‘अबलाओं का इंसाफ़’ शीर्षक से एक किताब चाँद कार्यालय से 1927 में प्रकाशित हुआ था। क्या वह किसी पुरुष का लिखा था? बनारसीदास चतुर्वेदी ने ‘घासलेटी साहित्य’ नामक आंदोलन चलाया था। वह क्या था? नैतिकता-अनैतिकता के इस बड़े विवाद पर एक दिलचस्प लेख लिखा है युवा शोधकर्ता सुरेश कुमार ने। संडे स्पेशल में पढ़ें-
( एक)
सन् 1927 में चाँद कार्यालय, इलाहाबाद से ‘अबलाओं का इन्साफ’ नाम की एक क्रान्तिकारी किताब प्रकाशित हुई. लेखक ने दावा किया कि यह किताब सत्य घटनाओं के आधार पर लिखी गई है. इस किताब में उच्च वर्ण की स्त्रियों के बयान दर्ज हैं जो बाल विवाह, वृद्ध विवाह जैसी कुरीति की शिकार होकर किसी न किसी प्रकार से पतित की गई थी. यह बड़ी दिलचस्प है कि यह किताब एक पुरुष लेखक ने स्फुरना देवी के छ्दम नाम से लिखी थी. इस लेख में आगे यह खुलासा किया जाएगा कि इस किताब की लेखिका श्रीमती स्फुरना देवी नहीं बल्कि इसके लेखक बीकानेर के प्रतिष्ठित सेठ थे. मेरा मानना है कि यह किताब किसी ने लिखी हो लेकिन स्त्री समस्या को बड़ी ईमानदारी के साथ उठाया गया था. ‘अबलाओं का इन्साफ’ को तत्कालीन संपादकों और लेखकों ने ‘अश्लील’किताब का खिताब देकर इसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. इस किताब को लेकर खूब बहस और वाद–विवाद हुआ था. इस विवाद में जाने से पहले यह जान लेना अवश्यक है कि इस किताब की भूमिका में ऐसी बातें कहीं गई जिसकों एक स्त्री नहीं लिख सकती थी. इस किताब की प्रस्तावना में लिखा गया : ‘‘जब विधर्मी लोगों के हमले अपनी जाति पर होते हैं, तो उनकी स्त्रियाँ अपने को संभालती हुई हमलों में पुरुषों का साथ देती हैं; परन्तु आपको उन हमलों के समय अपने बचाव के पहले हमारा बचाव करने की आवश्यकता पड़ती है; अर्थात हम लोग उस विकट समय में आपकी सहायता करना तो दूर रहा, उलटा बोझ रुप हो जाती हैं. इसका कारण यही है कि आपकी चिर–अभ्यस्त आदतों से होने वाले अत्याचारों ने हमको भेडों से भी गई–गुजरी बना दिया कि हमको कोई काट डाले तो रोने की आवाज निकालने तक का हमें साहस नहीं होता... (श्रीमती स्फुरना देवी(जुलाई 1927) अबलाओं का इन्साफ,चाँद कार्यालय ,इलाहाबाद, पृ.-12) इसके बाद आगे धमकी वाले लहजे में लिखा गया : ‘‘…विधर्मी आपको नष्ट करने के लिए कमर कसे तैयार हैं. हम लोगों को अनेक प्रलोभन देकर वे अपने में मिला लेंगे, और उनके सहवास से जो हमारी सन्तान होंगी, वे ही आपके सम्मुख होकर हमारे दुखों को बदला आप से ही चुकायेंगी. इसलिए आपको चेतना चाहिए. अब भी चेतने से इस प्राचीन पवित्र समाज का बचाव हो सकता है; नहीं तो इस सर्वनाश से बचने का अन्य कोई मार्ग नहीं है”. (अबलाओं का इंसाफ: 12) सच यह है कि फिरंगियों ने ही स्त्रियों के लिए शिक्षा का द्वार खोला और इन्हीं फिरंगियों ने ही विधवाओं की मुक्ति के लिए विधवा विवाह का कानून बनाया था. खैर.
‘अबलाओं का इन्साफ’में यह बात बड़ी जोर देकर बताई गई कि पुरुषों ने स्त्रियों के साथ कदम-कदम छल और आघात किया है. स्त्रियों ने बताया कि पुरोहितों और शास्त्रधारियों ने विधवा पुनर्विवाह पर रोक लगाकर स्त्रियों पर सामाजिक अत्याचार किया है. विधवा विवाह का प्रचलन न होने के कारण विधवाएँ पुरोहितों का नर्म चारा बनकर रह गई थी. इन स्त्रियों ने अपने बयान में बताया कि पुरोहित, पुजारी और सन्यासियों ने उनके साथ पापाचार किया है.
