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ठगिनी नैना क्यों झमकावै

माताहारी का नाम हम सुनते आए हैं। उसकी संक्षिप्त कहानी लिखी है त्रिलोकनाथ पांडेय ने। त्रिलोकनाथ जी जासूसी महकमे के आला अधिकारी रह चुके हैं। अच्छे लेखक हैं। आइए उनके लिखे में माताहारी की कहानी पढ़ते हैं-

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साल 1917 की बात है. अक्टूबर महीने की 15वीं तारीख की अल-सुबह जब पेरिस शहर अभी अलसियाया हुआ सोया ही था,  एक बख्तरबंद गाड़ी ला सोंते जेल से शहर के बाहर बसे वनसेन नाम की एक बस्ती की ओर बड़ी तेजी से दौड़ी जा रही थी. गंतव्य पर पहुँचते ही गाड़ी से एक पादरी, दो नन, एक वकील और कुछ अन्य लोग उतरे. अंत में उतरी गहरा नीला ओवरकोट पहने और सिर पर हैट लगाए 41-वर्षीय एक खूबसूरत महिला.

बारह फ़्रांसीसी सैनिकों का एक दस्ता अपनी बंदूकें सम्हाले बड़ी मुस्तैदी से पंक्तिबद्ध वहां खड़ा था. पंक्ति के एक छोर पर उनका अफसर हाथ में एक नंगी तलवार लिए तैनात था. सब के सब बड़े तनाव में दिख रहे थे.

महिला एकदम निर्भय और निर्विकार थी. दोनों ननें उसके अगल-बगल खड़ी थीं. वे अलबत्ता बड़ी बेचैन दिख रही थीं. पादरी उस महिला से बहुत आदर और आहिस्ते से कुछ कह रहा था. महिला का ध्यान उसकी बात पर न होकर जैसे कहीं और ही था.

इसी बीच, सैनिकों की पंक्ति से एक वरिष्ठ सैनिक उनके पास पहुंचा और एक नन को सफेद कपड़े की एक पट्टी देते हुए बड़ी मुलायमियत से बोला, “मैडम की आँख पर बाँध दीजिये.”

“यह जरूरी है?” महिला ने दखल देते हुए धीरे से पूछा. यह पहली बार था जब महिला ने वहां अपना मुंह खोला था.

“आपकी मर्जी,” सहमे सैनिक ने हकलाते हुए कहा.

महिला ने फिर बोलने की जहमत न उठाई. हाथ के इशारे से मना कर दिया कि उसकी आँख पर पट्टी न बाँधी जाय. उसे अपनी बड़ी-बड़ी कजरारी आँखों की जादुई शक्ति में हमेशा विश्वास था. जाते-जाते वह अपनी आँखों का आकर्षण कम न होने देना चाहती थी.

महिला के अदम्य साहस से सहमा सैनिक अपनी पंक्ति में चुपचाप लौट गया.

आगे-आगे पादरी, उसके पीछे वह महिला, महिला के अगल-बगल दोनों ननें और सबसे पीछे उस महिला का वकील चुपचाप कुछ ही दूरी पर गड़े एक खम्भे की ओर चले. घबडाया हुआ पादरी शांत दिखने की कोशिश कर रहा था, लेकिन ननों की घबराहट साफ़ दिख रही थी. महिला की चाल में गजब की गरिमा थी. वह सचमुच गजगामिनी थी. वह एकदम भावहीन थी. भावनाएं यदि उमड़ती रही होंगी तो बड़ी चुपके से उस महिला के मन जिसका कोई चिह्न उसके चेहरे पर परिलक्षित न हो रहा था.

