सत्यजित राय की फ़िल्म पर यह लेख मूल रूप से अंग्रेज़ी में सत्य चैतन्य ने लिखा है जिसका हिंदी अनुवाद विजय शर्मा ने किया है। आप भी पढ़िए-
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जब मैंने सत्यजित राय की ‘तीन कन्या’ की अंतिम फ़िल्म ‘समाप्ति’ देखी तब तक मैंने पहली दोनों मूवी नहीं देखी थी – जब यह लिख रहा हूँ तब भी नहीं देखी है। लेकिन इस बात के साथ कि यह त्रयी की तीसरी और अंतिम मूवी है, मैंने इसे देखा और चूँकि त्रयी का शीर्षक ‘तीन कन्या’ – थ्री डॉटर्स, तीन क्वाँरी या तीन युवतियाँ है – मैंने फ़िल्म में कन्या, मृणमयी पर ध्यान केंद्रित किया और पूरी फ़िल्म उसे केंद्र रख कर देखी। मेरे लिए ‘समाप्ति’ एक स्त्री केंद्रित फ़िल्म हो गई, एक बालिका-स्त्री केंद्रित फ़िल्म।
मृणमयी ने मुझे मुग्ध किया – मीनू, जैसा कि फ़िल्म में अधिकतर लोग उसे पुकारते हैं – जैसी वह महान मास्टर राय द्वारा चित्रित की गई है। तरुणी, ‘निम्फ़ेट’, लोलिता, सबको अपनी ओर आकर्षित करने वाली। वह आपको पूर्णरूपेण अपने वश में कर लेती है – सकारात्मक अर्थ में। जैसे ही आप उसकी दुनिया में प्रवेश करते है वह आपको पूरी तरह से अपने जादू में ले लेती है, उसकी सुंदरता सीधे आपके दिल में उतर जाती है और आपका मन फ़ूल-सा हल्का हो जाता है।
वो स्त्री से अधिक किशोरी के निकट है। उसकी दुनिया जादू और रहस्य से भरी हुई है, और जैसे-जैसे आप उसकी नजर से दुनिया देखते हैं, आप जादू की गिरफ़्त में होते चले जाते हैं। यहाँ एक तरुणी है, दुनियादारी से अपरिचित, समाज के अदूषित, वयस्कों के मूल्यों और दृष्टिकोण से अछूती। रूसो जब दुनिया को प्रकृति की ओर लौट चलने के लिए कह रहा था तो शायद वह हममें से प्रत्येक को ऐसा ही बनने के लिए कह रहा था। वह प्रकृति की बालिका है, विशुद्ध और सरल। उसकी सुंदरता आदिम सृजन है, जैसे हम प्रकृति द्वारा उत्पन्न होते हैं, जैसा प्रकृति हमें बनाती है – दूसरी सब चीजों से विलग, दुनिया से भिन्न एक अस्तित्व। हिन्दी के ‘अबोध’ शब्द का मूल अर्थ, वही है। वह प्रकृति की उतनी ही बच्ची है जितना हिरण का छौना है, सिंह शावक है, तितली है, जैसे एक बढ़ता पौधा है, बहता झरना है, हवा है, वर्षा है।
मन में तत्काल केदारनाथ अग्रवाल की कविता ‘हवा हूँ, हवा मैं’ आती है:
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ।
सुनो बात मेरी –
अनोखी हवा हूँ।
बड़ी बावली हूँ
बड़ी मस्तमौला।
नहीं कुछ फ़िकर है
बड़ी ही निडर हूँ
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ
मुसाफिर अजब हूँ।
न घर-बार मेरा,
न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की,
न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ
उधर घूमती हूँ।
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ!
जहाँ से चली मैं
जहाँ को गई मैं –
शहर, गाँव, बस्ती,
नदी, रेत, निर्जन,
हरे खेत, पोखर,
झुलाती चली मैं।
झुमाती चली मैं!
हवा हूँ, हवा मैं
बसंती हवा हूँ।
मृणमयी अस्तित्व के साथ एकमकार है। वह पृथ्वी की बच्ची है, धरा के साथ गुँथी हुई।
उसके नाम का अर्थ है मिट्टी से बनी, विशुद्ध माटी। वह पृथ्वी है।
सब भारतीय भाषाओं में कन्या शब्द का अर्थ है तरुणी, पुत्री या कुँवारी। और कुँवारी का अर्थ है अकलंकिता, अदम्या, कोरी।
समस्त देश में दिन की शुरुआत में अभी भी लाखों स्त्रियाँ नित्य एक प्राचीन संस्कृत श्लोक का पाठ करती हैं:
अहल्या द्रौपदी कुंती तारा मंदोदरी तथा।
पंचकन्या: स्मरेन्नित्यम् महपातकनाशनम् ॥
श्लोक हमें झकझोरता है – इन स्त्रियों – इन पाँच कन्याओं को स्मरण करना क्योंकि यह महान पापों को नष्ट करता है: अहल्या, द्रौपदी, कुंती, तारा और मंदोदरी। मजे की बात है कि इन पाँचों में से कोई भी परम्परागत रूप से कन्या नहीं थी। ये शादीशुदा, बाल बच्चेदार थीं, रावण की महारानी मंदोदरी को छोड़ कर सब के जीवन में एक से अधिक पुरुष थे, भारतीय संस्कृति में विरल। ये एक भिन्न अर्थ में कुँवारी हैं – हवा की तरह स्वतंत्र होने की भाँति निर्बंध, प्रत्येक अपने आप में संपूर्ण, स्वाधीन। समाज द्वारा परिभाषित स्त्रियाँ नहीं, लेकिन जैसी वे जन्मी हैं, प्रकृति ने जैसा उन्हें बनाया है, अगर आप कहना चाहे जैसा ईश्वर ने उन्हें बनाया है।
मृणमयी पोर-पोर ऐसी ही कन्या है।
इसी मृणमयी से युवा अमूल्य मिलता है, जब वह नाव से उतरता है – कलकत्ता से कानून की पढ़ाई कर आया, पढ़ा-लिखा, किताबी, सुसंस्कृत और ज्ञानी। जब वह उसे पहली बार देखता है, वह सहज, खुद को भूल कर उस पर हँस रही है – वह नाव से बस उतरा ही है और नदी तट पर कीचड़ में फ़िसल जाता है, कीच में गिरना उसके लिए हास्य का बायस है। उसे भ्रमित करती हुई, वह इस मजेदार दृश्य पर खिलखिला कर हँस पड़ती है, अचानक पहाड़ से उतरे झरने की तरह, मानो अचानक धरती से सोता फ़ूटा हो, उसे भ्रमित करती हुई, अपनी आनंदित बालिका की नैसर्गिक हँसी से उसे पूरी तरह शरमाते हुए।
घर पर, युवा अमूल्य की माँ पहले ही उसकी शादी का इंतजाम कर चुकी है – लड़की चुनी जा चुकी है, गाँव की एक बच्ची। लेकिन अमूल्य जोर देता है कि वह जिससे शादी करने जा रहा है, तय करने से पहले उस लड़की को देखेगा – गाँव में ऐसा कभी नहीं सुना गया था, केवल पश्चिमी शिक्षा में शिक्षित आदमी ही ऐसी माँग कर सकता है। राजी होने के अलावा माँ के पास कोई विकल्प नहीं है।
