‘काला जल’ जैसे उपन्यास के लेखक शानी के बारे में आजकल कम लिखा जाता है, सुना जाता है। हम विस्मृति के दौर में जी रहे हैं। गुलशेर ख़ाँ शानी के तीन बच्चों में शहनाज़, सूफ़िया और फ़िरोज़ हैं। सूफ़िया दिल्ली में रहते हुए 10 सालों से बीबीसी रेडियो से जुड़ी हुई रहीं। शहनाज़ भोपाल में ब्याही गई हैं जबकि फ़िरोज़ दिल्ली में ही रह रहे हैं। इस संस्मरण में हम सूफ़िया की यादों में साझी बन शानी को फिर से देखने-समझने की कोशिश करते हैं। शानी के साहित्यिक वजूद से तो सभी परिचित हैं, लेकिन एक पुत्री की निगाह में कैसे पिता थे शानी? मार्च 2003 में संगीता ने यह बातचीत की थी— लिटरेट वर्ल्ड के लिए- अमृत रंजन
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‘आइए, आप शानी जी के घर आईं हैं। यहीं रहा करते थे वे।’ दरवाज़ा खुलते ही सूफ़िया ने कहा था।थोड़ी देर इधर-उधर की बातों के बाद वे चाय लेने चली गईं। दरअसल सूफ़िया से फोन पर ही ये बात हुई थी कि लिटरेटवर्ल्ड के ‘संस्मरण’ की ख़ातिर शानी की यादों को उनके हवाले से पाठकों तक पहुँचाना है इसी संदर्भ मुझे उनसे मिलना है। और एक इतवार को शाम की चाय के साथ हमारी बातचीत तय हुई। सूफ़िया के जाते ही मैंने उस कमरे में सूफ़िया के पिता और साहित्यकार शानी को ढूँढ़ना शुरू कर दिया। लगा जैसा साथ वाले कमरें में रिकॉर्डर पर कुछ गाने-वाने चला कर बच्चे बातें कर रहे हैं। सूफ़िया की बेटियाँ होंगीं। शानी को वहाँ महसूसने और ढूँढ़ने के क्रम में एक-एक कर कई दृश्य मेरे सामने आप ही आने-जाने लगे।… जहाँ अभी मैं बैठी हूँ…कभी यहाँ शानी भी बैठते होंगे। उस छोटी सी चौकी पर सुन्दर-सुन्दर कई कुशन पड़े थे। एक कुशन उठाया, हाथों को इस पर टिका दूँ, नहीं ऐसा करना शिष्ट तरीक़ा नहीं होगा। क्या शानी को भी कुशन का सहारा लेने में… ये तो उनका अपना घर था। सामने ही डायनिंग टेबल था। यहीं वे दोस्तों के साथ कभी बैंगन में काला चना डालकर तो कभी उसमें लोबिया डालकर सब्जी खाते और खिलाते रहे होंगे। कितनी ही सजावट की छोटी-छोटी चीज़े दीवारों पर आँखें खींच ले रही थीं। क्या इन सजावटी चीज़ों से भी उनका सरोकार रहता होगा। लेकिन उसी दीवार पर साधारण किन्तु सुन्दर ढंग से बने बुक सेल्फ़ पर मुझे एक नहीं कई-कई शानी मिलते जाते हैं। ‘काला जल’ के शानी, ‘एक लड़की की डायरी’ के शानी,…शानी, शानी, शानी। अपने पूरे वजूद के साथ वहाँ मौजूद थे शानी।

