जाने माने लेखक त्रिलोकनाथ पांडेय का यह लेख उनके प्रिय विषय खुफियागिरी पर है। वे गुप्तचर सेवा के उच्च अधिकारी रहे और आजकल पूर्णरूप से लेखन कार्य में जुटे हैं।
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पिछली सदी उतर रही थी और नई चढ़ रही थी. लगभग एक साल बाद जनवरी-फरवरी 2001 में प्रयागराज में महाकुम्भ मेला लगने वाला था. हमारे दिल्ली मुख्यालय ने अपनी वार्षिक योजना (एनुअल इंटेलिजेंस प्लान) के तहत कई लक्ष्यों में से एक लक्ष्य रखा था ‘अखाड़ा पॉलिटिक्स’ पर एरिया स्टडी कराने का.
कुम्भ मेलों में साधुओं के आपसी संघर्ष का इतिहास काफी पुराना रहा है. ऐसे में साधु-सन्यासियों के अखाड़ों के अंतर्द्वंद्व, गुटबंदी और आपसी राजनीति को गहराई से समझने की आवश्यकता थी. सरकार की चिंता थी कुम्भ मेला सकुशल सम्पन्न हो.
उन दिनों वाराणसी परिक्षेत्र के मुख्यालय में मैं तैनात था. एरिया स्टडी का कार्य मेरे डेस्क पर आया. मैंने वह कार्य फील्ड इनपुट के लिए वाराणसी, इलाहबाद और अयोध्या के क्षेत्र-प्रभारियों को सौंप दिया. नियत समय के बाद तीनों क्षेत्रों से जो विवरण आये वे कंकाल मात्र थे. उन्हें समझ कर कुछ विवेचना और विश्लेषण कर पाना मुश्किल था. रिपोर्टें उन अधिकारियों को वापस लौटा दी गयीं इस निवेदन के साथ कि उन पर फिर से कार्य किया जाय और बोधगम्य रूप में उन्हें पुनः प्रस्तुत किया जाय.
इस बीच, एक पुस्तकालय में चक्कर काटते समय एक पतली-सी किताब मेरे हाथ लगी – सर जदुनाथ सरकार की ‘हिस्ट्री ऑफ़ दशनामी सन्यसीज’. उस किताब को पढने में मैंने देर न की. साथ ही, कुछ सामग्री इधर-उधर की लाइब्रेरी से भी इकट्ठी कर लिया. अब मुझे सन्यासियों के अखाड़ों की अच्छी समझ हो गयी. तब तक फील्ड रिपोर्टें भी पहुँच आयीं. अब मेरा काम एकदम आसान हो गया. खुले स्रोतों (ओपन सोर्सेज) से प्राप्त ज्ञान और हमारे गुप्त स्रोतों (क्लोज्ड सोर्सेज) से प्राप्त इनपुट्स के आधार पर एकदम एक बढ़िया विश्लेष्णात्मक रिपोर्ट बनी, जिसकी काफी प्रशंसा हुई.
जरूरी खबर जुटाने का जो तरीका हमने अपनाया उसे गुप्तचरों की भाषा में ओपन सोर्स इंटेलिजेंस (OSINT, मुक्त-स्रोत आसूचना) कहते हैं. इसे आप ‘खुल्लमखुल्ला खुफियागीरी’ भी कह सकते हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में सार्वजानिक क्षेत्र (पब्लिक डोमेन) में खुलेआम उपलब्ध स्रोतों से सूचनाएं दूह कर गोपनीय कार्यों को पोषित किया जाता है.