रिवाज के अनुसार रिश्तेदारों के साथ नहीं बल्कि अकेले वह चल पड़ा है – लड़की को उसके घर में देखने और यहीं अमूल्य तथा मृणमयी का अगला आमना-सामना होता है। जब पूरी तरह से सज-धज कर अमूल्य वहाँ से गुजरता है, उसके जूते खासतौर इस अवसर के लिए चमकाए गए हैं, मृणमयी नदी किनारे पेड के नीचे झूले पर है। उसके भीतर का टॉमबॉय अमूल्य को चुपचाप नहीं गुजरने देगा – स्त्री-पुरुष की भूमिका को परिवर्तित करते हुए, उसे वैसे ही फ़बती कसनी है, जैसे लड़की के गुजरने पर लड़के कसते हैं। उसके पास एक खिलौना है, जो घुमाने पर चिड़िया की तीखी आवाज निकालता है और वह यह आवाज करती है, बिना एक शब्द बोले, उसे रोकते हुए और जब वह उलट कर देखता है तो अपना चेहरा ऐसी मासूमियत से घुमा लेती है मानो उसने कुछ नहीं किया है।
अमूल्य का ‘लड़की देखना’ एक बड़ी मनोरंजक घटना है। अमूल्य लड़की के परिवार द्वारा दी गई मिठाई को भी ठीक से नहीं खा पाता है क्योंकि उसे बच्चों की कई जोड़ी भूखी आँखें दिखाई देती हैं, बच्चों के मुँह स्वादिष्ट मिठाई देख कर खुले हुए हैं। अमूल्य लड़की से पूछता है, उसने क्या पढ़ा है और अपनी बुद्धि का दिवालियापन दिखाते हुए वह स्कूल में पढ़ रहे सारे विषयों के नाम एक-एक कर गिनाना शुरु करती है। इसी समय कमरे में, जहाँ यह समारोह चल रहा है, मृणमयी फ़ूट पड़ती है – सूखी धरती पर अचानक आकाश से बारिश की फ़ुहार की तरह। वह कमरे में अपनी प्यारी गिलहरी चुरकी की खोज में आई है, और उसे हर जगह खोजती है, लोगों के बीच में, फ़र्नीचर के नीचे, औपचारिकता की हर चीज, हर बात को उलटती-पुलटती हुई। वह उसे पाती है और पकड़ लेती है, लेकिन जाने से पहले अमूल्य जिस लड़की को देखने आया है, उसे चुरकी से चिढ़ाना और डराना नहीं भूलती है। जब वह जाती है, राखाल, उसका बच्चा दोस्त और लड़की का भाई, जिसे वह अपने साथ खेलने के लिए बुला रही थी, उसके साथ निकलता है। उसने आ कर अवसर की औपचारिकता और गांभीर्य को भंग कर दिया है और हमें पक्का पता नहीं है कि गिलहरी कमरे में खुद घुसी थी अथवा मृणमयी ने जानबूझ कर उसे कमरे में घुसाया था – हमने मृणमयी को कमरे के ठीक बाहर खिड़की पर चुरकी को हाथ में लिए खड़े देखा था, उसकी आँखें कमरे की गतिविधियों पर थीं।
उसने आ कर जो उथल-पुथल मचाई थी उससे संतुष्ट न हो कर, वह अमूल्य के जूते चुराती है और जाते-जाते अपने साथ ले जाती है, जो बात हम – और अमूल्य तथा लड़की के लोग – तब जान पाते हैं जब अमूल्य लौटारी की यात्रा प्रारंभ कर रहा है।
‘लड़की देखने’ से बहुत निराश गाँव की कीचड़ वाली सड़क से होते हुए घर की ओर अपने मेजबान (संतोष दत्ता) की दी हुई ढ़ीलीढ़ाली चप्पल पहने अमूल्य वापस चलता है, उसका हर कदम उसके पैर कीचड़ में धंसा रहा है, चलना असंभव करते हुए – हर कदम पर उसे अपने पैर कीचड़ से खींच कर निकालने होते हैं। अंतत: वह चप्पलें छोड़ देता है। और इसी समय मृणमयी उसका एक जूता उसकी ओर उछाल देती है। वह एक बड़े पेड़ के तने के पीछे छिप कर खड़ी हुई है, अपने हाथ में उसका दूसरा जूता लिए हुए, अपनी हँसी किसी तरह दबाने की कोशिश करती हुई। अमूल्य चुपचाप आ कर उसे पकड़ लेता है, दृश्य में हमें शृंगार की हल्की-सी झलक मिलती है। वह खुद को उसकी पकड़ से छुड़ा कर निकल भागती है और खुद बार-बार कीचड़ में गिरती है और हम अमूल्य के कीचड़ में गिरने के पहले वाले दृश्य को स्मरण करते हैं।
घर लौट कर अमूल्य रुखाई के साथ माँ से कहता है कि वह जिस लड़की को देखने गया था उससे शादी नहीं करेगा, उसे वह पसंद नहीं। ‘क्या तुमने दूसरी लड़की देखी है,’ उसकी माँ उससे पूछती है, और वह कहता है, ‘हाँ, उसने देखी है।’ माँ रोमांचित है और पूछती है, ‘वह कौन है?’ और वह उसे गहरा सदमा पहुँचाता हुआ कहता है, ‘मृणमयी’। ‘तुझे मालूम है लोग उसे क्या कहते हैं?’, वह पूछती है और वह कहता है, ‘हाँ, पगली।’ ‘वह लड़की है या लड़का?’ उसकी माँ पूछती है और वह एक शब्द में उत्तर देता है, ‘लड़की।’
बाद में माँ देखती है, युवा मृणमयी बाहर खेल रही है और पेड़ पर चढ़ रही है, नीची शाख से लटक रही है जबकि वह खुद अपने कमरे में अपने हाथों में सिर दिए बैठी है। वह लड़की को अपने कमरे में बुलाती है और वह कैसी पत्नी बनेगी जानने के लिए उससे कुछ प्रश्न पूछती है – क्या वह खाना बनाना जानती है, क्या वह यह कर सकती है, वह कर सकती है – ऐसी बातें। अमूल्य की माँ ये प्रश्न पूछते समय अपने आसन और स्वर में जितना संभव है, अधिकार और ठसक लाती है। मृणमयी धैर्य के साथ प्रश्नों के उत्तर देती है, शायद प्रश्नों के प्रकार से थोड़ी परेशान है – अचानक यह स्त्री ऐसे प्रश्न क्यों पूछ रही है? जाहिर है, माँ संतुष्ट है और रिवाज के अनुसार दोनों परिवार शादी की तैयारियाँ करना शुरु करते हैं।
फ़ुंफ़कारती मृणमयी निर्णय का विरोध करती है। उसे अब घर में कैद कर दिया गया है। खुली हवा में सांस लेने, थोड़ी देर को स्वतंत्र होने, जब वह अगली बार बाहर जाना चाहती है, उसकी माँ के द्वारा रोक दी जाती है। [उसके पिता अपने काम पर कहीं बाहर हैं, मूवी में कभी नहीं नजर आते हैं]। एक दिन कैंची पा कर मृणमयी प्रतिरोध में अपने घने बाल काट डालती है और इसके लिए अपनी माँ से मार खाती है।
मूवी शादी विस्तार से नहीं दिखाती है – भारतीय फ़िल्मों का प्रमुख मसाला, फ़िल्म निर्देशक इसे दिखाने का अवसर कभी नहीं छोड़ते हैं। हाँ, शादी के प्रति मृणमयी की खिन्नता स्पष्ट दिखाते हैं।
प्रथम रात्रि