और शाम की चाय के साथ सूफ़िया कई बरस पीछे चली जाती हैं एक बार फिर अपने पापा के पास और साथ गुज़ारे उन्हीं लम्हों में। ‘आज जब मैं उनसे की गयी बातचीत के क्षण याद करती हूँ या उनकी किताबें पढ़ती हूँ तो लगता है कि पापा का बस्तर से दिल्ली का सफर न सिर्फ लम्बा था बल्कि वो गर्म रेत पर नंगे पाँव चलने के समान ही था।’ शानी का ग्वालियर से लेकर दिल्ली आने तक का जो सफर था… उसमें उन्हें हज़ारों बार ये एहसास कराया गया कि तुम मुसलमान हो। तुम हिंदी में लिखते हो। तुम हिंदी के मुसलमान साहित्यकार हो। ऐसा क्यों कहा जाता था उन्हें। बार–बार अलग क्यों कर दिया जाता था। सूफ़िया कहती हैं ‘उनकी कहानियों को पढ़िए तो आपको स्पष्ट कारण मिलेगा कि शानी जी को गुस्सा क्यों आता था।’ वे आगे कहती हैं – ‘हम बच्चों का रिश्ता पापा से दिल्ली आने पर ही क़रीब हुआ। इससे पहले उनसे बातचीत तभी होती थी जब वो अच्छे मूड में होते थे।’ एक दिन ऐसे ही अच्छे मूड को देखते हुए सूफ़िया ने पूछा था–‘पापा, आपको बात-बात पर गुस्सा क्यों आता है।’ तब उन्होंने एक लम्बी साँस लेते हुए जवाब दिया था – ‘बेटे हम ऐसे होते नहीं, लोग हमें बना देते हैं।’ शानी कई बार चिढ़ भी जाते थे कि ‘मुझे अल्लाह ने क्यों जगदलपुर बस्तर में ही पैदा किया। क्यों गुलमेर ख़ाँ के यहाँ पैदा किया। मुझे दिल्ली या आगरा में ही क्यों नहीं पैदा किया राजेंद्र यादव की तरह।’ सूफ़िया कहती हैं ‘प्रतिरोध का जो सफर उन्होंने तय किया था नंगे पाँव, उसकी तपिश, उसकी तकलीफ़ तो जबान पे आएगी न संगीता। ये तो कई लोगों ने भी माना है।’ लोगों ने माना है कि वो तो नीलकंठ थे। बूँद-बूँद उनके मन में ज़हर इतना इकट्ठा हो गया था कि समय-समय पर वह निकलता रहता था। चाहे वे साहित्यिक बिरादरी में बैठे हो, किताब विमोचन का अवसर हो या कोई गोष्ठी हो।
सूफ़िया का अपने पिता से जबरदस्त डायलॉग हुआ करता था। जबकि बाहर के लोगों को ऐसा लगता था कि बहुत ग़ुस्सैल हैं शानी, तो इन लोगों का आपस में डायलॉग तो होता ही नहीं होगा। एक समय तक ऐसा था।एक तरह से बच्चे उनके क़रीब दिल्ली आने के बाद ही हो पाए।एक समय ऐसा आया था कि सूफ़िया की माँ गई हुई थीं, दादी के पास। दादी तब बीमार थीं। तक़रीबन 15–20 दिनों का यह समय बच्चों को पिता के क़रीब ले आया था। सूफ़िया बताती हैं – ‘तब मैं कॉलेज में पढ़ रही थी। इस समय पापा बिल्कुल दोस्तों की तरह व्यवहार करने लगे थे। इस बीच उनसे हर तरह की बात की। यहां तक कि सेक्स की भी।हमलोग पिक्चर देखने गए साथ में। बहुत जल्द ही वे ऑफिस से घर आ जाते थे कि – ‘तुम अकेली हो घर में।’ इस तरह छोटी-छोटी चीज़ों का भी वे बहुत ख़्याल रखते थे।’ वे आगे बताती हैं, ‘मुझे आज भी याद है भोपाल की वह शाम, जहाँ गर्मियों में हम बैठा करते थे। बहुत ही इंटिमेट शाम थी वो।अक्सर वो हमारे साथ बहुत बातें किया करते थे। बहुत सारे विषयों पर। रिश्तों पर खास तौर से बातचीत होती थी। माँ-बेटी की, बाप-बेटी के रिश्तों की, कहानियों की, जीवन-मूल्यों की बात, जिंदगी के फ़लसफ़े की बातें होती थीं, कि हमें ये नहीं मिला तो उसके लिए दुख है। लेकिन वे दर्शन नहीं बघारते थे। तरह-तरह से ज़िंदगी की कई चीज़ों को समझाते थे कि आपके मन में जो चल रहा था वो कितना ग़लत था और कितना सही।’
