Home / Featured / छठी बार का दूसरा वसंत:देवेश पथ सारिया

छठी बार का दूसरा वसंत:देवेश पथ सारिया

देवेश पथ सारिया ताइवान के एक विश्वविद्यालय में शोध कर रहे हैं और हिंदी के युवा लेखकों में उनका जाना माना नाम है। सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं। विश्वविद्यालय के अनुभवों को लेकर उन्होंने यह सुंदर गद्य लिखा है-

==================================

सितम्बर 2020

शिन चू सिटी

मेरी यूनिवर्सिटी में वसंत दो बार आता है। पहली बार जब सच में वसंत आता है और तमाम फूलों के साथ सकुरा के फूल खिलते हैं। दूसरी बार जब यूनिवर्सिटी का नया सत्र शुरू होता है। हर साल सितम्बर के महीने में कॉलेज में नए आने वाले ये टीनएजर्स जिन्हें यहां फ्रेशमैन कहा जाता है, शुरू-शुरू में कितने मासूम से दीखते हैं। वैसे इस तरह की मासूमियत भारत में कहीं ज्यादा दिखती है क्योंकि वहाँ तथाकथित भारतीय वैल्यूज़ का असर स्कूल तक काफी मजबूत रहता है जो कॉलेज में क़दम रखते ही ऐसा काफूर होता है जैसे भरे हुए गुब्बारे को बाँधा न गया हो, और उँगलियों के बीच से एकदम से छोड़ दिया गया हो। कॉलेज में आते ही युवा महसूस करते हैं कि अब तक तो वे छौने थे और अब उस मशाल को थाम लेने का समय आया है जिसका हल्ला मचाकर उन्हें भविष्य में देश का कर्णधार कहा जाता रहा था। भविष्य सीढ़ियों की श्रंखला होता है, एक सीधी भर नहीं। एक मसला यह भी है कि कुछ युवा जल्दबाज़ी और अनुभवहीनता के चलते कभी-कभी अपना ही हाथ जलाने वाली मशालें भी थाम लेते हैं। वे यकायक पुतलियाँ चौड़ी कर एक बड़ी दुनिया देखने लगते हैं, स्वच्छंद दुनिया, बेरोकटोक दुनिया। अच्छी और बुरी दोनों चीजें सीखते हैं। ‌ इस तरह उनके भीतर एक धूसर किरदार का निर्माण होता है। ‌आप मेरी बात मानेंगे यदि मैं कहूँ कि इस दुनिया में अधिकाँश लोगों का चरित्र धूसर है? भले ही सलेटी दुनिया का सबसे बोरिंग रंग हो। हाँ, अगर जॉर्ज क्लूनी ने इस रंग का सूट पहना हो तो बात अलग है।

31 अगस्त 2020 को मुझे इस यूनिवर्सिटी को ज्वाइन किये पांच साल पूरे हो चुके हैं। इस बार यह छठी बार है जब मैं इन मासूम चेहरों को टकटकी लगाए देख रहा हूं जो कुछ दिन में मासूम नहीं लगेंगे। ‌यह सोचकर मुझे ताज्जुब होता है कि 2015 में मेरे पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च के पहले साल में जिन बच्चों ने यहां ग्रेजुएशन में प्रवेश लिया होगा वे अब यहां से पास आउट होकर जा चुके हैं‌ और मैं हूँ कि यहीं टिका हुआ हूं। ‘रंग दे बसंती’ में आमिर ख़ान के किरदार डीजे की तरह मेरा एक हिस्सा कहता है “मैंनू बस यूनिवर्सिटी च रहणा है”। पर मेरे साथ वो दो बातें नहीं हैं जिन्हें डीजे अगली पंक्ति में कहता है। पहली कि लोग उसे वहाँ जानते हैं और दूसरी कि उसकी वहां इज्जत है । ताइवानी लोग नहीं जानते कि मैं कविताएं और संस्मरण लिखता हूं और वे सब हिंदी के पाठकों तक पहुंचते हैं। पाठक जो कि इन दिनों मुट्ठी भर होने से कुछ बढ़ गए हैं ।

