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संतराम बी.ए. के बारे में आप कितना जानते हैं?

सुरेश कुमार युवा शोधकर्ता हैं और 19वीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर 20वीं सदी के पूर्वार्ध के अनेक बहसतलाब मुद्दों, व्यकतियों के लेखन को अपने लेखों के माध्यम से उठाते रहे हैं। संतराम बीए पर उनका यह लेख बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक है-

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  हिन्दी के आलोचकों ने नवजागरण काल का मूल्यांकन करते हुए दलित नजरिया को छोड़ दिया है। इधर, कुछ इतिहासकार हिन्दी नवजागरण के दलित नजरिया को बेशक सामने लाए हैं। हिन्दी में छायावाद का शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि छायावाद में सक्रिय जाति और वर्ण-व्यवस्था को चुनौती देने वाले अद्भुत और विलक्षण लेखक संतराम बी.ए. पर चर्चा देखने या सुनने को नहीं मिली है। जब छायावादी लेखक रहस्यवाद और स्वछन्दतावाद की गुत्थी में उलझे थे, उस संतराम बी.ए. अस्पृश्यता और वर्ण-व्यवस्था के विरु़द्ध की तीखी आलोचना प्रस्तुत कर इसे मिटाने की बात कर रहे थे।

 संतराम बी.ए. के चिंतन पर आने से पहले उनके व्यक्त्वि और कृतित्व के सम्बन्ध में जानना उचित होगा। संतराम बी.ए. का जन्म सन् 1887 में बसी नामक गांव होशियारपुर, पंजाब में हुआ था। इनके पिता नाम रामदास गोहिल और माता का नाम मालिनी देवी थी। रामदास गोहिल ने प्रथम पत्नी के देहांत के बाद पुनर्विवाह किया था। संतराम बी.ए. बताते हैं कि पहली माँ से दो सन्तान और दूसरी माता से पाँच सन्तानें थी। इस तरह संतराम बी.ए. सात भाई बहन थे। संतराम बी.ए. ब्रिटिश भारत के ग्रेजुएट थे। इनको विद्यार्थी जीवन में ही जातिवाद का दंश झेलना पड़ा था। जब संतराम बी.ए. पाँचवी कक्षा के विद्यार्थी थे तो उनके सहपाठी कुम्हार कह कर अपमानित किया करते थे। कुलीन वर्ग अपने बच्चो को जन्म से जातिवाद का पाठ पढ़ाकर उनके मन में दलितों और पिछड़ो के प्रति घृणा डाल देते हैं। संतराम बी.ए. ने ग्रेजुएट करने के बाद अमृतसर जिले के चभाल गांव के मिडिल स्कूल के प्रधानाध्यपक नियुक्त किए गए लेकिन नौकरी में इनका विशेष मन नहीं लगा और सन्1913 में इन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी।

  संतराम बी. ए. की मातृभाषा गुरुमुखी थी और इन्होंने फारसी भाषा में ग्रेजुएट किया था। हिन्दी लेखक बनने की इनकी कहानी बड़ी दिलचस्प है। संतराम बी.ए. ने एक लेख हिन्दी भाषा में लिखकर ‘सरस्वती’ पत्रिका में भेजा था। ‘सरस्वती’ के संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संतराम बी.ए. के लेख पर यह टिप्पणी करते हुए ‘आप के लेख को संशोधन करने में मुझे तीन दिन लगेंगे’ वापस लौटा दिया। संतराम बी.ए. इस मुगालते में थे कि मैं ग्रेजुएट हूँ तो मेरा लेख ‘सरस्वती’ में छप जायगा लेकिन ‘सरस्वती’ में लेख प्रकाशित न होने से काफी दुखी हुये। इस घटना के बाद संतराम बी.ए. ने महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को एक पत्र लिखकर पूछा कि मैं हिन्दी के कौन से व्याकरण और शब्दकोश पढ़ूँ जिससे मेरी हिन्दी भाषा ठीक हो जाए, क्योंकि पंजाब के किसी स्कूल में हिन्दी नहीं पढ़ाई जाती है। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने संतराम को पत्र लिखकर बताया कि आप को हिन्दी में लेख लिखने के लिए विशेष कोश और व्याकरण पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। हिन्दी में लेख लिखते समय बस इस बात का ध्यान रखना होगा कि वाक्य यथासम्भव छोटे और सरल हों, ऐसे शब्दों का प्रयोग करे जिसे एक बालक से लेकर विद्वान तक समझ जायें। और, लेख लिखते समय अप्रचलित शब्दों का प्रयोग बिल्कुल ही न करे।  आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की उक्त बातों पर संतराम बी.ए. ने जमकर अम़ल किया। इसके बाद संतराम बी.ए. के लेख ‘सरस्वती’ पत्रिका में छापने लगे थे। यह घटना बताती है कि एक संपादक का लेखक के जीवन में कितना बड़ा योगदान होता है।

