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कविता शुक्रवार: हरि मृदुल की कविताएँ

उत्तराखंड में नेपाल और चीन बॉर्डर के गांव बगोटी में ४ अक्टूबर, १९६९ को जन्मे हरि मृदुल की प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय प्राइमरी स्कूल में ही हुई। इसके बाद वह बरेली चले गए, जहां उन्होंने स्नातकोत्तर तक शिक्षा पाई। बचपन से ही कविता लिखनी शुरू हो गई थी। कुमाऊं के अप्रतिम लोकगायक गोपाल बाबू गोस्वामी के गाने रेडियो पर बजते, तो जैसे मंत्रमुग्ध कर देते। उन्हीं गीतों की तर्ज पर लोकगीत लिखने शुरू किए। स्कूल की किताबों में पढ़ते हुए जल्द ही हिंदी कविता में भी रचना शुरू हो गई। बरेली में वीरेन डंगवाल जैसे कवि से उम्र के अंतर के बावजूद दोस्ती हो गई। उनकी वजह से बाबा नागार्जुन का सानिध्य उन्हें मिला। नौकरी के सिलसिले में हरि जब मुंबई आए, तो निदा फाजली का स्नेह मिला। पहले कविता संग्रह ‘सफेदी में छुपा काला’ की लंबी भूमिका निदा फाजली ने ही लिखी। जब विष्णु खरे मुंबई रहने लगे, तो दस साल उनसे निरंतर मिलना-जुलना रहा।
अब तक दो कविता संग्रह ‘सफेदी में छुपा काला’ (२००७, उद्भावना) और ‘जैसे फूल हजारी’ (२००९, संवाद प्रकाशन) से प्रकाशित। प्रकाशनाधीन पुस्तक (कुमाऊंनी में ) : ‘कैकि मया बाटुली की’। अपनी मातृभाषा कुमाऊंनी में निरंतर कविताएं लिखते रहे हैं। कविताओं के अलावा कई कहानियां और लघुकथाएं लिखी हैं। बाल साहित्य का भी सृजन किया है। ‘सफेदी में छुपा काला’ के लिए राष्ट्रीय स्तर पर दिया जानेवाला ‘हेमंत स्मृति कविता सम्मान’ (२००७)और महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी का ‘संत नामदेव पुरस्कार’ (२००८) मिला। इसके अलावा ‘कथादेश’ पत्रिका का अखिल भारतीय लघुकथा पुरस्कार (२००९), ‘कादंबिनी अखिल भारतीय लघुकथा पुरस्कार’ (२०१०), फिल्म पत्रकारिता के लिए भारतीय पत्रकार विकास परिषद का ‘हिमांशु राय पुरस्कार (२००९), कहानी के लिए ‘वर्तमान साहित्य कमलेश्वर कहानी पुरस्कार’ (२०१२), ‘रामप्रकाश पोद्दार पत्रकारिता पुरस्कार’ (२०१८), ‘प्रियदर्शिनी पुरस्कार’ (२०१९) मिल चुके हैं।
विभिन्न रचनाओं का मराठी, पंजाबी, उर्दू, कन्नड़, नेपाली, असमिया, बांग्ला, अंग्रेजी आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं।
‘उद्भावना’ पत्रिका के कविता विशेषांक- सदी के अंत में कविता, जनसत्ता-सबरंग के साहित्य विशेषांक, लोकमत समाचार विशेषांक, रचना समय कविता विशेषांक, कथाक्रम युवा साहित्य विशेषांक, विपाशा कविता विशेषांक, नया ज्ञानोदय युवा साहित्य विशेषांक आदि में कविताएं शामिल हैं।
पढ़ते हैं हरि मृदुल की नई कविताएं- राकेश श्रीमाल
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 बारह बजे की तेज धूप थी
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बारह बजे की तेज धूप थी
लेकिन हम बड़ी बदहवासी में अपने मुलुक की ओर
बढ़ चले थे
सडक़ की डामर पिघल रही थी
और उस पर हमारे कदमों के निशान बन रहे थे
झुंड में चल रहे थे हम
और सडक़ों पर हमारी अजीबोगरीब छायाएं पड़ रही थीं
चौराहे पर पहुंचे तो देखा कि सिर पर रखी हमारी गठरियां
दस गुना बड़ी दिख रही हैं
फिर एक मोड़ लेकर दूसरे चौराहे पर पहुंचे, तो देखा कि
हम कितने तो बौने नजर आ रहे हैं!
 