खम्भे के पास पहुँचने पर एक सैनिक ने आगे बढ़ कर जब उस महिला के दोनों हाथ खम्भे से बाँधने चाहे तो उसने उन्हें सिर हिला कर मना कर दिया. अब तक चुप चला रहा वकील महिला की इच्छा का सम्मान करने का संकेत करते हुए सैनिक को वहां से हट जाने का संकेत किया. पादरी ने बुदबुदाते हुए कुछ पाठ किया; महिला ने पादरी के समक्ष सिर झुकाया जिस पर वह अपना हाथ रख कर कुछ बुदबुदाता रहा और फिर क्रॉस बनाते हुए पीछे खिसकना शुरू किया. खम्भे के पास उस महिला अकेला छोड़ कर सब के सब वापस अपने-अपने स्थान पर लौट गये.

अब अपने को नितांत अकेला पाकर उस महिला की आँखों में करुणा और सम्मोहन के मिश्रित भाव उभर आये. इन आँखों से जब उसने वहां पंक्तिबद्ध सैनिकों को एकटक निहारना शुरू किया तो उन पर जैसे सम्मोहन पसर गया. महिला की नजर जब सैनिकों के अफसर पर टिकी तो वह एकदम घबड़ा गया. उसके हाथ काँपने लगे. उस अधिकारी की दयनीय स्थिति देख कर उस महिला ने विदाई अभिवादन के तौर पर अपना एक हाथ हिलाते हुए उसकी ओर एक फ्लाइंग किस उछाल दिया.

     वह अधिकारी महिला के सम्मोहन में एक क्षण के लिए एकदम मुब्तिला हो गया, किन्तु अगले ही पल वह अपने कर्तव्य के प्रति सचेत हो गया. अब वह एक क्षण भी गंवाना नहीं चाहता था. वह समझ गया कि यदि वह अब चूका तो फिर महिला के सम्मोहन में गिरफ्त हो जायेगा. वह जोर से चिल्लाया, “निशाना”. उसके हाथ की तलवार हवा में तन गयी. उसके बारहो सैनिकों की बंदूकें एक साथ उठकर उस महिला को निशाने पर ले लीं. घबराहट में अफसर फिर चिल्लाया “फायर” और इसके साथ ही उसने तेजी से तलवार नीचे लटका दिया. बारहों बंदूकें एक साथ गरजीं और महिला अपने घुटनों के बल लुढ़क गयी.

     अफसर ने तलवार म्यान में रखी और एक सैनिक को साथ ले उस महिला की ओर लपका. महिला भूलुंठित हो चुकी थी, किन्तु उसका सिर आसमान की ओर तना हुआ था. जैसे उसने मृत्यु के सामने भी सिर झुकाने से इन्कार कर दिया हो. अफसर ने झुक कर उस महिला की हालात का जायजा लिया और यह जानते हुए भी कि वह महिला अब इस संसार से कूच कर गयी है उसने कांपते हुए हाथों से अपनी पिस्तौल का निशाना महिला के तने हुए सिर पर लेते हुए कई गोलिया दाग दीं. महिला का सिर उड़ गया.

     उगता सूरज दूर आसमान से इस पूरी घटना को देख रहा था.

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     उस महिला का नाम था माताहारी. माताहारी उसका असली नाम न था. उसका असली नाम था मार्गरेटा गीरट्रुइडा जेले. जन्म हुआ था 1876 में हॉलैंड में एक टोपियों के व्यवसायी के घर, जो बाद में तेल का व्यवसाय करके बड़ा धनी हो गया. लेकिन, अफ़सोस कि मार्गरेटा को 13 साल का होते-होते उसके बाप के तेल का व्यवसाय चौपट हो गया और परिवार गरीबी की चपेट में आ गया. दो साल बाद माँ भी गुजर गयी. मजबूरन, मार्गरेटा को एक स्कूल में किंडरगार्टन शिक्षिका बनने का प्रशिक्षण लेने के लिए जाना पड़ा. 16 साल की उम्र में वह उसी स्कूल में टीचर बन गयी, लेकिन स्कूल के हेडमास्टर के साथ नैन-मटक्का करने के आरोप में उसे स्कूल से निकाल दिया गया.

