प्रज्ञा मिश्रा का यह लेख अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में चले रंगभेद विरोधी प्रदर्शनों को एक भिन्न नज़रिए से देखता है, इतिहास और इतिहास स्मारकों को एक अलग नज़रिए से। प्रज्ञा मिश्रा यू॰के॰ में रहती हैं और वहाँ ब्रिस्टल शहर में एडवर्ड कोलस्टन के पुतले को हटाया गया और लेखिका ने पुतलों की राजनीति पर यह लेख लिखा है-
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मार्टिन लूथर किंग ने कहा था “हम इतिहास बनाते नहीं हैं बल्कि हम इतिहास की देन हैं।” हम इस बात को आज के दौर साबित होते हुए देख रहे हैं। जॉर्ज फ्लॉयड की मौत ने दुनिया भर में रंगभेद के खिलाफ फिर से आवाज़ बुलंद की है। लेकिन इस आंदोलन के चलते उन स्मारकों को हटाया जा रहा है, जिनका इतिहास खूबसूरत नहीं है। ब्रिस्टल शहर में एडवर्ड कोलस्टन के पुतले को हटाने से शुरू हुई यह कवायद अब उस मुक़ाम पर पहुँच गयी है कि अमेरिका में कैलिफ़ोर्निया में कोलंबस की मूर्ति हटाने का फैसला कर लिया गया है।
कोलंबस को पूरी दुनिया अमेरिका को खोजने वाले के नाम से जानती है लेकिन कोलंबस को नेटिव अमेरिकन एक आततायी के रूप में जानते हैं, क्योंकि कोलंबस के आने के बाद से ही उनकी दुनिया में अत्याचार बढ़ा, हत्याएं बढ़ी और उन लोगों को अपने ही घर और ज़मीन से बेदखल कर दिया गया। कोलंबस और रानी इसाबेला की यह मूर्तियां १८८३ से शहर के मुख्य चौक पर लगी हुई हैं। इतने बरसों में लाखों लोग इतिहास को नजदीक से जानने के लिए और कभी सिर्फ दर्शक बन कर इन मूर्तियों को देखने यहाँ जमा होते रहे हैं। क्या इन मूर्तियों को हटाने से उन कहानियों को ख़तम मान लिया जाएगा? और उन दर्दनाक पलों को भूल जाएंगे?
नाज़ी सरकार के कंसंट्रेशन कैंप इंसानी इतिहास के सबसे खौफनाक अत्याचार की याद को बरक़रार रखे हुए हैं। उस हवा में आज भी एक भारीपन है, वहां चलते हुए, उन जगहों की कहानियां सुनते हुए, उन चीज़ों को देखते हुए कई बार सांस अटक जाती है, जोर से चीख कर रो पड़ने का मन होता है, पाँव में अपना ही शरीर सँभालने की ताकत नहीं बचती और कई कई बार सिर्फ इसलिए ही बैठना पड़ता है कि इस जगह के इतिहास का वजन उठाया नहीं जाता। लेकिन क्या कंसंट्रेशन कैंप की इन जगहों को ख़तम कर देना चाहिए? क्या इनका नामो निशान इसलिए मिटा देना चाहिए कि यह बुरी यादें सामने ला कर खड़ी कर देती हैं?