शानी खाने–पीने के बड़े शौकीन थे। खाने के भी, खिलाने के भी। सूफ़िया कहती हैं ‘जबसे हमने होश सँभाला, हमारे घर दावतें ही होती रहती थीं। उनको बहाना चाहिए होता था। कभी मौसम के बहाने, तो मूड ख़राब के बहाने, तो बोर हो रहे हैं, तो मिले नहीं हैं इसके बहाने, आज अखबार में ये आ गया है इसके बहाने, किसी के किताब का विमोचन हुआ है तो उसके बहाने…तो बहानों के साथ दावतों की शाम होती ही रहती थी।’ जिस तरह से शानी खाने के शौकीन थे, वैसे ही खाना पकाने का सलीका भी उनमें ख़ूब था। कहते हैं न पाक विद्या में अगर आपके पास इमेजिनेशन नहीं है तो खाना उतना अच्छा नहीं बनता है। वह एक ही ढर्रे का बनता है। शानी अपनी पत्नी से कहा करते थे ‘किसने कहा है कि बैंगन में सिर्फ आलू ही डालते हैं। इसमें तुम काले चने क्यों नहीं डाल सकती? इसमें तुम लोबिया क्यों नहीं डालती?’ शायद हर चीज पर एक्सपेरीमेंट करते रहना साहित्यकार होने के नाते उनकी आदतों में शुमार थी।
यूँ भी चीज़ों को देखने के लिए व्यक्ति के पास स्वस्थ और सुन्दर फीलिंग होनी चाहिए। इसी विषय पर इनकी एक कहानी आई थी ‘वार्ड न. – 6’। ‘जिसमें दो दोस्त थे। एक का पलंग खिड़की के पास था। वो खड़े होकर खिड़की के बाहर देखते हुए बाहर का दृश्य बयान करता रहता था कि ‘वाह, क्या ख़ूबसूरत फूल खिलें हैं, कितने खूबसूरत पेड़ हैं। बाहर के सारे प्राकृतिक वर्णन किया करता था।अचानक उस दोस्त की डेथ हो जाती है।अब जो दूसरा दोस्त है वो जला करता था कि उसे ये सब चीजें देखने को नसीब नहीं होती थी। उसके डेथ के बाद फौरन उसने उसके बेड पर कब्जा किया और जाकर खिड़की के पास खड़ा हो गया।बाहर कुछ नहीं था सिवाय दीवार के।’ सूफ़िया कहती हैं – ‘तो जिंदगी का सच पापा ने हमें ये कहानी सुनाकर बताया था कि आप चाहें तो ऐसे जी सकते हैं। ये नज़रिये की बात है।’
बचपन में सूफ़िया को शानी की एक बात बुरी लगती थी। वह मन ही मन सोचा करती थी कि – ‘मेरी सहेली के पापा उसको पढ़ाते हैं। फिर मेरे पापा मुझे क्यों नहीं पढ़ाते? ये तो बहुत बाद में पता लगा कि मेरे पापा तो राइटर हैं। वे कैसे पढ़ाएँगे? उनके पास तो समय है ही नहीं।’ उनकी कहानी ‘जगह दो रहमत के फरिश्ते आए हैं’, में सूफ़िया पात्र बनी हैं अपने नाम के साथ। उनका भाई भी है। छोटी सी घटना है। एक कुत्ता है घर में। उसे खुजली हो गई है। तब शानी कहते हैं– ‘डिजीज है, सबको हो सकती है, इसे आप बाहर छोड़ आइए।’ उस संवदेना को, उसे बाहर करने पर उन भाई-बहन का जो मन टूटा है, उसे शानी जिस तरह कहानी के रूप में रखते हैं वह अदभुत है। सूफ़िया कहती हैं– ‘उस कहानी को पढ़कर लगता है हम शायद भूल गए होते उस घटना को अगर यह कहानी नहीं होती। उस कहानी को पढ़कर आज भी मन भींग जाता है।’
