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न कोई वास्को डि गामा होता न कोलंबस और न कोई इब्ने बतूता!

प्रज्ञा मिश्रा ने प्रवास के अनुभवों को लेकर बहुत दार्शनिक लेख लिखा है। वह इंग्लैंड में रहती हैं और जानकी पुल सहित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लिखती रहती हैं-

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देवदास (संजय लीला भंसाली वाली) फिल्म में देवदास पारो से कहता है, “लंदन की तो बात ही कुछ और है, बड़े बड़े लोग बड़ी बड़ी बातें, बड़ी बड़ी सड़कें बड़ी इमारतें”। लेकिन जब गाँव और पारो की बात आती है तो वो बड़ा शहर और वहां की शान-ओ-शौकत के कोई मायने नहीं बचते… न जाने ऐसे कितने ही गिरमिटिये (वो लोग जो अपने देस से काम की तलाश में दूर तो गए लेकिन लौट नहीं पाए ) दुनिया भर में मौजूद हैं जो रहते कहीं हैं, लेकिन उनके दिल और दिमाग में कहीं और की ही तसवीरें घूमती रहती हैं। इंसान ने धरती से लेकर चाँद तक का सफर अपनी इस भटकने की आदत के चलते ही पूरा किया है, वरना न कोई वास्को डि गामा होता न कोलंबस और न कोई इब्ने बतूता। अफ्रीका के जंगलों से निकला इंसान धरती के हर कोने तक यूँ ही नहीं पहुँच गया। लेकिन इस बरसों के सफर में कितने ही थे जो सवेरे और अँधेरे के बीच का सफर नहीं करना चाहते थे और एक जगह रुक गए। और बस लोग साथ आते गए तो सिर्फ कारवाँ ही नहीं बस्तियां भी बनती चली गयीं…

बचपन का घर और शहर जिसमें स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी तक की पढ़ाई की जब वो घर छूटा तो दुःख हुआ, लोगों के साथ साथ घर की भी याद आती थी, वो शहर की गलियाँ और गली के नुक्कड़ सबका छूटना इतना तकलीफ भरा था कि कई बार जागती आँखों के सपनों में भी वहीं घूमती रहती थी। इतने बरस में अब याद उतनी शिद्दत से नहीं आती, शायद इसकी वजह है कि शास्त्री पुल के उस पार वाला इंदौर भी अब वो इंदौर नहीं रहा जिसकी याद जेहन में है। खैर बात तो यह है कि याद की तेज़ी और जोर भी बीतते वक़्त के साथ साथ कम होता जा रहा है। …उसके बाद कई घर और कई शहर बदले। पिछले महीने ही घर और शहर बदला है लेकिन वो दुःख का एहसास कभी नहीं हुआ जो पहली बार घर छोड़ते वक़्त हुआ।

जहाँ रहने लगो और मन लगाना चाहो तो लग ही जाता है, अगर नए शहर और नयी जगह को अपनाएंगे तो वो भी नए बन्दे को अपना बनाने में देर नहीं लगाता, हर शहर का मिज़ाज कुछ अलग है, जब लंदन में रहती थी तो एक दूसरे की ख़ामोशी की इज़्ज़त करना सीख लिया, वहां अंडरग्राउंड में इशारों इशारों में ही बात भी हो जाती है और एक शब्द की भी जरूरत नहीं पड़ती। बर्मिंघम में हर तरह के इंसान को इंसान समझना सीख लिया और जब ब्रिटिश गाँव में रहने का मौका मिला तो पता चला फकत भाषा का ही अंतर है वरना गाँव तो हर जगह के एक से ही हैं।

क्या कोई शहर या देश सिर्फ इसलिए अपनाता है कि उसे वहां सब हरा हरा ही मिलेगा? अगर ज़िन्दगी भर एक ही शहर में रह कर गुजारा कर लिया तो आज के दौर में तो यह भी अनोखा है। वरना ज़िन्दगी कितने शहर और कितने देश घुमाएगी इस का ठिकाना नहीं होता। कुछ समय पहले की ही बात है जब लाखों लोग भारत की सडकों पर पैदल चले जा रहे थे क्योंकि उनके अपनाये हुए शहर में उनका कोई ठिकाना नहीं था। वैसे भी कोविड  के दौर से पहले फ्लाइट्स से लेकर ट्रेन और बसों में ऐसे लोग ही सफर कर रहे थे जो या तो घर लौट रहे थे काम के लिए घर से दूर जा रहे थे। पिछले साल ही बॉम्बे में जितने भी ऑटो और टैक्सी वाले मिले सभी काम की वजह से इस शहर में अपने देस से दूर घर बनाये बैठे हैं।