गोपनीय कार्यों के लिए सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सूचनाओं का उपयोग एक जमाने से होता रहा है. परम्परागत रूप से इसे लाइब्रेरियों में उपलब्ध पुस्तकों व शोध पत्र-पत्रिकाओं, सेमिनारों और सम्मेलनों की कार्यवाहियों, विभिन्न अध्ययनों (स्टडीज), सरकारी गजर्टों, आकड़ों. नक्शों और चित्रों, श्वेत-पत्रों, तथा व्यापारिक उद्देश्यों से फैलाई गयी प्रचार-सामग्रियों (ब्रोश्योर्स) और पेशेवर विश्लेषकों द्वारा किसी व्यापारिक प्रतिष्ठान के बारे प्रस्तुत की गयी प्रगति-रिपोर्टों में खोजा जाता रहा है. साथ ही, रेडियो और टेलीविज़न जैसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम भी ख़ुफ़िया सूचना के स्रोत के रूप में अपनाए जाते रहे हैं. खुले आम उपलब्ध ये स्रोत जासूसी के काम में खूब उपयोगी सिद्ध होते रहे हैं या यूँ कहिये कि अपने काम की काफी सूचनाएं खुले स्रोतों से ही मिल जाती हैं. भूतपूर्व सीआईए अधिकारी आर्थर हलनिक ने एक बार आकलन किया था कि ख़ुफ़िया खबरों का लगभग 80% खुले आम उपलब्ध स्रोतों से मिल जाता है और इस प्रकार खुले स्रोतों से प्राप्त खबरों का ख़ुफ़िया ख़बरों के साथ तालमेल बैठाते चलना चाहिए ताकि ख़ुफ़िया खबरें और भी पुश्त और सशक्त बन जाएँ. “खुले स्रोतों से प्राप्त सूचनाएँ भले ही जोखिमभरी और चित्ताकर्षक न लगें, लेकिन खुफियागीरी के लिए नीव के पत्थर के तौर पर यही काम आती हैं.”[1]
डिजिटल युग आ जाने से आजकल जबरदस्त सूचना-विस्फोट हुआ है. सूचनाओं का मुक्त प्रवाह अब चारो ओर हो रहा है. इसका दोहन मित्र और शत्रु दोनों ओर के गुप्तचर और विध्वंसक लोग खूब कर रहे हैं. इसका उपयोग कर शत्रु पक्ष के लोग सेना और सुरक्षाबलों के लिए जबरदस्त खतरा बने हुए हैं. यही नहीं, सूचना-संसार में सक्रिय शत्रुओं द्वारा एक नये तरह के युद्ध की शुरुआत की गयी है. इसका एक ज्वलंत उदहारण है इराक और सीरिया में इस्लामिक स्टेट (आतंकवादी संगठन) की आतंकी गतिविधिया. इस्लामिक स्टेट ने अपने लिए रिक्रूटों का चयन करने, अपने दुश्मनों पर निशाना साधने, धन जुटाने और यहाँ तक कि आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने में सोशल मीडिया का खूब उपयोग किया.
खुले स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं का आतंकवादियों द्वारा लाभ उठा लेने का एक दूसरा ज्वलंत उदहारण भारत में मिलता है, जब 26/11 मुंबई अटैक के दौरान ज्यादातर भारतीय टीवी समाचार चैनलों ने अनजाने में आतंकवादियों को सूचनायें उपलब्ध कराने की बेवकूफी की थी. टीवी चैनलों के गैरजिम्मेदाराना लाइव कवरेज से हमारे सुरक्षाबलों की पोजीशन और उनके हथियारों के बारे में जानकारी सीमा पार बैठे आतंकवादियों के आकाओं को तुरंत मिल रही थी जिससे वे छुपे हुए आतंकवादियों को सॅटॅलाइट फोन पर सटीक निर्देश दे रहे थे. इससे आतंकवादियों को छुपने और सटीक फायर करने में मदद मिल रही थी तो दूसरी ओर हमारे सुरक्षाबलों को छुपे हुए आतंकवादियों के लोकेशन की ठीक जानकारी नहीं मिल पा रही थी.
एक अन्य उदहारण है ‘बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक’ और उसके बाद भारत व पाकिस्तान के विमानों के बीच ‘डॉगफाइट’ (26-27 फरवरी, 2019) का. इस सम्बन्ध में लेफ्टिनेंट जनरल(सेवानिवृत्त) एच एस पनाग अपने एक लेख[2] में बताते हैं कि कुछ व्यापारिक वेबसाइटों पर भारतीय लड़ाकू विमानों की गतिविधियों के बारे में उपलब्ध संवेदनशील सूचनाओं को शत्रुपक्ष द्वारा उपयोग कर लिए जाने की आशंका थी. भारत के आग्रह पर ट्विटर ने ऐसे संवेदनशील सूचनाओं को वहन करने वाले कई वेबसाइट्स को अस्थाई रूप से हटा दिया था.