अगर अतीत में कुछ बुरा हुआ है तो उसे आज याद करना जहर घोलने जैसा क्यों माना जाता है? अगर कुछ बुरा है और आज बात करने से भी तकलीफ दे रहा है तो इसका मतलब है कि वो घाव ठीक नहीं हुए है जो उस दौर में लगे थे। वैसे भी पुरानी चोटें बारिश जाड़े के मौसम में तकलीफ देती ही हैं। वैसी ही यह यादें हैं जो किसी ऐसे पल अपनी मौजूदगी बताने से नहीं चूकती जैसे अगर पाँव की कोई पुरानी तकलीफ है तो हम पाँव का ऑपरेशन करवाने तो नहीं निकल पड़ेंगे वैसे ही इन पुतलों को हटाने से क्या हासिल हो जाने वाला है। न तो कोलंबस का किया धरा वापस हो सकता है न ही कोलस्टन का और न ही नाज़ी सरकार का।
जलियाँवाला बाग़ का स्मारक देखने का मौका तो नहीं मिला लेकिन यह सुना और देखा है कि वहां की दीवारों में आज भी गोलियों के निशाँ बरक़रार हैं। कोलंबस की तुलना में जलियाँवाला बाग़ की घटना बहुत ताज़ी है और नजदीकी भी। लेकिन एक वक़्त के बाद यह सारा इतिहास ही तो है जो इंसान को एक अलग नजरिये से दुनिया को देखना सिखाता है।
कोलस्टन पुतला ब्रिस्टल शहर में पूजनीय नहीं था लेकिन उस शहर का हिस्सा था वैसे ही जैसे कोलंबस का पुतला कैलिफ़ोर्निया के बदलते मिजाज का सदियों से गवाह है। क्या दुनिया के हर कोने में खूबसूरत इमारतें, चर्च, और कई मायनों में शहर भी अमीरों और राजाओं ने नहीं बनवाये हैं? जिन इमारतों को देख कर हम आज खुद हो इतिहास के नजदीक होने की कल्पना करते हैं उन्हीं इमारतों को किन मजलूमों ने बनाया होगा यह सोच से परे है।
कहा जाता है कि ताजमहल बनाने वाले कलाकारों के हाथ सिर्फ इस लिए काट दिए गये कि वो ऐसा कोई दूसरा शाहकार खड़ा न कर दें। तो क्या आज हम शाहजहां के विरोध में ताजमहल को ही गिराने की बात करना शुरू कर दें। जिस बात को लिखने में हाथ काँप रहे हैं क्या लोग अंजाम देना चाहेंगे? याद करें वेब सीरीज लैला। जिसमें भविष्य का देश दिखाया गया है और ताजमहल को गिरा दिया गया है।
न तो यह कहने से इतिहास बदलता है कि महाराणा प्रताप ने घास की रोटी नहीं खायी और ना ही इस बात से कोई फर्क है कि कुछ समय बाद शायद कोलंबस का पुतला हटा दिया जाएगा। इतिहास तो यह हमेशा रहेगा कि कोलंबस ने समुद्र के रास्ते अमेरिका की खोज की और इस खोज से एक नयी दुनिया की शुरुआत हुई। यह इतिहास भी रहेगा कि नेल्सन मंडेला ने जिस रंगभेद के खिलाफ लड़ाई लड़ी, सत्ताईस साल जेल में बिताये वही रंगभेद आज के दौर में यूँ खलबली मचाये हुए है। पुतलों को गिराने से इतिहास ख़तम नहीं होता, हाँ उस गिराए जाने की हरकत को इतिहास में जगह मिल जाती है। तालिबान बुद्ध की प्रतिमा को गिरा सकता है लेकिन यह इतिहास नहीं मिटा सकता कि वहां बौद्ध थे।
कंसंट्रेशन कैंप हो या होलोकॉस्ट म्यूजियम या कोलस्टन का पुतला, दरअसल ऐसी यादें तो हमारे रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा होना चाहिए क्योंकि यह लगातार यह याद दिलाते हैं कि क्या हुआ जो उसी दौर में ख़तम जाना चाहिए था। अतीत के ऐसे यादों को सहेजने की जरूरत है ताकि आने वाले वक़्त में याद रहे क्या नहीं करना है। दर्दनाक अतीत तब तक ही बुरा है जब तक उसे साथ रखते हुए आगे बढ़ने की शुरुआत न कर दें। क्योंकि यहीं से उन घाव पर मरहम लगना शुरू होता है। हाँ अगर पुतले लगाने की आदत भी अगर थोड़े काबू में रहे तो आने वाले समय में ऐसी उठापटक से बचा जा सकता है।
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