‘अबलाओं का इंसाफ’ का विज्ञापन
स्रोत: चाँद, जनवरी,1929, वर्ष 8, खण्ड़ 1, संख्या 1
इन स्त्रियों का दुख यह था कि इनका बाल विवाह और वृद्ध विवाह कर दिया गया था. विधाओं का पुनर्विवाह न होने से उन्हें बड़ा ही यातनापूर्ण जीवन व्यतीत करना पड़ रहा था. इस किताब में विधवा पुनर्विवाह की पुरजोर वकालत की गई है: ‘‘यदि विधवाओं के लिए पुनर्विवाह एवं नियोग की व्यवस्था हो जाए, तो वे स्वयं तो व्यभिचार से बचेंगी ही; साथ ही उनके द्वारा सधवाओं का भ्रष्ट होना भी बन्द हो जाएगा. विधवाओं का पुनर्विवाह और नियोग न होने से व्यभिचार बढ़ने का एक और कारण है. जाति में पुरुष और स्त्री प्रायः बराबर संख्या में ही उत्पन्न होते हैं और मरते हैं. फिर जब स्त्री के मारने पर रँडुआ तो अपना पुनर्विवाह क्वारी कन्या से कर लेता है और पुरुष के मारने पर विधवा स्त्री पुनर्विवाह नहीं कर सकती है, तब विधवाओं की संख्या के अनुमान से ही अविवाहित पुरुष बचते हैं; जिनकों इन रँडुओं के दुबारा विवाह करने के कारण एक बार भी विवाह करना नसीब नहीं होता. इन क्वांरे लोगों से बहुत व्यभिचार बढ़ता है.” (अबलाओं का इंसाफ: 307)
स्रोत: माधुरी, 13 जनवरी 1924, वर्ष 2, खण्ड 1, सख्या 6
(दो)
‘विशाल भारत’के संपादक श्री बनारसीदासजी चतुर्वेदी ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक ‘घासलेटी’ नाम का नया आंदोलन चला रखा था. सन् 1928 में इस आंदोलन की शुरुवात ‘विशाल भारत’ पत्र से हुई थी. इस आंदोलन ने हिन्दी साहित्य में कोहराम मचा दिया था. चतुर्वेदी जी के इस आन्दोलन से बड़ा से बड़ा उस दौर का लेखक भयभीत रहता था. घासलेटी आन्दोलन की सबसे ज्यादा मार उग्रजी और ‘अबलाओं का इन्साफ़ पर पड़ी. उग्रजी का कहानी संकलन ‘चाकलेट (1927) को बनारसीदास चतुर्वेदी ने ‘घासलेटी-साहित्य’करार दे कर उनके लेखन पर “अश्लील साहित्य” का ठप्पा चस्पा कर दिया था. बनारसीदासजी चतुर्वेदी ने ‘अबलाओं का इन्साफ’ पर अश्लीलता का आरोप मढ़कर घासलेटी साहित्य की कैटागरी में डाल दिया था. यहां तक तो ठीक था लेकिन उन्होंने इस किताब पर सबसे गंभीर आरोप लगाया कि ‘अबलाओं का इंसाफ’ की लेखिका श्रीमती स्फुरना देवी नहीं बल्कि कोई पुरुष लेखक है.
बनारसीदासजी चतुर्वेदी के घासलेटी आंदोलन को समझे बिना ‘अबलाओं का इन्साफ़’ किताब की सच्चाई को समझा नहीं जा सकता है. इसलिए इस बात पर विचार किया जाए कि घासलेटी आन्दोलन क्या है? इसकी शुरुआत कैसे हुई? घासलेटी आन्दोलन पर रोशनी डालते हुए ‘सुधा पत्रिका के संपादकीय में लिखा गया था-‘‘हिन्दी–संसार में इधर एक नए आन्दोलन ने जन्म लिया है. उसका आंरभ करने वाले विशाल–भारत के संपादक पं. बनारसीदासजी चतुर्वेदी हैं. आप प्रवासी भारतीयों के संबंध में निरंतर चर्चा करते रहने के कारणप्रसिद्ध हो चुके हैं. आपके आन्दोलन का लक्ष्य आपके ही शब्दों में ‘‘घासलेटी साहित्य” है. घासलेट शब्द की व्युत्पत्ति क्या है, यह हमें नही मालूम. पर आपकी टिप्पणियां इस संबंध में जो निकलती है, उनसे यह मालूम होता है कि आप अश्लील या कुरुचि–प्रर्वतक साहित्य को घासलेटी साहित्य के नाम से अभिहित करते हैं. आप ने सभवतः यह आंदोलन बँगला के ‘‘अति आधुनिक” साहित्य के विरुद्ध होनेवाले आंदोलन के अनुकरण पर चलाया है, कम से कम उसी को देखकर