     स्कूल से निकाले जाने के बाद मार्गरेटा हेग भेज दी गयी अपने एक रिश्तेदार के यहाँ. वहां वह थोड़े ही दिनों रही. उसका का मन थिर न था. मौजमस्ती की चाहत मार्गरेटा के मन में गहरी समायी हुई थी. इस चाहत के चलते उसमें दुनिया घूमने की ललक जाग उठी और वह वहां से भी भाग निकली.

घूमते-घामते मार्गरेटा जावा (वर्तमान इंडोनेशिया का एक द्वीप) जा पहुंची, जिस पर उन दिनों डच लोगों का शासन था. बड़ी संख्या में डच रॉयल आर्मी इंडोनेशिया में तैनात रहती थी, जिसकी भिडंत जनजातीय विद्रोहियों, खासकर जावा वासियों, से होती रहती थी. जिस वक्त मार्गरेटा जावा पहुंची वह अठारह साल की जवान, सुंदर और आकर्षक युवती के रूप में विकसित हो चुकी थी.

एक दिन एक स्थानीय अखबार में छपे विज्ञापन के जवाब में मार्गरेटा ने शादी का प्रस्ताव भेजा. विज्ञापन था डच रॉयल आर्मी के एक 39-वर्षीय कैप्टेन का, जिसका नाम था रुडोल्फ मैकलोयड. मामला पट गया और 18 साल की मार्गरेटा 39 साल के रुडोल्फ के साथ शादी के बंधन में बंध गयी.

शादी के बंधन में बंधने के बावजूद मार्गरेटा एक व्यक्ति में बंधी न रह सकी. सेना के युवा अधिकारियों संग वह चटक-मटक करती रहती. इस दौरान उसे दो बातों का एहसास होने लगा. पहली बात तो यह कि उसकी सुन्दरता और जवानी में गजब का जादू है और यह जादू लोगों के सिर चढ़ कर बोलता है. दूसरी बात यह कि वह इस जादू में अपार वृद्धि कर सकती है यदि वह नृत्यकला सीख कर लोगों को रिझाने में माहिर हो जाय. परिणामस्वरूप, वह स्थानीय जावा नृत्य सीखने लगी.

इधर, शुष्क और शक्की स्वाभाव के उसके पति को यह सब बिलकुल नापसंद था. वह उस पर कड़ी नजर रखता. इन सब बातों से बेपरवाह मार्गरेटा देर रात तक युवा फौजी अफसरों के साथ मौज-मस्ती करती और दिन में नृत्य सीखने के नाम पर इधर-उधर आवारागर्दी करती. यह उसके पति रुडोल्फ के पौरुष को खुली चुनौती थी. यद्यपि इस बीच इस जोड़े को दो बच्चे भी हो गये – एक बेटा और एक बेटी, लेकिन मार्गरेटा के चाल-चलन में कोई बदलाव न आया.

रुडोल्फ पहले से ही पियक्कड़ था. मार्गरेटा से चिढ़ कर अब वह और पीने लगा. साथ ही, गुस्से में वह मार्गरेटा से मारपीट भी करता था. धीरे-धीरे यह रोज की बात हो गयी. हद तो तब हो गयी जब रोज-रोज के किच-किच के बीच दो साल का बेटा एक दिन गुजर गया और छोटी बच्ची गंभीर रूप से बीमार पड़ गयी. मार्गरेटा इस शादी से एकदम परेशान हो गयी. अन्ततः, दोनों में तलाक हो गया.

तलाक मिलते ही मार्गरेटा भाग कर पेरिस पहुंची, जहाँ उसने वेश्यावृत्ति का धंधा अपना लिया. अब वह 27 साल की प्रौढ़ युवती बन चुकी थी. जल्दी ही उसे पेरिस के नाईटक्लबों में नाचने का अवसर मिल गया. इस अवसर का मार्गरेटा ने भरपूर फ़ायदा उठाया. उसने अपना नाम बदल कर माताहारी कर लिया और अपने बारे में तरह-तरह की कहानियाँ फैलाया.