संतराम बी.ए. के रचना संसार का फलक बहुत विस्तृत और व्यापक है। इन्होंने अपने जीवन काल में सतहत्तर किताबें सामाजिक और देश दशा के विषयों पर लिखी हैं। इनके साहित्यिक कद का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इनकी किताब ‘काम-कुंज’ (1929) का संपादन प्रेमचन्द ने किया था, जो  लखनऊ के मुंशी नवलकिशोर प्रेस से छपी थी। संतराम बी.ए. एक अच्छे अनुवादक भी थे। इन्होंने ‘अलबेरूनी का भारत’ का अनुवाद किया जिसे इन्डियन प्रेस, प्रयाग ने चार भागों में प्रकाशित किया था। इसके अलावा संतराम बी.ए. ने ‘गुरूदत्त लेखावाली’ (1918) ‘मानव जीवन का विधान’    (1923) ‘इत्सिंग की भारत यात्रा’(1925) ‘अतीत कथा’(1930) ‘बीरगाथा’(1927) ‘स्वदेश-विदेश-यात्रा’ (1940) ‘उद्बोधनी’ (1951 ) ‘पंजाब की कहानियाँ’ (1951) ‘महाजनों की कथा’ (1958)  पुस्तकों के अलावा ‘मेरे जीवन के अनुभव’(1963) नाम से आत्मकथा लिखी है। संतराम बी॰ ए॰ की आत्मकथा ‘मेरे जीवन के अनुभव’ कई मायने में महत्वपूर्ण हैं। यह आत्मकथा नवजागरण कालीन समाज के उस विमर्श को हमारे समाने रखती है जिसको हिन्दी लेखक अकसर छुपा लिया करते हैं। अस्मितावादी विमर्शों के दौर में यह आत्मकथा और महत्वपूर्ण लगने लगती है। हिन्दी साहित्य की यह एक अनूठी आत्मकथा है जिससे पता चलता है कि जातिवाद की मूल जड़ें कहाँ है?

 संतराम बी.ए. नवजागरण काल के अद्भुत लेखक और कुशल संपादक थे। इन्होंने पाँच पत्रिकाओं का संपादन किया-‘उषा’(1914, लाहौर), ‘भारती’ (1920,जलन्धर), ‘क्रांति’ (1928, उर्दू लाहौर), ‘युगान्तर’ (जनवरी 1932,लाहौर), और ‘विश्व ज्योति’(होशियारपुर)। ‘युगान्तर’ नवजागरण काल की बड़ी  क्रांतिकारी पत्रिका थी। इस पत्रिका में जाति और वर्णा-व्यवस्था पर बड़े ही तीखे और आलोचनात्क लेख लिखे जाते थे।

 संतराम बी.ए. ने हिन्दू मनोवृत्ति को बड़ी गहराई से परख लिया था। इन्होंने अस्पृश्यता और जाति की जड़ ‘वर्ण-व्यवस्था’ को माना था। इनकी दृष्टि में जाति और वर्ण-व्यवस्था एक सामाजिक बुराई थी, जिसने दलितों को अछूत और गुलाम के रुप में स्थापित कर दिया था। यह सही बात है कि उच्च वर्ण के हिन्दुओं ने वर्ण-व्यवस्था को ईश्वरीय विधान का जामा पहनाने का काम किया है। संतराम बी.ए. ने इस सिंद्धात को नकार दिया था कि ‘वर्ण-व्यवस्था ईश्वरी विधान’ है। इनका प्रबल दावा था कि ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था को अपने स्वार्थपूर्ति के लिए गढ़ा और बनाया है। इस व्यवस्था का घोषित लक्ष्य ब्राह्मणों को अपना वर्चस्व स्थापित कर समाज को समाज को चौरंगा बना देना था।