इधर आपका ध्यान गया है. प्रवासी प्रेम से ही बँगला की पत्रिका शनिवाररे चिठ्ठी छपकर प्रकाशित होती है. उसकी सारी शक्ति अति आधुनिक वंग–साहित्य के विरुद्ध लगतीहै. वास्तव में बँगला का अति आधुनिक साहित्य है भी इस योग्य. इस समय स्थानाभव–वश हम उसका दिग्दर्शन कराने में असमर्थ है. फिर कभी उसका नमूना हम अपने पाठकों सामने उपस्थित करेंगे. अस्तु, कला के नाम से बँगला के अति आधुनिक साहित्य में जो व्यभिचार का प्रचार किया जा रहा है, वह और ही वस्तु है. वैसा कोई लेख वैसी कोई पुस्तक अभी हिन्दी में हमने नहीं देखी. इसे हम हिन्दी का सौभाग्य ही समझते हैं. किंतु हमें इस में कुछ भी संदेह नहीं है कि चतुर्वेदीजी को इस आंदोलन की प्रेरणा उसी को देखकर प्राप्त हुई है. चतुर्वेदीजी का विशेष लक्ष्य हमारे नवयुवक मनचले लेखक श्रीयुत उग्रजी की पुस्तकें ही हैं, पर गौण रुप से उन्होंने उस श्रेणी की अन्य पुस्तकों (अबलाओं का इंसाफ आदि) आदि का भी विरोध किया है.’’ (घासलेटी-साहित्य, सुधा, दिसम्बर 1928,वर्ष 2, खण्ड़ 1, संख्या 5, पृ.-750) ‘सुधा’के संपादक श्री दुलारेलाल भार्गव ने इस संपादकीय में ‘अबलाओं का इन्साफ़’और उग्रजी के कहानी संकलन ‘चाकलेट’ का विरोध किया. उन्होंने विरोध का कारण बताते हुए कहा कि इन किताबों को पढ़ने से ‘काम-भावना पैदा होती है. दुलारेलाल भार्गव ने संपादकीय में लिखा कि “चाकलेट की कहानियाँ या अबलाओं का इंसाफ पुस्तक ऐसे ढंग से लिखी गई है कि पढ़ने वाले के मन में घृणा के बदले काम–विकार ही पैदा होने की अधिक संभावना है. इस दृष्टि से ये पुस्तकें समाज के लिए घातक हैं. डाक्टर उसी नश्तर से रोगी को चंगा करता है और अनाड़ी उसी नश्तर से अपना गला काट लेगा. दीपक प्रकाश भी कर सकता है और घर में आग भी लगा सकता है. चाकलेट की कहानियों में कला का अभाव नहीं है. उसकी भाषा में प्रौढ़ता है. किन्तु यह साहित्य समाज के लिए घातक भी हो सकता है. संक्षेप में हमारे कहने का मतलब यह है कि चाकलेट अथवा अबलाओं का इंसाफ आदि साहित्य ‘सत्य’ अवश्य है, वह ‘सुन्दर’ भी शायद मान लिया जा सके, किन्तु ‘शिव’ कदापि नहीं है. हमने ये पंक्तियां प्रेम–प्रेमभाव से प्रेरित होकर लिखी हैं. उग्रजी हमारे कृपालु मित्र हैं, अबलाओं के इंसाफ के प्रकाशक हमारे हितैषी हैं. तथापि आत्मा की प्रेरणा से इन पुस्तकों की शैली का हमें विरोध करना पड़ रहा है”. (घासलेटी-साहित्य, सुधा, दिसम्बर 1928: 750 ) पं. बनारसीदासजी चतुर्वेदी इस बात ले चिंतित थे कि घासलेटी कल्पवृक्ष की शाखाएँ लगातार बढ़ती जा रहीं हैं और इन शाखाओं पर ‘काम शास्त्र’, ‘लंदन रहस्य’, ‘सुहाग’, ‘अतिरहस्य’ और ‘अबलाओं का इंसाफ’ फल रूपी किताबें झूल रहीं है.
व्यंग्य चित्र: घासलेटी लेखकों का कल्पवृक्ष
स्रोत-विशाल भारत मई 1929, वर्ष 2, खण्ड 1, सख्यां 5
बनारसीदास चतुर्वेदीजी ने ‘विशाल भारत’में व्यंग्य चित्र द्वारा पूछा कि ‘अबलाओं का इन्साफ़’के लेखक स्फुरना देवी या स्फुरन देव? ‘अबलाओं का इन्साफ़’ के लेखक अबला या सबलू? इस सवाल से रामरख सिंह सहगल और चांद कार्यलाय में कोहराम मच गया. चतुर्वेदीजी के सवाल का जवाब श्री जर्नादन भट्ट जी एम.ए. ने ‘चतुर्वेदी की घासलेट-चर्चा ‘अबलाओं का इन्साफ़ की निष्पक्ष आलोचना’शीर्षक से लम्बा लेख लिखकर दिया था.
