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कविता शुक्रवार 14: बसंत त्रिपाठी की कविताएँ सफ़दर शामी के चित्र

‘कविता शुक्रवार’ के इस अंक में बसंत त्रिपाठी की कविताएं और सफदर शामी के चित्र शामिल हैं। बसंत त्रिपाठी का जन्म 25 मार्च 1972 को छत्तीसगढ़ के भिलाई में हुआ। शालेय शिक्षा से लेकर बी-एस.सी, एम.ए. (हिंदी) और पी-एच.डी. तक की शिक्षा भिलाई और दुर्ग में हुई। नाटकों में आरंभ से रुचि थी। कला और संस्कृति की दुनिया में आगमन नाटकों के मार्फत ही हुआ, लेकिन बाद में दुनिया बदल गई और साहित्य जीवन के केन्द्र में आ गया। हालाँकि देखने के स्तर पर अब भी नाटक, संगीत और सिनेमा से उन्हें जुनूनी लगाव है।

लिखना बचपन से ही शुरू हो गया था। लेकिन वह डायरी और कुछ दोस्तों को सुनाने तक ही सीमित था। कवि रूप को लोगों ने 1993 में पहली किताब के आने के बाद ही जाना। उसके बाद छपने का सिलसिला शुरू हो गया। अब तक कविता की तीन किताबें- ‘मौजूदा हालात को देखते हुए’, ‘सहसा कुछ नहीं होता’, ‘उत्सव की समाप्ति के बाद’ छपी हैं और दो किताबें प्रकाशन की राह में हैं। एक कहानी संग्रह ‘शब्द’ तथा 7 संपादित किताबें भी प्रकाशित हुई हैं। ‘अकार’ के दो अंकों का संपादन किया। देश की कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं- पहल, उद्भावना, नयापथ, वसुधा, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, समकालीन भारतीय साहित्य, शुक्रवार, कादंबिनी, नवनीत, हंस, कथादेश, समयांतर, साक्षात्कार, पक्षधर, बनास जन, चिंतन दिशा, जनसत्ता, सहारा समय, लोकमत समाचार आदि में कविता, कहानी, आलोचना, लेख, डायरी, रेखाचित्र प्रकाशित। कुछ कविताओं के अनुवाद मराठी, अंग्रेजी एवं असमिया में भी हुए। देश के कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक आयोजनों में भागीदारी।
कविता के लिए ‘सूत्र सम्मान’ 2007 एवं ‘लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान’ 2011 से सम्मानित। जनवादी लेखक संघ से शुरू से ही जुड़ाव रहा, जो अब भी कायम है।
22 साल तक नागपुर के श्रीमती बिंझाणी महिला महाविद्यालय में पढ़ाने के बाद अब इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अध्यापन। प्रेम विवाह किया है और एक बेटी के पिता हैं।
आइए बसंत त्रिपाठी को पढ़ने और सफदर शामी को देखने- राकेश श्रीमाल

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वस्तु को रूप की समझाइश
 
विलाप अब आलाप की तरह पेश हुआ चाहता
लयबद्ध         लहरदार            लज़्ज़तदार
दुख की ज़ुबान            बदल गई है जनाब
 
आप गर ग़मज़दा हैं,            कोई बात नहीं
पर बुक्का फाड़कर रोना है
तो इस माहौल से             बाहर जाएँ
 
तकलीफ आपकी          सुंदर रंगों से सजाएँगे
यह       न आपका         हक है
न बूते की बात है                आपके
 
जो मर सकते हैं,         बेखौफ मरें,     हर्ज नहीं
सुपुर्देख़ाक की दास्तान            लिक्खेंगे हम
देखिएगा दुनिया मरने को              मचल उट्ठेगी
 
याद रखिए कि आप केवल          कथ्य हैं
भाव विषय प्लॉट                     विचार
फॉर्म बनने का खयाल छोड़ ही दीजिए तो बेहतर
000
 
 
 
 
 
 
भाषा
(एक विचार : दो विस्तार)
 
1.
भाषा अपना वैभव खो रही थी. अर्थ शब्दों का साथ छोड़कर जा रहे थे
चुपचाप. शब्द भी निचुड़े हुए-से शब्दकोशों के होकर रह जाने को बेबस थे.
अब सीलन ही उनकी बची-खुची आभा चाटेगी. ठीक तभी मैंने सोचा कि
भाषा कम से कम दो नहीं तो अकेले के भीतर ही मुस्कुराने की वजह पैदा
करे और खुद से ज्यादा बात करने लगा. इस बात में चुप्पी के भी अर्थ थे
पर वैसे नहीं थे जैसे ताश में जोकर.
 