  संतराम बी.ए. की स्थापना थी कि अस्पृश्यता का मुख्य कारण वर्ण-व्यवस्था है। जब तक वर्ण व्यवस्था का खात्मा नहीं हो जाता; तब तक दलितों और पिछड़ों को समाजिक प्रतिष्ठा और न्याय प्राप्त नहीं हो सकता है। संतराम बी.ए. ने ‘जात-पांत और अछूत प्रथा’ लेख में अस्यपृश्यता का कारण बताते हुए लिखा था :

‘‘इस अछूतपन का मूल कारण हिन्दुओं की वर्ण-व्यवस्था या जात-पांत है। जब तक इस रजरोगी की जड़ नहीं कटती, अस्पृश्यता कदापि दूर नहीं हो सकती। जो लोग वर्ण-व्यवस्था को कायम रखते हुए अछूतपन को दूर करने का यत्न करते हैं वे ज्वर के रोगी का हाथ बर्फ में रखकर उसका ज्वर शान्त करने का उपाय करते हैं।’’1

 इस कथन से संतराम बी.ए तत्कालीन समय के सुधारवादियों को वर्ण-व्यवस्था के संबंध में दुरुस्त भी करते दिखाई देते हैं। संतराम बी.ए. ने वर्ण-व्यवस्था को समाज-विभाजित करने वाला कारक ही नहीं बल्कि बहुजनों के लिए मरण-व्यवस्था के तौर पर देखा था। इन्होंने वर्णवाद के रखवालों से प्रश्न किया था कि ‘यह वर्ण-व्यवस्था है या मरण व्यवस्था?’ इनकी नजर में वर्ण-व्यवस्था कोई ईश्वरीय नहीं थी जिस पर सवाल न उठाया जाए:

 ‘‘जन्म-मूलक वर्ण-व्यवस्था कोई ईश्वर नहीं, जिसके विरुद्ध आवाज उठाना घोर नास्तिकता समझी जाए। अपने समाज के कल्याण के लिए उसे हम एकदम ठुकरा सकते हैं। हमें इसमें किसी का भय नहीं है।’’2

 औपनिवेशिक दौर के सुधारक और लेखक जब सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करते तो वर्ण-व्यवस्था के रक्षक उन्हें ‘दयानंद पंथी’, ‘विलायत पंथी’ और ‘नास्तिक पंथी’ का तमगा प्रदान करने में जरा भी देर नहीं लगाते थे। संतराम बी.ए. जाति और वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध जैसे ही कुछ लिखते वैसे ही उच्च श्रेणी के हिन्दू लेखक इनके खिलाफ पत्र-पत्रिकाओं में मोर्चा खोल देते थे। यह बड़ी दिलचस्प बात है कि हिन्दी के प्रसिद्ध भाषाविद् किशोरीदास बाजपेयी और हिन्दी साहित्य के मजबूत स्तंभ सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ संतराम बी.ए. का विरोध करते दिखाई देते हैं।

  किशोरीदास बाजपेयी ने संतराम बी.ए. द्वारा उठाया गया सवाल कि ‘वर्ण-व्यवस्था ही जातिवाद की जननी है’ का खण्डन कर वर्ण-व्यवस्था के मंडन में उतर आए थे। किशोरीदास बाजपेयी का स्पष्ट कहना था कि वर्ण-व्यवस्था अस्पृश्यता की जनक नहीं है। इस भाषाविद् ने लिखा था :

‘‘वर्ण-व्यवस्था अछूतपन की जननी है, यह केवल अज्ञान-प्रलाप है। कोई भी तर्क या अनुभव इसमें प्रमाण नहीं और न दिल ही मानता है। वर्ण-व्यवस्था से इस पाप का संपर्क बतलाना तो ऐसा ही है, जैसे सूर्य में अंधकार बतलाना।’’3

यह जानते हुए कि वर्ण मूलक व्यवस्था ने दलित-पिछड़ों और स्त्रियों पर कितना जुल्म और अत्याचार ढ़ाया है; इसके बावजूद इस भाषाविद् ने वर्ण-व्यवस्था को समाज के लिए कल्याणकारी व्यवस्था के तौर पर देखा था। इस भाषाविद् ने संतराम बी.ए. पर ‘पाश्चात्यवादी चश्मा’ का आरोप जड़कर भारतीय संस्कृति को जानने की नसीहत तक दे डाली थी।

