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हमें अपनी भाषाओं की ओर लौटना ही पड़ेगा

आत्मनिर्भरता का संबंध मातृभाषा से भी है। अशोक महेश्वरी ने अपने इस लेख में यह बताने की कोशिश की है कि जब काम करने वाले और काम कराने वाले एक ही भाषा भाषी होंगे तो उससे आत्मनिर्भरता का द्वारा खुलेगा। भारत में शिक्षा के विस्तार के लिए भी ज़रूरी है कि लोगों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा दी जाए, उनको अपनी भाषा में कुशल बनाया जाए। एक बहसतलब लेख-

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भाषा और संस्कृति का रिश्ता सामाजिक है। यह रिश्ता संप्रेषण को गति देता है और जीवन मूल्यों को स्थापित करता है। चाहे धार्मिक हो या राजनैतिक, व्यावसायिक—हर स्तर पर यह एक व्यवस्था प्रदान करता है। फ़िर यही व्यवस्था सामाजिक और कारोबारी बन जाती है। राष्ट्र के निर्माण और विकास में भाषा का योगदान बहुत बड़ा है। भाषाएँ अपनी स्थानीयता के नाते मुखर होती हैं और अपनी विभिन्नताओं के साथ सारे विश्व को एक वैश्विक गाँव बनाने की शक्ति रखती हैं। तो कारोबारी भाषा क्या हो, जो सम्प्रेषित होकर व्यापार जगत में अपनी एक छवि निर्मित कर सके?

भाषा आत्मविश्वास, एकता और स्वदेशी की बुनियाद है और आत्मनिर्भर बनने की बात हमारी स्वतंत्रता, समानता, राष्ट्रीयता से जुड़ी है। हम यह लक्ष्य विदेशी कम्पनियों के अपने देश में आ जाने या यहाँ निवेश करने और फैक्ट्रियाँ-उद्योग लगाने भर से प्राप्त नहीं कर सकते। इसके लिए सबको एकजुट होकर, सभी पक्षों को समझते हुए एक साथ प्रयत्न करने पड़ेंगे। इस दिशा में भाषा एक प्रबल पक्ष है। हमें दुनिया के दूसरे आत्मनिर्भर देशों की कार्यप्रणाली को समझने के साथ-साथ भाषा के प्रति उनके व्यवहार को भी समझना पड़ेगा।

दुनिया के प्राय: सभी आत्मनिर्भर देशों की कुछ विशेषतायें हैं। अपने नागरिकों की चिन्ता, व्यापार और व्यापारियों के प्रति सकारात्मक सोच, नई से नई तकनीक की खोज और खोजने वाले के प्रति आभार व्यक्त करने की प्रवृत्ति, पारदर्शिता, खेती-किसानी और श्रम शक्ति की चिन्ता जैसी बातें उनमें समान रूप से दिखाई पड़ती है। एक और बात जो इन देशों में एक समान दिखाई पड़ती है, वह है—राष्ट्रीय स्वाभिमान—एक ऐसी भावना जो किसी ऊँचे पद पर बैठे व्यक्ति और सबसे नीचे के पायदान पर खड़े नागरिक को एक दूसरे के साथ जोड़ती है। उनमें समानता का भाव पैदा करती है और एक साथ आगे बढ़ने का जज़्बा भी देती है। यही भाव आत्मनिर्भर होने और सबसे आगे रहने की अभिलाषा को उनके दिलोदिमाग में ज़िंदा रखता है। इन सबका आधार है भाषा—मातृभाषा, सबकी भाषा, देश की भाषा, राष्ट्र की भाषा।

दुनिया के सभी विकसित आत्मनिर्भर देश अपनी-अपनी भाषाओं में काम करते हैं। वहाँ शिक्षा, विज्ञान, स्वास्थ्य, क़ानून, कम्प्यूटर, तकनीक सब उनकी अपनी भाषा में उपलब्ध है। शिक्षा बच्चों पर बोझ नहीं है। इन देशों के नागरिक अपनी भाषा में अपनी बात कहते हैं। वे अपनी भाषा में वैज्ञानिक, दर्शानिक, समाजशास्त्रीय रचनायें करते हैं। वे नए-नए सिद्धान्तों का निरूपण भी अपनी भाषा में ही करते हैं। फ्रांस, जर्मनी, हालैण्ड, जापान, कोरिया, चीन, इंग्लैंड, अमेरिका, इजराइल, रूस आदि सभी छोटे-बड़े देश अपनी-अपनी भाषाओं में काम करते हैं। सच तो यह है कि इनके आत्मनिर्भर होने का बड़ा कारण इनका अपनी भाषा में काम करना है। इनकी भाषा इनके लिए वर्नाकुलर या स्थानीय नहीं है। उन्होंने अपनी भाषाओं को अंतर्राष्ट्रीय बना दिया है। हमें आत्मनिर्भर बनना है, तो हमें सबसे पहले अपनी भाषा में काम करने की आदत डालनी पड़ेगी। भाषायी झगड़ों को भूल कर, भाषायी राजनीति से दूरी बनानी होगी। सभी भारतीय भाषाओं का सम्मान करना होगा। आत्मनिर्भर देशों के अनुभवों से सीखना और अपनी भाषा के प्रति सकारात्मक सोच रखते हुए उसे अपने व्यवहार में उतारना इस दिशा में उठाया जाने वाला ज़रूरी कदम है।