मैं जब किशोर था तब स्कूल-कॉलेज का पॉपुलर लड़का था । मुझे नशा था कि लोग मुझे जानें। स्पीच, डिबेट वगैरह में हिस्सा लेता। जीतता, कभी हार भी जाता। फिर कुछ हुआ और मैं एक कवच में क़ैद रहने लगा। मुझे लगने लगा कि मैं उतना ही साधारण हूँ, जितना हर कोई। एक समय था कि मुझे लगता था कि कोई इतने छोटे पद तक ही क्यों पहुचं पाया और अब लगता है कि उसके लिए भी किसी को कितना संघर्ष करना पड़ा होगा। यहां तिनका भर हासिल करने की भी एक क़ीमत चुकानी पड़ती है।

सितंबर का महीना आ चुका है और गर्मी रेंगती चाल से कम हो रही है। हालांकि इस साल बारिश पिछले सालों की तुलना में कम हुई है। इन दिनों रात को घूमने निकलूं तो गर्मी सेेे कोई दिक्कत महसूस नहीं होती। तापमान भी दो होते हैं और आपको दरअसल ‘फील्स लाइक .. ‘ वाले पर गौर करना होता है क्योंकि देह उसी के अनुसार रिएक्ट करेगी। समुद्र के करीब होने की वजह से इस शहर में आर्द्रता (humidity) बहुत रहती है और तापमान ज़्यादा ही महसूस होता है । जुलाई-अगस्त में काफी तकलीफ़ थी और मैं एहतियातन जेब में ग्लूकोज़ के पैकेट रखकर निकलता था। यदि तरबूज और खरबूज की एक लोकल प्रजाति का सहारा ना मिला होता तो मेरे लिए गर्मी काटना बड़ा मुश्किल हो जाता क्योंकि अपने पेट की सेहत के चलते मैं नाश्ते में ज़्यादा कुछ नहीं खा सकता। यूँ भी गर्मी में पाचन तंत्र सुस्त रहता है।

इस बार कहीं से गेंहू वाली ब्रेड मिल गयी थी जो मुझे भा गयी और मैं रात को उसके हिस्से की आख़िरी दो ब्रेड भी खा गया। पत्नी ने वह अपने ब्रेकफास्ट के लिए राखी थी। रात को यूनिवर्सिटी के फूड कोर्ट में पानी भरने पहुंचा तो वहां डायनिंग एरिया में कुछ खाने की चीजें लावारिस और सजी हुई रखी थीं। मैंने किसी से पूछा कि यह क्यों रखी हैं‌। उसने बताया कि ये गिफ्ट हैं, कोई भी ले जा सकता है। मैं वहां से एक बड़ा सा ब्रेड का पैकेट और हनी मस्टर्ड सॉस का डिब्बा ले आया। इन दिनों यहां घोस्ट फेस्टिवल चल रहा है , पूर्वजों को याद करने का समय। घर आने पर अमन ने पूछा कि ऐसे कैसे तुम इसे उठा लाये। मैंने उससे कहा कि कई साल बाद श्राद्ध पक्ष में कुछ ब्राह्मण टाइप करने का मौका मिला है। जातिवादी नहीं हूँ पर अपने साथ जुडी पहचान पर चुटकी ले ही सकता हूँ।