अब सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की बात की जाए। जब संतराम बी.ए. ने ‘जात-पांत-तोड़क मण्डल’ बनाया और इस मण्ड़ल की चर्चा जोर पकड़ने लगी तब सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने ‘वर्णाश्रम-धर्म की वर्तमान स्थिति’ लेख लिखकर संतराम बी.ए. और इनके ‘जात-पांत-तोड़क मण्डल’ के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। निराला की दृष्टि में यह मण्डल अप्रासंगिक था क्योंकि यह जात-पांत तोड़ने की बात करता था। इनकी दृष्टि में मण्डल की प्रासंगिकता तब होती जब यह ‘जात-पांत-तोड़क’ नहीं ‘जात-पांत-योजक’ होता। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ लिखते हैं :

‘‘जाति-पाँत-तोड़क मण्डल’’ मंत्री संतराम बी.ए. के करार देने से  इधर दो हजार वर्ष के अन्दर का संसार का सर्वश्रेष्ठ विद्वान् महामेधावी त्यागीश्वर शंकर शूद्रों के यथार्थ शत्रु सिद्ध हो सकते हैं। शूद्रों के प्रति उनके अनुशासन, कठोर-से-कठोर होने पर भी, अपने समय की मर्यादा से द्दढ संबद्ध हैं। खैर, वर्ण-व्यवस्था की रक्षा के लिए जिस ‘‘जायते वर्ण संकरः’’ की तरह के अनेकानेक प्रमाण उद्धृत किए गए हैं, उनकी सार्थकत इस समय मुझे तो कुछ भी नहीं देख पड़ती, ‘‘जाति-पाँत-तोड़क मण्डल’’ की ही विशेष कोई आवश्यकता प्रतीत होती है।‘‘जात-पाँत-तोड़क मण्डल’’ को मैं किसी हद तक सार्थक समझता, यदि वह जाति-पाँति-योजक मंडल’’होता।’’4

 निराला की चिंता थी कि संतराम बी.ए. जात-पांत-तोड़क मण्डल की स्थापना कर जाति तोड़ने का उद्यम क्यों रहे है? निराला चाहते थे कि संतराम बी.ए. ‘ब्रह्म समाज’ की शाखा लाहौर में स्थापित कर जाति जोड़ने का काम करना चाहिए था। इनके अनुसार हिन्दू सुधारकों का पिछलग्गू बनकर संतराम बी.ए.को समाज सुधार का कार्य करना चाहिए था।

  सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने संतराम बी.ए.की पढ़ाई के बहाने दलितों और पिछड़ों की शिक्षा का मजाक उड़ाया था। इस महाकवि की दृष्टि में अंग्रेजी शिक्षा पाकर शूद्र उद्दंड हो गए हैं। इस शिक्षा के बल पर भारतीय संस्कृति और वर्ण विधान को चौपट करने में लगे हुए हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने संतराम बी.ए. की शिक्षा का मजाक उड़ाते हुए लिखा था:

‘‘अंग्रेजी स्कूलों और कालेजों में जो शिक्षा मिलती है, उससे दैन्य ही बढ़ता है और अपना अस्तित्व भी खो जाता है। बी.ए. पास कर के धीवर, लोध अगर ब्राह्मणों को शिक्षा देने के लिए अग्रसर होंगे, तो संतराम बी.ए. की तरह हास्यास्पद होना पडे़गा।’’5

  यह निराला का उच्चवर्णीय दंभ नहीं तो और क्या है? यह तो वर्ण व्यवस्था के विधान के अनुकूल बात हो गई कि जिसमें कहा गया कि कोई ‘शूद्र ज्ञानवान’ होते हुए भी ब्राहाण को शिक्षा नहीं दे सकता है। गौरतलब है कि संतराम बी.ए. कुम्हार जाति के थे। वर्ण-विधान के अनुसार वे सबसे अंतिम पायदान पर आते है। पंडितों को यह बात शूल की तरह चुभ रही थी कि पिछड़े समाज का व्यक्ति ब्राहृाणों का गुरू कैसे बन गया है! यह वर्ण व्यवस्था का चमत्कार ही कहा जायगा कि दलितों, पिछड़ों और स्त्रियों को प्राणविहीन और उच्च वर्ण के हिन्दुओं को महाप्राण बनाने का काम किया है।

 हिन्दी के आलोचक ‘चतुरी चमार’ को बड़ी क्रांतिकारी कहानी बताते आ रहे हैं। मेरी दृष्टि में यह एक आत्मवृत है। इस कहानी का पाठ यदि दलित शिक्षा की दृष्टि से किया जाए तो पता चलेगा कि एक आठ-दस-साल का ब्राह्मण बच्चा चतुरी के बेटे अर्जुन की पढ़ाई का मजाक उड़ाता है। जब सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ अपने लेख में पिछड़ों की शिक्षा का मजाक उड़ा सकते हैं तो वे कहानी में कैसे चूक कर जाते !

