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श्रीराम डाल्टन की फ़िल्म ‘स्प्रिंग थंडर’ पर गीताश्री की टिप्पणी

श्रीराम डाल्टन ऐक्टिविस्ट फ़िल्ममेकर रहे हैं। उनकी फ़िल्म ‘स्प्रिंग थंडर पर यह टिप्पणी लिखी है वरिष्ठ लेखिका गीताश्री ने। गीता जी पहले भी फ़िल्मों पर लिखती रही हैं। आउटलुक में उनके लिखे कई लेख मुझे आज भी याद है। कल ‘आर्या’ देखते हुए मुझे गीताश्री की सुष्मिता सेन के साथ बातचीत याद आ रही थी। फ़िलहाल आप ‘स्प्रिंग ठंडर’ पर गीताश्री की यह टिप्पणी पढ़िए-

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जब वसंत में बिजली कड़कती है

दो तरह की फिल्में होती हैं, एक वो जो दर्शको का मनोरंजन करती हैं, पैसा वसूल टाइप, दूसरी वो जो  कोई महान उद्देश्य को लेकर चलती है। दोनों में बहुत अंतर। दोनों के फिल्मकार स्वभाव से भी अलग । महान उद्देश्य को लेकर बनाई गई फिल्मों की कतार ही अलग होती है। वे लोग अलग होते हैं जो जिद्दी धुन की तरह बजते हैं। बड़े फिल्मकारों को पता होता है कि वे क्या कर रहे हैं, कहां जा रहे हैं और जो फिल्म को बदलाव और क्रांति का वाहक मानते हैं।

एक ऐसे ही फिल्मकार हैं श्रीराम डाल्टन। जिद्दी इतने कि जल-संरक्षण को लेकर पैदल-यात्रा पर निकल पड़े- मुंबई से झारखंड तक। “बूंद-बूंद बचे पानी, तभी बचेगी जिंदगी…” का संकल्प लिए वे मीलों पैदल चलते रहे। दोस्तो के साथ मिलकर नेतरहाट में फिल्म इंस्टीटयूट की स्थापना की। आसपास के इलाकों में पानी विषय पर 13 छोटी-छोटी फिल्में बनाईं। 2017 में जंगल विषय पर अब तक 6 शॉर्ट मूवी, एक फीचर फिल्म बना चुके। साल 2018 में बनाई एक फिल्म “स्प्रिंग थंडर ” जो अब तक सिनेमाघरों में रिलीज नहीं हो पाई है। सिनेमा समारोहो में दिखाई जा रही है और खूब सराही जा रही है। संभवत: “क्राउड फंडिग ” से बनने वाली यह देश की पहली फीचर होगी।

अब कुछ फिल्म के बारे में –

जब पृथ्वी फूलों से भरी हो, बहारें वृक्षों पर लदी हों, नदियां अपने सम पर बहती हों, धूल हवाओं की मोहताज न हों, चुपचाप उड़ा करती हों, ऐसे में आकाश मेघों से भर जाए। एक मेघाच्छादित दिन हो, कई ऐसी रातें हो, उनके बीच जब बिजली कड़कती हो…तो पृथ्वी आशंकाओं से कांप उठती है। मनुष्य और मनुष्येतर दोनों तरह के प्राणी भयभीत हो उठते हैं।

ये शुभ लक्षण नही हैं। वसंत में बिजली की कड़क बर्दाश्त कर लेना सबके वश की बात नहीं। इसकी तीव्रता को महसूस करना हो तो क्रांतिकारी फिल्मकार श्रीराम डाल्टन की फिल्म “स्प्रिंग थंडर” देखिए।

ऐसा क्या है इस फिल्म में कि जिससे लोग डरते हैं। सत्ता डरती है। ये कला की ताकत है कि उससे सत्ता डरे, माफिया डरे, वे सब डरे जो मनुष्यविरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं, जिन्हें अपना ही काला चेहरा पसंद नहीं। जिन्हें अपने ही घिनौवने चेहरे से घिन आती है। दुनिया भर में कलाओं की ताकत से सत्ताएं खौफ खाती हैं, क्योंकि वे अपने समय का सच उगल देती हैं। सिनेमा सबसे सशक्त माध्यम है।

कुछ फिल्में मनोरंजन के लिए नहीं होतीं, वे कला का सच्चा धर्म निबाह रही होती हैं। वे सत्ता के कुचक्र के विरुद्ध एक हथियार होती हैं, हथौड़ा बन जाती हैं जो एक साथ दो जगहो पर चोट करती चलती हैं। शोषक और शोषित दोनों के दिमागो पर हथौड़े चलाती है। टन्न…टन्न…