दोपहर की यह धूप हमारी किस्मत की तरह ही न जाने कैसा
खेल रही थी हमारे साथ खेल
हमारे साथ चलतीं हमारी छायाएं तक हमें छल रही थीं
 
तय तो यही किया था कि तडक़े ही निकल पड़ेंगे
हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों के लिए
लेकिन सभी को अपनी-अपनी गठरियां तैयार करने में
वक्त लग गया…
दरअसल हमारा संसार ये गठरियां ही थीं
इसीलिए चंद मिनटों में इन्हें समेटना आसान नहीं था हमारे लिए
गठरियां सिर पर रखने से पहले सौ बातें आईं मन में
सौ बार विचार किया अपने हालात पर
अपनी किस्मत पर सौ दफा सोचा
सौ दफा रोए
सौ-सौ आंसू गिराए
हालांकि इन पर कहां किसी की नजर पडऩी थी
 
पता है कि हजारों किलोमीटर पैदल यात्रा करने के लिए अब हमें आगे
हजार हिकमतें करनी होंगी
हजार दिक्कतों को पार करने के लिए
हजार रास्ते निकालने होंगे
हजार धोखे होंगे
हजार अपमान होंगे
हजार आश्वासन भी होंगे
 
क्या करें, अभी हजार कदम ही चले हैं कि प्यास लगनी शुरू हो चुकी है
बताइए कि क्या इस प्यास को हम अपने पसीने से बुझाएं?
आगे भूख भी लगेगी
फिलहाल तो हमारे पास अपने होंठ चबाने के सिवाय कुछ भी नहीं
.. .. ..
रविवार के दिन ढूंढ़ रहा मैं रविवार
(कोरोना काल के रविवार का हाल)
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सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार और
शनिवार तो नियमित आ रहे
लेकिन रविवार पता नहीं कहां गायब हो जा रहा
 
दो महीने पहले तक तो बड़े धूम के साथ आता था
सोमवार से ही शुरू हो जाता था इंतजार
और शनिवार आते ही इस कदर मुदित हो जाता मन कि
लगने लगता बस अगले ही कदम पर तो है
यह अपना अति प्रिय वार
 
उफ, इस लॉकडाउन में कई कूढ़मगजों ने कई-कई बार कहा है मुझ से
‘वर्क फ्रॉम होम’ के इन दिनों
क्या रवि-क्या सोम
अब तो सातों दिन ही सुकून!
लेकिन सच्चाई तो है एकदम ही उलट कि
आलू-प्याज और अनाज के बीच
कहीं दुबक गए रविवार को मैं
आज फिर ढूंढ़ रहा हूं
पसीने से तर-बतर
.. .. ..
 
 
फिर भी
———
(इस विकट कोरोना काल का एक कातर क्षण)
 
पंखा सरसरा रहा है
पांच नम्बर पर
अपनी अधिकतम सामर्थ्य के साथ
 
फिर भी हवा गायब लगती है
फिर भी पी जाता है कोई न कोई मच्छर
नमक सी निरंतर गल रही देह से खून
बच्चे गहरी नींद में हैं फिर भी
फिर भी बीवी कई बार करवट बदल चुकी है
 
मैं सोया नहीं हूं फिर भी
आंखें मूंद कर पड़ा हुआ हूं
बिस्तर पर चुपचाप
.. .. ..
 