 बात निराला ही की नहीं है छायावाद के प्रमुख कवि सुमित्रानंदन पंत ने ‘चमारों का नाच’ शीर्षक से एक कविता लिखी है। इस कविता की कुछ पंक्तियां देखिएयह चमार चैदस का ढंग’, ‘थिरक चमारिन रही छनाछन’, ‘मजलिस का मसखरा करिंगा’, ‘इठला रही चमारिन छन छन’, ‘ये समाज के नीच अधम जन’, ‘रंग दिखाता महुआ, भंग, यह चमार चैदस का ढंग!6 कविता में आई इन पंक्तियों पर मुझे कुछ भी नहीं कहना है लेकिन एक सवाल तो बनता ही है कि हिन्दी के लेखक शराब और भांग के बिना दलितों चित्रण क्यों नहीं कर पाते हैं?

 संतराम बी.ए.ने जाति को मिटाने का औजार ‘अंतरजातीय विवाह’ को बताया था। ध्यातव्य है कि जात-पांत-तोड़क मण्डल ने जाति व्यवस्था को मिटाने के लिए अंतरजातीय विवाह पर बल दिया था। संतराम बी.ए. का विश्वास था कि यदि उच्च श्रेणी के हिन्दू रोटी-बेटी की बेड़ियां तोड़ दें तो समाज से जाति व्यवस्था मिटाई जा सकती है। संतराम का सुझाया गया अंतरजातीय विवाह का नुस्खा उच्च वर्ण के लेखकों को रास नहीं आया था। दरअसल, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ तो अंतरजातीय विवाह के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे। अंतरजातीय विवाह को लेकर उनके विचार थे :

‘‘अछूतों के साथ रोटी-बेटी का संबंध स्थापित कर, उन्हें समाज में मिला लिया जाए या इसके न होने के कारण ही एक विशाल संख्या हिन्दू राष्ट्रीयता से अलग है, यह एक कल्पना के सिवा और कुछ नहीं। दो मनों की जो साम्य-स्थिति विवाह की बुनियाद है और प्रेम का कारण, इस तरह के विवाह में उसका सर्वथा अभाव ही रहेगा। और,जिस यूरोप की वैवाहिक प्रथा की अनुकूलता संतराम जी ने की है वहाँ भी यहीं की तरह वैषम्य का साम्राज्य है’’7

दरअसल उच्चवर्णीय तबका अंतरजातीय विवाह को लेकर उदार नहीं बल्कि कठोर रहा है। यदि ऐसी स्थिति में निराला अंतरजातीय विवाह के पक्ष में नहीं थे तो यह कोई ताज्जुब वाली बात नहीं है।

  यह ब्रिटिश भारत की ऐताहासिक घटना थी कि जात-पाँत तोड़क मण्डल ने सैकड़ों अंतरजातीय विवाह करवाये थे। इस तरह संतराम बी. ए. आधुनिकता से लैस सुधारक और विचारक के रुप में सामने आते हैं। इनके सिद्धांत और व्यवहार में अंतर नहीं था। इन्होंने पत्नी का देहांत हो जाने के बाद एक विधवा से अंतरजातीय विवाह कर समाज में मिसाल कायम की थी।