जनार्दन भट्ट ‘अबलाओं का इन्साफ’ के लेखक के संबंध बताते हैं : “मैंने सुना है कि अत्यंत उत्तम और उपयोगी पुस्तक के लेखक कोई ‘‘गैर–जिम्मेदार” नहीं बल्कि बहुत ही ‘‘जिम्मेदार” शख्स हैं. कोई भुक्खड़ हिन्दी के लेखक नहीं, बल्कि एक करोड़पति असामी हैं,जो लक्ष्मी के कृपापात्र होकर भी लक्ष्मी वाहन नहीं,वरन अच्छे विद्वान हैं. नये विचारों के होते हुए भी, धर्मशास्त्र और दर्शन के अच्छे ज्ञाता हैं, जो साधरणतया हिन्दू–समाज के और विशेषतया मारवाडी–समाज के एक रत्न है,और जिनका ह्दय सामाजिक अत्याचारों और व्यभिचारों को देखकर, वैसे ही धधका करता है, जैसा कि हिन्दी में घासलेटी साहित्य के प्रचार को देखकर चतुर्वेदीजी का. इसलिए कम से कम चतुर्वेदीजी नहीं कह सकते कि यह शख्स ‘‘जिम्मेदार’ अबला या सबलू ? नहीं हैं. परन्तु दुर्भाग्य से इसके लेखक ने अपना नाम न देकर और एक फर्जी स्त्री के नाम से इसे छपवाकर चतुर्वेदीजी के व्यंग्य का पात्र अपने आप को बना लिया है, क्योंकि चतुर्वेदीजी अपनी ‘चाकलेट’ आलोचना के अन्त में व्यंग्य के साथ लिखते हैं-‘‘हमारा यह चैलेंज ‘‘अबलाओं का इंसाफ” की लेखिका स्फुरना देवी (या स्फुरन देव?) को भी है. पर चतुर्वेदीजी को याद दिलाने की जरुरत नहीं है कि पहले कई वर्षो तक वे भी एक ‘‘भारतीय ह्दय” इस फर्जी नाम से लिखते रहे हैं. अंग्रेजी का प्रकाण्ड लेखक ए.जी गार्डनर ‘‘अल्फा आफ दी प्लाउ” के नाम से लिखता है, और हिंदी के आचार्य श्रीमान पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ‘‘ज्ञ” के नाम से सरस्वती में लिखा करते हैं. इसलिए ‘‘अबलाओं के इंसाफ” का लेखक यदि किसी फर्जी नाम से लिखता है तो वह व्यंग्य का पात्र नहीं होना चाहिए– सिर्फ देखना यह चाहिए कि जो बात लिखी गई है वह माकूल है या नहीं. यदि बात ठीक है तो चाहे उसे स्त्री लिखे या पुरुष,असली नाम से हो या फर्जी नाम से , अंग्रेजी में हो या फारसी में, सीधी भाषा में हो या टेढ़ी, मुँदे शब्दों में हो या खुले–उसे स्वीकार लेना चाहिए और इसके लिए़ खिल्ली न उड़ानी चाहिए कि उसने अपना असली नाम नहीं दिया है.” (चतुर्वेदी जी की घासलेट चर्चा ‘‘अबलाओं का इंसाफ” की निष्पक्ष आलोचना, लेखक श्री.जर्नादन भट्टजी एम.ए., चाँद, दिसंबर 1928, वर्ष 7, खण्ड 1, संख्या 2, पृ-387,388) अपने लेख में जर्नादन भट्ट ने यह भी सवाल उठा दिया कि अश्लीलता तो ‘वेद’ और ‘शास्त्र’ में भी है. इस सवाल पर चतुर्वेदीजी क्या कहेगें. हालाँकि इस लम्बे लेख में जनार्दन भट्ट जी ने ‘अबलाओं का इन्साफ़’ का पुरजोर समर्थन किया था.