अपनी प्रथम रात्रि में दूल्हा-दुल्हन दोनों अभी शादी के कपड़ों में ही हैं। हालाँकि वे बिस्तर साझा नहीं करते हैं। तरुणी मृणमयी दावा करती है कि उसने अमूल्य से शादी नहीं की है, उसकी इच्छा के विरुद्ध शादी उस पर थोप दी गई है, किसी ने उससे पूछा तक नहीं। अंतत: जब अमूल्य अपने कमरे में कुर्सी पर गहरी नींद में सोया हुआ है, मृणमयी चुपचाप बाहर निकल जाती है, अपनी शादी की पोशाक में, छत पर जाती है और एक पेड़ की डाल को पकड़ कर, नीचे उतर जाती है, नदी किनारे जाती है, जहाँ उसका एकाकी झूला है जिस पर वह प्रतिदिन घंटों झूला करती थी। रात की नीरवता में जब नदी शांत बह रही है, वह फ़िर से झूलने लगती है। जब भोर फ़ूटती है, हम मृणमयी को झूले पर सिर रखे, गहरी नींद में पाते हैं। शादी ने उसे उसकी धूरी से हिला दिया है, लेकिन शांत रात्रि का एकाकीपन और झूले ने उसे फ़िर से उससे जोड़ दिया है।
भागी हुई दुल्हन मिलती है और घर लाई जाती है। अमूल्य के घर पर सारा गाँव जमा है। सारी घटना से लोगों का मनोरंजन हुआ है – आखीरकार मृणमयी पगली है, सनकी लड़की, लड़की जिसके कच्चेपन और सनकीपन के बावजूद वे प्यार करते हैं। लेकिन उसकी सास भयंकर क्रोधित है और उसका पति, अमूल्य परेशान, नहीं जानता है क्या करे। मृणमयी को कमरे में बंद कर दिया जाता है, जहाँ से वह गुस्से में दरवाजा खोलने के लिए चिल्लाने के बाद – जो वे लोग नहीं खोलते हैं – कमरे की हरेक चीज उठा कर फ़र्श पर फ़ेंकती है, अमूल्य का कीमती पुस्तक संग्रह भी। बाद में, काफ़ी बाद में, अमूल्य दरवाजा खोलता है और कमरे में आता है। उसने जो किया है, उसे देख कर वह हदस जाता है और उसे प्रत्येक वस्तु उठा कर जगह पर रखने के लिए कहता है, जो वह चुपचाप करती है।
अमूल्य कहता है कि वह उसे उसकी माँ के पास छोड़ कर कलकत्ता वापस जा रहा है, जो वह करता है। भारतीय संस्कृति में शादीशुदा स्त्री को वापस उसके घर ले जाना और उसे वहाँ छोड़ना एक तरह से उसका परित्याग करना है – यदि पूरी तरह से नहीं, तो थोड़े समय के लिए। इसके साथ बड़ा कलंक जुड़ा है। अब हम मृणमयी को अपने घर पर मुरझाई हुई पाते हैं, खाना छोड़े हुए, जैसा पहले वह लड़कों के संग खेलती थी अब कोई खेल नहीं, असल में वह अपना कमरा कभी नहीं छोड़ती है, जैसा शादी के ठीक पहले के दिनों में था। एक दिन राखाल कुछ फ़ल लाता है, जिसे वह नकार देती है। एक और दिन वह आता है और बताता है कि उसकी पालतू गिलहरी चुरकी मर गई है क्योंकि उसे किसी ने खाना नहीं दिया था – वह बिना किसी प्रतिक्रिया के खबर ग्रहण करती है। उसकी पहले की दुनिया उसके लिए समाप्त हो चुकी है।
उसकी शादी को महीनों बीत चुके हैं, उसकी माँ उसे ले कर हताश है, सारी आशाएँ छोड़ चुकी है। अब क्या होगा, वह वेदना से पुकारती है। हालाँकि उसकी लड़की अभी लड़की है लेकिन अब वह परित्यक्त पत्नी है। वह अपनी बेटी पर चीखती है और फ़िर मृणमयी के कंधे पर सिर रख कर रोती है।
और फ़िर हम एक दिन पाते हैं कि अचानक मृणमयी के चेहरे पर मुस्कान उभरती है। उसकी आँखों में चमक उतरती है, अंधेरा कमरा जिसमें उसने खुद को कैद कर रखा था उजला हो उठता है। उसने निर्णय लिया है। हम उसे एक पत्र लिखती हुई पाते हैं – अपने पति को, कठिनाई से पेपर पर बाँग्ला का एक-एक अक्षर उकेरती हुई क्योंकि वह नाममात्र को पढ़ी-लिखी है। इसी पल उसका दोस्त, राखाल खबर लाता है: अमूल्य घर वापस आ गया है।
हुआ यह है कि अमूल्य की माँ को अपने बेटे के साथ चालाकी करने की सलाह दी गई है, चालाकी, जो उन दिनों भारतीय माँ अपने बेटे को घर बुलाने के लिए करती थीं: उसे एक पत्र भेजो कि माँ बहुत बीमार है। पत्र पाते ही अमूल्य घर भागता आता है।
घर पर अमूल्य की माँ स्वीकारती है कि वह पूरी तरह स्वस्थ है, समस्या है कि वह चाहती थी कि वह घर आए और उसके घर आने पर वह चाहती है कि वह जाए और मृणमयी को घर लाए – वह पगली है लेकिन इसके बावजूद अच्छी लड़की है। वह जिद्दी है, लेकिन गाँव में कोई उसके बारे में बुरा नहीं कहता है।
अपने कमरे में अमूल्य की नजर मृणमयी के आभूषण पर पड़ी, जिसे उनकी शादी की रात उतार कर वह ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड प्लेयर के बड़े से चोंगे में रख गई थी। उसके हृदय में और चेहरे पर मृणमयी के लिए कोमलता और अपार प्यार पसर गया। वह मृणमयी के घर उसे लाने जाता है मगर उसकी माँ कहती है कि वह वहाँ नहीं है, वह गायब है। तूफ़ान और उसके साथ आई बारिश में अमूल्य पागल की तरह उसे पूरे गाँव में खोजता फ़िरता है। हम उसे झूले के पास देखते हैं, जहाँ वह झूलती थी, लेकिन अभी झूला खाली है। वह मूसलाधार बारिश में भींगता, गाँव के कीचड़ भरे रास्तों पर उसका नाम जोर-जोर से पुकारता हुआ पागल की तरह चल रहा है।
हम धारासार बारिश में मृणमयी को एक पेड़ के नीचे बैठी, रोती हुई पाते हैं। वह उसकी आवाज सुनती है, उसकी आवाज में हताशा सुनती है, उसकी आवाज में उसके लिए प्रेम और चाहत और जैसे-जैसे उसकी आवाज में हर पल उन्माद बढ़ रहा है, मृणमयी का समस्त अस्तित्व रोमांच से भरता जाता है। अब एक गर्वीली स्त्री अपने पुरुष को उसे खोजता हुआ देख रही है, जिसका हृदय अपनी स्त्री के लिए प्रेम और चाहत से भरा हुआ है। मृणमयी सटीक बंगाली पत्नी की वेशभूषा में है। हालाँकि वह खुद को प्रकट नहीं करती है, अमूल्य उसे पाने में असफ़ल रहता है। अंतत: परेशान और काँपता-घबराया हुआ घर लौटता है, सारे समय मृणमयी का आभूषण उसकी जेब में है।