सूफ़िया कहती जाती हैं – ‘क्योंकि मैं उनके तीन बच्चों में अलग थी। साहित्यिक रुचियाँ ज़्यादा थी मुझमें। मुझे अब लगता है कि पापा मुझे कुछ ज्यादा स्नेह देते थे ,हालाँकि तब तो ऐसा नहीं लगता था। तब लगता था कि सभी को बराबर ही स्नेह करते हैं। वे बड़े डिप्लोमैटिक थे। आज जब इस उम्र में पहुँची हूँ तो ऐसा लगता है कि हर माँ-बाप को अपने ही कई बच्चों में कोई एक बहुत ज्यादा प्रिय होता है। लेकिन बच्चों में हीन भावना न आने पाए कि माँ या बाप उन्हें दूसरे भाई-बहन के अपेक्षा कम प्यार क्यों करते हैं। इसलिए हर मां बाप को ये गेम खेलना पड़ता है। ऐसा ही गेम खेला पापा ने भी। वे हम तीनों को बराबरी पर लाना चाहते थे या उठाना चाहते थे। हर माँ-बाप बच्चों को आगे बढ़ता देखना चाहते हैं। इस तरह जब वे मुझसे बातें करते तो कहते ‘देखो–तुममें ये ख़ूबियाँ हैं, तुम्हारी बहन में ये ख़ूबियाँ हैं, ये करना चाहिए वो करना चाहिए।’ बहन से मिलते थे तो उससे भी ऐसा ही कहते थे। मुझे बार-बार उन्होंने प्रोत्साहित किया कि लिखना चाहिए। लिखने के लिए पढ़ना बहुत जरूरी है। कई बार मुझे ये लगता था कि उन्होंने मेरे भाई को ज्यादा लिबर्टी दे रखी है। हमलोगों को उतनी नहीं है। भाई को हमलोगों से ज्यादा आज़ादी दी गई है। बेटा है इसलिए उसे ज्यादा प्यार करते हैं। कई बार ये भी लगता था कि वाह क्या राइटर हैं। ये भिन्नता भी आप करते हैं। कई बार लगता था कि गड़बड़ कर रहे हैं पापा, हम दोनों बहनों को उतना प्यार नहीं करते थे, भाई को जितना करते थे। ऐसा बहुत बार मन में आया कि भाई को ज़्यादा किया हमें नहीं किया।’
सूफ़िया को शानी जी के साथ रहने का बहुत मौका मिला। कई बार तो सुबह–शाम, दो–दो, तीन–तीन दिन वे लोग साथ रहते थे। वे कहती हैं ‘लेकिन जब उनकी दृष्टि से उनकी जगह पर खड़े होकर देखा। तब मैं माँ भी नहीं थी, बीबी भी नहीं थी। जब मैच्योरिटी आ गई तो हमें लगा कि ये गेम सब माँ-बाप को खेलना ही पड़ता है। सब बच्चों को बराबरी से देखना पड़ता है, लेकिन कहीं-न-कहीं तो। …और शानी ने भी इस सच को माना था, लेकिन इस सच को उजागर नहीं किया था। उन्होंने कहा था… ‘ बेटी, होता है, किसी न किसी एक के लिए ऐसा महसूस होता है। और ऐसा तुम तीनों में से किसके लिए है, ये नहीं बताऊँगा।’ अगर वो आज होते तो मैं कहती कि मैं मैंटली मैच्योर हो चुकी हूँ। इस सच को बता दीजिए। वो होते तो मैं उनसे पूछती कि किसके लिए ज़्यादा है।लेकिन मेरे ख्याल से ये सच ऐसा कड़वा होता कि अच्छा ही है कि उन्होंने नहीं बताया।क्योंकि मैं ये मान के चलती हूँ कि मुझे पापा बहुत प्यार करते थे। उन्होंने हम तीनों को बराबर समय दिया। हालाँकि बहुत कम समय था उनके पास।’
