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प्यारी दुश्मन: लाहौर की उस दोशीज़ा के नाम एक ख़त

आज पाकिस्तान की आज़ादी का दिन है। एक ख़त पढ़िए शुऐब शाहिद का। वे संजीदा शायर हैं, चित्रकार हैं। लाहौर की  दोशीज़ा के नाम इस ख़त में बँटवारे का दर्द छिपा हुआ है-

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प्यारी दुश्मन,

बरसों हुए तुम्हें बिछड़े हुए। इतने बरसों में कभी तुम्हें ख़त ना लिख सका। क्या लिखता ? क़लम को जब भी स्याही में डुबोता हूँ। तो इसको लहू में डूबा हुआ ही पाता हूँ। आज हिम्मत करके लिख रहा हूँ। या शायद लिखने को मजबूर हो गया हूँ।

हाल अहवाल का ज़िक्र तो क्या करना। वाक़िफ़हाल तुम भी हो और मैं भी।

आज तुम्हारी बस्ती में भी शामियाने लगे होंगे। जश्न मन रहा होगा। लोग आज़ादी और ख़ुशियों के तराने गुनगुनाते होंगे। जामसुबू की महफ़िलें होंगी। मैं ये भी जानता हूँ कि तुम्हारे सिवा कौन है जो रौनक़महफ़िल कहलाए।

लेकिन तुम किस तरह जान सकती हो कि लकीरों के उधर दूर एक शहर में धड़कता एक जवाँ दिल अब भी तुम्हारी बात करता है। तुम्हें याद करता है। जिसकी निगाह इन लकीरों तक आकर लौट जाती है। मोमिन ने कहा था,

मैं वही हूँ मोमिनमुब्तला, तुम्हें याद हो कि ना याद हो

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मुमकिन है तुमने वो काग़ज़ ना देखा हो, जिस पर लिखी जाती हैं क़िस्मतें। मेरी और तुम्हारी।फ़राज़ ने लिखा था अपने बंदो से तो पिंदारख़ुदाई ले लेआज सोचता हूँ कि शायद इसी काग़ज़ कोपिंदारख़ुदाईलिखा था।कुछ ख़ुदाई के दावेदारों को देखता हूँ कि वो काग़ज़ पर कुछ दफ़ात लिखते हैं और एक क़ौम की क़िस्मत का फ़ैसला होता है।

ये सब काग़ज़ों वाले मग़रूर लोग हैं। इन्होंने हमेशा इन काग़ज़ों पर वही सब कुछ लिखा है कि जिससे इनकी हाकमियत बनी रहे। और तारीख़ इनके ज़ालिमाना तर्ज़अमल को एक अज़ीम और मुतफ़ख़्ख़र वाक़िये की तरह याद रखे।

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लेकिन मैं अब इन काग़ज़ों पर हैरान नहीं होता। मैंने लहू में डूबे उस काग़ज़ को भी देखा है जिसके बीच में खींच दी गयी थी एक काली लकीर। जैसे ख़ंजर से चीर दिया गया हो कलेजा। और एक काग़ज़ पर बसने वाले लोग अब दो अलग क़ौमें थीं। काग़ज़ केउस टुकड़ेपर मेरे अपने बिलख़ते रहे। लेकिन मुझे तो फ़क़त हुक़्मतर्कतआल्लुक़ था। कि अब काग़ज़ के उस टुकड़े से अदावत ही मेरी वफ़ाओं का मेयार है। किसे परवाह है, कि मैं एक हस्सास दिल रखता हूँ, जिसको काग़ज़ों की इन हुदूद में बाँधना मुमकिन नहीं। मैं जानता हूँ कि इस काली लकीर के उस तरफ़ कुछ भी देख पाना मुमकिन नहीं। लेकिन ख़यालों पर किसका ज़ोर है। ये कब किसी के बाँधे बँधते हैं। इनको तो निकल जाना है इन आज़ाद हवाओं के साथ। या उन आवारा बादलों के साथ। और बरस जाना है उस पार की छतों पर। मुमकिन है किसी रोज़ तुम उस अब्र में मेरे आँसुओं को महसूस करो। तुम देखना, एक दिन यही अब्र उस काग़ज़ पर बरसेगा। और सारी स्याही बह जाएगी। ज़िंदगी फिर कोरे काग़ज़ की तरह शुरू होगी। और तब, हम उस पर मोहब्बत की एक नज़्म लिखेंगे।

***

ऐ दुश्मनजानानां, सुना है सरहद पर कोई नया रास्ता खुला है। जो इस पार के चाहने वालों को करतारपुर में उनके शिवाले तक ले जाता है। यक़ीन नहीं आता कि कोई ऐसी सूरत भी हो सकती है, कि वो ख़ित्ताज़मीन तुम्हारे ही मुल्क में रहे, मगर मेरे लोग जा सकें। मुझे तो ये रास्ता अस्ल में मोहब्बत का रास्ता लगता है। जिसको एक हद्दमुद्दत के बाद कोई सरहद नहीं रोक सकती। इसको तो गुज़र जाना है, और पहुँच जाना हैग़ैर कीबस्तीमें। और कोई सरहद ऐसी राह को क्यूँ कर रोक सकती है। जबकि ये रास्ता जा मिलता है महबूब के घर से।

सुना है सरहदों पर तशद्दूद है। अदावतें हैं। तनी हुई बंदूक़ें हैं। और वो काली लकीर है कि जिसके पीछे मेरा माज़ी है। लेकिन मैं देखता हूँ कि आज तुम्हारे मुल्क वालों की आला जरफ़ी के सबब मोहब्बत की एक राह जा निकली है। जिसका तआल्लुक़ कुछ मज़हबी अक़ाईद से होता हुआ उसी मक़ामदिलरुबाई से जा मिलता है कि जिसका असीर मैं भी हूँ और तुम भी।

अगर अदावतों में मोहब्बतों के कुछ रास्ते निकल सकते हैं तो मैं सोचता हूँ कि काश एक रास्ता ऐसा भी निकल आए जो शहरयाराँ के उस हरीमनाज़ तक जाता हो, कि जिसकी चिलमन से लगीं तुम बारिश की पहली बूँदों को छूती हो। और वही बादल जब बचा हुआ अब्र मेरे शहर में बरसाते हैं तो मैं उन बादलों में तुम्हारा परीरू चेहरा बनाता हूँ।

 तुम्हारी ज़ुल्फ़ों का गिरहगीर, तुम्हारा असीर

शुऐब शाहिद

shoebshahid@gmail.com

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