उसके बिस्तर पर एक पत्र इंतजार कर रहा है – पत्र जिसे मृणमयी ने प्रेम और कठिनाई से लिखा है। पत्र में मात्र एक वाक्य है: ‘तुम आ गए हो।’ और उस पर हस्ताक्षर है, ‘तुम्हारी पगली’।
अब वह उसकी है। मृणमयी ने उसे स्वीकार कर लिया है, खुद को स्वयं ही उसे सौंप दिया है।
वह उसे ग्रामोफ़ोन प्लेयर के बगल में अपना इंतजार करते पाता है। वह विश्वास नहीं कर सकता है। वह केवल कह पाता है, ‘तुम? यहाँ!’ उसका चेहरा मृणमयी को अपने कमरे में देख कर आलोकित हो उठता है।
मृणमयी अभी भी बंगाली पत्नी के वस्त्रों में है। वह मुस्कुराती है और कहती है, ‘मेरी इच्छा।’ वह उसके घर में है – वह अपने घर में है – अपने आप आई है, अपनी मर्जी से आई है। अपने चुनाव से आई है।
वह पूछता है वह कमरे में कैसे घुसी। उसकी मुस्कान और चौड़ी हो जाती है और वह कहती है, ‘पेड़ के सहारे।’ और वह एक वायदा जोड़ती है, ‘फ़िर नहीं जाऊँगी।’
वह धीरे से उसकी ओर आती है और समर्पित पत्नी के रिवाज के अनुसार जब बहुत दिन के बाद पति से मिलती है, उसका पैर छूने के लिए झुकती है। वह उसे रोक लेता है, ऊपर उठा लेता है और अपनी बाहों में भर लेता है। ‘पगली,’ वह उसे कोमलता से, प्रेम के साथ पुकारता है। वह उसका प्रेम और कोमलता स्वीकार करती हुई मुस्कुराती है तथा उसे समर्पित हो जाती है।
इसी समय अमूल्य की माँ कमरे की ओर आती है, उसके लिए नाश्ता लिए हुए। मगर वह भीतर से दरवाजा बंद कर लेता है, अपनी दुनिया बनाता हुआ, मात्र उनके अपने लिए, जहाँ किसी दूसरे का प्रवेश स्वीकार्य नहीं है, उसकी माँ का भी नहीं।
राय द्वारा कथानक तथा फ़िल्मांकन में परिवर्तन
इस मुकाम पर मैं अवश्य कहूँगा कि मैं मूवी के बाद के हिस्से को ले कर संदेहग्रस्त था, जहाँ अचानक हम एक भिन्न – घरेलू, विनीत, आज्ञाकारिणी, विनम्र, समर्पित – मृणमयी को देखते हैं। जैसाकि मैंने प्रारंभ में कहा था, मैं मृणमयी को केंद्र में रख कर मूवी देख रहा था, एक निर्भीक, समाज द्वारा नाथी न गई मृणमयी, उसकी शादी पर उसकी प्रतिक्रिया। जब मैं मूवी देख रहा था, मुझे बार-बार वह ‘स्पिरिट: स्टालिऑन ऑफ़ द सिमरॉन’ मूवी की याद दिला रही थी, बहुत साल पहले जब यह मूवी रिलीज हुई थी, मैंने उसे देखा था।
स्पिरिट जवान, खुले में मुक्त रहने वाले घोड़े का नाम है, झुंड का लीडर, यूनाइटेड स्टेट्स कैवलरी रेजीमेंट द्वारा स्थानीय लाकोटा लोगों के इलाके से युद्ध के दौरान पकड़ा गया। कर्नल नाम से जाना जाने वाला एक सैनिक, जो खुद को घोड़ों का विशेषज्ञ मानता है, उसे अपने कब्जे में लेता है और नाथने के जितने उपाय उसे मालूम थे, भयंकर रूप से स्वतंत्र स्पिरिट को गुलाम बनाने के लिए उनका प्रयोग करता है। उसे बाँध कर तीन दिन भूखा रखता है, पीने के लिए पानी भी नहीं देता है। स्पिरिट कैद से निकल भागता है, अपने साथ लिटिल क्रीक नाम के एक युवा लाकोटा को लिए हुए। लिटिल क्रीक जिसे घुड़सेना ने पकड़ा और कैद किया हुआ था, जिसने स्पिरिट से दोस्ती कर ली थी। वे लाकोटा गाँव पहुँचते हैं जहाँ लिटिल क्रीक की युवा घोड़ी ‘रेन’ से वह प्यार करने लगता है। हालाँकि प्यार भी स्वतंत्रता की उसकी चाहत को कम नहीं कर पाता है। जब लिटिल क्रीक उस पर सवारी करने की कोशिश करता है, स्पिरिट उसे सवारी नहीं करने देता है। यहाँ तक कि लिटिल क्रीक की दयालुता भी स्पिरिट को साधने में सफ़ल नहीं होती है। वह पालतू नहीं बनेगा। अंतत: लिटिल क्रीक समझ जाता है कि स्पिरिट को पालतू नहीं बनाया जा सकता है, उस पर शासन नहीं किया जा सकता है, स्वतंत्रता की उसकी इच्छा पूर्ण और मजबूत है यह जान कर वह उसे स्वतंत्र कर देता है।
स्वतंत्र किया गया स्पिरिट एक बार फ़िर कैवेलरी रेजीमेंट के द्वारा पकड़ लिया जाता है, दूसरे घोड़ों के साथ उसे ट्रेन का इंजिन खींचने के काम में लगाया जाता है। लेकिन वह जंजीर से बँधे दूसरे घोड़ों की जंजीर तोड़ कर उन्हें मुक्त करता है। उसके अपने गले में अभी भी जंजीर बँधी हुई है, वह तकरीबन मर जाता है जब यह ट्रेन दूसरी ट्रेन से टकराती है और विस्फ़ोट होता है, जिससे जंगल में आग लग जाती है। लिटिल क्रीक प्रकट होता है और निश्चित मृत्यु से स्पिरिट को बचाता है। वे नदी में कूद कर आग से बचते हैं।
अगली सुबह वे पाते हैं कि कर्नल की अगुआई में रेजीमेंट पुन: उनका पीछा कर रही है। अब स्पिरिट लिटिल क्रीक को अपनी सवारी करने देता है। ग्रैंड कैनियन में कर्नल और उसके लोग उनका पीछा कर रहे हैं और अंतत: अथाह घाटी में वे पहुँच जाते हैं। लिटिल क्रीक सारी आशा छोड़ देता है लेकिन स्पिरिट नहीं। वह स्वतंत्रता की चाह में ऐसा काम करता है जिस पर विश्वास करना कठिन है – वह लिटिल क्रीक को अपनी पीठ पर लिए हुए कैनियन के पार कूदता है, असंभव दूरी तय करते हुए, जो उस पार सुरक्षित पहुँचने की हवाई उड़ान सरीखी दीखती है। कर्नल अंत में स्पिरिट की गुलाम न बनने की साहसी प्रकृति का सम्मान करता है और पीछा करना छोड़ देता है।
लाकोटा गाँव में वापस, लिटिल क्रीक घोड़े को ‘स्पिरिट-हू-कुड-नॉट-बी-ब्रोकेन’ नाम देता है और उसे उसकी प्रेमिका घोड़ी रेन के साथ मुक्त कर देता है।
मेरे लिए युवा मृणमयी स्पिरिट की तरह थी और मेरा विचार था: लड़की जो अपनी शादी की रात भाग निकलती है, अपनी कैद से पेड़ की शाखा पकड़ कर बाहर कूद जाती है, अचानक कैसे बदल गई और अपनी शादी को स्वीकारती है, स्त्रीपन को स्वीकारती है और पत्नी की विनम्रता ग्रहण करती है?