दो-तीन महीने की छुट्टियों के बाद अचानक यूनिवर्सिटी के सुनसान पड़े रास्तों पर रात को भी जगमग नजर आने लगी है। रात को जहां से मैं घूमने निकलता हूं वहां सामने एक जगह गर्ल्स हॉस्टल पड़ता है। जिस मोड़ पर लड़की अपने हॉस्टल की तरफ मुड़ जाती है, उसके पास वाली बैंच पर दिल पसीज जाए, ऐसे प्रेम दृश्य देखने को मिलते हैं। लड़का, लड़की को भारी मन से विदा करता है, लड़की भावुक हो उठती है। लड़कियों के हॉस्टल में लड़का अंदर जा नहीं सकता। वैसे कुछ लड़के-लड़कियों के कॉमन हॉस्टल भी हैं पर वहाँ भी एक-दूसरे के कमरे में जाने पर एक टाइम लिमिट है। ऐसे में बिछड़ते समय इन जवान लोगों के आलिंगन और चुम्बन एक धीमे संगीत से घटित होते हैं और यकीन मानें कहीं कोई अश्लीलता नहीं दिखती। भारत के पार्कों में ज़रूर अश्लीलता दिख जाती है। ताइवान आने से पहले एक बार मैं दिल्ली भ्रमण पर निकला था और लोदी गार्डन के दृश्य देखकर मेरे ज्ञान चक्षु खुल गए। इससे कुल जमा हासिल यही निकलता है कि जिस देश में जितनी ज़्यादा पाबंदियां होंगी वहाँ सहमति जनित यौनिकता भी उतनी ही उग्र हो जाएगी। यहां मैं स्त्री की मर्ज़ी के खिलाफ कुछ भी किये-धरे का पुरज़ोर विरोध करता चलूँ। वैसे ऐसा दृश्य जहां लड़की संभवतः असहज थी, मैंने यहां ताइवान में सिर्फ एक बार देखा है। कुछ दिन पहले ही। मैं चाहता था कि लड़की की मदद करूँ, पर मैं पूरी परिस्थिति से वाक़िफ़ नहीं था, ना मुझे इनकी भाषा आती है। वह कोई अकेला सुनसान कोना नहीं था और ऐसे मामलों में यहां लड़की असहाय नहीं है। मेरा सबसे करीबी अनुमान यह है कि वह कोई लड़का था जो ख़ुद को यह साबित करना चाहता था कि अब उसकी भी एक गर्लफ्रेंड है। हो सकता था मैं पूछने जाता और मैं ही ग़लत समझ लिया जाता कि आ गए तुम भारतीय मोरल पुलिसिंग करने। मैं अब भी इसे लेकर उधेड़बुन में रहता हूँ कि मुझे दखल देना चाहिए था या नहीं।

नए सेमेस्टर की रौनक में मेरे लिए एक अड़चन यह हुई है कि रात को लाइब्रेरी के बाहर जिस बड़े से मॉडर्न आर्ट पीस के पास थोड़ी देर बैठ कर मैं दीन-दुनिया की बातों पर विचार करता हूं, स्प्रिंकलर से पौधों में पानी दिए जाते समय पानी की बौछार अपने ऊपर पड़ने देता हूं, उस जगह इन दिनों एक प्रेमी जोड़ा बैठने लगा है। यह जगह है ही इतनी अच्छी। इस जोड़े के लिए यह जगह हरियाली, स्प्रिंकलर और लाइब्रेरी से नज़दीकी की वजह से मुफीद है, वे उस मॉडर्न आर्ट की तरफ झांककर भी नहीं देखते जिसमें धीरे-धीरे जंग लग रही है। उसका चाहने वाला तो कोई झक्की कवि ही हो सकता है।

मैं खुद को समझाता हूँ कि यह साल का दूसरा वसंत है और शिक्षा सत्र का पहला- नए फूलों के खिलने का समय। हर डीजे को एक दिन हाशिए पर चले जाना होता है। वसंत के फूल कल किसी और क्यारी में खिलेंगे। नए प्रेमी किसी दूसरी जगह बैठने लगेंगे। मैं और जंग खाया मॉडर्न आर्ट पीस जल्द आमने-सामने होंगे।

~ देवेश पथ सारिया

deveshpath@gmail.com

================

दुर्लभ किताबों के PDF के लिए जानकी पुल को telegram पर सब्सक्राइब करें

https://t.me/jankipul

 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

पुतिन की नफ़रत, एलेना का देशप्रेम

इस साल डाक्यूमेंट्री ‘20 डेज़ इन मारियुपोल’ को ऑस्कर दिया गया है। इसी बहाने रूसी …

7 comments

  1. कितना रसमय संस्मरण लिखा है,अंतिम पंक्ति तक पलक नहीं झपकी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *