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कविता शुक्रवार 3: कृष्ण कल्पित की सात कविताएँ

‘कविता शुक्रवार’ के तीसरे अंक में वरिष्ठ कवि कृष्ण कल्पित की कविताएं और देवीलाल पाटीदार के रेखांकन प्रस्तुत हैं।
लिखने की अपनी बेबाक कहन-शैली से चर्चित रहे कवि-गद्यकार कृष्ण कल्पित का जन्म 30 अक्तूबर 1957 को रेगिस्तान के एक कस्बे फतेहपुर-शेखावाटी में हुआ। उन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से हिन्दी साहित्य में एम ए किया। पुणे के फ़िल्म और टेलीविजन संस्थान से फ़िल्म निर्माण का अध्ययन भी किया। कुछ वर्ष अध्यापन और पत्रकारिता करने के बाद भारतीय प्रसारण सेवा में रहे। 2017 में दूरदर्शन महानिदेशालय से अपर महानिदेशक (नीति) पद से सेवामुक्त हुए।
उनकी प्रकाशित किताबों में ‘भीड़ से गुजरते हुए’ (1980), ‘बढ़ई का बेटा’ (1990), ‘कोई अछूता सबद’ (2003), ‘एक शराबी की सूक्तियाँ’ (2006), ‘बाग-ए-बेदिल’ (2013) और हिन्दी का प्रथम काव्य शास्त्र ‘कविता-रहस्य’ (2015) हैं। सिनेमा और मीडिया पर उनकी एक पुस्तक ‘छोटा पर्दा बड़ा पर्दा’ (2013) आई। मीरा नायर की बहुचर्चित फ़िल्म ‘कामसूत्र’ में भारत सरकार की ओर से सम्पर्क अधिकारी रहे। ऋत्विक घटक के जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री ‘एक पेड़ की कहानी’ (1997) का निर्माण किया। उनकी कविताओं के अंग्रेजी समेत कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुए हैं- राकेश श्रीमाल
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1
|| बुरे दिन ||
 
 
बुरे दिन पूछकर नहीं आते
 
वे ऐसे आते हैं जैसे गये ही नहीं थे यहीं छिपे हुये थे कुर्सी के पीछे खाट के नीचे कोट की जेब में या फिर हम उन्हें दराज़ में रखकर भूल गये हों
 
जबकि अच्छे दिन पूछकर आते हैं अतिथि की तरह दो-चार दिन में लौट जाने के लिये
 
बुरे दिन आपको सबसे अच्छी कवितायें याद दिलाते हैं जिन्हें हम अच्छे दिनों में भूल जाते हैं कई बिसरी हुई कहानियाँ याद आती हैं बुरे दिनों में और कोई करुण-किरवानी जैसा राग अहर्निश बजता रहता है बुरे दिनों में
 
बुरे दिन आकर बच्चों की तरह पाँवों से लिपट जाते हैं जिन्हें मैं रावळगाँव की टॉफियां खिलाकर बहलाता रहता हूँ
 
बुरे से अच्छा क्या होगा
बुरे दिन मेरे सबसे अच्छे दिन थे
 
बुरे दिनो
मत छोड़ना मेरा साथ
तुम्हारे लिये मेरे दरवाज़े हमेशा खुले हैं !
 
 
 
 
2
घर_लौटते_मज़दूर १.
 
जीने के लिए नहीं
हम मरने के लिए लौट रहे हैं
 
जीने के लिए तो हम आए थे इस महानगर में इतनी दूर
जहाँ हम मर-मर कर जीते रहे
 
रास्ते में मर जाएँगे
या हम पहुँच जाएँगे वहाँ
जहाँ हम पैदा हुए थे
जहाँ की मिट्टी में दबी हुई है हमारी नाल
 
जिस मिट्टी में खेलकर बड़े हुए
उसी मिट्टी में मिल जाना चाहते हैं
 
जीने तो नहीं दिया
क्या मरने भी नहीं दोगे
 
हम चल रहे हैं हम चले जा रहे हैं
रेल की पटरियों को और राजपथों को पीछे छोड़ते हुए
अपने देस अपने गाँव
पैदल और पाँव पाँव
 
हाथ के छालों से तो बेहतर हैं पाँव के छाले !
 
 
 
 
3
डूब_मरो १.
 