जर्नादन भट्ट के लेख के जवाब में श्री किशोरीदास बाजपेयी ने घासलेट-चर्चा ‘अबलाओं का इन्साफ़’ की निष्पक्ष आलोचना शीर्षक से लेख लिखा था. इस लेख में किशोरीदास बाजपेयी ने भट्टजी के सवालों का जवाब तो दिया ही और ‘अबलाओं का इन्साफ़’ का लेखक कौन है? इस रहस्य पर से पर्दा उठाने की कोशिश की. दरअसल, किशोरीदास बाजपेयी चांद कार्यालय में प्रूफरीडर और संपादन का कार्य करते थे. दिलचस्प बात यह है कि ‘अबलाओं का इन्साफ़’ किताब के प्रूफ किशोरीदास बाजपेयी ने देखे थे. किशोरीदास बाजपेयी ने जर्नादन भट्ट की इस बात को खारिज किया कि वेदों और पुराणों में अश्लीलता है. भट्ट जी को जवाब देते हुए किशोरीदास बाजपेयी ने लिखा: ‘‘आप कहते हैं ‘‘मेरा चतुर्वेदीजी से नम्र निवदेन है कि यदि उन्हें अश्लीलता की इतनी तलाश है, तो उनकों वेद ओर पुराण से शुरु करना चाहिए, क्योंकि जितना इन ग्रन्थों का प्रचार और प्रभाव जनता के बीच है, उतना ‘चाकलेट’ जैसी पुस्तक का नहीं”। यह एक चाल सी पड़ गई है कि अपना पक्ष समर्थन करने के लिए लोग सबसे पहले वेदों का नाम अनुकूल अथवा प्रतिकूल रुप में ले लेते है. आपका यह कहना कि वेदों और पुराणों का प्रचार ‘चाकलेट’ जैसी पुस्तकों से बहुत ज्यादा है, बिल्कुल हास्यजनक है. मालूम होता है आप ‘मतवाला’ में प्रकाशित होने वाले ‘चाकलेट’ के विज्ञापनों को नहीं पढ़ते, अन्यथा आपको जरुर मालूम होता कि ‘चाकलेट’ जैसी पुस्तकों की ब्रिकी कैसी है. लोग तारों द्वारा आर्डर भेजते हैं! तभी तो इतनी जल्दी एक एक पुस्तक के दो–दो तीन–तीन संस्करण हो चुके. ‘अबलाओं का इन्साफ़’ भी पुनर्जन्म लेकर दूसरी बार आया है, और सुनते है, पहले से कुछ अधिक रंग लाया है. मारवाडियों के बायकाट से बचने के लिए इस बार वह उन पर ही बौछार करनेवाला न रहकर सार्वदेशिक हो गया है.” (घासलेट-चर्चा ‘अबलाओं का इन्साफ़’ की निष्पक्ष आलोचना लेखक श्री किशोरीदास बाजपेयी शास्त्री, विशाल भारत, पौष संवत, 1985, वर्ष 1, खण्ड 2, सख्या 6, पृ.-770) यह लिखने के बाद किशारीदास बाजपेयी ने असल बात लिखी : ‘‘लेखक की जो प्रशंसा भट्टजी ने की है वह निराधार है. उक्त पुस्तक के लेखक करोड पति चाहे भले ही हों , उनके रुपये हमने गिने नहीं है, और न उनका वह करोड़पतित्व पुस्तक लिखने की जिम्मेवारी में कुछ मदद ही करता है, परन्तु, उनकी विद्वता के बारे में जो भट्टजी ने लिखा है, बिल्कुल गप्प है. मैं स्वयं इस समय कुछ अर्से से बीकानेर में हूँ, जहां उक्त पुस्तक के लेखक रहते हैं. उन्हें खूब जानता हूँ. दर्शन शास्त्र और धर्मशास्त्र को जानना कुछ खिलवाड़ नहीं है, जैसा कि शायद भट्ट जी ने समझ रखा है. पुस्तक के लेखक एक सेठ जी है. उपन्यासों के शौकीन जरुर हैं. हिन्दी भी मामूली टूटी फूटी जानते हैं. ‘अबलाओं का इन्साफ़ आपने बड़ी सड़ियल भाषा में लिखा था, और उसे स्वयं मैंने ही शुद्ध करके सम्पादन किया था, पर सम्पादिका बना दी गई श्रीमती सहगल, जैसे लेखिका श्रीमती स्फुर्ना देवी.” (वही पृ-773) किशोरीदास बाजपेयी ‘अबलाओं का इन्साफ़’के लेखक से भलि-भांत परचित थे. वे जानते थे कि इस किताब के लेखक सेठ जी है न कि स्फुरना देवी. इस लेख में किशोरीदास ने ‘अबलाओं का इन्साफ़ के प्रकाशन से जुड़ी भीतर की बातों की ओर भी इशारा किया था. इस किताब में दर्ज स्त्रियों के बयान को प्रमाणिक सिद्ध करने के लिए प्रकाशक और लेखक को किताब स्फुरना देवी के छद्म नाम से छापनी पड़ी थी. किशोरीदास बाजपेयी ने इस किताब के प्रकाशित होने की कथा का विवरण इस तरह लिखा है: ‘‘इसकी कथा यों है. जब उक्त पुस्तक के छपने के विषय में लिखापढ़ी हो रही थी तब मैं ‘चाँद’ कार्यालय में ही था, वो पत्र भी मैंने पढ़ा, जिसमें लिखा था कि यह पुस्तक श्रीमती स्फुरना देवी के नाम से छपेगी. फिर सहगल जी ने इस पुस्तक को मुझे देखने के लिए दिया और पूछा कि पुस्तक कैसी है? सम्मति दीजिए. मैंने कहा-‘‘पुस्तक की ब्रिकी खूब होगी, पर जनता पर असर अच्छा न होगा” पुस्तक मुझे सौंपी गई, शुद्ध करने और संपादन करने के लिए. मैंने यह काम कर दिया, क्योंकि वेतन भोगी था. अपनी डयूटी पूरी कर दी. इसके बाद चांद कार्यालय से गुरुकुल,(हरिद्वार) चला गया. मेरे पीछे इसकी संपादिका श्रीमती सहगल बना दी गई, जो ठीक ही हुआ, अन्यथा मेरा नाम भी इसी प्रकार मुफ्त में(?) बदनाम होता”. (वही पृ-773-774) श्रीमती सहगल जिनका पूरा नाम विद्यावती सहगल था और रामरख सिंह सहगल की पत्नी थी. दरअसल, ‘अबलाओं का इन्साफ़’ किताब प्रकाशित होने के पूर्व ही संपादक के रुप में इनका नाम हटा दिया गया था.
