
जाने-माने लेखक, शायर संजय मासूम ने माइग्रेंट्स नाम से एक शॉर्ट फ़िल्म बनाई है। उसी पर यह टिप्पणी पढ़िए कवि -कला समीक्षक राकेश श्रीमाल की-
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लाकडाउन का लम्बा चला दौर, जो व्यक्ति और अंततः समाज की सुरक्षा के लिए था, एक बड़े वर्ग के लिए महामारी के बरक्स एक बड़ी और अप्रत्याशित त्रासदी बनकर रह गया। इस त्रासदी से रोज़मर्रा काम कर जीविका चलाने वाला समाज का एक बड़ा वर्ग अभी भी मुक्त नहीं हुआ है। इससे बाहर रह रहे समाज ने इस त्रासदी को सड़कों, रेल की पटरियों और नदी-नालों को पार करते हुए, महानगरीय वटवृक्ष से टूटकर, अपने-अपने गाँव लौटने की बदहवास भीड़ के जरिए देखा था। अब वह भीड़ नग्न आँखों और कैमरों को नहीं दिखती, इसका अर्थ यह नहीं है कि वह त्रासदी भी अब नहीं है। जिस पेट को भरने के लिए, करोड़ो की सँख्या में लोगो ने दूर-दराज राज्यों के छोटे कस्बों और गांवों से महानगर का रुख किया था, वहाँ हाड़-तोड़ मेहनत के बलबूते अपनी घर-गृहस्थी चलाई थी, वह तालाबंदी के दौरान उनके लिए बेमानी साबित हुई। अपने परिवार और जरूरी सामान-कपड़ो की पोटली लिए, उन्होंने चिलचिलाती धूप में अपने गांवों की तरफ सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा की और इसी पलायन-सफर के बीच में, अपने घर-गाँव की देहरी तक पहुंचे बिना अच्छी-खासी सँख्या में इन्होंने अपनी जान गंवाई। ऐसे लोगो को नहीं पता था कि वे अपने घर-आँगन नहीं, इतिहास में दर्ज होने की यात्रा कर रहे हैं। उनका न रहना ही उन्हें उस इतिहास में दर्ज करता गया, जिसमें एक बड़ी परिघटना के छोटे घटक की सँख्या में उन्हें शामिल कर लिया जाएगा।
यानी उनका यह सफर किसी खतरनाक और डरावनी लय में “डगरिया मसान हो गई” में चुपके से निबद्ध हो गया। इसी विषय-वस्तु पर बॉलीवुड के चर्चित और युवा लेखक संजय मासूम ने “मॉइग्रेंट्स” शॉर्ट फिल्म बनाई है। यह लाकडाउन के दौरान ही बनी है। बेहद कम दृश्यों और सीमित सम्वादों के जरिए करोड़ो मॉइग्रेंट्स की कथा-व्यथा को परदे पर उतारा गया है। 10 मिनिट की इस फ़िल्म को खूबसूरत कहना इसके विषय को सजावटी शो-केस में रखने की गलती होगी। लेकिन यह जरूर कहना होगा कि जिस माध्यम का उपयोग संजय मासूम ने अपनी बात कहने के लिए चुना, उसके साथ उन्होंने न्याय किया है।
यह छोटी प्रस्तुति सिनेमा की ऐसी कविता है, जिसमें दुख, अभाव, अकेले और अलग-थलग हो जाने की पीड़ा और एक भरे-पूरे महानगर का बेनागापन अपनी समूची कटु नियति के साथ उपस्थित है। यह फ़िल्म महानगर के नागरिकों (दर्शकों) को सोचने-समझने के लिए विवश कर सकती है और अंततः मनुष्य को ही अपने मनुष्य होने की शर्मिंदगी का अहसास करा सकती है।
आजादी के बाद अपने ही देश में इस विकराल अंदरूनी पलायन को यह फ़िल्म महज कुछ पात्रों (जीवित और मृत) के जरिए इस निपट बेबस समय को व्यापक कैनवास में कैद करती है। इस फ़िल्म में दृश्य से अधिक अदृश्य छिपा हुआ है। वही अदृश्य असल कथावाचक है। वह अदृश्य कोई छोटी सी कहानी नहीं सुनाता-दिखाता है, वह इस सदी की देश की सबसे बड़ी घटना को मौन में ही चीत्कार कर बतलाता है। मशहूर इतिहासकार और लेखक रामचंद्र गुहा ने कहा भी है कि- “विभाजन के बाद से भारत में प्रवासियों की यह सबसे बड़ी मानव त्रासदी है।”
वाकई बेहतर काम किया है संजय मासूम ने। शायद उन्हें भी नहीं पता होगा कि मानवीय संवेदना की देशव्यापी शिराओं को छूते हुए उन्होंने जिन धमनियों को जीवंतता दी है और उसे अप्रतिम स्मरण की रक्त-नलिकाओं में संचारित किया है, वह हमेशा अशेष ही रहेगा। जीते रहो संजय, एक मित्र की तरह, एक लेखक की तरह, एक भावी सार्थक फिल्मकार की तरह और उससे बढ़कर संवेदन-सजग मनुष्य की तरह।
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फ़िल्म यहाँ देखी जा सकती है- https://doncinema.com/short_film/the-migrants/
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