 संतराम बी.ए. की मंशा थी कि अंतरजातीय विवाह को कानूनी मान्यता मिले। इसके लिए इन्होंने बी.जे पटेल बिल का जमकर समर्थन किया था। सन् 1918 में बी.जे. पटेल ने अंतरजातीय विवाह को वैद्यता के लिए लेजिस्लेटिव असेम्बली में बिल पेश किया गया था। बिल में इस बात पर विशेष जोर दिया गया था कि जो लोग अंतरजातीय विवाह करते हैं उनके विवाह को कानूनी मान्यता प्रदान की जाए। इस बिल में एक बात और जोड़ी गई थी कि अंतरजातीय विवाह से उत्पन्न संतान को अपने बाप-दादा की पैतृक सम्पति में अधिकार दिया जाए। दरअसल, अंतरजातीय विवाह करने वाले लोगों की यह समस्या थी कि उनके अंतरजातीय विवाह को हिन्दू लॉ के अनुसार तत्कालीन समय में वैध नहीं माना जाता था। इस समस्या के समाधान के लिए ही ‘पटेल-बिल’ लाया गया था। इस बिल का तत्कालीन समाज में घोर विरोध हुआ था। सनातनधर्म-सभा, लाहौर ने पटेल-बिल के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। इसके आलावा अमृतराय जर्नलिस्ट ने अट्ठाईस पृष्ठों का अंग्रेजी में पैम्फलेट लिखकर लोगों में बंटवाया था। इस पैम्फलेट में अंतरजातीय विवाह के विरोध में अनेक दलीलें पेश की गई थीं और सरकार से यह अपील की गई थी कि हिन्दू जन भावनाओं का ध्यान रखते हुए इस बिल को पास न किया जाए।

 संतराम बी.ए. ने ‘अंतरजातीय विवाह’ लेख लिखकर अमृतराय की आपत्तियों का बड़ा ही तार्किक खण्डन किया था। अमृतराय की आपत्ति थी कि अंतरजातीय विवाह हिन्दू भावना के विरुद्ध है। संतराम बी.ए. ने इस आक्षेप के जवाब में लिखा था : ‘‘आपको देश की स्थिति का ठीक से ज्ञान नहीं जान पड़ता, नहीं तो आप ऐसा न कहते। लोग बिरादरियों के संकीर्ण क्षेत्रों से तंग हैं, पर आप जैसे कट्टर पौराणिकों ने उनको इतना भयभीत कर रखा है कि जाति के बाहर जाने का साहस ही नहीं रहा।’’8 पुरोहितों और पौराणिकों की इस समय तूती बोलती थी। इसके शिकार पंडित लक्ष्मीकांत भट्ट थे। इनका कसूर बस इतना था कि इन्होंने अपनी पुत्री का विवाह दूसरी जाति के लड़के से कर दिया था। इस घटना को लेकर हिन्दी की तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने बड़ा शोर मचाया। अपनी पुत्री का जाति से बाहर विवाह करने के कारण भट्ट जी को जाति से बहिष्कृत कर देने के फतवे दिए जाने लगे थे। दिलचस्प बात यह है कि पंडित लक्ष्मीकांत भट्ट महामना पंडित मदनमोहन मालवीय के समधी थे। इस घटना के बाद पंडित मदनमोहन मालवीय ने उनसे अपने संबंध तोड़ लिए। संतराम बी.ए. ने इसको लेकर पंडित मदनमोहन मालवीय की आलोचना की। संतराम बी.ए. ‘युगान्तर’ में पंडित मदनमोहन मालवीय की मानसिकता पर तीखा प्रहार करते रहते थे जिससे मालवीय जी तिलमिला उठते थे। संतराम बी.ए. को मालवीय जी का कटु आलोचक होने का खिताब तक मिल गया था। संतराम बी.ए ने मालवीय जी के संबंध में लिखा था :

‘‘एक मालवीय ब्राह्मण को, दूसरे मालवीय ब्राह्मण को देखकर जो प्रसन्नता होती है, वह जाट या कहार को देखकर नहीं होती। कारण यह कि कार्यत: मालवीय के लिए मालवीय ही हिन्दू हैं, शेष सब अहिन्दू हैं, क्योंकि मालवीय के यहां वह रोटी-बेटी का सम्बन्ध कर सकता है।’’9   

  संतराम बी.ए. हिन्दुओं की कथनी और करनी को लेकर सवाल उठाते थे। वे हिन्दुओं से पूछते थे कि आप चमारों और भंगियों से भेदभाव क्यों करते हैं? अछूतों को सर्वजानिक संपत्ति का उपयोग करने से क्यों वंचित कर रखा है? अछूतों को कुओं से पानी भरने का अधिकार क्यों नहीं दिया जा रहा हैं ? हिन्दू सुधारक अछूत मुद्दों पर अपनी चुप्पी क्यों साध लेते हैं? इन तीखे सवालों का जवाब वर्णवादियों के पास नहीं था। इसलिए संतराम बी.ए. की योग्यता पर सवाल उठाया गया इनको हिन्दू संस्कृति के विध्वंसक का खिताब दिया गया। इस से आगे बढ़कर इन्हें मिस मेयो कैथरीन का भाई बताया गया। गौरतलब है कि मिस मेयो कैथरीन ने ‘मदर इन्डिया’ नामक एक मारक किताब लिखी थी।