माताहारी ने प्रचारित किया कि उसका जन्म एक हिन्दू राजपरिवार में हुआ था, लेकिन एक राजकुमारी के रूप में पालन-पोषण होने बजाय वह एक हिन्दू देवालय के पवित्र वातावरण में पली-बढ़ी. वहीं पर उसे मंदिर की पुजारिनों ने प्राचीन भारतीय नृत्य-शैली में प्रशिक्षित किया. मंदिर में एक बार एक गुप्त कर्मकांड का आयोजन हो रहा था. इस आयोजन के दौरान देवों को प्रसन्न करने के लिए एक रहस्यात्मक शास्त्रीय नृत्य चल रहा था. इस कार्यक्रम में नवप्रशिक्षित किशोरी के एकल नृत्य की दिव्यता को देख कर प्रधान पुजारी इतना अभिभूत हुआ कि वह थोड़ी देर के लिए समाधि में चला गया. समाधि टूटने पर पुजारी किशोर नर्तकी की ओर आविष्ट-सा एकटक देखता रहा और अंततः उसके मुंह से निकला – माताहारी. मलय भाषा का यह शब्द ही उस किशोरी नर्तकी को नाम के रूप में दिया गया, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है – दिन की आँख, अर्थात सूर्य. बाद में इस शब्द की व्यंजना स्वर्णमयी आभा वाली दिव्यता के रूप में की गयी. कहते हैं कि वह प्रधान पुजारी एक सिद्ध पुरुष था और उसने अपनी दिव्यदृष्टि से माताहारी के भीतर छुपी दिव्यता को पहचान लिया था. इन कहानियों से माताहारी ने पूरे यूरोप में अपने बारे में एक रहस्यमयी पवित्र आभामंडल रच देने में जबरदस्त सफलता पाई.

असल में माताहारी ने जावा की स्थानीय नृत्य शैली थोड़ी-बहुत सीखी थी. उसने उसी में व्यापक संशोधन कर उसे अत्यंत उत्तेजक बना दिया, और दावा किया कि वह नृत्यशैली पूर्व की अत्यंत पवित्र और प्राचीन नृत्यविधा है, जिसे गुप्त धार्मिक कर्मकांडों के दौरान सम्पन्न (परफॉर्म) किया जाता है.

चमचमाते मणि-माणिक्यों से जड़ी टीआरा (किरीट) सिर पर धारण कर, मोतियों से बनी कंचुकी (चोली) में अपने सुपुष्ट और सुडौल स्तनों को कसे और उत्तेजक ढंग से दोलायमान अपने प्रशस्त नितम्बों को सुनहरे  किन्तु संक्षिप्त वस्त्र में लपेटे माताहारी जब अपनी साथी नर्तकियों के साथ मंच पर अवतरित होती थी तो लगता था जैसे वह कोई प्राचीन भारतीय स्वप्नसुंदरी या स्वर्ग से उतारी कोई अप्सरा हो. प्राचीन भारतीय वाद्य-यंत्रों की मादक और रहस्यमय ध्वनि के बीच वह सखियों संग विचित्र नृत्य करती थी. नृत्य करते-करते वह अपने कपड़े उतारती जाती थी और अंततः एक दम नंगी हो जाती थी. इन नृत्यों को वह भारत का प्राचीन तांत्रिक नृत्य कहती थी और दावा करती थी कि उसका नृत्य अत्यंत पवित्र है.

माताहारी के नृत्य कार्यक्रमों में सबसे मशहूर और आकर्षक था नटराज की मूर्ति के समक्ष नृत्य. नटराज के समक्ष सिर झुका कर जब वह नाचना शुरू करती थी तो एक दिव्य दृश्य उत्पन्न हो जाता था. नृत्य शुरू करते समय जो दैवीय आभा माताहारी ओढ़े रहती थी, नृत्य ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता उसे उतारती जाती थी. लगता था जैसे किसी देवी का मानुषी रूप प्रकट हो रहा है. अंततः वह सारे आवरण उतर कर विशुद्ध प्राकृतिक रूप में नटराज के चरणों में प्रणिपात की मुद्रा में लोट जाती थी.