और मूवी दिखाती है कि यह असहाय समर्पण नहीं है, अपरिहार्य का स्वीकार्य नहीं है; मृणमयी उससे अधिक बल के द्वारा पराजित नहीं हुई है, उसका उत्साह कुचला नहीं गया है, वह झुकाई नहीं गई है; यह प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार है, खुशी से उत्पन्न विकास। हम वास्तव में उसका भावांतरण का क्षण देखते हैं – वह अपने कमरे में अपने बिस्तर पर लेटी हुई, जहाँ उसने खुद को महीनों से कैद किया हुआ है, बाहर जाने से इंकार किया हुआ है, अपने छुटकू दोस्त या चुरकी के साथ खेलना नकारा हुआ है, ढ़ंग से खाने-पीने को छोड़ा हुआ है। यहाँ तक कि वह अपनी प्यारी पालतू चुरकी के मरने पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं करती है। और फ़िर अचानक एक दिन उसके चेहरे पर प्रसन्नता की मुस्कान चमकती है। उसकी आँखें खिल जाती हैं, उसके पूरे वजूद मे खुशी फ़ैल जाती है जो उसके कमरे को भी रोशन कर देती है। इस भावांतरण का कारण क्या है? कोई शारीरिक परिवर्तन, अचानक स्त्रीत्व को प्राप्त होना? यदि ऐसा है, तो मूवी इसका कोई संकेत नहीं देती है।
इस स्थान पर मुझे इसका कोई अर्थ समझ में नहीं आया।
द्विविधाग्रस्त, मैंने गुरुदेव टैगोर की मूल कहानी पढ़ने का निश्चय किया, जिस पर मूवी आधारित है। वहाँ मेरे लिए एक बड़ा आश्चर्य प्रतीक्षा कर रहा था। दूसरी बातों के अलावा मूवी बिल्कुल भिन्न ढ़ंग से समाप्त होती है। टैगोर की कहानी कैसे समाप्त होती है, देखें:
‘उसके बाद (शादी तय हो जाने के बाद) मृणमयी की माँ और गाँव की सारी उम्रदराज औरतों ने भविष्य के उसके कर्तव्यों को ले कर दिन-रात उसको परामर्श दिया। उन लोगों ने खेल-कूद की क्षमता, त्वरित चाल, हँसी और लड़कों के साथ खेलना और आवश्यकतानुसार खाने-पीने की आदत की आलोचना करते हुए शादी की पूरी बात को भीषण रूप दे दिया। और मृणमयी को लगने लगा कि उसे आजीवन कारावास की सजा मिली है जिसमें अंत में उसे मृत्यु दंड दिया जाएगा।
‘‘उसने युवा घोड़ी की तरह पीछे हट कर दृढ़ता से कहा, ‘‘मैं शादी नहीं करूँगी।””
अत: टैगोर की कहानी में, अंत बिल्कुल भिन्न है। मृणमयी शादी करने से स्पष्ट इंकार कर देती है। गुरुदेव ने अपनी कहानी में उसके व्यवहार में उसकी तरुण घोड़ी से की है – पालतू बनने से इंकार करने वाली।
परम्परागत शादी स्वतंत्रचेता व्यक्ति के लिए अक्सर बंधन हो सकती है, चाहे आदमी हो या औरत। जहाँ शादी एक व्यक्ति को समृद्ध करती है, उसे विकसित होने के अनगिनत अवसर देती है, वहीं वह उसकी स्वतंत्रता को बाधित भी करती है। मृणमयी सच में एक स्वतंत्र स्त्री है जो शादी को वैसे ही देखती है जैसे स्पिरिट घोड़ा पालतू बनाए जाने को।
एक भिन्न संदर्भ में लिखी गई शिव मंगल सिंह की कविता, ‘हम पंछी उन्मुक्त गगन के’ मन में आती है। कवि कहता है:
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाएँगे ।
हम बहता जल पीने वाले
मर जाएँगे भूखे-प्यासे
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से।
स्वतंत्र आकाश का पक्षी कैसे स्वेच्छा से स्वयं को पिंजड़े में बंद होने देता?
टैगोर की कहानी का अंत स्वाभाविक लगता है।
एक ‘नैसर्गिक’ लड़की, ‘प्रकृति’ का मूर्त रूप, क्वाँरी, वास्तविक अर्थ में कन्या, जो समाज द्वारा दबाई-कुचली जाने से इंकार करती है, परम्परागत जूए को धारण करने को नकारती है, वह मुक्त हवा का जीवन चुनती है, जैसा कि कवि कहता है, ‘हवा हूँ हवा मैं, बसंति हवा हूँ…’ वह मुझे हमारे वैदिक और ऐतिहासिक स्त्रियों का स्मरण कराती है, ऐसी स्त्रियाँ जिन्हें गुरुदेव प्यार करते थे और जिनकी प्रशंसा करते थे, ऐसी स्त्रियाँ जो उनकी आदर्श थीं। जिनके बारे में मैंने भी अन्यत्र लिखा है, ‘स्त्रियाँ जिन्हें हमारे महाकाव्य शक्ति कहते हैं, उनमें से प्रत्येक के पास शक्ति का उपहार है, जो अपने बारे में विश्वास से भरी हुई हैं, अपने चुनाव में पक्की हैं, अपने कथन में दृढ़ी हैं, जीवन के लिए जिनमें तड़फ़ है, जो साहस से भरी हुई हैं और जीवन के विशाल क्षेत्रों में निर्भय विचरण करती हैं। उन्होंने अपनी आत्मा हमारी वैदिक स्त्रियों से विरासत में प्राप्त की है: स्वतंत्र, बलशाली, जो स्वयं अपना उत्तरदायित्व लेती हैं। प्रामाणिक विश्वसनीय स्त्रियाँ, जो जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों के बराबर भाग लेती हैं।’ [ऑनलाइन आलेख: शकुंतला – फ़्लेमिंग इंडियन वूमनहुड]
तब मृणमयी ने शादी कैसे स्वीकार की, प्रसन्न पत्नी बन गई, जो परिवर्तन के बाद जब पति से पहली बार मिलती है तो झुक कर उसके पैर छूती है? मैं यह समझने में असफ़ल रहा। फ़िल्म में कहानी के अंत में जो परिवर्तन आया है उसके साथ सामंजस्य बैठाना मेरे लिए आसान न था। सत्यजित राय जैसा मास्टर कथाकार और फ़िल्मकार अपनी किसी कल्पना विलास के लिए यूँ ही अंत नहीं बदल देगा। अवश्य ही कुछ गहरा अर्थ होना चाहिए।
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मुझे इस परिवर्तन को समझने में वक्त लगा: गुरुदेव की कहानी का केंद्र मृणमयी है – मृणमयी जैसी वह है। जबकि फ़िल्म का केंद्र वो मृणमयी है जैसा वह अमूल्य को दीखती है – एक युवा जो उसमें अनुरक्त है, उससे अभिभूत है, मुग्ध है, जिसने उसके खालीपन को भर दिया है, जिसके सानिध्य मात्र ने उसकी जिंदगी को शायद पहली बार अर्थपूर्ण बनाया है।
अमूल्य केवल उससे आविष्ट नहीं है वह उसके विस्मय में है। उसका अस्तित्व उसे नशे से भर देता है। जितना अधिक वह उसे देखता है, उतना ही वह उसकी दृष्टि में बढ़ती होती जाती है, अंतत: उसकी दुनिया पर पूरी तरह से हावी हो जाती – उसकी दुनिया मृणमयीमय हो जाती है: उसकी दुनिया की धूरी। वह अपने अस्तित्व का अर्थ उसके द्वारा खोजने लगता है। वह उसके बिना कुछ नहीं है, मात्र खोल। वही उसके अस्तित्व को अर्थवान बनाती है।