हमारे देश में संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त 22 प्रमुख भाषायें हैं। इन भाषाओं का एक गौरवशाली इतिहास है। सभी भाषा-भाषियों की अपनी वैज्ञानिक, साहित्यिक, दार्शनिक, समाजशास्त्रीय उपलब्धियाँ हैं। विषय के अनुकूल शब्दावली हर भाषा में मौजूद है। प्रत्येक भाषा के लोग दुनिया भर में अपनी सामर्थ्य का लोहा मनवा चुके हैं। हमारे देश का एक-एक भाषाई प्रदेश किसी भी विकसित आत्मनिर्भर देश के बराबर क्षमतावान है।

केवल टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल हमें आत्मनिर्भर नहीं बना सकता। कुशल-अकुशल श्रमिकों की फौज से भी यह सम्भव नहीं है। केवल आईटी, छोटे-बड़े उद्योगों, कल-कारखानों, आधारभूत उद्योग-धन्धों, परमाणु-अस्त्रों से भी यह नहीं हो सकता। आत्मनिर्भरता राष्ट्रव्यापी सोच है। चल-अचल छोटी से छोटी इकाई की चिन्ता करके ही इसका ब्लूप्रिन्ट बन सकता है। किसानों और मजदूरों को आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने योग्य कैसे बनाया जायेगा? इन्हें जागरुक और निपुण बनाने के लिए किस भाषा का सहारा लिया जाए? कौन सी भाषा इन्हें एक-दूसरे से जोड़ पाएगी? किस भाषा के साथ ये अपने को सहज पायेंगे और कम समय में पात्रता हासिल कर सकेंगे? ऐसे सवालों पर सोचना होगा।

आत्मनिर्भर बनने के लिए हमें अपनी भाषाओं की ओर लौटना ही पड़ेगा। वैसे भी शुरुआत के लिए कभी देर नहीं होती। पुराने अनुभवों से सीखने की ज़रूरत है, उन्हें दोहराने की नहीं। कुछ वर्ष पहले ‘डॉट कॉम’ की जगह लेने के लिए ‘डॉट भारत’ बना था। बहुत से लोगों ने इस पर रजिस्ट्रेशन भी कराया। परन्तु इसका इस्तेमाल नहीं हो सका। भारत सरकार ने भी इसे नहीं अपनाया। सभी भारतीय भाषा-भाषियों को यह काम मिलकर करना पड़ेगा, तभी यह सम्भव हो सकेगा। इसके लिए जिस आत्मशक्ति और विश्वास की ज़रूरत है उसकी कमी हमारे पास नहीं है। ज़रूरत उसे एकत्र करने और मिले-जुले प्रयासों की है।  सरकार को नीतिगत तरीके से भाषाओं और स्वदेशी का इस्तेमाल करने, इन्हें व्यवहार में लाने की शुरूआत करनी पड़ेगी। हम सब को भी इन प्रयासों का साथ देना होगा।

आत्मनिर्भरता की राह और स्वदेशी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसके लिए हमें गांधी मॉडल पर भी विचार करना चाहिए। आत्मनिर्भर गाँव, शक्तिशाली पंचायत। गाँव मज़बूत होंगे तभी देश मज़बूत होगा। मजदूरों के पलायन की जो स्थिति हम आज देख रहे हैं, यह न देखनी पड़ती, यदि इस ओर ध्यान दिया गया होता। गाँवों में शिक्षा का फैलाव तो हुआ है लेकिन शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था की हालत दयनीय है। मातृभाषाओं को शिक्षा प्रणाली में उचित स्थान मिलने पर सम्भवतः ऐसा न होता। आत्मनिर्भरता के लिए शिक्षा ज़रूरी है। मातृभाषा के माध्यम से ही शिक्षा सभी के लिए सहज, सरल और सस्ती हो सकती है। इससे कम खर्च, कम समय और कम मेहनत से बेहतर परिणाम हासिल हो सकते हैं। इससे बेरोजगारी कम होगी, काम के लिए दूर-दूर भटकना कम होगा, प्रतिभा का पलायन कम होगा। कुशल श्रम पर्याप्त संख्या में उपलब्ध होगा। बाहर से आने वाले उद्योगों के देश में लम्बे समय तक टिके रहने के लिए भी यह ज़रूरी है। यह तभी सम्भव होगा जब काम कराने वाले और काम करने वाले एक ही भाषा का इस्तेमाल करेंगे।

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यह लेख अमर उजाला में पूर्व प्रकाशित है। 

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