“स्प्रिंग थंडर देखते हुए आप उस चोट का अहसास करते चलते हैं। लगातार कोई हथौड़े से दिल-दिमाग पर चोट करता चलता है। अगर आप में जरा भी संवेदना बची हो, समाज में बदलाव देखने के आकांक्षी हों, तो यह फिल्म गहरे दुख और यातना से भर देगी । एक घंटा पचपन मिनट की फिल्म लगातार आपको जंगलो, बीहड़ों में ले जाती है, बारुदों के गंध से आप विचलित होते हैं। देखते हैं, कैसे एक भोला भाला समाज अपनी ही जमीन से खदेड़ दिया जाता है। उसके खिलाफ साजिश किस स्तर पर चल रही है। कैसे उसे अपने ही समाज के विरुद्ध खड़ा कर दिया जाता है।

कहानी है अविभाजित बिहार, अब झारखंड के छोटानागपुर इलाके में बसे डालटेनगंज की। आदिवासी बहुल इलाका है। वह चारो तरफ घने जंगल, पहाड़ियां और सदानीरा नदियों से घिरा एक सुंदर कस्बाई शहर है। वहां यूरेनियम खदान के लिए टेंडर निकलता है। उसे हासिल करने के लिए शहर में बाहुबलियों का खूनी खेल शुरु हो जाता है। फिर होता है गैंगवार, जिसमें भोले-भाले बेरोजगार और लालची नौजवानों को फंसा कर हत्यारे में बदल दिया जाता है। उनके हाथों में पैसे और पिस्तौले पकड़ा दी जाती हैं और उनके लालच का दोहन किया जाता है। सत्ता, राजनीति, पुलिस-प्रशासन और अपराधी का गठजोड़ , नीति –निर्धारको की पोल खुलती चली जाती है। आदिवासियों को उनकी जमीनों से खदेड़ने के लिए सारे हथकंडे अपनाए जाते हैं, यहां तक की जिस तालाब का पानी पीते थे, उसमें जहर मिला दिया जाता है। जंगल कटने लगते हैं। गांव खाली करवाने के सारे धत्कर्म किए जाते हैं। अपनी ही जमीनों के मालिक, अपनी जमीनों से बेदखल होकर वहां मजदूरी करने लगते हैं। एक दिन उनके बीच से ही कोई नायक उभरता है जो सबको संगठित करता है, वे एकजुट होते हैं और जल, जंगल , जमीन बचाने की लड़ाई लड़ते हैं। उनके समाज में अचानक चेतना जागती है तब वे कहते हैं- जंगल, पहाड़, यही तो माई बाप हैं हमारे। हमारे पेड़ कट रहे हैं, ये पेड़ नहीं कट रहे, हमारे आदमी कट रहे। उन्हें विकास के नाम पर बरगलाया गया कि यहां सड़के बनेंगी, डैम बनेगा, सरकारी दफ्तर बनेंगे, क्वार्टर बनेंगे, सारी सुविधाएं होंगी।

जब वे आसानी से अपनी जमीनें, गांव सौंपने को तैयार नहीं होते तो उन पर जुल्म का सिलसिला शुरु होता है। उधर शहर में रंगदारी टैक्स जोरो पर है। जो टैक्स न भरे, उसकी मौत तय। भरे बाजार, खुली सड़क पर दिन दहाड़े गोलीबारी, हत्याएं आम बात हो चली थीं। गुंडे शासन चलाने लगे थे। पुलिस मूक समर्थन करती थी। जब कौम जागती है तो क्रांति होती है। फिल्म उसी अन्याय के प्रति जन-क्रांति का उदघोष करती है। और इतने प्रामाणिक ढंग से कि कुछ देर तक फिल्म मानो सत्य घटनाओं को ज्यों का त्यों परोसती हुई लगती है। सत्य कभी-कभी कल्पना की तरह तिलिस्मी और रोचक होता है।

इस फिल्म से सत्य के प्रति निर्देशक इतने आग्रही हैं कि जरा भी मुद्दे से हटते नहीं हैं। फिल्म में कई तरह की गुंजाइश होती है। प्रेम की आहट सुनाई देती है, एक संवाद के जरिये। जब विदेशी डाक्टर से पूछती है- क्या तुम्हारी शादी हो गई है। कैमरा यहां टिकता नहीं, तुरंत दृश्य में असली मुद्दा आ टपकता है। फिल्मकार का फोकस स्पष्ट है, इसीलिए वैचारिक तेजस्विता नजर आती है। महान फिल्मकार पोलांस्की अपनी फिल्मों के बारे में कहा करते थे- “मेरी फिल्मों में आपको आमफहम प्यार देखने को कभी नहीं मिल सकता । यह मुझे अरुचिकर लगता है, मेरी फिल्मों में मुद्दों की उपस्थिति बहुतो को असहमत बनाती है।“