प्रेम दो तरह का होता है: आक्रमक प्रेम – प्रेम जो जीतना चाहता है, अधिकार जमाना चाहता है तथा प्रेम जो समर्पण करना चाहता है, खुद को मिटाना चाहता है, खुद को न्योछावर करना चाहता है। अमूल्य का प्रेम समर्पण है।
उसकी इच्छा मृणमयी को जीतना, उस पर अधिकार जमाना नहीं है, लेकिन वह उसके द्वारा स्वीकृत होना है। वह चाहता है कि वह उसे स्वीकार करे, उसे अपना बनाए। सुनने में यह भले ही दूर की कौड़ी लगे, मगर अमूल्य वास्तव में अपनी नन्हीं देवी के साथ एकाकार होना चाहता है जिसे वो जीवन में जो भी सुंदर है उसका मूर्तिमान रूप मानता है – वह चाहता है कि मृणमयी उसे स्वीकार कर अपना बना ले, उसे सामान्य जीवन से ऊँचा उठा कर अपनी दुनिया में ले जाए, जहाँ सब कुछ खूबसूरत है, सब कुछ खुशनुमा है, जहाँ जिंदगी बोझ नहीं बल्कि उत्सव है, एक त्योहार है।
मृणमयी शब्द का अर्थ है ‘धरती से बनी’, ‘मिट्टी से बनी’, जैसाकि बंगाल में वार्षिक दुर्गा पूजा के अवसर पर हजारों गाँवों और शहरों में देवी की मूर्ति बनाते हैं। मृणमयी देवी है, धरती का मूर्तिमान स्वरूप – मृत्तिका में स्त्री स्वरूप देवी अवतार। अमूल्य उसका आराधक होना चाहता है, पूजा करना चाहता है, भक्ति में, उसके सामने झुक कर, समर्पण में।
इसीलिए हम पाते हैं कि शादी की रात उसकी ओर से शादी को पूर्णता की ओर पहुँचाने, निष्पादन की कोई जल्दबाजी नहीं है, वह पहली ही रात में उसके साथ जुड़ने की कोई हड़बड़ी नहीं करता है। बल्कि वह मृणमयी की अपने करीब आने की प्रतीक्षा करता है।
अमूल्य एक साथ पति और पुजारी दोनों है। वह पति है, साथ ही आराधक भी।
उसकी अवमानना होती है, उस पर सामाजिक लांछन लगता है जब मृणमयी उसे और उनके शादी के बिस्तर को त्याग कर नदी किनारे झूले पर रात बिताने भाग जाती है। लेकिन उसमें कोई क्रोध नहीं है, वह गुस्से में फ़ट नहीं पड़ता है।
हम पाते हैं कि जहाँ टैगोर की कहानी स्त्री के नजरिए से कही गई है, सुंदर है, वहाँ लड़की स्वतंत्र होने, विश्वसनीय, प्रामाणिक, विद्रोही होने के अर्थ में कन्या है जो शादी के जूए को स्वीकारने से इंकार करती है। सत्यजित राय के यहाँ वह इससे अधिक है। वह देवी के आयाम तक जाती है और अमूल्य उसका आराधक है, वह अन्वेषी है जो पार्थिव स्त्री में देवी खोज रहा है।
वह मृणमयी को हृदय की गहराई से प्रेम करता है, उसके भीतर उसके लिए लगातार एक कसक है, और जब उसे नहीं पाता है तो उसकी धूरी हिल जाती है। इसके बावजूद वह खुद को उस पर लादता नहीं है, थोपता नहीं है, धैर्य के साथ अपने अपनाए जाने की प्रतीक्षा करता है।
और अंतत: यही वह करती है – हालाँकि बालिका मात्र होने के कारण वह यह सब समझ नहीं पाती है। अपनी माँ के यहाँ रहते हुए, बाद में वियोग में उसे अपने हृदय की बात पता चलती है, वह अमूल्य की आराधना को ग्रहण करती है और जिस पल यह स्वीकार घटित होता है, हमें वह पल दिखाया जाता है – मुस्कान जो अचानक उसके चेहरे पर उभरती है, उसके अंधेरे कमरे को उजास से भरती हुई। स्वीकार के इस विकास में पराजय नहीं है – यह जय-पराजय का प्रश्न ही नहीं है – बल्कि यह तो विकास की प्रक्रिया है।
अत: ‘समाप्ति’ विकास की प्रक्रिया की कहानी है, प्रौढ़ता प्राप्त करने की, एक प्रकार की परिपक्वता की। बीज पराजित नहीं होता है, जब वह अंकुरित होता है और पौधा बनता है, फ़ूल हारता नहीं है, जब वह मरता है और फ़ल बनता है, इल्ली नष्ट नहीं होती है, जब वह तितली बनती है।
जो बालिका मृणमयी हमें फ़िल्म के आरंभ में दिखाई देती है, वह अमूल्य की देवी बनने में सक्षम नहीं थी लेकिन इस प्रौढ़ता प्राप्ति के पश्चात वह उसके लिए योग्य हो जाती है।
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मूवी में एक दृश्य है जो फ़िल्म को इस तरह देखने में बाधा उत्पन्न करता है: शादी की बाद की सुबह अमूल्य का बेडरूम। सुबह मृणमयी नदी के किनारे झूले पर सिर रख कर सोई हुई पाई गई है और घर लाई गई है। उसकी सास चंडी बनी हुई है मृणमयी ने जो किया है और उससे होने वाली बदनामी को सोचती हुई – हालाँकि इस पूरी घटना से गाँव का मात्र मनोरंजन हुआ है क्योंकि वे लोग मृणमयी जैसी है, उसे वे प्यार करते हैं। सास के आदेश से मृणमयी को बेडरूम में बंद कर दिया गया है। अपने क्रोध में वह कमरे की सारी चीजों को फ़र्श पर फ़ेंक देती है। बाद में अमूल्य कमरे में आता है और उसने क्या किया है देखने पर उसे चीजों को जगह पर रखने का आदेश देता है और मृणमयी बेआवाज सुबकती हुई चुपचाप चीजों को वापस उनकी जगह पर रख देती है, जो वह कहता है, वह करती है। यहाँ हम टूटी हुई मृणमयी को देखते हैं। इस पल वह मजबूत नहीं वरन कमजोर और आज्ञाकारिणी है।
खैर, संभव है, उसकी शक्ति की क्षणिक हानि हुई है। आखीरकार, वह बहुत छोटी लड़की है, शायद चौदह वर्ष की और घटनाएँ जो घटी है उस पर हावी हो जाने वाली हैं – शादी जो जबरदस्ती हुई है, सोहागरात को उसका भाग निकलना और जब उसे वापस लाया गया तो उसके नए घर में हुई घटनाएँ। यहाँ तक कि महान, मजबूत, पूरी तरह से स्वतंत्र भव्य वाल्मीकि रामायण की सीता जैसी स्त्री, जो कभी किसी और को अपने लिए निर्णय नहीं लेने देती है, स्वयं सारे निश्चय करती है, अपने जीवन में एक बार कमजोर नजर आती है – युद्ध के अंत में लंका की घटनाओं के बाद अयोध्या लौट कर, राम के राज्याभिषेक के समय, हनुमान जिसने उसके लिए इतना कुछ किया है और जो उसके लिए पुत्र समान है, उसे अपना एक हार उतार कर देना चाहती है, वह राम से नि:शब्द अनुमति माँगती है। भला मृणमयी क्यों नहीं इन परिस्थितियों में अपनी शक्ति खो देगी?