किसी चीज को अभिव्यक्त करने की शानी में अद्भुत क्षमता थी। वे अपनी पत्नी पर बहुत गुस्सा करते थे कि ‘तुम मन ही मन में बात रख लेती हो। बच्चों को इसका पता कैसे चलेगा। जब तक उसे बताओगी नहीं कि तुम क्या चाहती हो या उन्हें क्या करना चाहिए।’ शानी अगर नाराज होते थे, तो वो भी ज़बरदस्त होता था। मतलब लोग थर्राने-काँपने लगें, जबकि प्यार भी इतना करते थे कि भीतर तक भिगो देते थे। सूफ़िया बताती हैं, ‘एक तरह से माँ और बाप दोनों का रोल उन्होंने अदा किया। क्योंकि हमारी माँ जो थीं, उनके पास कोई अभिव्यक्ति नहीं थी। उनका अलग ही व्यवहार था, कि खाना बना दिया, काम कर दिया वग़ैरह। समझाना–बताना, ‘माँ बताती हैं न’, ये सब काम पापा ने किया। सुनकर आपको हैरानी होगी कि जब हम जवान हो रहे थे, आज तो वक़्त बहुत आगे बढ़ गया है। लेकिन उस दौर में शायद ही कोई पिता अपनी बेटियों से जो जवान हो रही हों, उनकी भावनाओं को समझते और उसे बताते होंगे कि जिस दौर से तुम गुजर रही हो, तुम्हें ऐसा लगता होगा। ये लड़के अच्छे लगते होंगे। लेकिन तुम्हारे मन में ऐसी भावनाएँ आती होंगी। तुम्हें सही और ग़लत का फ़ैसला करना होगा।’
‘जब हम बहुत छोटे थे। मैच्योर नहीं थे तो उनके ग़ुस्से से बहुत ग़ुस्सा आता था कि माँ को कितनी बुरी तरह से डांट देते हैं। तब बहुत सारी बातें समझते ही नहीं थे। जब हम बड़े हुए तब उनकी कहानियों को पढ़ा, समझने लगे चीज़ों को। हालात भी सामने आए तो लगा कि उनका ग़ुस्सा जायज़ था। बहुत जायज़। क्योंकि कुछ लोग अभिव्यक्त करते हैं, तो कुछ लोग घुटते रहते हैं। पापा में अभिव्यक्त करने की अदभुत क्षमता थी, चाहे वो प्यार हो या ग़ुस्सा बहुत बुरी तरह से बाहर निकालते थे। फिर उतना बुरा नहीं लगा। बल्कि मुझे ख़ासतौर से बहुत ग़ुस्सा आता है जब लोग कहते हैं कि शानी जी इतने ग़ुस्सैल थे। बात-बात पर बिगड़ जाते थे। तो मैं ये कहती हूँ कि ठीक है वे बात–बात पर बिगड़ जाते थे। लेकिन आप कारण क्यूँ नहीं जानना चाहते हैं। कारण भी तो होगा।’
सूफ़िया कहती जाती हैं ‘याद आता है मुझे कि समझौता भी वे बहुत ख़ूबी से किया करते थे। लेकिन माँ हमारी बहुत शांत थी। अगर माँ ने समझौता किया पापा के साथ तो पापा ने भी काफी समझौता किया माँ के साथ।उनके जीवन में बहुत सी औरतें आईं।’ वे बहुत ईमानदारी से कहते थे कि ‘मैं चाहता तो कई औरतों से शादी कर सकता था। लेकिन जो ख़ूबियाँ तुम्हारी मां में है बर्दाश्त करने की, ज़बरदस्त हैं। वे कभी कोई डिमांड ही नहीं करती। जैसा भी वक़्त होता है वे स्थिर रहतीं हैं। ये ख़ूबियाँ दूसरी औरतों में नहीं हो सकती हैं।’
कई लोग कहते थे कि मम्मी बहुत सीधी हैं। कितना ग़ुस्सा करते हैं शानी जी। कैसे झेलती हैं वो। कोई और औरत होती तो नहीं झेल पाती। ‘ऐसा नहीं था।’
पुरूष को किस तरह टैकल करना है ये हर औरत को पता होता है। जो काम माँ का होता था पापा से, निकाल लेती थीं वो। तब पापा लेखक नहीं, पति होते थे। मुझे ऐसा नहीं लगता कि माँ ने अन्याय सहा और पिताजी ने अन्याय किया।