 
कद्दू यानी कि गदू
…………………………
(अपने गांव बगोटी को खूब-खूब याद करते हुए)
 
मुंबई से गए थे उत्तराखंड के अपने गांव
क्या मिला – कद्दू?
हां भई हां, कद्दू ही तो मिला
जिसे हमारे गांव वाले कहते हैं – गदू।
 
शहर से गांव तक पहुंची
वह एक विकास वाली सडक़ थी
एकदम समतल
सलेटी
आश्चर्य कि जरा भी धूल नहीं
शायद हवाएं बुहार ले जाती होंगी
धूल-मिट्टी
बावजूद इसके उस सडक़ पर
कोई भी आता-जाता नहीं दिखा।
 
उदास लग रही थीं झाडिय़ां
बुझे-बुझे से पेड़
बंजर पड़े थे सीढ़ीदार खेत
जिनमें खड़ी थीं
दो-तीन बूढ़ी और अशक्त गाय
बकरियां थीं दर्जनभर
मिमियाती हुई
लेकिन वे ग्वाले कहीं नहीं दिखाई दिए
जिनकी बजाई मुरली की स्वरलहरियां
सुनाई देती थीं मीलों दूर तक
और मन में एक हूक पैदा कर देती थीं
वे बैल भी कहीं नहीं थे
जिनके गले की घंटियों की टुन-टुन
मन मोह लेती थीं
और तत्काल पांव थम जाते थे
 
मैं पैदल ही चलता चला गया
इस साफ-सुथरी सडक़ पर
इस बीच सर्राटे से निकल गईं
एक आल्टो कार और एक जीप।
 
पहुंच गया गांव
तो बड़ा विस्मित हुआ
एक भी बच्चा नहीं दिखा
किसी भी आंगन में खेलता
पीपल के पेड़ के नीचे मिले जरूर
दो-तीन किशोर
लेकिन वे थे अपने-अपने मोबाइलों में मस्त
पता नहीं किस गेम में व्यस्त
 
मैं किसी तरह एक चट्टान पर चढ़ा और
एक लंबी-गहरी सांस ली
एक नजर गांव पर डाली
पैंतीस-चालीस घर थे पाथर वाली ढलवा छतों के
उनमें भी ज्यादातर बंद
उजाड़
ढहे
हां, इन्हीं के बीच ऐसे कुछ घर थे
जिनके ऊपर धीरे-धीरे उठ रहा था धुआं
इन घरों की छतों पर थे कतार से रखे कई-कई कद्दू
गहरे गेहुंआ रंग के पके गदू
 
मैं देखता ही रह गया
ये मुझे जितने चकित कर रहे थे
उतने ही मुग्ध भी
 
इन्हीं घरों में एक मेरा पैतृक घर था
धूसर रंग में डूबा
बेहद उदास
 
देहरी में खड़े थे बूबू
हथेली की ओट से देखते
शायद उनकी आंखों में बहुत कम बची थी रोशनी
वह मुझे आवाज से पहचानने की कोशिश कर रहे थे
लेकिन आमा ने तो गाल छूकर ही पहचान लिया था मुझे
 
नाती-ओ नाती मेरे
कितने वर्षों के बाद आया तू
कितने समय बाद देखा तुझे
कुछ पल दोनों ही नि:शब्द रोते रहे मुझे बाहों में भर
फिर तो कितने ही गांवभर के बूबू आए मिलने
कितनी ही आमाएं
शायद ही कोई बुजुर्ग बचा हो
जिसने मुझे आशीष न दिया हो
दुलारा न हो
कितनी तो बातें
कितने ही बचपन के किस्से
ना जाने कब शाम ढली
और ना जाने कब रात हो गई
 
अब तक तो लग आई थी भूख
बहुत तेज भूख
कि तिर आई तभी नथुनों में एक बेसब्र करती गंध
गरम पूडिय़ों के साथ परोसी गई थी छांछ पड़ी
गदू की सब्जी
स्वाद ऐसा अपूर्व कि मुझे बचपन के दिनों में पहुंचना ही था…
 
बूबू ने मेरी थाली की ओर एक
गहरी नजर डाली और पूछा कि कम तो नहीं हो रहा नमक
और फिर बिखरते-बिलखते से स्वर में कहा –
उजड़ रहे इस गांव में पाहुनों के बीच हमारी लाज
रखी है इसी गदू के साग ने…
 
इतना कह बूबू एकदम चुप्पी साध गए थे
इधर मैं गदू के साग में
अपने आंसुओं का नमक मिला रहा था
.. .. ..
 