मैं तुम्हारे तलुओं पर
जैतून के तेल की मालिश करना चाहता हूँ
 
जिन हाथों से थामा था तुमने साइकिल का हैंडल
मैं उन हाथों को चूमना चाहता हूँ
 
गुरुग्राम से दरभंगा तक
अपने घायल पिता को कैरियर पर बिठाकर
ले जाने वाली स्वर्णपरी
मैं तुम्हारी जय-जयकार करना चाहता हूँ
 
तुम्हारी करुणा तुम्हारा प्यार तुम्हारा साहस देखकर हैरान हूँ आश्चर्य से खुली हुई हैं मेरी आँखें
 
मैं उन तमाम 33 कोटि देवी-देवताओं को
बर्ख़ास्त करना चाहता हूँ
जिन्होंने नहीं की तुम पर पुष्प-वर्षा
 
मोटर-गाड़ियों रेल-गाड़ियों और हवाई-जहाज़ों का आविष्कार क्या आततायियों अपराधियों और धनपशुओं के लिए किया गया था
 
इस महामारी में तुमने अपने चपल-पांवों से
1200 किलोमीटर तक भारतीय सड़कों पर सात-दिनों तक जो महाकाव्य लिखा है वह पर्याप्त है इस देश के महाकवियों को शर्मिन्दा करने के लिए
 
डूब मरो शासको
डूब मरो कवियो
डूब मरो महाजनो
 
ओ, साइकिल चलाने वाली मेरी बेटी
मैं तुम्हें अन्तस्तल से प्यार करना चाहता हूँ !
 
 
 
 
4
नया_कवि १
 
नये कवि को सुनो
पुराने कवि पुराने होते जाते हैं
 
पुराना ही नया होता है
नया ही पुराना होता जाता है
नई आवाज़ में मिली होती है पुरानी आवाज़
जैसे नई टँकार में सुनाई देती है पुरानी टँकार
 
वृन्त पर उगता हुआ कोमल-कत्थई-पत्ता
प्राचीन पीपल को नया करता है
 
नया ही पुराने को बचाये हुये है
पुराने में ही छिपा रहता है नया
 
पुराना प्रतिशोध नया होता जाता है
पुरानी दुश्मनियाँ और पुरानी होती जाती हैं
एक नया क़त्ल पुरानी दुश्मनी को नया करता है
 
नये कवि को सुनो
उसमें सारे पुराने कवि शामिल हैं !
 
 
 
 
5
फ़ुटबाल_के_कोच
 
वे कोमल और कठोर एक साथ होते हैं
 
परिपक्व और सुंदर
कोई 45 का कोई 55 का कोई 67 का तो कोई 72 का
 
धीरज और बेचैनी
युद्ध और शांति
करुणा और क्रोध
प्रेम और घृणा एक साथ झलकती है उनके चेहरों से
 
वे टहलते रहते हैं मैदान के बाहर बेचैनी से
कभी बैठ जाते हैं कुर्सी पर धम्म से
करते रहते हैं हाथ से इशारे
बुदबुदाते रहते हैं घड़ी घड़ी
ईश्वर ही सुनता होगा इस बुदबुदाहट को
 
यह ज़रूरी नहीं कि कोच बनने के लिये खिलाड़ी होना ज़रूरी हो लेकिन फ़ुटबाल के अधिकांश कोच फ़ुटबाल के पुराने खिलाड़ी ही होते हैं
 
वे नहीं चाहते कोई युवा खिलाड़ी चूक जाये पेनाल्टी कॉर्नर जैसे वह चूका था 1986 के विश्वकप में हेडर गोलपोस्ट से टकरा कर बाहर न चला जाये जैसे गया था ब्राज़ील के विरुद्ध 1990 के विश्वकप में
 
जब नगाड़ा बजता है ये तभी नज़र आते हैं
इससे पहले छिपे रहते हैं मांद में
 
जब भीड़ उठाये घूमती है अपने कंधों पर किसी पेले किसी माराडोना किसी ज़िदान किसी रोनाल्डो किसी मेस्सी को तब कोच थपथपाता है पीठ उस मिडफिल्डर की जिसने यह सुंदर और घातक पास दिया था
 
हॉलीवुड के सितारे नहीं
फ़ुटबाल के कोच दुनिया के सबसे सुंदर मनुष्य होते हैं !
 