अपने उसी लेख में पनाग साहब एक और उदहारण देते हुए कहते हैं कि सेना के कमांडर को प्राप्त विशेष वित्तीय अधिकारों के अंतर्गत नोर्थन कमांड को आकस्मिक खरीदारियों के लिए 300 करोड़ रूपये का बजट मिला हुआ है. सेना को हथियारों की खरीददारी के मामले में सरकारी प्रक्रिया का पालन करना होता है, जिसके अंतर्गत टेंडर इन्टरनेट पर प्रकाशित किया जाता है. इन टेंडर नोटिसों में दी गयी सूचनाओं का विश्लेषण करके कोई भी आसानी से जान सकता है कि नोर्थन कमांड को किन-किन चीजों की कमी है और वह कौन-कौन से विशिष्ट हथियार और साजो-सामान खरीद रहा है.
पर्वतीय क्षेत्रों में, पहाड़ों की भौगोलिक स्थिति के कारण सेना चोटियों और अन्य ऊंचे स्थानों पर स्थित होती है और वहीँ पर उनकी तोपें और अन्य साजो-सामान भी रखे होते हैं. ऐसी स्थिति में कोई भी सेना विशेषज्ञ Google Maps और Google Earth के द्वारा इनके ठिकानों का आसानी से पता लगा सकता है. इसके बाद तो अन्य बातें जैसे वहां स्थित सेना की यूनिट और उनकी संख्या, उनके हथियारों की गुणवत्ता और मारक क्षमता इत्यादि गूगल पर बड़े आराम से जाना जा सकता है. ऐसे में फिर गुप्त ढंग से जासूसी करने की जरूरत क्या रह जाती है!
यही स्थिति वायुसेना और नौसेना की भी है. वायुसेना के जहाजों और नौसेना के समुद्री जहाजों की जानकारी सामान्य परिस्थिति में पब्लिक डोमेन में सहज रूप से उपलब्ध रहती है. यह बात अलग है कि ऑपरेशन्स के समय ये जहाज कोड भाषा में संवाद एवं संचार करते हैं. पब्लिक डोमेन में उपलब्ध जानकारियों के आधार पर शत्रु हमारे सामरिक रूप से महत्वपूर्ण जहाजों के बारे में बहुत-सी जानकारियां हासिल कर लेता है.
इस खतरनाक स्थिति से बचने के लिए सामरिक रूप से संवेदनशील स्थानों, हथियारों और अन्य उपकरणों को छुपा कर और ढँक कर रखा जा सकता है. सेना की टुकड़ियों को खंदकों और खाइंयों में छुपा कर तैनात किया जा सकता है. साथ ही, गूगल से आग्रह किया जा सकता है कि ऐसे संवेदनशील मामलों में चित्रों को थोडा धुंधला (blur) कर दिया करे ताकि उनकी सटीक पहचान न हो सके. नौसेना और वायुसेना के जहाजों की लोकेशन को छुपाने के लिए छल (डिसेप्शन) के उपायों को भी अपनाया जा सकता है.
इन सबके बावजूद, इन्टरनेट पर संवेदनशील सूचनाओं को बड़े आराम से ढूंढ निकला जा सकता है. वास्तव में, हम जब भी इन्टरनेट का प्रयोग करते हैं हमारी पहचान उस पर दर्ज होती जाती है. चाहे सोशल मीडिया पर हमारी टिप्पणियाँ हों, स्काईपी काल पर बातचीत हो, किसी एप्प का प्रयोग हो या ईमेल पर कोई सन्देश भेज रहे हों. सब पर इन्टरनेट की नजर है. इन्टरनेट पर किसी की गतिविधियों को आसानी से जाना जा सकता है और उन सूचनाओं का उपयोग/दुरुपयोग शोषण और ब्लैकमेल में किया जा सकता है.