जब हम दिल्ली आए तो लेखक लोगों में बातें होने लगी। शानी जी की पत्नी बहुत ही शांत, कम पढ़ी लिखी हैं, वे बोलती ही नहीं हैं। माँ हमारी सिर्फ़ 11 वीं पास थीं। लोगों को लगता था कि शानी बहुत ही डोमिनेंट क़िस्म के व्यक्ति हैं। लेकिन माँ का स्वभाव ही ऐसा था कि बहुत ही कम बोलती थीं। हमलोगों को याद नहीं आता कि कभी उन्होंने डाँटा मारा हो। ये जिम्मेदारी भी पापा की ही थी, कि क्यों नहीं पढ़ रहे हो। ये जो आरोप है पापा पर कि वो बहुत डोमिनेंट क़िस्म के पति थे – तो मैं उससे उन्हें बरी करना चाहती हूँ कि ऐसा बिल्कुल नहीं था।
कई तर्कों से समझाते थे वे बातों को। क्योंकि बहुत गहराई से चीज़ों को देखते थे। तब जो उनका व्यवहार होता था भले ही उस समय हमें समझ में न आए, भले ही और लोगों को न समझ में आए। लेकिन आज जब हम इतने सालों बाद उन चीजों को दोहराते हैं, तो देखते हैं कि बहुत सारी चीजें सही हैं जो वे करते थे। उनका ग़ुस्सा सही था।
आने वाले समय की धमक वे पहले ही सुन लेते थे।उन्हें लगता था कि लड़कियों को पढ़ाना चाहिए। बहुत संघर्ष के दिनों में भी उन्होंने बच्चों की पढ़ाई जारी रखी। कॉलेज की डिग्री से उन्हें क़तई मतलब नहीं था। जिस तरह से वे चीज़ों को हमारे भीतर तक पहुँचा देते थे। इतनी सहजता से बातें समझा देते थे। चाहे वो कैरियर की बातें हो, चाहे वो जिंदगी की बातें हो, चाहे भाषा की बात हो, चाहे वो पाक कला हो, चाहे वो घर रखने का सलीक़ा हो, चाहे वो बातचीत करने का सलीक़ा हो, चाहे वो कपड़े का सलीक़ा हो, उन्होंने ही हमें बताया।
ऐसा नहीं था कि वो बैठकर हमें भाषण देते थे, कि ऐसे होना चाहिए, नहीं तो ऐसा होना चाहिए। वे आराम से अपनी बात कहते थे और हम लोग सुनकर उसे अपनाते भी थे। आज पापा होते तो मुझे बताते कि बच्चों को तुम ऐसे नहीं ऐसे कहो। आज समय ही नहीं है मेरे पास कि बच्चों को बैठकर बताओ। ये कमी बड़ी खलती है, ये जो गुण था उनमें, समय निकालकर समझाने-बताने का, पता नहीं कैसे था? और माँ–बाप की कमी तो जीवन में हमेशा ही खलती है।
आपसी बातचीत में अच्छे साहित्यकारों की बातों को कोट करते थे वे बीच-बीच में। तीन-तीन, चार-चार घंटे एक विषय पर उनकी बातें होती थीं और ऐसा नहीं था कि हमेशा गंभीर बातें ही होती थी। उनमें मज़ाक करने, अपने हाल पर अपने-आप पर हँसना, ये सब भी ज़बरदस्त था। उन्हें वो लोग भी अच्छे लगते थे जो हँसाए, मज़ाक करे। छोटे से छोटे व्यक्ति से दोस्ती कर लेते थे वे। चाहे वो माली ही क्यूँ न हो।
पतली सी झील बहती है नोएडा के आगे। वहाँ वे टहला करते थे। वहीं नाव चलाने वाले से उनकी दोस्ती हो गई थी जिनसे उनकी बातें भी हुआ करती थी। वो नाविक कैसे सोचता है? क्या करता है? ये सारी बातें भी आकर किया करते थे वे सूफ़िया से। तो ऐसा नहीं था कि वे हर वक़्त साहित्यकार ही रहते थे।