  संतराम बी.ए. का बाबा साहेब डा. आम्बेडकर से घनिष्ठ सम्बन्ध था। इन्होंने डा.आम्बेडकर को सन् 1936 में जात-पांत-तोड़क मण्डल के वार्षिक अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया था। जात-पांत-तोड़क मण्डल के वार्षिक अधिवेशन का उद्देश्य यह था कि जाति व्यवस्था को कैसे मिटाया जाए? जांत-पांत तोड़क मण्डल के वार्षिक अधिवेशन होने के कुछ दिन पहले ही डा़॰ आम्बेडकर ने जाति-व्यवस्था से तंग आकर यह घोषणा कर दी थी कि ‘यद्यपि मैं हिन्दू जन्मा हूँ लेकिन हिन्दू के रुप में मरूंगा नहीं’। डा. आम्बेडकर की इस घोषणा से पूरे देश में तहलका मच गया था। लाहौर के भद्रवर्ग समाज ने संतराम बी.ए. को धमकी दे डाली कि यदि डा.आम्बेड़कर मण्डल के वार्षिक अधिवेशन में आयेंगे तो हम काला झण्डा दिखाकर उनका विरोध करेंगे। संतराम बी.ए. ने अंत में डा.आम्बेडकर की गरिमा का ख्याल रखते हुए सन् 1936 में होने वाले जात-पांत-तोड़क मण्डल का वार्षिक अधिवेशन स्थगित कर दिया। संतराम बी.ए. ने इस प्रकरण पर अपनी आत्मकथा में लिखा है :

‘‘डा. आम्बेडकर को अध्यक्ष बनाने का मेरा एक उद्देश्य यह भी था कि जो बात हम डाक्टर साहब को तर्क से नहीं मनवा सके वह उनके हृदय को अपील करके प्रेम में मनवाने के यत्न करें। परन्तु जब मैंने देखा कि लाहौर के प्रतिष्ठित सज्जन काले झण्ड़े दिखाएंगे तो मैंने सम्मेलन को स्थगित कर देना ही उचित समझा।’’10

  हिन्दुओं की संकीर्ण मानसिकता के चलते यह सम्मेलन भले ही स्थगित हो गया था लेकिन सुखद पहलू यह था कि संतराम बी.ए. ने बाबा साहब के भाषण ‘जाति उच्छेद’ को जात-पांत-तोड़क मण्डल की ओर से प्रकाशित कर वितरित कर दिया था। यही भाषण बाद में ‘Annihilation of cast’ नाम से किताब के रूप में प्रकाशित हुआ। डा.अम्बेडकर से ‘एनिहिलेशन आफ कास्ट’ किताब लिखवाने का श्रेय संतराम बी.ए. को दिया जाना चाहिए।

  जब ‘एनिहिलेशन आफ कास्ट’ किताब छपी तो महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ पत्र के 11 और 18 जुलाई 1936 के अंक में आलोचना की। संतराम बी. ए. ने गांधी जी की आलोचना का जवाब ‘हरिजन’ पत्र में ही दिया था। संतराम बी.ए. ने गांधी के लेख पर कई सवाल भी उठाए थें। इन्होंने गांधी जी से पूछा था कि आप अस्पृश्यता को दूर करने का उपाय तो करते हैं लेकिन वर्ण-व्यवस्था का बचाव क्यों करते हैं? यह भी सवाल उठाया था कि जाति व्यवस्था का शास्त्रों में समाधान खोजना वैसा ही है जैसे कीचड़ को कीचड़ से धोना। संतराम बी.ए. के समकालीन हिन्दू लेखक और सुधारक वर्ण व्यवस्था को खत्म किए बिना ही अस्पृश्यता और जात-पांत को मिटाना चाहते थे। जबकि संतराम बी.ए. वर्ण-व्यवस्था ही को खत्म करने की बात कर रहे थे। इनका मानना था कि जब तक जाति व्यवस्था की जड़ वर्ण-व्यवस्था नहीं मिटेगी दलितों और पिछड़ों की समस्या का समाधान नहीं होगा।