यही कारण है कि कई संगठनों और संस्थानों में इन्टरनेट के प्रयोग के समय आतंरिक सुरक्षा नियन्त्रण के उपाय अपनाए जाते हैं. गुप्तचर संगठनों में प्रयोग होने वाले कंप्यूटरों में तो इन्टरनेट कनेक्शन ही नहीं कभी जोड़ा जाता है. यही नहीं, ऐसे कंप्यूटरों का बीच-बीच में सिक्यूरिटी ऑडिट भी होता रहता है ताकि उनमें किसी भी प्रकार की सेंध को पकड़ा/रोका जा सके. सेंध लगने के डर से तो कई गुप्तचर संस्थान कुछ मामलों में टाइपराइटर के पुराने युग की ओर लौट पड़े हैं और टाइप की हुई प्रतियों की संख्या का बकायदे हिसाब रखा जाता है और कार्बनों कागजों को जिम्मेदार अधिकारियों की देख-रेख में तुरंत जला कर नष्ट कर दिया जाता है.
लगभग सभी गुप्तचर संगठनों में खुले स्रोतों से सूचना एकत्र करने की विशिष्ट इकाइयाँ होती हैं. इन इकाइयों में विशिष्ट रूप से प्रशिक्षित लोग होते हैं जो जरूरी सूचनाओं के संकलन का कार्य करते हैं. इनके अलावा दूसरे प्रशिक्षित लोग भी होते हैं जो इस प्रकार एकत्र की हुई सूचनाओं का विश्लेषण और मूल्यांकन कर उन्हें आसूचना में परिवर्तित करते हैं ताकि वे ख़ुफ़िया अभियानों के काम आ सकें.
गुप्तचर संगठनों के अलावा कई अन्य संसथान या समुदाय होते हैं जो खुले स्रोतों से सूचनाएं संकलित करने को सक्रिय रहते हैं. इनमे से मुख्य हैं सेना और अर्धसैन्य बलों के लोग, आतंरिक सुरक्षा को संभालने वाली सशस्त्र पुलिस बल, कानून-व्यवस्था सुनिश्चित करने वाली सिविल पुलिस, व्यापारिक प्रतिष्ठान और निजी तौर पर विशिष्टता प्राप्त किये हुए पेशेवर लोग. यही नहीं, खुले स्रोतों से सूचनाएं एकत्र करने के लिए इन्टरनेट पर कई टूल्स, एप्स और तकनीक उपलब्ध हैं. कुछ डिजिटल टूल्स के नाम हैं – Maltego, Shodan, The Harvester , Metagoofil , The Operative Framework , और Paliscopeis. कई ऐसे निजी संस्थान भी हैं जो इच्छुक व्यक्तियों को इस विद्या में प्रशिक्षण देने का कार्य करते हैं. ये अपने प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रायः ऑनलाइन चलाते हैं.
खुले स्रोतों से सूचनाएं एकत्र करने की तकनीकों को मोटे तौर पर दो वर्गों में बांटा जाता है. पहले वर्ग में सक्रिय तकनीकें आती हैं जिनके द्वारा संकलनकर्ता स्रोत के संचालक के सीधे सम्पर्क में आ जाता है. सक्रिय तकनीकों का फायदा यह है कि आप स्रोत के संचालक से चालाकी से कुछ सवाल भी पूछ सकते हैं जिसके जवाब में आपके काम की सूचना मिल सकती है. किन्तु, इसका एक नुकसान यह है कि संचालक अगर आपकी गतिविधि भांप लेता है तो वह उस स्रोत को सील कर देगा. ऐसी हालत में वह स्रोत एक दम सूख जायेगा और सूचना का प्रवाह रुक जायेगा. दूसरी श्रेणी है निष्क्रिय तकनीकों की, जिसमें आप संचालक के सीधे संपर्क में न आकर किसी डाटाबेस से चुपके-चुपके सूचनाएं लेते रहते हैं. इस तकनीक में कमी यह है कि डाटाबेस में जो सूचना उपलब्ध होगी वहीं तक आपकी पहुँच है. इसमें कोई नई बात जानने या पूछने की सुविधा नहीं होती. हाँ, इसमें फायदा यह है कि इसमें पकडे जाने का डर कम होता है.