किशोरीदास बाजपेयी के उक्त लेख से ‘चाँद’ के संपादक रामरख सिंह सहगल सकते में आ गए थे. रामरख सिंह सहगल ने किशोरीदास बाजपेयी के लेख के जवाब में ‘घासलेट-चर्चा’शीर्षक से एक लंबा पत्र ‘विशाल भारत’ में प्रकाशित करवाया. श्री सहगल की ओर से इस बात का विरोध किया गया कि किशोरीदास बाजपेयी ने अपने लेख में गोपनीय बातों का खुलासा क्यों कर दिया. दरअसल, सहगल जी नहीं चाहते थे कि ‘अबलाओं का इन्साफ’ के मूल लेखक के बारे में हिन्दी जगत को पता चले. इसलिए उन्होंने इस बात का खण्ड़न किया कि ‘अबलाओं का इन्साफ़’ का संपादन और प्रूफ किशोरीदास बाजपेयी ने नहीं किया है. रामरख सिंह सहगल ने किशोरीदास बाजपेयी को चुनौती देते हुए इस पत्र के अंत लिखा था: ‘‘पुस्तक के लेखक अथवा लेखिका को जो गालियां दी गई हैं,उसके लिए मुझे यही सन्तोष है कि बाजपेयीजी की आंखें ‘सेठजी’ को पहचान ही नहीं सकती थीं. दोनों में कौड़ी और मोहर का अन्तर है.” ( घासलेट-चर्चा,रामरख सिंह सहगल,विशाल भारत, मार्च 1929,वर्ष 2, खण्ड 1, सख्या 6, पृ.-506)
किशोरीदास बाजपेयी ने ‘श्रीमान सहगल जी और उनके ऋषिवर’लेख लिखकर रामरखसिंह सहगल को मुंहतोड़ जवाब दिया. और, ‘अबलाओं का इन्साफ’ के लेखक को लेकर और सवाल उठा दिए. किशोरीदास बाजपेयी कि उन्हें गोपनीय बातों का जिक्र इसलिए करना पड़ा कि ‘‘अबलाओं का इन्साफ’के ‘अबला’ और ‘सबलू’ का पता साहित्यिकों को नहीं लग रहा था. बहुत दिनों से गड़बडी फैल रही थी. इसे साफ करने की नियति से मैंने यह बात भी प्रसंगवश लिख दी थी. किसी के घर का भण्डाफोड़ हुआ ही नहीं ! तब फिर क्या बात है?” (श्रीमान सहगल और उनके ‘ऋषिवर’, श्री किशोरीदास बाजपेयी, विशाल भारत,मई,1929, पृ.-682)
किशोरीदास बाजपेयी ने सहगल जी द्वारा लगाए गए प्रत्येक आरोप का प्रमाण के साथ खण्ड़न किया. रामरख सिंह सहगल का कहना था कि किशोरीदास बाजपेयी ने ‘अबलाओं का इन्साफ़’ का संपादन और प्रूफ कार्य नहीं किया है. किशोरीदास बाजपेयी ने इस आरोप का जवाब प्रमाण के साथ दिया था: ‘‘सहगलजी का यह असत्य कथन है कि इससे उकदम क्रोध, घृणा और आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता. मैंने ‘अबलाओं का इन्साफ’ का ‘अथ’ से ‘इति’ तक संशोधन और संपादन किया है. तात्कालिक ‘चाँद’ के और वर्तमान ‘सुधा’ के संपादक श्री नन्दकिशोरजी तिवारी और आनन्दीप्रसादजी श्रीवास्तव इसके साक्षी हैं. सहगलजी कहते हैं कि इस पुस्तक में संशोधन या सम्पादन की जरुरत ही न थी!
