वयं से भी दूर होती इन युवतियों की आपत्तिजनक भाषा से भ्रमित होते हम दरसल भूल जाते है कि यह अंधेरी कोठरी से बाहर आ प्रकाश में नहाने का प्रथम उन्माद है। सदियों से मौन स्वर अब जब मुखर हुए हैं तो उनकी वाचालता हमें अचंभित किए है, लेकिन हम भूल जाते हैं कि यह आवेश के क्षण हैं न कि इनका स्थायी रूप। पृथ्वी की अंदरुनी परतों के करवट लेने पर सतह पर हुई क्षणिक हलचल चाहे किन्हीं स्थानों पर अत्यधिक क्षति भी पहुँचा दे, लेकिन देर-सवेर स्थिरता होनी निश्चित है। अभी इन्होंने यह प्रतिबंधित पृष्ठ पढ़े हैं तो उन्हें ऊँचे स्वर में बोल, बराबरी का तमगा हासिल करने का आकर्षण भी है, लेकिन समय के साथ इन पृष्ठों को यह स्वयं ही फाड़ कर एक नया सुसभ्य शब्दकोश विकसित कर लेंगी।
विचारों की श्रृंखला मंडी हाउस स्टेशन से कम उम्र के लड़कों के एक दल के चढ़ने से भंग हुई। वह किसी मंजिल पर पहुँचने से अधिक मेट्रो के सफर से रोमांचित हैं। जिस उत्सुकता से वह बान्दाना वाली लड़की को देखते हैं उतनी ही उत्सुकता उन्हें मेट्रो के हर सामान को देखने की है। जिस भी वातावरण में उनका पालन पोषण हुआ है उन्हें सजीव और निर्जीव सौंदर्य को निहारने के अंतर का ज्ञान नहीं कराया गया है। जाने क्यों मेरी छठी इंद्री मुझे किसी अंदेसे का संकेत दे रही है। क्षणांश में ही विभूति और उसकी सखी के चारों ओर वह लड़के काले बादलों से फैल गए।
मैं स्थिति को समझ, अपनी प्रतिकिया को ले अनिर्णय की स्थिति में ही था कि बादलों को चीरता हुआ आलोक पुनः दिखा,
“गेट योर फ़िल्दी हैंड्स ऑफ मी, यु सेन्सलेस मोंगरिल।अब यह हाथ मुझ तक पहुँचा अगर तो हाथ तेरे शरीर से अलग ही कर दूंगी ****”,
उसने ऊँचे दाँत वाले लड़के का हाथ कस कर मोड़ा हुआ था। अगले ही पल लात के भरपूर वार से लड़का मेरे ही पैरों में आ गिरा। ऊँचे दाँतों वाला वह लड़का खिसिया कर पुनः खड़ा हो उठा और दोनों हाथों से अपना सिर सहलाने लगा, लेकिन उसके साथी अभी भी दोनों सहेलियों की लातों और घूंसों का शिकार हो रहे थे। एक के मुँह से खून निकल आया था।
“साले… इनकी माँ-बहनें चुपचाप सहती हैं तो इन्हें लगता है कि लड़कियों के मुँह में न जबान है न हाथ उठाने की हिम्मत!”
“छोड़ दे रिट्ज …. कुत्ते की मौत मरेंगे खुद ही ये कमीने”, विभू बोली।
“छोड़ देने से ही तो इन ***** को लगता है कि जो मर्जी कर लेंगे…”,
कुछ अपमान कुछ क्षोभ और कुछ दर्द के मिले जुले भाव लिए वह लड़का इन दोनों को देख रहा था।
“आँखें नीची रख हरामखोर। अब इस तरफ नजर उठाई तो आँखे नोंच लूँगी।”
एक पल को लगा कि पूरे कम्पार्टमेंट में उपस्थित सभी स्त्री-पुरुषों की आँखे शायद इसी दंड के योग्य हैं।
बाराखंभा पर ट्रेन रुकते ही वह सब उतरने के लिए दौड़ पड़े। कंजी आँखों वाले और मार्केटिंग वाले लड़के ने उन पर पीछे से लातें जमा उन्हें उतरने में सहयोग किया।
मेरे पास खड़े ऊँचे दाँत वाले लड़के का कॉलर पकड़ उतरते हुए मैंने कहा, “शाबाश रिट्स!”
वह एक बार को चौंकी, फिर अपनी तेज चलती साँसों को नियंत्रित कर आँखों से ही शुक्रिया अदा कर इस भाव से मंद रूप में हँसी भी कि ‘इसमें शाबाशी जैसा क्या है?’ और अपना बान्दाना बांधने लगी लेकिन मैं जानता हूँ कि आज कहना जरूरी था।
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ई-मेल: nidhiagarwal510@gmail.com
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Superb Story
मेट्रो जीवन से परिचित कराती अच्छी कहानी
बेहद सुंदर लिखा है आपने! पढ़ते समय मैं भी मेट्रो में मौजूद थी कभी मंजूषा,कभी टीचर तो कभी गाली देती लड़की के रूप में…
I’m amazed, I have to admit. Rarely do I encounter a blog that’s both educative and amusing, and without a doubt,
you’ve hit the nail on the head. The issue
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Now i’m very happy that I stumbled across this in my hunt for something regarding this.
Ahaa, its fastidious dialogue concerning this post at this place at this webpage, I
have read all that, so now me also commenting here.
Hmm it seems like your blog ate my first comment (it was super long) so I
guess I’ll just sum it up what I had written and say, I’m thoroughly enjoying your blog.
I too am an aspiring blog writer but I’m still new to the whole thing.
Do you have any tips for novice blog writers? I’d genuinely appreciate it.