 
 
 
6
राख_उड़ने_वाली_दिशा_में १
 
जिधर भी जाता था
एक छाया साथ चलती थी
एक गठरी लदी रहती थी पीठ पर
उतरता था बोझ जब रेलगाड़ी में सीट मिलती थी
जनता एक्सप्रेस थी कोई मज़ाक़ नहीं
 
किसे याद हैं वे बिस्तरबंद/होल्डाल
अभी कुछ समय पहले तक
हम कँधे पर उठाये जाते थे रेलवे-स्टेशन तक
 
वे लोहे की सन्दूकें
जिन पर बैठकर सिगरेट फूँकना
 
आधी-रात चुनार के रहस्यमय घने जंगलों से
तेज़ गति से गुज़रती हुई कालका-एक्सप्रेस
 
वह निर्जन सन्नाटा
वे रोशनी के झपाके
तुम तो देर तक जागी हुई थी लोअर-बर्थ पर
 
एक रेलगाड़ी कितनी रेलगाड़ियों की याद दिलाती है
कितनी बार कूदा था ज़ंजीर खींचकर
शेखावाटी एक्सप्रेस से
 
जहाँ जहाँ जाता था
लगता था आया हुआ हूँ
जो भी बातें सुनता था लगता था सुनी हुई है
 
कहाँ से चला था याद नहीं
उतरना कहाँ था ध्यान नहीं
 
मैं एक खोया हुआ मुसाफ़िर था इस संसार में
बस इतना भर याद आता था कि
हमारे घरों से उड़ता हुआ धुआँ कोस भर पहले से दिखाई पड़ता था ऊँटों का एक क़ाफ़िला नज़र आता था दूर से
देर तक उड़ती रहती थी धूल
 
राख उड़ने वाली दिशा में हमारे घर थे !
 
 
 
 
7
पथ_पर_न्याय १
 
हत्यारा अकेला होता है
अधिक होते ही हत्यारा कोई नहीं होता
 
तीन या चार
पांच या सात मिलकर किसी अकेले को कभी भी कहीं भी मार सकते हैं और मारने के बाद आप भारत माता की जय या गौ-हत्या बंद हो के नारे लगा सकते हैं
 
इसी पद्धति पर चलती हैं पदातिक-टोलियां, पदाति-जत्थे हिंदी-पट्टी के मैदानों पर गश्त करते हुये अलवर से आरा और मुज़्ज़फ़रपुर से मुज़फ़्फ़रनगर तक किसी को मारते हुये किसी को जलाते हुये किसी को नँगा करके घुमाते हुये
 
कहीं धर्म की हानि तो नहीं हो रही
कहीं विरोध की आवाज़ बची तो नहीं रह गयी
कहीं किसी की भावनाएं भड़की तो नहीं
 
पदातिक-टोलियां पथ पर करती हैं न्याय
बेहिचक बेख़ौफ़ अब न्याय के लिये कहीं जाने की ज़रूरत नहीं न्याय आपके दरवाज़े तक आयेगा
 
अदालतें कब तक रोक सकती हैं होते हुये न्याय को न्याय का नहीं होना ही अन्याय है
 
न्यायालयों के पास न्याय के अलावा अभी अन्य ज़रूरी और महत्वपूर्ण मसले हैं और अदालतें अपने ही बोझ से दबी हुईं हैं लेकिन न्याय किसी न्यायालय, किसी सरकार की प्रतीक्षा नहीं करता वह कभी भी कहीं भी प्रकट हो सकता है
 
न्याय रुकता नहीं है होकर रहता है
न्याय होकर रहेगा न्याय किसी का विशेषाधिकार नहीं है न्याय कोई भी कर सकता है कोई भी प्राप्त कर सकता है इसके लिये ख़ुद माननीय न्यायमूर्ति होने की कोई ज़रूरत नहीं
 