मैं श्रीमान सहगलजी से प्रार्थना करता हूँ की ‘ अबलाओं का इन्साफ’ की मूल प्रति आप रजिस्ट्री कराके ‘विशाल–भारत’ के सम्पादक महोदय के पास अवलोकनार्थ भेज दीजिये. आने–जाने का रजिस्टीª खर्च तथा पोस्टेज मैं दे दूँगा. इससे सब बात खुल जायगी. पुस्तक लाल स्याही से रंगी पड़ी है. यदि वैसी ही की वैसी यह पुस्तक छप जाती, तो मजा आता!’’ (श्रीमान सहगल और उनके ‘ऋषिवर’, श्री किशोरीदास बाजपेयी, विशाल भारत,मई,1929, पृ.-682)
किशोरीदास बाजपेयी,जर्नादन भट्ट और सहगल जी के बीच चल रहे इस विवाद पर बनारसीदासजी चतुर्वेदी ने ‘विशाल भारत’ में एक ‘नोट’ लिखा. इस नोट में उन्होंने कहा कि यदि स्फुरना देवी नाम की कोई स्त्री लेखिका है तो वह सामने क्यों नही आती है? चतुर्वेदी जी ने यहां तक चुनौती दे डाली कि गोरखपुर में होने वाले ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ में स्फुरना देवी को आंमत्रित कर बुलाया जाएं. ‘‘एक बात हमारी समझ में नहीं आती, वह यह है कि क्रांन्तिकारी सुधारक का दम भरनेवाली स्फुर्ना देवी अपना नाम हिन्दी–संसार के सम्मुख लाने से क्यों डरती है? पीछे तो महीनों तक हम उन्हें स्त्री ही समझते रहे, फिर भट्टजी की कृपा से ज्ञात हुआ कि वे दर्शन शास्त्र की ज्ञाता है और करोड़ पति सेठ हैं. बाजपेयी जी ने यह बात कहकर कि वे बीकानेर–निवासी हैं, हमारे ज्ञान की परिधि और बढ़ा दी, पर असली नाम अब भी प्रकट नहीं हुआ! अब सवाल यह रह गया है कि बीकानेर में कितने करोड़ पति सेठ हैं और उनमें दर्शनशास्त्र के ज्ञाता या बाजपेयी के शब्दों में उपन्याशों के शौकीन, कितने है? इस तरह वैज्ञानिक अनुसन्धान से धीरे–धीरे पांच–सात वर्ष में पता लग जावे तो लग जावे! यदि कोई आदमी कुएँ में जहर डाल कर भाग जावे, तो उसका पता लगाना पुलिस का और सर्वसाधरण का भी कर्तव्य है. ‘स्फुर्ना देवी’ ने भी साहित्य सरोवर में विष का घड़ा उड़ेल दिया है. और स्वयं लापता हैं! हिन्दी–संसार टाप रहा है कि ये ‘स्फुर्ना देवी’ है कौन. आखिर इस कामोदीपक वटिका के आविष्कारक का नाम तो कृतज्ञ हिन्दी–जनता को मालूम हो जाना चाहिए. बाबा राधवदास जी से हमारी प्रार्थना है कि गोरखपुर के हिन्दी साहित्य सम्मेलन पर स्फुर्ना देवी को अवश्य निमन्त्रित करें, जिससे हिन्दी जनता उनके दर्शन कर कृतकृत्य हो जावे.” (नोट, सम्पादक,विशाल भारत,मई,1929, पृ.-684)
श्री चन्द्रगुप्त विद्यसलंकार ने ‘घासलेट- साहित्य’ (विशाल भारत, सितम्बर 1929) शीर्षक से लेख लिखकर ‘अबलाओं का इंसाफ’ की तीखी आलोचना की थी. इस लेख में भी स्पष्ट रुप से कहा गया था कि इस किताब का लेखक पुरुष है. दिलचस्प बात है कि स्फुरना देवी ने इस पूरे ‘वाद-विवाद-संवाद’ में कोई हस्तक्षेप नहीं किया. मारवाडी समाज ने ‘अबलाओं का इन्साफ़’ का जमकर विरोध किया था. मारवाडी ट्रेड्स एसोसिएशन के तत्कालीन मंत्री बैजनाथ देवड़ा ने ‘अबलाओं का इन्साफ’ को अश्लील और घृणित पुस्तक कहकर काफी विरोध किया था. लेकिन इस किताब के प्रकाशक रामरख सिंह सहगल चारों तरफ से विरोध होने के बाद भी इस पुस्तक का समर्थन करते रहें. रामरख सिंह सहगल का मानना था कि कि हमारा कितना भी विरोध किया जाए लेकिन हम सामाजिक कुरीतियों पर लगातार प्रहार करते रहेंगे. व्यभिचार और पुरोहितों के कामाचार को लगातार समाज के समक्ष उठायगें. रामरख सिंह सहगल ने ‘अबलाओं का इन्साफ़’ (‘चाँद अगस्त 1927) शीर्षक से लिखकर मारवाड़ी समाज प्रति खेद प्रकट किया था.