 
सडक़ थी कि विलाप करती जाती थी
………………………………………………….
पहली बार ही जेसीबी मशीन देखी थी
गांव वालों ने
पहली बार ही गांव में आई थी सडक़
पहली बार ही सीढ़ीदार खेत
सडक़ में तब्दील हुए
पहली बार ही वर्षों पुराने पेड़
पल भर में जड़ से उखाड़ दिए गए
पहली बार ही चली थी विकास की ऐसी आंधी
इसीलिए किसी को भी कुछ कहते या करते नहीं बना
 
लेकिन यह क्या कि
इतने वर्षों के बाद गांव पहुंची यह सडक़
दरअसल पलायन की सुगम राह बन गई थी
अब इसी सडक़ से जा रहे थे लोग एक-एक कर
घर-बार छोड़-छाड़ कर
अपने-अपने घरों में ताला जड़ कर
यह सामूहिक रुदन का करुण दृश्य था
बावजूद इसके कोई भी तो रुकनेवाला नहीं था
इस उलटबांसी के कई गंभीर परिणाम होने तय थे
लेकिन इन संकेतों को समझाने वाला कोई न था
 
सडक़ थी कि चुपचाप सर धुनती थी
और विलाप करती जाती थी
.. .. ..
 
 
 
 
मटर की फलियों के बहाने
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उंगलियों को देख रहा हूं कभी
कभी मटर की फलियों को देख रहा हूं
उधड़ चुकीं जो फलियां
उनके दानों को देख रहा हूं
उन चपल नैनों को देख रहा हूं
जिनमें मोती से बिखरे हरे मटरों की छाया है
उस चेहरे को देख रहा हूं
जिसमें मटर के हरे कीड़े के प्रति भी
दया है
मैं मटर की फलियां लेने के बहाने
उंगलियां छूना चाहता हूं
फिर उंगली पकडक़र
दिल तक पहुंचना चाहता हूं
.. .. ..
 
 
 
 
पचास साल के एक युवा की गजल प्रस्तुति
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मंच पर सात हास्य कवियों-कवयित्रियों के साथ विराजित था
वह आठवां एकमात्र गजलगो शायर
युवा रचनाकार
जैसा कि उसके जोरदार ताली बजाऊ परिचय में बताया गया
 
जिसे युवा गजलकार कहा जा रहा था
उसके प्रति मेरी जिज्ञासा का एक कारण यह भी था कि
वह पचास से कम का तो कतई लग नहीं रहा था
 
अब तक दो हास्य कवयित्रियां और दो हास्य कवि
थोड़े कम पुराने चुटकुलों की तुकबंदी एक बहुत पुरानी धुन में सुनाकर
अपनी जगह बैठ चुके थे
इसके बाद नंबर आया इस तथाकथित युवा शायर का
जो बढ़ी हुई तोंद में भी बड़ा बांका बना हुआ था
 
अब तक जैसी कि मेरी धारणा बन चुकी थी
उसके मुताबिक ही उसकी शायरी
अति हास्यास्पद निकली
लेकिन उसकी देहभंगिमा थी खासी मनोरंजक
यही एक वजह थी कि हास्य कवि-कवयित्रियों के साथ भी
उसकी उपस्थिति थी बेहद रोचक
 
जब वह गजल सुनाने को हुआ
तो बड़ी अदायगी से उसने कहा –
एक शेर कह रहा हूं पहले
जिसकी आमद बस अभी-अभी हुई है
तो मुलाहिजा फरमाइए…
 
शेर सुनाने से पहले उसने एक-एक कर
अपने दोनों कान छुए
फिर पता नहीं क्यों गले में हाथ फेरा
कुछ देर के लिए छाती में रखा हाथ
जिसे जल्द ही कमर तक ले गया खास अंदाज में
इसके बाद उसने बिखरे बालों को झटक कर सहेजा
और फिर शेर पढऩा शुरू किया…
 
