पिछले दिनों एक ओटीटी मंच पर विमलचंद्र पाण्डेय की फ़िल्म ‘द होली फ़िश’ रिलीज़ हुई, जिसका पता इस लेख में दिया गया है। उसी फ़िल्म पर युवा लेखक जितेंद्र विसारिया ने एक विस्तृत लेख लिखा है। आप भी पढ़ सकते है –
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2004 में वागर्थ का अक्टूबर में नवलेखन अंक आया था। संपादक थे रवींद्र कालिया जी। यह अंक काफ़ी चर्चित रहा। मुहम्मद आरिफ़, मनोज पांडेय, कुणाल सिंह, चन्दन पांडेय, तरुण भटनागर, पंकज सुबीर, बिपिन कुमार शर्मा, के साथ विमल चन्द्र पांडेय और इस नाचीज़ की भी एक कहानी छपी थी। बाद में कालियाजी ज्ञानपीठ में आ गए और नया ज्ञानोदय के सम्पादक भी बने। यहाँ भी वागर्थ के उस अंक के रचनाकारों को छपने के मौक़े मिले।
वे पुरस्कृत भी हुए और उनके पहले कहानी संग्रह भी यहाँ से छपे। इस हेतु कालिया जी पर उनके रहते और बाद भी प्रमोट करने के सच्चे-झूठे आक्षेप भी बहुत लगे। उनके न रहने पर कुछ दिलज़लों ने व्यंग्य की फुलझड़ियाँ भी छोड़ीं कि ‘वागर्थ’, ‘नया ज्ञानोदय’ और कालियाजी द्वारा खड़ी की गई युवा नव-लेखकों की फ़ौज अब कहाँ है? या वो अब कहाँ विलुप्त हो गई?” लोगों ने भी इस पर ख़ूब रस लिया। दिल की लगी बुझाई।
…पर कालिया जी ने युवा नवलेखन विशेषांकों के द्वारा जो साहित्य में पौध रोपी थी, वो अब भी सूखी नहीं है। यह सच है कि समय के साथ सारे युवा लेखक अपनी सक्रियता नहीं बचाकर रख सके। कुछ परिदृश्य से ग़ायब भी हो गए। पर जो युवा लेखक अपने परिवेश, अपनी ज़मीन, अपनी जड़ों और मिट्टी से खाद-पानी लेकर हिंदी साहित्य के फ़लक पर अवतीर्ण हुए। उनकी चाल भले धीमी रही हो। अपने आने का बहुत शोर-शराबा न किया हो, पर वे आगे चलकर लम्बी रेस का घोड़ा सिद्ध हुए। उनका रचा-बसा बड़ी ख़ामोशी और सहूलियत के साथ हिंदी साहित्य और समाज का अंग बन रहा है।
तो आज हम बात कर रहे उन्हीं युवा रचनाकारों में से एक साथी विमल चन्द्र पांडेय (Vimal Chandra Pandey) की। यूँ विमल ने अपनी रचनाधर्मिता से कथा और कथेत्तर गद्य में एक अच्छी-खासी पहचान बना ली है, पर उससे हटकर आज हम बात करेंगे विमल और उनके साथी संदीप मिश्रा द्वारा लिखी और क्राउड फंडिंग के जरिये 2017 में ‘हम्बल बुल क्रियेशन’ बैनर तले बनी और 21वें रिलीज़न टुडे फ़िल्म फेस्टिवल इटली तथा 23वें कोलकाता इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लिए चुनी गई पिछले दिनों http://www.cinemapreneur.com/ पर रिलीज़ मूवी “The Holy Fish” की।
यह अंग्रेजी शीर्षक देखकर आप एक बारगी चक्कर खा सकते हैं कि फ़िल्म के नाम पर यह क्या बला है? पर जैसे ही आप फ़िल्म देखना शुरू करेंगे तो आपको कहानी सीधे ले जाकर खड़ी करती है उत्तरप्रदेश के उस अंचल में, जहाँ ठेठ बुंदेली अपना प्रभाव छोड़ रही होती है और उस पर अवधी और बघेली का मिलाजुला रंग चढ़ा नज़र आता है।
फ़िल्म की पटकथा है चित्रकूट के कोबरा गाँव की। मध्यप्रदेश के टीकमगढ़, छतरपुर, महोबा, बाँदा, चित्रकूट और मानिकपुर यह क्षेत्र अपनी उबड़-खाबड़ और कंकरीली-पथरीली धरातलीय बनावट और अवर्षा के चलते, बेरोजगारी और विस्थापन का शिकार भी सबसे अधिक रहा है। देश की मेट्रो सिटियों और महानगरों में बिहार के बाद इसी अंचल का स्त्री-पुरुष बतौर कामगार आपको ज्यादा काम करता दिखाई पड़ जायेगा।
“द होली फ़िश’ की कहानी का नायक विनोद उर्फ़ विनोदवा अपने परिवार की ख़ातिर घर से बाहर ऐसे ही किसी महानगर में काम की तलाश में गया हुआ है। उसके पीछे गाँव में छूट गईं हैं उसकी माँ और नव-विवाहिता पत्नी। अब शहर हो या गाँव अकेली स्त्री हज़ार आपत्तियों का घर। बिना मर्द के अकेली औरत वो भी जाति और वर्ग के श्रेणीक्रम में नीच और छोटीं। …फ़िल्म में उनके साथ सहूलियत बस इतनी कि उनका साथ देन उसी गाँव का तथाकथित बड़ी जाति का, किन्तु स्वभाव से भला मानुष युवा बोधि (अभिनव शर्मा) उनके संग है! वह मन से विनोद को अपना भाई और अभिन्न मित्र मानता है!! इस तरह बोधि के सहयोग और अपने श्रम से उनकी जिंदगी की गाढ़ी चल रही है!!!