माताहारी अपने नृत्य को फ्रेंच, डच, जर्मन, अंग्रेजी और मलय भाषाओँ में व्याख्यित करती, “मेरा यह नृत्य एक पवित्र काव्य है. इसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश की सृष्टि, पालन और संहार की आध्यात्मिकता का लय झंकृत होता है….” इससे वह अपनी नग्नता और कामुकता को अद्भुत आध्यात्मिक और कलात्मक मोड़ देने सफल हो जाती. प्राचीन मंदिरों के धार्मिक कर्मकांडों के दौरान किया जाने वाला नृत्य बता कर वह अपने कामुक क्रियाकलापों को तत्कालीन अश्लीलता क़ानून के दायरे में आने से साफ़ बचा ले जाती थी.

माताहारी का यह नृत्य और नंगापन देखने को, स्त्री-देह के लिए भूखे लोगों, खास कर फौजी अफसरों, की भीड़ लग जाती थी. माताहारी इन्हें बड़ी आसानी से बेवकूफ बना देती थी. ये वे लोग थे जिन्हें प्राचीन भारतीय नृत्यकला या रहस्यात्मक आध्यात्मिकता की कोई समझ न थी. वे माताहारी के सिर्फ सेक्स अपील से मदहोश थे.

बड़ी-बड़ी काली और कामुक आँखों वाली इस सुन्दरी के प्रेमियों की एक लम्बी जमात खड़ी हो गयी, जो उसकी मोहक मुस्कान और कटीले नैनों की मार पर कुछ भी न्यौछावर करने को तैयार थे. इनमें कुलीन परिवारों के लोग, राजनयिक, धनाढ्य बनिये, बड़े व्यापारी और उच्च फौजी अफसर थे. ये लोग माताहारी के वैभव और विलासता पूर्ण रहन-सहन, वस्त्राभूषण और धन का प्रबंध करते थे. वर्षों वह इन सुख-सुविधाओं का मजा लेती हुई, रति-सुख बांटती हुई, स्वैरिणी बन यूरोपीय देशों की राजधानियों में जगह-जगह अपने नृत्य-कार्यक्रम पेश करती हुई घूमती रही. पूरे यूरोप में उसने अपने नृत्य के डंके बजा दिए. रूस से लेकर फ़्रांस तक जहाँ भी वह जाती उसका नृत्य देखने के लिए भारी भीड़ टूट पड़ती.

धीरे-धीरे माताहारी की उम्र बढती गयी. ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती गयी, लोगों में माताहारी के नृत्यों की लोकप्रियता घटने लगी. लेकिन अभी भी वह धनी लोगों और उच्च अधिकारियों की चाहत बनी हुई थी. उसकी उमर लगभग 38 साल हो गयी थी, फिर भी उसमें देह-सुख खोजने वाले प्रेमियों की कोई कमी नहीं थी. उसके ऊपर अपार धन लुटाने वाले कम न हुए थे. लगभग उसी वक्त 1914 में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया, जिसमें दुनिया के कई देश कूद पड़े. फ्रांस भी उनमें से एक था. युद्ध के कारण फ्रांस की साधारण जनता बड़े अभावों की जिन्दगी काटने पर मजबूर हो गयी. साधारण परिवारों के लोग सैनिक के रूप में युद्ध में कूदने को मजबूर हो गये. लेकिन, माताहारी के विलासतापूर्ण रहन-सहन और शान-शौकत में कहीं कोई कमी न आई. उच्च धनाढ्य वर्ग और शक्तिशाली अधिकारियों को लुभा कर वह अभी भी खूब कमा रही थी. जन सामान्य में माताहारी के वैभव और विलास के विरुद्ध रोष उत्पन्न होने लगा.