हालांकि इसे शेर पढऩा तो कतई नहीं कहेंगे
वह तो गा रहा था किसी कव्वाल के सुर में
उसके हाथों के संचालन से लग रहा था कि मानो वह कोई जादू
दिखाने की कोशिश कर रहा हो
हवा में हाथ लहराना
फिर मुट्ठी भींचना
मुक्का तानना…
यह क्या कि देखते ही देखते वह
किसी मसखरे में तब्दील हो गया था
 
बहुत खूब जनाब
वाह, क्या कहने हुजूर
इरशाद… इरशाद…
महफिल लूट ली भाई
फिर से पढि़ए
मुकर्रर… मुकर्रर…
जैसी आवाजें आतीं
इससे पहले मैं वहां से चुपचाप खिसक लिया
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इस प्रस्तुति के रेखांकन: सीरज सक्सेना
सीरज सक्सेना मिट्टी और रंग, दोनों में काम करते हैं। यानी शिल्प गढ़ते हैं और चित्र रचते हैं। उन्होंने दोनों माध्यम में अपने रूपाकारों से, पिछले कुछ वर्षों में एक विशिष्ट पहचान बनाई है। वे व्यर्थ के प्रयोग करने से बचते हैं, लेकिन हर ‘सामान्य’ को ‘विशिष्ट’ समझने की दृष्टि रखते हैं। उनकी रचनाधर्मिता में प्रकृति से सीधा सम्बंध देखा जा सकता है, पर ये प्रकृति की नकल नहीं है। यह प्रकृति की वैसी प्रकृति नहीं है, जो निकट से देखने पर होती है। यह उनके चित्रों की प्रकृति है। दरअसल उनके काम प्रकृति के ही बहुआयामी ‘चेहरे’ हैं, जिनकी भिन्नता वास्तव में कलाकार के भाव की भिन्नता है।
           अपने शिल्प गढ़ने और चित्र उकेरने के बारे में उनका कहना है– “एक अच्छा चित्र हमेशा अपने अर्थ को पूरी तरह और आसानी से उजागर नहीं करता। वह हर बार देखने पर कुछ नया बतलाता है। हम जो भी देखते हैं, वह कहीं न कहीं हमारी याद से टकराता है और तब वह स्मृति में स्थायी तौर पर ठहरता है।”
             सीरज उनके चित्रों के अर्थ के बारे में स्पष्ट करते हैं कि ‘मेरे चित्र एक ही तरह का अर्थ प्रकट नहीं करते हैं। यूँ भी चित्र अपना अर्थ स्वयं ही प्रकट करता है। एक ही चित्र को देखने के अलग-अलग तरीके हो सकते हैं या एक ही चित्र भिन्न समय पर देखने पर भिन्न अर्थ प्रकट कर सकता है।’
              लिखना सीरज के लिए एक ऐसा व्यक्तिगत और आत्मिक धैर्य है, जो शब्दों की दुनिया में एक अलग गरिमा के साथ उन्हें उपस्थित करता है। पीयूष दईया से सम्वाद की एक पुस्तक ‘सिमिट सिमिट जल’, जनसत्ता में प्रकाशित टिप्पणियों का एक संकलन ‘आकाश एक ताल है’ और विदेश की कला यात्राओं पर केंद्रित ‘कला की जगहें’ प्रकाशित हुई हैं। जल्दी ही सम्भावना प्रकाशन से उनकी पूर्वोत्तर की साइकिल यात्रा की डायरी प्रकाशित होने वाली है। उनकी कविताओं का एक संकलन ‘नई किताब’ से प्रकाशाधीन है। हालांकि पिछले मौसम से नई कविताएं उनसे दूर चली गई हैं।
             अभी तक देश-विदेश में उनकी 27 एकल नुमाइश हुई हैं और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के बड़ी संख्या के ग्रुप शो में उनकी भागीदारी उनके समवयस्क कलाकारों को विस्मित करती है। उन्होंने स्पेन, दक्षिण अफ्रीका, ताईवान, पोलैंड, यूक्रेन, चीन, लिथुआनिया, लातविया, जापान, इंडोनेशिया, भूटान इत्यादि देशों की कला यात्रा की है, जिसमें उनकी प्रदर्शनी, केम्प, वर्कशॉप, आर्टिस्ट रेसीडेंसी आदि रहे हैं। उन्हें क्रिकेट और अन्य खेलों में रुचि है। उनके लिए कलाकर्म और खेल, दोनों ही समय से बाहर ले जाने की प्रक्रिया है। जाहिर है, इस समय में रहते हुए भी वे इस समय को अपने सृजन में घटते देखते रहते हैं।
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राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलवार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
 