उल्लेखनीय है, स्त्री को देवी के रूप में देखना बंगालियों और भारतीय संस्कृति या सत्यजित राय के लिए कोई अजनबी बात नहीं है। जैसा कि ‘देवी’ फ़िल्म के केंद्र में कई पात्रों का एक स्त्री को देवी के रूप मे देखना है। स्त्रियों को देवी कह कर पुकारना उतना ही हमारी संस्कृति का अंश है जैसे इंग्लिश संस्कृति में उनको मैडम कहते हैं।
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सिनेमा की अपनी भाषा होती है और राय ने कहानी को सिनेमा की भाषा में पुनर्कथन किया है। जबकि टैगोर की कहानी में गाँव के सारे बच्चे मृणमयी के दोस्त हैं, मूवी में अधिकतम समय हम उसका केवल एक ही दोस्त देखते हैं। इसी तरह, अमूल्य का घर एक तरह से एकाकी घर है, कई घरों से घिरा हुआ घर नहीं जैसा कि कहानी में है – हम देखते हैं माँ-बेटे का एक एकाकी घर। मूवी में, फ़िर, जब अमूल्य ‘लड़की देख’ रहा है, मृणमयी ऐसे ही वहाँ आ कर लड़की के भाई राखाल को अपने साथ खींच कर खेलने नहीं ले जाती है, वह कमरे में दौड़ रही अपनी प्रिय गिलहरी की खोज में आती है। ये सारे परिवर्तन इधर-उधर की बातों से ध्यान हटा कर उसे मृणमयी पर केंद्रित करते हैं।
मूवी में मृणमयी शादी के प्रतिरोध में अपने केश काट डालती है, कहानी की तरह राखाल खेल-खेल में नहीं काटता है। मुझे यह परिवर्तन उसके चरित्र में एक मजबूत पक्ष जोड़ना लगा।
हमें कुछ और सुंदर परिवर्तन भी देखने को मिलते हैं। गुरुदेव की कहानी में नदी किनारे का झूला अनुपस्थित है। यह राय का एडीशन है, वो कई और खूबसूरत डिटेल्स जोड़ते हैं – जैसे अमूल्य को जो मिठाई दी जाती है उसे खाना शुरु करना और रुकना, उसकी ओर देखती हुई बच्चों की कई जोड़ी भूखी आँखें। मृणमयी का खिलौना – जो चिड़िया की तीखी आवाज निकालता है, कहानी में नहीं है, जैसे नई मृणमयी के भावांतरण और पुरानी मृणमयी की मृत्यु के साथ गिलहरी की मौत। कहानी में अमूल्य की माँ का कोई व्यक्तित्व नहीं है, वह मात्र माँ है, लेकिन मूवी में उसकी उपस्थिति है, जिसे हम आसानी से नहीं भूल सकते हैं। मृणमयी की हँसी बहुत अधिक प्रभावशाली है – तकरीबन अपने अस्तित्व में एक अलहदा चरित्र – कहानी में इसका अपना अस्तित्व है, जबकि मूवी में यह हॉन्टिंग से अधिक लुभावना, अपनी मासूमियत में मोहित करने वाला और बेफ़िक्र है, निर्द्वंद्व है। शक्ति नहीं, प्रसन्नता और स्वतंत्रता इसकी विशेषता है।
अमूल्य, मृणमयी और राखाल के घर के अलावा मानो पूरा गाँव खाली है। यह इन तीन घरों को एक तरह का एकाकीपन और पृथकता देता है – और एक स्वप्न जैसी विशिष्टता, जैसा स्वप्न में, आवश्यक होने पर चीजें दिखाई देती हैं और आवश्यकता समाप्त होने पर ओझल हो जाती हैं। एकाकीपन के कारण सब चीजें उभर कर आती हैं, जैसे एक आकृति चौखटे में जड़ी हो। जैसे गुरुदेव की कहानी में मृणमयी सारे समय गाँव के लड़कों के साथ खेलती रहती है जब कि यहाँ हमें यह प्रतीति मिलती है कि वह सारे समय राखाल के साथ ही खेलती है यद्यपि हम उसे और बच्चों के साथ भी देखते हैं।
राय ने अपने केंद्रीय पात्रों का एक भिन्न संसार रचा है – एक संसार जो इस दुनिया का हिस्सा है भी और नहीं भी।
कहानी में अमूल्य और मृणमयी के बीच एक तरह की रस्साकसी है – मानो दोनों बराबर हों और प्रत्येक दूसरे पर कब्जा करना चाह रहा हो। मृणमयी की प्रारंभिक हँसी से अमूल्य का अहं आहत हुआ है – अमूल्य अपना अहं कायम करने का प्रयास कर रहा है, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दोनों रूप में अपने गिरने से उबरने का प्रयास कर रहा है। पुरुष और बड़ा तथा शिक्षित होने के बावजूद इस ग्रामीण बाला से हारा है और उसे ऊपर रहना चाहता है। कहानी में वह मृणमयी का प्रतिस्पर्द्धी है, जबकि मूवी में वह संपूर्ण रूप से उसके जुनून में है। मृणमयी की उपस्थिति उसे नगण्य बना देती है और उसका मृणमयी को अपनी बनाने की इच्छा जीतने की अपेक्षा एक तरह से उसके प्रति समर्पण है। वह कमतर हो गया है, उसका अस्तित्व तकरीबन मिट गया है और वापस आने के लिए उसे मृणमयी की आवश्यकता है। उसके द्वारा ही वह पुनर्जीवित हो सकता है, अपना अस्तित्व पुन: पा सकता है। स्त्री प्रहेलिका है, एक रहस्य, न समझी जा सकने वाली, शाश्वत सम्मोहक – मृणमयी को अमूल्य ऐसी ही देखता है। वह अप्राप्य है। वह आनंद है, स्वयं जीवन। कहानी में ऐसा नहीं है।
सत्यजित राय की मूवी कहानी का पुनर्कथन नहीं है, यह उसका पुनर्जन्म है। जैसाकि पुनर्जन्म में सब कुछ वही रहता है, साथ ही भिन्न भी, ऐसा ही मूवी में हुआ है। गुरुदेव की कहानी का नवीन संस्करण, नवजन्म के कारण अधिक जीवंत, प्रत्येक फ़्रेम चाक्षुष रूप से अपनी सुंदरता में अत्यंत आकर्षक। फ़िल्म हमें टैगोर की कहानी से परे दूसरे कई आयामों में ले जाती है। हमें उस संसार में ले जाती हुई जो एक साथ नाजुक है और जिसमें स्वयं जीवन की शक्ति है। कहानी एक विचार को पंख देती है, फ़िल्म अपने आप में सांस लेती, धड़कती स्वयं जिंदगी है।
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‘समाप्ति’ की सिनेमाटोग्राफ़ी मोहक है। मूवी हमें बंगाल का एक बहुत छोटा हिस्सा दिखाती है लेकिन यह हिस्सा कैमरा कार्य के कारण सम्मोहक है, चाहे नदी हो, पेड़ों के साथ नदी किनारा हो या झूला हो, गाँव की सड़क हो या कुछ और हो। मूवी का प्रत्येक फ़्रेम कुशल चित्रकार की कला की तरह कैमरे के जादूई स्पर्श से आविष्ट करने वाली सुंदरता से लैस है, फ़र्क यह है कि यहाँ आकृतियाँ जीवंत और चलती-फ़िरती है, स्थिर नहीं हैं।