ऐसी दारुण स्थित से बच निकलने के लिए माताहारी एक धनी डच व्यापारी प्रेमी के संग फ्रांस से भाग कर हॉलैंड के शहर हेग पहुँच गयी. यहाँ उसके प्रेमी ने एक विशाल भवन में बहुत सारी सुख-सुविधाओं के बीच उसे ठहरा दिया. लेकिन, माताहारी एक जगह कहाँ टिक कर रहने वाली थी! वह एक बार फिर भाग खड़ी हुई – उन्मुक्त स्वैरिणी की भांति स्वच्छंद विचरण करने के लिए. उसने फिर से यूरोप के विभिन्न शहरों में अपने नृत्य-कार्यक्रम पेश करने शुरू किये.

यद्यपि प्रथम विश्व युद्ध छिड़ा हुआ था, लेकिन अपने नृत्य-कार्यक्रमों के सिलसिले में माताहारी यूरोप के विभिन्न देशों में बार-बार आती-जाती रहती थी. इनमे से कई देश इस युद्ध में संलग्न थे, लेकिन माताहारी का मूल देश हॉलैंड इस युद्ध में तटस्थ था. एक तटस्थ देश की नागरिक होने के नाते उसे किसी भी देश में आने-जाने में कोई रोक न थी.

यहीं माताहारी के जीवन में एक निर्णायक मोड़ आ गया जब हॉलैंड में स्थित जर्मन दूतावास का कार्ल क्रोमेर नाम का एक राजनयिक माताहारी के संपर्क में आया और चुपके से उसके समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि उसे वह भारी धनराशि देगा यदि वह अपने नृत्य-कार्यक्रमों के सिलसिले में भ्रमण के दौरान कुछ गुप्त सूचनाएं एकत्र कर उसे देगी. माताहारी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. उसके ग्राहकों में कई देशों के उच्च सरकारी और फौजी अधिकारी शामिल थे, जो उसका अश्लील नृत्य और नग्न शरीर देख कर उसके साथ सम्भोग के लिए उन्मत्त हो जाते थे. इन्हीं उन्मत्त अफसरों से सम्भोग के दौरान वह कई गुप्त खबरें पूछ लेती थी, और बाद में अपने जर्मन हैंडलर को बता देती थी.

अब माताहारी की उम्र 40 की हो गयी थी. उसके शरीर की लोच और चपलता की जगह अब स्थूलता ने लेना शुरू कर दिया था. उसके प्रेमीगण अब उसका नृत्य देखने के बजाय उसका शरीर भोगने में ज्यादा इच्छुक रहने लगे. ऐसे ही समय वह अपनी उमर से लगभग आधी उमर के एक रुसी फौजी अफसर को दिल दे बैठी, जो मित्र देशों की संयुक्त सेना में फ्रांस की ओर से लड़ने को नियुक्त था. दुर्भाग्य से, उस 21-वर्षीय रुसी कैप्टेन, जिसका नाम व्लादिमीर द मासलाव था, की तैनाती जल्दी ही सीमा पर हो गयी. युद्ध के दौरान मासलाव की एक आँख जाती रही और दूसरी आँख में भी गम्भीर चोट पहुंची थी. इस नौजवान अफसर को माताहारी इतना प्यार करने लगी थी कि उसके संग शादी रचा कर घर बसा लेने का मन बना लिया था. अपने घायल प्रेमी के विशेष इलाज के लिए माताहारी पैसे जुटाने में लग गयी.

इसकी भनक लग गयी जार्ज लडू को, जो फ्रांस के मिनिस्ट्री ऑफ़ वार के अंतर्गत नए-नए बने काउंटर-एस्पिओनेज यूनिट का चीफ था. माताहारी की पैसे की जरूरत का लाभ उठाने के लिए लडू ने चुपके से उससे संपर्क किया और पैसे के बदले जर्मनों की जासूसी करने को उससे कहा. मजबूरी में माताहारी तैयार हो गयी. अब वह चुपके से डबल एजेंट बन गयी.