 
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  1. कविता शुक्रवार में हरी मृदुल जी की कविताओं के साथ अपने रेखांकन पढ़ने – देखने का यह अवसर जानकीपुल के मार्फ़त मिला। ये रेखांकन हाल ही में बने हैं। प्रिंटेड कागज पर पेन्सिल और रंगीन स्याही का इस्तेमाल इन रेखांकनों को बनाने में किया गया हैं। कविताओं के साथ रेखांकन का यह प्रयोग सराहनीय हैं। कविता कभी शाब्दिक यथार्थ से हट कर रेखांकनों के कागज़ी भूगोल में आकर टहलती हैं तो कभी किसी पंक्ति या शब्द पर रेखा राह में बिखरे फूल और पत्तों सी बिखर जाती हैं। इस कविता शुक्रवार सेतु की रचना कवि सम्पादक कला प्रेमी श्री राकेश श्रीमाल जी ने की हैं।एक सिरे से दूसरे रेशे को जोड़ने का काम वे बखूबी करते हैं। जानकीपुल,राकेश जी और कवि हरी मृदुल जी का आभार जिनकी कवितायेँ पढ़ कर बहुत दिनों बाद घर से निकल गांव,पहाड़,सड़क पर, शहर से बाहर जाने की सुखद यात्रा का अनुभव हुआ। उनकी इन सात कविताओं जिनमे लौटना (प्रवास या पलायन),उदासी,एकांत,सार्थकता की विफल तलाश,नई और सूनी सड़क पर झरता जीवन,बिना भूगोल के पनपता प्रेम,आडंबर की आंधी में खुद को संभालती व प्रश्नांकित करती मनुष्यता आदि अनुभवों की बयार को अपने एकांत में ठिठके हुए हम पढ़ते हैं इन कविताओं में। हर कविता एक दृश्य अनुभव से सात  (अनेक) चित्र उकेरती हैं धूसर केनवास पर। इस पोस्ट के साथ मेरा पोर्ट्रेट अभी तीन दिन पहले ही चित्रकर मित्र त्रिभुवन देव जी के कैमरे (canon 1DX Mark 2) से लिया गया हैं। जिनसे  मैं पर्याप्त सामजिक दूरी बनाते हुए मिला था। उस दोपहर तेज़ धूप में पेड़ पर हरा रंग बहुत प्रकाशित और खिला था और हरे की परछाईं हरे में ही घुल रही थी। कुछ गिलहरियां इधर उधर बिना दिशा ज्ञान के दसों दिशाओं में रच रही थीं कुछ अदृश्य रेखाएँ।  आप सभी का आभार। सीरज सक्सेना।   

  2. सभी कविताओं का निहितार्थ हृदय को अपने-अपने कोण से स्पर्श करता है, लेकिन ‘बारह बजे की तेज धूप थी’, ‘कद्दू यानी कि गदू’ और सड़क थी कि विलाप करती जाती थी’ भीतर तक वेधती हैं ।फलतः आंखों के नौले यानी कि जल-कुंड डबडबा उठते हैं। सम्वेदनाओं के अंकुरों को जगा देती हैं ये कविताएं। कवि मृदुल जी और जानकी पुल का आभार इन कविताओं को पढ़ाने के लिए।

  3. सभी कविताएँ मन को अन्दर तक छू लेती हैं | ‘कद्दू यानी कि गदू’ पढकर मन में कुछ घनिभूत होता सा महसुस हुआ | हरी मृदुलजी और जानकीपुल का आभार |

  4. I believe these are “Homophones,” and they are going to be on the CA Certified Legal Secretary exam I am scheduled to take in March, 2020.So once again, One Legal, thank you for touching down on the very material that every legal professional can use and benefit from.

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  3. Pingback: kingmaker ไฮโล

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