उनकी रचनाओं में ‘काला जल’ को बार–बार पढती हैं सूफ़िया। कहती हैं ‘जब भी पढ़ती हूँ उसके नए-नए आयाम मुझे मिलते हैं। बड़ी अजीब बात है कि जब मैंने बी.ए. प्रथम वर्ष में क़दम रखा था कि पापा की ‘काला जल’ मेरे कोर्स में लग गई। और हमारी मित्र कहने लगी ‘अरे ये तो समझ में नहीं आता कि क्या लिखा है?’ मैंने कहा ‘मुझे ख़ुद समझ में नहीं आता कि क्या लिखा है पापा ने?’ तब मुझे सच में बहुत सारी चीजें समझ में नहीं आती थी कि ‘सल्लो आपा को क्या हो गया।’ लेकिन पापा के ही एक अभिन्न मित्र ने मुझे समझाया कि ‘काला जल’ क्या है। लेकिन जैसे-जैसे मैच्योरिटी आती गई और मैं वक्तन–बेवक्तन उसे पढ़ती हूँ, या दूसरे लोगों के दिमाग़ से उसके बारे में सुनती हूँ। तो लगता है कि मेरे पिता ने लिखा। शानी जी अगर मेरे पिता नहीं होते तब भी वह उपन्यास मैं पसंद करती।
पापा को हार्ट अटैक 1980–81 में हुआ था। साहित्य एकेडमी का ऑफिस उन्होंने ज्वाइन किया था।गर्मियों की दोपहर थी। ऐसे ही उन्हें बेचैनी हुई वे लेट गए फिर किसी को बुलाया और मंडी हाउस से शेख सराय वाले घर पर आए। घर आने पर उन्हें उलटी आई। माँ को समझ में आ नहीं रहा था। मैं घर पर थी नहीं। फिर डाक्टर आए। डाक्टर ने उन्हें हिलाने से भी मना कर दिया। तुरंत आई.सी.यू. में ले जाया गया। 15 दिन रहे, और उसके बाद वे नहीं रहे। शानी कहा करते थे ‘मुझे ग़ालिब के शेर से ही ताकत मिलती है।’ ज़बरदस्त विल पावर था उनमें। दो घंटे के का हार्ट–अटैक वही झेल सकता है जिसमें विल पावर हो। सूफ़िया कहती हैं ‘अंतिम समय तक मैं उनके साथ थी और आज मुझे उनके साथ गुज़ारी हुई कई शामें याद आती हैं। जब मैं उदास होती हूँ क्योंकि संघर्ष तो जीवन में लगा ही रहता है तो उनकी बातें बहुत संबल देती हैं। माँ को डायबिटीज़ था। ज्यादा हो जाने पर उनकी मेमोरी लॉस हो गयी। 2001 जनवरी में वो भी गुज़र गयीं।’
बहन शहनाज़ मुझसे बड़ी हैं। बहन के लिए उन्हें थोड़ी तकलीफ़ रहती थी कि बहुत जल्दी शादी कर दी, आनन–फ़ानन में शादी कर दी। मतलब उन्हें बहुत कम समय मिला उनके साथ रहने का। उस कमी को, उस गिल्ट को वे इस तरह पूरा करते थे कि दो-दो ,तीन-तीन महीने भोपाल जाकर रहते थे। यहाँ से पत्र लिखा करते थे। आज बहन के पास पापा के लिखे पत्र हैं। मेरे पास नहीं हैं। ये तकलीफ़ लगती है। उनका लिखा मेरे नाम से एक शब्द भी नहीं हैं। उनकी बातें हैं समझाई हुई मेरे पास। कमी मुझे लगती है। एक दस्तावेज़ होता है तो उसे आप पर वक़्त बेवक़्त पलटते रहते हैं तो यादें ताज़ी होती रहती हैं। इसी तरह याददाश्त टेप तो होता नहीं है, काश कि वो होता। कुछ पत्र मेरे पास भी होता, लेकिन ये भी लगता है कि मैं पास थी उनके। तो बहुत कुछ है मेरे पास जो उनके पास नहीं है।
बड़ी बहन को उतना वक़्त, उतना प्यार नहीं दे पाए तो उसे बाद में पूरा करने को कोशिश करते थे। ख़तों के ज़रिए। सबको सब-कुछ तो ईश्वर भी नहीं दे पाता, फिर माँ–बांप तो इंसान ही होते हैं। फिर भी बहुत कुछ दिया उन्होंने।