मूवी में हम खूब सारा कीचड़ देखते हैं – वर्षा काल में बंगाल का कीचड़ जिसमें जब चलते हैं तो पैर धंस जाते हैं, जिस पर आप फ़िसलते हैं और गिरते हैं। यह मात्र कीचड़ है और दलदल नहीं – अत: यहाँ कोई वास्तविक खतरा नहीं है। इस पर चलते हुए सावधान रहना है, ठीक वैसे ही जैसे ग्रामीण जीवन की परम्परा में डूबते हुए आपको उससे व्यवहार करते हुए सावधान रहना है। हालाँकि आप सावधान हैं तो उससे सफ़लतापूर्वक व्यवहार कर सकते हैं, जैसा अमूल्य सफ़लतापूर्वक करता है। एक बार जब वह गिरता है, मृणमयी को खिलखिला कर हँसाते हुए, लेकिन वह हार नहीं मानता है और अपने लक्ष्य तक पहुँचता है। शायद राय के लिए भींगी, चिकनी कीचड़ मिट्टी मृत परम्पराएँ हैं। टैगोर खुशी से अनुमोदन करते। क्या उन्होंने अपने देश की स्वतंत्रता के उस स्वर्ग में जागने की प्रार्थना नहीं की! जहाँ वह ‘रूढ़ियों के रेगिस्तान में खो न गई हो…’
शादी के तत्काल बाद के काल को छोड़ कर तकरीबन पूरी मूवी में आनंदपूर्ण वातावरण है, वातावरण जो मूवी के अंतिम पलों में वापस आता है, जो हमारे चेहरों पर मुस्कुराहट लाता है और आँखों में खुशी। और कुछ हास्यपूर्ण दृश्य हैं, जैसे जब अमूल्य ‘लड़की देखने’ जाता है। वहाँ थोड़े समय के लिए आए संतोष दत्ता का अभिनय सबसे अधिक प्रभावित करता है। असल में मूवी मृणमयी के लोटपोट होती हुई हँसने से प्रारंभ होती है और इसका अंत होता है उसके वापस लौटने पर उनके शयनकक्ष में मृणमयी और अमूल्य की साझा कोमल मुस्कान से।
‘समाप्ति’ फ़िल्म सपनों के साथ एक विशेष गुण साझा करती है। जैसे स्वप्नों में चीजें जब चाहिए दीखती है और आवश्यकता समाप्त होते ही गायब हो जाती हैं ठीक वैसे ही राय की फ़िल्म में भी घर, लोग और अन्य वस्तुएँ जरूरतानुसार आती हैं और जरूरत खतम होने पर ओझल हो जाती हैं। उदाहरणार्थ वो घर जहाँ अमूल्य लड़की देखने जाता है, अमूल्य का नौकर और गाँव के अन्य लोग। साथ ही पूरी फ़िल्म यथार्थ पर आधारित है।
ग्रामीण दृश्यों के वास्तविक फ़िल्मांकन में झलकने वाला यह यथार्थवाद मुझे बहुत अच्छा लगा। साथ ही यह भी कि यह नीरस, एकरस यथार्थवाद नहीं है जैसा कि बाद के वर्षों का समानांतर सिनेमा में था। यह यथार्थवाद भारतीय जीवन के सार उत्फ़ुल्लता को नकारता नहीं है, यहाँ शेली, कीट्स और वर्डस्वर्थ के जमाने का रोमांटिसिज्म नजर आता है। रोमांटिसिज्म जिसके प्रेम में आप पड़ जाते हैं। और यहाँ कोई फ़्लैशबैक नहीं है, ड्रीम सीक्वेंस नहीं हैं, पेड़ों के इर्द-गिर्द नाच-गान नहीं है, कमेडियन्स नहीं हैं जो आपसे जबरन हँसने की अपेक्षा करते हैं। ‘समाप्ति’ एक प्रेम-कथा है और मूवी के प्रत्येक फ़्रेम में प्रेम व्याप्त है।
केवल यदा-कदा चिड़ियों की आवाज से चिन्हित पूरी फ़िल्म में पसरे हुए गहन नीरवता के लंबे-लंबे पल भी मुझे बहुत भाए। ये नि:शब्दता किसी शब्द अथवा किसी ध्वनि से अधिक संप्रेषित करती है और दृश्यों में सघन गहराई पूरती है, दर्शक को पात्रों की भावनाओं, आंतरिक, अनकहे विचारों और स्थिति की मार्मिकता साझा करने के लिए आमंत्रित करती है।
सत्यजित राय के उत्कृष्ट निर्देशन में सब अभिनेताओं ने विशिष्ट प्रदर्शन किया है। बच्ची अपर्णा सेन चौदह साल की उम्र में अपने अभिनय के श्री गणेश में ही अद्भुत प्रतिभा प्रदर्शित करती है। उसने खुद को पूरी तरह स्वाभाविक रूप से दोनों भूमिकाओं – शुरु में टॉमबॉय के रूप में और बाद में शर्मीली पत्नी, नवोढ़ा के रूप – में सिद्ध किया है। सौमित्र चैटर्जी प्रत्येक दृश्य में कंट्रोल्ड है, एक अभिनेता के रूप में प्रौढ़ और उसका चेहरा बिना एक शब्द के एक युवक के मन में चल रहे सैंकड़ों टकराती हुई भावनाओं को व्यक्त करता है, जिसने धारा के विरुद्ध चलने और पगली के साथ जीवन जीने का निर्णय किया है। अमूल्य की माँ बहुत ही आधिकारिक अभिनय करती है, बेटे पर जान छिड़कती, अपने महत्व से भरी हुई है, भली ग्रामीण माँ, घर की मुखिया। हालाँकि उसके प्रेम के शासन के लिए बहुत लोग नहीं हैं। नौकर हरिपदो (देवी नियोगी) बहुत कम समय के लिए परदे पर आता है लेकिन अपने अभिनय से प्रभाव छोड़ता है। छोटे लड़के, मृणमयी के खेल के साथी, राखाल (मिहिर चक्रवर्ती) ने उत्कृष्ट काम किया है, वैसे मूवी में उसके लिए बहुत स्थान नहीं है। उदाहरण के लिए वह दृश्य लीजिए, जिसमें अपनी पत्नी की खोज में आए हुए अमूल्य और उसकी सास के मध्य का वार्तालाप सुनने वह दौड़ता हुआ आता है। यहाँ दृश्य में कोई अभिनय नहीं है, जिसे वह उसे जीता है। तेजी से दौड़ता हुआ वह वहाँ पहुँचता है और थोड़ी दूरी पर खड़ा हो जाता है, वह भाग नहीं लेता है, जो हो रहा है उसे देखता और सुनता है। यह वार्तालाप उसकी दोस्त के विषय में है, ‘दीदी’ जिसका वह प्रशंसक है, लेकिन वह चेहरे पर कोई भाव नहीं आने देता है।
राय की मूवी कोई बहस नहीं करती है – वे पक्ष या विपक्ष में किसी बात के लिए जिरह नहीं करते हैं, केवल कथा कहते हैं।
और इसे वे दक्षता के साथ करते हैं जैसा विश्व सिनेमा में कुछ ही निर्देशकों कर सकते हैं। वे ठीक वैसे ही शुरुआती सीन से ले कर अंतिम सीन तक हमें अपने जादू में बाँधे रखते हैं जैसा प्रतिभाशाली कथावाचक किया करते हैं।
‘समाप्ति’ एक जादूई मूवी है – नहीं, जादूई यथार्थवादी नहीं, मात्र जादूई। यह विशुद्ध जादू का एक छोटा-सा हिस्सा है जो धीरे से आपका दिल चुरा लेता है, जो आपको आपकी गहराइयों में स्पर्श करता है। आपको गहन संतृप्ति की अनुभूति देता है, आपने ऐसा कुछ अति सुंदर अनुभव किया है, जो आपकी जिंदगी को समृद्ध करता है। इसमें एक तरह की विशुद्धि है जिसे सामन्यत: हम पवित्रता के साथ जोड़ते हैं, कुछ ऐसा जिसके लिए आप मौन प्रार्थना करते हैं कि यह किसी बात से नष्ट न हो और अस्तित्व को सदैव के लिए समृद्ध करती हुई ऐसी ही बनी रहे।
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