इस प्रकार, हम देखते हैं कि खुले स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं के कई फायदे हैं. एक तो ये सूचनायें आसानी से और सस्ते में उपलब्ध हो जाती हैं. इन्हें पाने के लिए परम्परागत जासूसी के जोखिम और जटिलताओं से गुजरने की जरूरत नहीं होती. दूसरे, ये सूचनाएं कानूनी रूप से वैध और सामाजिक रूप से स्वीकृत होती हैं. इन्हें किसी के साथ साझा करने में न तो कोई अड़चन है और न ही किसी प्रकार की सुरक्षा सम्बन्धी स्पष्टीकरण देने की जरूरत है. तीसरे, जासूसी तरीकों से प्राप्त सूचनाएँ कई बार बड़ी अस्पष्ट और अपर्याप्त होती हैं. ऐसी स्थिति में खुले स्रोतों से सूचनाएं जुटा कर ख़ुफ़िया सूचनाओं को संवर्धित और संपुष्ट किया जा सकता है. कई बार टुकड़े-टुकड़े में प्राप्त ख़ुफ़िया सूचनाओं के रिक्त स्थानों को भरने में भी ऐसी सूचनाएं बड़ी काम करती हैं. कई खतरनाक स्थानों जैसे अफगानिस्तान, इराक, भारत में नक्सल-प्रभावित जंगली क्षेत्रों इत्यादि में, जहाँ परम्परागत जासूसी करना बहुत कठिन और जोखिम-भरा होता है, खुले स्रोतों, खासकर इन्टरनेट, से सूचनाएं एकत्र करना एक अच्छा विकल्प होता है. यही नहीं, यही विकल्प ही सुरक्षित और मुफीद भी होता है.
खुले स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं की कठिनाइयाँ भी काफी हैं. सूचनाओं के संसार में क्षण-प्रतिक्षण नयी सूचनाओं के शामिल होने से सूचनाओं का ऐसा शोरगुल और हलचल मचा रहता है कि उनमें से अपने काम की सूचना खोज पाना समुद्र से मोती निकालने के बराबर है. यद्यपि इस कार्य के लिए कई एप्स और टूल्स उपलब्ध हैं, फिर भी काम की खबरें छांट कर निकालने में बहुत समय और मेहनत लग जाता है. इसके लिए बार-बार छानने और विश्लेष्ण करने की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है. फिर भी, झूठी, भ्रामक और तथ्यहीन ख़बरों के जखीरे में से सत्य, सत्यापित और वैध सूचनाएँ ढूंढ निकालना भूसे के ढेर में से सुई खोजने जैसा है.
खुले और बंद (गुप्त) स्रोतों से सूचनाएं एकत्र करने के अपने-अपने फायदे और नुकसान हैं. समझदारी इसमें है कि दोनों तरह के स्रोतों का सामंजस्य बैठा कर काम निकाला जाय. कुछ खुले से कुछ ढंके से, जहाँ से जो मिल जाय, उन्हें हथिया कर और फिर समझदारी से उनका विश्लेष्ण और मूल्यांकन कर उन्हें इस्तेमाल लायक बनाया जाय. यह समन्वित मार्ग ही श्रेयस्कर है.
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[1] Stephen C. Mercado, CIA “Sailing the Sea of OSINT in the Information Age” (2007)
[2] लेफ्टिनेंट जनरल(सेवानिवृत्त) एच एस पनाग द्वारा लिखित और दी प्रिंट में प्रकाशित (10 अक्टूबर, 2019) यह लेख “Balakot, China ‘incursions’ prove OSINT images are new threat for democracies and military” https://theprint.in/opinion/balakot-china-incursions-osint-images-new-threat-democracies-military/303565/
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