…विनोद का कभी छटे-छमासें फ़ोन आता है। फ़ोन में विनोद की ओर से अपनी माँ उमा और पत्नी सरस के लिए सांत्वना तो है पर वह कब आएगा इसका कोई आश्वासन दूर-दूर तक नहीं!!!
गाँव में ही एक विधुर परशुराम मास्टर (सैयद इक़बाल) हैं। पत्नी का देहांत हो चुका है। बेटा और बहू उन पर कोई ध्यान नहीं देते। एक बार मरने से बचे। गाँव और घरवाले तुलसी-गंगाजल कर चुके हैं, पर न जाने कैसे बूढ़े की एकाएक साँस लौट आई। साँस तो लौटी पर साथ ही संसार की नश्वरता और स्वार्थपरता की समझ भी साथ चली है।
अगले कुछ माह बाद प्रयाग (संगम) पर मकरसंक्रांति के उपलक्ष्य में माघ मेला लगने वाला है। अपने धार्मिक संस्कारों के तहत अपने बेटे-बहू के रोकते न रोकते मास्टर परशुराम, अन्य गाँव वालों के सा रिक्शे में सवार संगम की ओर निकल पड़ते हैं। साथ ही ट्रैक्टर में अन्य गाँव वालों के साथ निकली हैं, फ़िल्म की नायिका सरस और उसकी सास अलबेला। ट्रैक्टर का ड्रायवर है-बोधि!!!
“होली फ़िश” यानि पवित्र मछली। संगम और उसके आसपास के अंचलों में एक प्राचीन अवधारणा या यूँ कहें कि विश्वास विद्यमान है कि प्राचीनकाल में ऋषि कश्यप और उनकी दो पत्नियाँ दिति और अदिति से उत्पन्न पुत्र देव और दैत्यों ने मिलकर समुद्र मंथन किया। समुद्र मंथन से कई रत्न प्राप्त हुए। उनमें एक महत्वपूर्ण रत्न अमृत भी निकला। अमृत को लेकर देव और दैत्यों में विवाद छिड़ गया कि पहले कौन पिये? देवताओं के वैद्य धन्वंतरी उस अमृत-घट को लेकर, आकाश मार्ग से भागे। जब वे उस अमृत घट को लेकर आकाश मार्ग होते संगम से गुज़र रहे थे, उस दौरान संगम के तट पर एक केवट (मल्लाह) भोजन के लिए कुछ मछलियाँ भूनकर रखता जा रहा था।
दैत्यों के पीछे पड़े होने और उनके द्वारा अमृत कलश की छीना-छपटी में, उस कुम्भ से एक बूंद उन मछलियों में से एक सुनहली मछली पर गिर जा गिरती है! मछली अमृत के प्रभाव से जीवित हो उठती है!! अमर हुई मछली केवट से वरदान माँगने को कहती है। स्वभाव से सरल केवट उस पवित्र मछली से वरदान माँगता है-“आगे से जो भी सच्चे मन से संगम पर स्नान करने आएगा, आप उसकी मनोकामना पूर्ण कर अपने दर्शन दे उसे मोक्ष प्रदान करेंगी!!!