(तीन)
अब इस बात पर विचार किया जाए कि ‘अबलाओं का इन्साफ़’ के लेखक सेठ जी का नाम क्या था? किशोरदास बाजपेयी ने ‘अबलाओं का इन्साफ’ के लेखक को सहगल जी का ‘ऋृषिवर’ बताया है. मुझे ‘ऋषिवर’शब्द के रुप में ऐसा सूत्र मिल गया जो ‘अबलाओं का इन्साफ’ के असली लेखक तक पहुंचने में हमारी मदद करता है.‘चाँद’(नवम्बर,1929) मारवाड़ी विशेषांक में एक तस्वीर पूरे पेज पर छपी थी. इस चित्र के नीचे इस व्यक्ति का परिचय कुछ इस प्रकार से दिया गया था-‘सुप्रसिद्ध समाज-सेवी तथा ‘सात्विक जीवन’ जैसी दर्शन-शास्त्र की उपयोगी पुस्तक के निर्माता ऋषिवर रामगोपाल जी मोहता. यह रामगोपाल जी मोहता ‘अबलाओं का इन्साफ’ के असली लेखक थे. इन्होंने ही श्रीमती स्फुरना देवी के छद्म नाम से ‘अबलाओं का इन्साफ’ किताब लिखी थी. किशोरीदास बाजपेयी, जर्नादन भट्ठ, बनारसदास चर्तुवेदी और खुद रामरख सहगल ने ‘अबलाओं का इन्साफ’ के लेखक को धर्म-दर्शन का ज्ञाता और बीकानेर का रहने वाला सेठ बताया है. रामगोपाल जी मोहता बीकानेर के रहने वाले अमीर सेठ और समाज सेवी थे. इन्होंने ‘गीता का व्यवहार दर्शन’ और ‘ गीता-विज्ञान’ नाम से धर्म -दर्शन पर किताब भी लिखी थी.
(चार)
‘अबलाओं का इन्साफ़’(2013) पुनः शोघार्थी नैया के संपादन में राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई. नैया ने इसे ‘आधुनिक हिंदी की़ प्रथम स्त्री-आत्मकथा’बताया है. बनारसीदासजी चतुर्वेदी, किशोरीदास बाजपेयी और जर्नादन भट्ट के अनुसार ‘अबलाओं का इन्साफ़ के लेखक बीकानेर के रहने वाला सेठ रामगोपाल जी मोहता थे. जब ‘अबलाओं का इन्साफ़’ की लेखिका स्त्री ही नहीं, ऐसी स्थिति में यह किताब ‘आधुनिक हिन्दी की प्रथम स्त्री-आत्मकथा’ कैसे हो गई? सच यह है कि स्फुरना देवी नाम की कोई लेखिका हिन्दी साहित्य में थी ही नहीं. एक शोधार्थी होने के नाते नैया को कम से कम यह भ्रम नहीं फैलाना चाहिए था कि ‘अबलाओं का इन्साफ़’‘आधुनिक हिंदी की़ प्रथम स्त्री-आत्मकथा’ है. सन् 2013 जब यह किताब प्रकाशित होकर आई तो हिन्दी के अधिकतर संपादकों और समीक्षकों ने एक सुर में कहा कि पितृसत्ता से पोषित आलोचकों ने इस किताब को दफ़न कर दिया था. किसी समीक्षक ने उस दौर की पत्र-पत्रिकाओं को पलटने की जहमत नहीं उठाई कि इस किताब को लेकर क्या हुआ था? दिलचस्प और अचरज वाली बात यह कि नामवर सिंह, राजेन्द यादव और सत्यकाम जैसे दिग्गज लेखक इस फर्जी किताब के झांसे में आ गए. इन विद्वानों ने इस किताब पर समीक्षाएं और संपादकीय लिखकर भूरि-भूरि प्रशंसा की और इस किताब को ऐताहासिक खोज बताकर प्रचारिता किया . इन दिनों नवजागरण काल के दस्तावेज के खोज के नाम पर हिन्दी साहित्य में बडा घपला चल रहा है. इसलिए हिन्दी साहित्य के विद्वान और आलोचकों से मेरा आग्रह है कि नवजागरण कालीन किसी किताब या दस्तावेज को जांचने-परखने के बाद ही उस पर अपनी राय कायम करें.
=============
दुर्लभ किताबों के PDF के लिए जानकी पुल को telegram पर सब्सक्राइब करें
बहुत अच्छा आलेख. इस संदर्भ में मैंने 14 अक्तूबर, 2016 के अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा था (जो आज भी मेरी वॉल पर मौजूद है) कि स्फुरणा देवी एक छद्म नाम था, स्फुरणा देवी नाम की कोई लेखिका हुई ही नहीें. पर स्फुरणा देवी पर न केवल शोध हुआ, बल्कि राधाकृष्ण प्रकाशन से किताब भी छप गई.
अत्यंत खोजपरक समीक्षा….कोटि कोटि बधाई.।