माताहारी जर्मन उच्चाधिकारियों में पैठ बना कर उनसे गुप्त बातें पता करने और उन्हें फ्रांसीसियों को बताने की कोशिशें करने लगी. यह 1915 की बात है. उसी साल दिसम्बर में हॉलैंड से फ्रांस लौटते समय फोकस्टोन नामक ब्रिटिश बन्दरगाह पर यात्रियों की भीड़ में भी ब्रिटिश इंटेलिजेंस सर्विस के एक अधिकारी की नजर माताहारी पर पड़ी और उसके हाव-भाव से उसे शक हो गया. पूछताछ के लिए माताहारी लन्दन लायी गयी, जहाँ उसने स्वीकार किया कि वह फ्रांस के लिए जासूसी करती है.

वहां से छोड़े जाने पर वह पेरिस वापस लौट आई. इस बीच यह खबर फ्रांसीसी इंटेलिजेंस एजेंसी को मिल चुकी थी. फ्रांसीसियों को माताहारी पर शक होने लगा कि कहीं वह उन्हें बेवकूफ तो नहीं बना रही है और वास्तव में जर्मनों के लिए काम करती है. जार्ज लडू, जिसने माताहारी को जर्मनों की जासूसी के लिए लगाया था, अब अपने जासूस चुपके से उसके पीछे लगा दिया. ग्रैंड होटल, जहाँ माताहारी ठहरी थी, या रेस्तरां, पार्क, बुटिक, नाइटक्लब, जहाँ कहीं भी माताहारी जाती फ्रांसीसी जासूस उसका पीछा करते. माताहारी इन सबसे अनजान थी. उसे तो पुरुषों द्वारा घूर कर देखे जाने की आदत थी, तो फिर वह जासूसों की छुपी नजर को क्या ताड़ पाती! यही नहीं, लडू के जासूस माताहारी की डाक चुपके से खोल कर पढ़ लेते थे; छुप कर उसकी बातें सुनते थे; उससे मिलने आने-जाने वालों का रिकॉर्ड तैयार करते थे. इन सारे जासूसी तरीके अपनाने के बावजूद जासूसों को ऐसा कुछ न मिला जिसके आधार पर वे सबूत के साथ कह सकते कि माताहारी जर्मनों के लिए जासूसी करती थी.

     अन्ततः, फ्रांसीसियों के लिए खबर जुटाने की माताहारी की कोशिश ही उसके खिलाफ काम कर गयी. एक बार वह फ्रांसीसियों के इशारे पर खबरें जुटाने के चक्कर में स्पेन की राजधानी मेड्रिड में स्थित जर्मन राजदूतावास के मिलिटरी अटैशे से मिली और गपशप में उसे कुछ छोटी-मोटी ख़बरें देकर बदले में कुछ मूल्यवान खबरें निकाल लेने की कोशिश करने लगी. जर्मन अटैशे उसकी इस हरकत को ताड़ गया. जनवरी 1917 की बात है. अटैशे ने बर्लिन (जर्मनी)-स्थित अपने मुख्यालय में एक रेडियो सन्देश भेजा, जिसमें एच-21 कोड नाम वाले एक जर्मन जासूस की सराहनीय सेवाओं की चर्चा की गयी थी.

फ्रांस के जासूसों ने बीच में ही इस रेडियो सन्देश को चुपके से सुन (इन्टरसेप्ट) लिया. इस सन्देश का जब फ्रांसीसी जासूसी विशेषज्ञों और विश्लेषकों ने गहन विश्लेषण किया तो उनका शक यकीन में बदल गया. उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि डबल एजेंट का रोल प्ले करते हुए माताहारी वास्तव में जर्मनों के लिए ही काम कर रही थी. बर्लिन भेजे गए इस टेलिग्राम में माताहारी का पता, बैंक डिटेल्स के साथ-साथ उसकी भरोसेमंद नौकरानी का भी नाम शामिल था. इस टेलिग्राम को पढ़ने के बाद साफ हो गया कि माताहारी ही एजेंट H21 है.