इस प्रकार उस अमृत रास का पान किए सदियों से संगम जल में विद्यमान उस पवित्र मछली के दर्शन और उसकी कृपा से मोक्ष और मनोकामना पूर्ण होने की आशा लिए, कोबरा गाँव के लोग और मास्टर परशुराम संगम तट पर पहुँचते हैं।
आगे संगम पर लॉस्ट एंड फाउंड की लोकप्रिय स्टोरी दोहराई जाती हैं। जिसमें प्रयाग के पण्डे-पुजारियों की शातिरी। अज़नबी दुनियाँ की घातें हैं। आपनों का छल और उस छल का प्रतिकार तो कहीं पीड़ित हृदय और दुःखे मन अपनी पराजय पर ज़ार-बेज़ार हीक फाड़कर रोने की मर्मान्तक और बिल्कुल सच का क़रीब छूकर निकली न भूलने योग्य दास्तान।
चूँकि फ़िल्म समीक्षक के साथ एक शर्त यह लागू रहती कि वह फ़िल्म के सत-असत का तो बखान करे। कहानी को सार रुप भी समझाए, पर उसका समझना इतना भी न हो कि पाठके की बिना फ़िल्म देखे ही उसकी सारी जिज्ञासा समाप्त हो जाए…”द होली फ़िश’ की आगे की कहानी भी रोचक और मन पर छाप छोड़ने वाली है। सो मैं यहाँ उसके पुर्ज़े-पुर्ज़े न खोलकर, फ़िल्म के अन्य पहलुओं पर बात रखता हूँ।
…”द होली फ़िश” मूवी विमलचन्द्र पाण्डेय और संदीप मिश्रा ने बड़े ही मनोयोग से रची है। इस फ़िल्म की सारी विशेषताओं के बीच, उन पर जो सबसे ख़ास और भारी विशेषता बन पड़ी है, वह है बिना किसी सेट के उसका सीधे चित्रकूट के गाँवों और संगम पर आयोजित अर्ध कुम्भ (माघ मेले) के बीच फिल्माया जाना।
उसकी इस एक विशेषता ने यहाँ आकर फ़ीचर फ़िल्म और डॉक्यूमेंट्री के बीच की जैसे सीमा ही समाप्त कर दी हो। …आपने अपने गाँव-क़स्बे के आसपास लगने वाले मेले-माँदलों में उत्साहित होकर जाते लोग-बागों को अवश्य देखा होगा। पर प्रयाग और उसके आसपास के अंचल में संगम तट पर लगने वाले कुंभ और माघ-मेलों में जाने और डुबकी लगा आने का उमंग-उत्साह और ललक देखनी है, तो आप ‘द होली फ़िश’ एक बार अवश्य देखिए। यह अपने अंचल की ‘मैला आँचल’ सी लगेगी।
तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाए तो ‘द होली फ़िश’ देखते दो फिल्में याद आती हैं। उनमें पहली 1978 में आई मुजफ्फर अली की प्रसिद्ध फ़िल्म ‘गमन’ और 2008 में आई श्याम बेनेगल की ‘वेलकम टू सज्जनपुर।’ बेनेगल जी की फ़िल्म और ‘द होली फ़िश’ का अंचल लगभग आसपास का है।
अंतर तो बहुत हैं दोनों में। समानता बस एक ही है। वह है घर के पुरुष का बेरोजगारी से पैदा हुई मजबूरी के चलत घर से बाहर शहरों की ओर पलायन और उस पलायन के चलते घर-गाँव मे छूट गईं उनकी पत्नीयों और परिवार की अनन्त दुश्वारियाँ। परिवेश की दृष्टि से यह ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ के करीब है तो त्रासदी में ‘गमन’ के कुछ पास।
फ़िल्म में कुछ खामियाँ भी नज़र आती हैं। माघ संगम में जब सरस का उसकी सास से हाथ छूट जाता है। वह मेले भटक रही है। वहाँ उसका सामना एक साइको टाइप व्यक्ति से होता है। वह कुछ अनमने ढंग से उसके साथ हो लेती है। चलो माना कि वो स्मार्ट है और सरस उसके साथ प्रसन्न है। पर जब वह उसका साथ छोड़ती है और वह पत्नी पीड़ित इंसान, उसे ही अपनी खोई अथवा भागी पत्नी बताता है तो आम दर्शक सहज रूप से अंतर नहीं कर पाता कि यह सच में वह सरस का पति है अथवा कोई मानसिक विक्षिप्त? यगें भी वह भ्रम बना ही रहता है। डायरेक्टर को आगे-पीछे जाकर इसके कुछ स्पष्ट क्लू अवश्य छोड़ देने थे।
दूसरी दिक़्क़त सरस की जाति को लेकर है। अंग्रेजी संवादों में उसे लोअर कास्ट कहा गया है पर प्रकट में उसे जो ‘महरी’ कहा गया है वह कोई जाति न होकर, घरेलू कामगार महिला का संबोधन मात्र है। वह उसकी एक क्लास आधारित एक वर्गीय पहचान हो सकती है, उसकी जाति नहीं। कहानीकार और पटकथाकार ने फ़िल्म में जानबूझकर या विवाद से बचने के लिए ठीक-ठीक सरस की जातीय पहचान को स्पष्ट नहीं किया है, जबकि सरस के पति के हमउम्र मित्र बोधि की ठाकुर जाति स्पष्ट है।
अभिनय। मत पूछिए। सभी ने बड़ा ही सहज और जीवंत अभिनय किया है। सरस के रूप में सुमन पटेल का मासूम और ज़बान से ज्यादा आँखों से बोलता अभिनय मन में गहरे तक उतर जाता है। बोधि के रूप में अभिनव शर्मा की दबंगई, गुस्सा, उसकी चिंता और प्रेम सभी रूपों में बड़ा ही सहज और प्रभावशाली है। इसके अतिरिक्ति सैयद इकबाल अहमद, अश्विनी अग्रवाल, निशांत कुमार. सचिन चन्द्र, प्रतिमा वर्मा और शिवकांत का अभिनय भी जीवंत और दमदार है।
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यह लेख पढ़कर लगा कि फिल्म जरुर देखी जानी चाहिए : हरियश राय
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