फिल्मों में रोमांस को अनिवार्य मानने वाले दर्शको को यहां निराशा मिलेगी। श्रीराम डाल्टन भी अपने मुद्दे से टस से मस नहीं होते। उनका नैरेटिव नहीं बदलता। एक शहर, एक समुदाय का नैरेटिव साक्ष्यों के साथ उपस्थित होता है। दुनिया के महान फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों को जिंदगी के अधिक निकट रखा है। ये आग्रह पश्चिमी फिल्मकारों के यहां ज्यादा दिखाई देता है। यहां तारकोवस्की याद आते हैं जो कहा करते थे कि बड़े पर्दे पर जो कुछ घटित होता है, उसमें अधिक से अधिक सत्यता होनी चाहिए।

इसी सत्यता के आग्रह ने इस फिल्म को भटकने नहीं दिया और उसके फिल्मांकन ने इस फिल्म को सत्ता, माफियाओं और अपराधियों की आंख की किरकिरी बना दिया है। यह फिल्म अभी तक रिलीज नहीं हो पाई है। इसके अंतराष्ट्रीय सिनेमा समारोहो में दिखाया जा चुका है। सराहा जा चुका है। दुनिया की चिंता इस समय पर्यावरण बचाने की है। पर्यावरण के नुकसान का खामियाजा समूचा विश्व झेल रहा है। उधर सत्ता, राजनीति और अपराधियों के गठजोड़ ने खनन के बहाने जंगल काट रहे, पहाड़ खोद रहे। जमीने बंजर कर रहे हैं।

यह फिल्म न सिर्फ आंखें खोलती है बल्कि सचेत करती है । बेहद जरुरी फिल्म है जो आज के समय की सबसे बड़ी चिंता की ओर ध्यान खींचती है।

मनोरंजन की चाहत वाले समाज में मुद्दों पर आधारित फिल्म बनाना जोखिम भरा काम है। श्रीराम डाल्टन कहते हैं – “मैं इसे जोखिम नहीं मानता, चुनौती मानता हूं। मैं अपनी फिल्म में कोई झूठी कहानी नहीं, एक सच्ची कहानी चाहता था। जो मैं कह पाया। मैं शहरी दुनिया को नहीं जानता था, मैं अपना गांव, जंगल ही समझता था, या मुझे आंदोलन समझ में आता था।“

अब तक इस फिल्म की रिलीज ही चुनौती बनी हुई है। रिलीज की अपनी शर्त्ते होती हैं और उनका आर्थिक पक्ष होता है। अब तक सिनेमाघर नहीं मिले हैं। जिन्होंने अब तक उसे समारोहो में देखा है, वे आश्वस्त हैं कि इस फिल्म में व्यवसायिक रुप से हिट होने की भरपूर संभावना है। “गैंग्स ऑफ वासेपुर” जैसी फिल्म ने सफलता के नये पैमाने गढ़े। उसी धारा की है ये फिल्म जिससे आम आदमी खुद को कनेक्ट कर सकता है। ये आम आम आदमी का सिनेमा है। इसके कलाकार भी अधिकतर स्थानीय हैं, कुछ मुंबइया चेहरों … में प्रमुख नाम आकाश खुराना, अरशद खान, रवि भूषण “ भारतीय”, रोहित पांडेय, अमांडा ब्लूम, परीक्षित चमेली इत्यादि कलाकारों का यादगार अभिनय है.

ये फिल्म अगर सिनेमाघरो में रिलीज हुई तो सफलता के झंडे गाड़ सकती है। यह दुर्भाग्य है कि यह फिल्म रिलीज के लिए अब तक प्रतीक्षारत है। जब तक एक साथ तीन सौ से लेकर पांच सौ तक सिनेमाघर नहीं मिलेंगे, तीन करोड़ की पूंजी जब तक नहीं लगेगी, “स्प्रिंग थंडर” आभासीय दुनिया में कौंधती रहेगी।

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9 comments

  1. स्प्रिंग थंडर ….तो जैसे पर्दे पर ही देख ली …श्रीराम डाल्टन अद्भुत व्यक्तित्व ….गीता श्री अद्भुत समीक्षक …😁🤗👏👏

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