कोई भी हो सकता है न्यायाधीश
वह कोई सड़क का गुंडा भी हो सकता है
 
मुझे एक दिन नँगा करके सड़क पर घुमाया जायेगा
मैं एक दिन रास्ते में मरा हुआ पाया जाऊँगा !
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रेखांकन : देवीलाल पाटीदार 
प्रायः मुझे लगता रहा है कि देवीलाल पाटीदार का नाम असल में देवीलाल प्रकृति होना चाहिए। ऐसा लगने के पीछे एकाधिक कारण हैं। कोई भी कलाकार अपना अलग मूड और इमेज लिए होता है। देवीलाल इससे कुछ अलग ही अलहदा हैं। जिसे मूड या इमेज के मापदंड से देखा नहीं जा सकता। वास्तव में यह उनकी प्रकृति है। उनकी जीवन-शैली हो, रचना-प्रक्रिया हो, उनके चित्र-शिल्प हों अथवा बात करने का उनका लहजा हो, वे हमेशा एक ऐसी प्रकृति में रहते हैं, जहाँ से उन्हें विभाजित करके देखा नहीं जा सकता। इंदौर के पास धार जिले के सुंदरेल गाँव में जन्में देवीलाल का बचपन और कैशोर्य खेत-खलिहान में बीता है। जहाँ प्रकृति ही जीवन की तरह उनके साथ रही। उस गाँव के कुम्हार, लुहार और सुतार अपने हाथों से जो रचते-गढ़ते थे, वह भी उन्हें प्रकृति का ही सुंदर हिस्सा लगता था। इसलिए वे बेहिचक मानते हैं कि उनका अपना संसार और रचना-संसार इसी जीवन के अनुभव की उपज है। उनके सिरेमिक रूपाकारों में प्रकृति की निर्माण विधि और पारंपरिक शिल्पों की कार्य विधि मिलजुलकर अपना आकार ग्रहण करती हैं। उनका बनाया अपने अंतिम रूप-स्वरूप में प्रकृति का ही आभास देता है, फिर भले ही वे इरॉटिक शिल्प या रेखांकन ही क्यों न हों। जैसे सीप, शंख या अन्य समुद्री वस्तुएं होती हैं, जैसे फल, फूल या शब्जियाँ अपने विभिन्न रंग और आकार में होती हैं, वैसे ही कला उनके लिए प्रकृति का ही एक अविभाज्य हिस्सा होती हैं। वर्षो पहले खजुराहो नृत्य समारोह में एक समूची रात पाटीदार और मेरे बीच  उनके इस कथन पर बात होती रही थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि वे ईश्वर को बनाना चाहते हैं। गहरे अर्थों में वे अपनी रचनाशीलता के जरिए ईश्वर की प्रकृति को ही थोड़ा सा विस्तार देना चाहते हैं। उस रात की बात को याद करते हुए वे कहते हैं कि- “मुझे तब नहीं मालूम था कि यही विचार-कार्य विधि मेरे लिए मुफीद होगी। वास्तव में रचना में खुद को पूरी तरह छिपा लेना ही प्रकृति होना है।” देवीलाल पाटीदार ने कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सिरेमिक कार्यशालाओं और प्रदर्शनियों में भागीदारी की है। जिसमें न्यू वेव फेस्टिवल, मेलबोर्न, ललित कला अकादमी, केरल, हरियाणा, आंध्रप्रदेश और हिमाचल प्रदेश के संस्कृति विभाग के शिविर इत्यादि हैं। जापान के अंतराष्ट्रीय सिरेमिक फेस्टिवल में वे श्रेष्ठ कलाकार घोषित हुए। कला समीक्षक पॉल मैथ्यूई की किताब ‘सेक्स पॉट’ में विश्व के सौ सिरेमिक कलाकारों में वे शरीक रहे, जिसका प्रकाशन अमेरिका, जर्मनी और यूके में हुआ। इलाहाबाद स्थित नार्थ झोन कल्चर सेंटर में उन्होंने पारंपरिक शिल्पों से पहला टेराकोटा गार्डन का निर्माण किया। वे वैचारिक रचना-प्रक्रिया में अधिक विश्वास रखते हैं, यही कारण है कि वे अंतराल के बाद ही नया कुछ रच पाते हैं- राकेश श्रीमाल
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राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलवार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
 
 
 
 
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9 comments

  1. Pratibha sharma

    जीवन यथार्थ को चित्रित करती बेहद लाजवाब कविताएँ है कृष्ण कल्पित जी की ।विलक्षण कवि है कल्पित जी साहित्य समाज को सहेजनी चाहिए ऐसी कलम
    साधुवाद जानकीपुल

  2. फुटबॉल कोच पर कविता दिलचस्प है।
    कविताओं में अनेक पंक्तियाँ अपनी मार्मिकता और कहन से आकर्षित करती हैं। बधाई।

  3. वरदान सिंह हाड़ा

    कृष्ण कल्पित जी की सब कवितायेँं दिल में सीधे धँसती हैैँं और एक चाहे दर्द के साथ वहीं धँसी रह जाती हैं ….

  4. I agree with your point of view, your article has given me a lot of help and benefited me a lot. Thanks. Hope you continue to write such excellent articles.

  5. Reading your article helped me a lot and I agree with you. But I still have some doubts, can you clarify for me? I’ll keep an eye out for your answers.

  6. Thanks for the feedback! That’s an interesting point. I suppose there are many reasons, internal and external, why we do not accomplish all that we might. Regardless, I am thankful for the Lord’s grace in that. Thanks again!

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