वैसे भी हर बड़ा शहर ना जाने कितने गाँव मिल कर बनता है।  इन लोगों की यादों का घर और गाँव और क़स्बा सब बदल जाता है, शहर ही नया घर बन जाता है, पिछले साल की फिल्म ‘फोटोग्राफ’ (डायरेक्टर रितेश बत्रा) में दादी गाँव में बीमार पड़ती हैं लेकिन उसका असर पूरे बम्बई शहर पर पड़ता है, और याद दिलाता है कि अब यही है जो कुछ है। ‘गमन’ फिल्म (डायरेक्टर मुज़फ्फर अली ) में लालू लाल चाह कर भी अपने शहर लौट नहीं पाता और ग़ुलाम हसन (फारुख शेख) सोचता ही रह जाता है कि आखिर क्या करना बेहतर है।

लेकिन क्या शहर बाँध कर रखता है?  बम्बई, लंदन, न्यू यॉर्क जैसे शहरों का मोहपाश ही है जो रोज़ाना हजारों की तादाद में आज भी लोग यहाँ पहुँच रहे हैं। क्या यहाँ कम मुश्किलें हैं?  कई मायनों में मुश्किलें बढ़ती ही हैं जब कोई घर को छोड़ कर निकलता है। लेकिन एक बेहतर ज़िन्दगी की उम्मीद उसे लौटने नहीं देती। क्या शहर का मिज़ाज़ आने वाले के मूड पर भी टिका होता है?  यह रिश्ता बिलकुल वैसा ही है जैसे बहू का अपने ससुराल के साथ होता है। अगर नए घर या शहर में खामियाँ ही दिखेंगी तो बसने का एहसास नहीं आएगा।

लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि नए शहर में कुछ गलत दिखे तो भी न कहा जाए?  बिलकुल नहीं। अगर किसी को अपनाया है तो उसके अच्छे की तारीफ़ और गलत को गलत कहना भी उसी में शामिल है लेकिन यह मान लेना गलत हैं कि सिर्फ आप ही सही हैं यह सरासर गलत है। तो आखिर शहरों में ख़ास तौर पर बम्बई जैसे शहरों में ऐसा क्या है कि लोग चले आते हैं?  जवाब है मौके। मौका ज़िन्दगी को बेहतर बनाने का, आसान बनाने का, और वैसे भी जो लोग घरों को छोडते समय फासलों से नहीं डरते उनकी ही मंजिलें करीब आती हैं।

बशीर बद्र ने लिखा था- ये नए मिज़ाज़ का शहर है ज़रा फासले से मिला करो। लेकिन अगर फासला कम करना है तो शुरुआत भी आने वाले को ही करनी होगी, क्योंकि यह भी मुमकिन है कि फासले नज़रों का धोखा ही साबित हों।

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6 comments

  1. प्रिय प्रज्ञा, बहुत बरसों बाद तुम्हारा चित्र देखा और तुम्हारा लिखा पढ़ा. अच्छा लगा. मैं याद करता रहा तुम कैसे महाराजा यशवंत राउ अस्पताल की चौथी मंज़िल पर मेडिसिन वार्ड में मेरे राउंड्ज़ में एक फ़िज़ीओथेरपिस्ट के रूप में शरीक होती थीं और फिर कुछ दिन मेरी क्लिनिक पर भी.
    भाषा पर तुम्हारी अच्छी पकड़ है. विचार गम्भीर व मौलिक हैं तथा शैली रोचक.
    मौक़ा मिला तो तुम्हारा लिखा और भी पढ़ना चाहूँगा. मैंने कुछ “मरीन कथाएँ”
    Clinical Tales लिखी है जो तुम्हें पढ़वाना चाहूँगा

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