     यही वह समय था जब विश्वयुद्ध में फ्रांस को शिकस्त मिल रही थी. फ्रांसीसी अधिकारियों ने इसका दोष माताहारी पर मढ़ दिया. फरवरी 1917 में फ़्रांस की सरकार ने माताहारी को गिरफ्तार कर लिया. उस पर आरोप लगाया गया कि उसने मित्र देशों के टैंकों के बारे में जर्मन सेना को बता दिया जिसके कारण मित्र देशों के हजारों सैनिक युद्ध में मारे गये. फ्रांस की फौजी अदालत में माताहारी पर मुकदमा चलाया गया. उसे दोषी पाया गया और मृत्युदण्ड की सजा सुनायी गयी.

     कहते हैं युद्ध में अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए फ्रांस ने माताहारी को बलि का बकरा बना दिया. कुछ लोगों का यह भी कहना है कि जर्मनों ने जानबूझ कर माताहारी को इंगित करने वाले कोडनाम का प्रयोग किया और यह जानते हुए भी कि जर्मनी के कोडेड रेडियो संदेशों को फ्रांसीसी जासूस आसानी से तोड़ देते हैं  इस तरह का सन्देश भेजा. इससे साफ़ जाहिर होता है कि जर्मनों ने जानबूझ कर फ्रांसीसियों को बरगलाया और फ्रांसीसियों ने जानबूझ कर खुद को बरगलाया जाने दिया. सबके अपने-अपने फौजी और राजनीतिक स्वार्थ और निहितार्थ थे. पर, मारी गयी बेचारी माताहारी. वह मारी इसलिए गयी कि वह स्वयं मायाविनी थी, ठगिनी थी. नृत्य-कला के नाम पर उसने ठगी किया. पैसा बनाने के लिए उसने उच्चाधिकारियों को फांसा. पैसा बनाने और लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए उसने जासूसी का जाल फैलाया.

दोष किसको दें, जब यही अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है कि माताहारी वास्तव में किसके लिए जासूसी करती थी, और वह सचमुच जासूस थी भी कि नहीं! कई लोग कहते हैं कि माताहारी के जर्मन जासूस होने के पर्याप्त सबूत मिले थे, तो कुछ का कहना है कि वह फ्रांस के लिए काम करती थी. उसे दोनों के लिए काम करने वाले डबल एजेंट मानने वालों की भी कमी नहीं है. कहते हैं कि जर्मनों ने स्वीकार किया था कि वह उनके लिए काम करती थी, किन्तु उसकी उपयोगिता बहुत नहीं थी. इसलिए जासूस के तौर पर उसकी सेवाएं समाप्त कर दी गयी थीं. जर्मनों का कहना था कि माताहारी की खबरें अफसरों के साथ हमबिस्तर होते समय हांकी गई गप्पों और बेवकूफ बनाने की कोशिशों से ज्यादा कुछ न थीं. वहीँ, दूसरी ओर, फ्रांसीसियों का कहना था कि माताहारी ‘शताब्दी की सबसे खतरनाक महिला जासूस’ थी जिसने फ्रांसीसी सेना को भारी नुकसान पहुँचाया था.

पता नहीं कौन कितना सच बोल रहा था. पता नही खुद माताहारी किससे झूठ और किससे सच बोल रही थी. कौन जाने वह किसके लिए, या किस-किस के लिए, जासूसी कर रही थी! पक्की ठगिनी थी वह!! एकदम मायाविनी!!!

**

सजाये-मौत मिलने के बाद माताहारी का मृतशरीर लेने कोई नहीं आया. उसके जीवित शरीर पर हजारों लोग लहालोट होते थे, लेकिन, आखिर में, वह एक एक गुमनाम लाश में तब्दील हो गयी. उसके शरीर को पेरिस के मेडिकल कॉलेज पहुंचा दिया गया, जहाँ उसे मेडिकल के छात्रों की पढाई में प्रयोग किया गया. उसके चेहरे को एनाटॉमी म्युजियम में स्मारिका के रूप में संग्रहित कर दिया गया. लेकिन, कुछ सालों बाद वह चेहरा ग़ायब हो गया. अभिलेखों में दर्ज किया गया कि माताहारी का चेहरा चोरी चला गया.

***

(सत्य घटनाओं पर आधारित सत्यकथा है यह.)

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