  संतराम बी.ए जीवन भर जाति-व्यवस्था के भयंकर उत्पातों को सामने लाकर इसे मिटाने का संघर्ष करते रहे। संतराम बी.ए. ने समाज का समतल बनाने के लिए जिन सिद्धातों पर काम किया उनमें पहला सिद्धांत था कि वर्ण-व्यवस्था को खत्म कर दिया जाये। यदि वर्ण-व्यवस्था खत्म होती है तो स्वतः लोग समता और समतल का रास्ता अपने आप पकड़ कर चलाने लगेंगे। इनका दूसरा सिद्धांत था कि समाज में यदि अंतरजातीय विवाह का प्रचलन शुरु कर दिया जाए तो जाति-व्यवस्था की जड़ आपने आप सूख जायेगी। एक तरह से संतराम बी.ए. रोटी और बेटी की हंदबदी के एकदम खिलाफ थे। संतराम बी.ए. वर्णवादियों के सवालों से घबराते नहीं थे; अपने खिलाफ सवालों का बड़ा ही तार्किक जवाब दिया करते थे। हिन्दी नवजागरण की शायद ही कोई पत्रिका रही होगी जिसमें संतराम बी.ए. ने जाति व्यवस्था के खिलाफ लिखा न हो। संतराम बी.ए. ने जाति व्यवस्था और वर्ण-व्यवस्था की जड़ पर खुलकर प्रहार किया। अपने सिरहाने मनुस्मृति रखकर सोने वाले विद्वानों की मानसिकता पर मारक प्रहार किया। संतराम बी.ए. जाति और वर्ण-व्यवस्था के जानी दुश्मन थे। इस मानव विरोधी दुश्मन पर जितना मारक प्रहार इन्होंने किया शायद ही नवजागरण कालीन किसी हिन्दी लेखक ने किया था। ताज्जुब होता कि हिन्दी के आलोचकों ने उनके योगदान का नोटिस तक नहीं लिया।

सन्दर्भ

1.जात-पांत और अछूत प्रथा, श्री सन्तराम बी.ए. विश्वमित्र, जनवरी 1933,वर्ष 1,खण्ड, 1 भाग 1 पृ-29

2.यह वर्ण-व्यवस्था है या मरण-व्यवस्था ?,संतराम बी.ए., माधुरी अप्रैल 1928,  वर्ष 6, खण्ड 2, संख्या                     3, पृ-396

3.आर्यो की वर्ण-व्यवस्था,किशोरीदास बाजपेयी, माधुरी 1928, ,  वर्ष 6, खण्ड 2, संख्या 4, पृ-535

4.वर्णाश्रम-धर्म की वर्तमान स्थिति, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘‘निराला’’ माधुरी,माघशीर्ष 306तुलसी संवत 1986,वर्ष 8, खंड 1, संख्या 5, पृ-836-37

5.वर्णाश्रम-धर्म की वर्तमान स्थिति, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘‘निराला’’ माधुरी,माघशीर्ष 306तुलसी संवत 1986,वर्ष 8, खंड 1, संख्या 5, पृ-842

6.सुमित्रानंदन पंत ग्रन्थावाली, खण्ड: 2, राजकमल प्रकाशन, संस्करण:1993, पृ- 146-47

7.वर्णाश्रम-धर्म की वर्तमान स्थिति, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘‘निराला’’ माधुरी,माघशीर्ष 306तुलसी संवत 1986,वर्ष 8, खंड 1, संख्या 5, पृ-842

8.अंतरजातीय विवाह, संतराम बी.ए., सुधा जुलाई 1929, वर्ष 2, खंड 2,  संख्या 5, पृ-599

9.जात-पांत और अछूत प्रथा, श्री सन्तराम बी.ए. विश्वमित्र, जनवरी 1933,वर्ष 1,खण्ड, 1 भाग 1 पृ-31

10.मेरे जीवन के अनुभव,श्री संतराम बी.ए., हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी,  अक्तूबर 1963, पृ-219

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[कथाक्रम पत्रिका से साभार]

                                                        

(सुरेश कुमार नवजागरणकालीन साहित्य के गहन अध्येता हैं।)

 मो.8009824098

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2 comments

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