खुद से बात करना भी भाषा के भीतर की मनुष्यता को बचाने का एक
तरीका हो सकता है.
 
उस समय मैं इतना ही सोच पाया.
 
2.
मेरे घर की खिड़की गली के अखीर में अड़े परचून की दुकान की ओर खुलती है. दुकानदार बूढ़ा है या शायद बूढ़े की तरह दिखने लगा है. मैं अक्सर उसे ग्राहकों के इंतज़ार में उदास बैठे या चाय पीते देखता.
 
दुकान से गली का संबंध नए आगंतुकों को पता बताने तक सिमट गया था. गूगल की दुम पकड़कर आने वालों का ध्यान तो उस ओर जाता भी नहीं था. हालाँकि सामान है उसकी दुकान में. इक्के दुक्के घरों की त्वरित ज़रूरत के लिए बच्चे वहीं दौड़ाए जाते. मगर बच्चे वहाँ अनिच्छा से जाते जैसे उन्हें पीटकर भेजा गया हो.
 
भाषा पर विश्वास इतना कम बचा था कि लगता कभी जाऊँगा उसकी दुकान पर साबुन खरीदने, वह चाकू थमा देगा. बिस्कुट माँगने पर अफसोस जताएगा कि केरोसीन अब दुकान में नहीं मिलती. पहले मिलती थी.
 
नहीं, उसके स्रवण तंत्र बिलकुल ठीक हैं. सिर्फ उसके और मेरे बीच की भाषा का पुल ढह चुका है.
 
फिर भी हिचकते-झिझकते एक दिन मैं वहाँ गया. कहा, आइए, चाय पीते हैं, वहाँ, ज़रा आगे, उस मोड़ पर. वह कुछ इस तरह मुस्कुराया जैसे कब्रिस्तान में बहुत दिनों बाद लैंपपोस्ट अचानक जल उठा हो. उसने अपनी बची-खुची दुकान बढ़ाई और सिगरेट साथ रख ली. वह मेरी सिगरेट फूँकने की आदत जानता था जैसे मैं उसके चाय सुड़कने की.
संवाद का पुल ध्वस्त था लेकिन संबंध की सूखी नदी में अभी पानी की संभावना बची थी.
 
हम अपना पुल फिर से बनाएँगे.
000
 
 
 
 
 
 
छाया
 
बहुत पुरानी एक भाषा के शब्द की छाया
बहुत पुरानी भाषा के एक शब्द की छाया
बहुत पुरानी भाषा के शब्द की एक छाया
 
बस इधर उधर घुमाकर
कुछ रचा पर
अंत की जगह को
नहीं छोड़ पाई छाया
 
छाया… छाया… छाया…
रौशनी जब जब हारी
बची केवल छाया !
 
कितनी पुरानी है यह हार !
इतनी इतनी जैसे हर बीता हुआ कल
काल नहीं कल
जिसमें कल-कल-कल
नहीं विकल
 
कल की हताशा को शोध तू
क्यूँकि
अयाचित काल का बोध तू।
000
 
 
 
 
 
अये कवि
 
इस भ्रष्ट समय को
पाँवों से दल
तो जानूँ मैं
मानूँ तुझे महाबली
 
तू कुचल उसे अये कवि
उस छली को
लाशों के ढेर पर बैठ जो
करता है श्मशान साधना
 
कुचल
घृणा के चूरे से बनी
उस ठोस डली को
 
शब्द के मूसल से
कुचल ! कुचल !!
000
 
 
 
 
 
गुलमोहर के दो पेड़
 
पेड़ से ज़रा ऊँचाई पर रहता हूँ
लेकिन पेड़ से ऊँचा नहीं
 
पेड़ से ऊँचा भला कौन हो सकता है !
 
ऊपर से देखा
गुलमोहर के दो पेड़
लाल नारंगी पीले रंग के दो विशाल छाते
एक दूसरे को छूते
पर अलग अलग
रहते पर साथ ही
 
मई का जलता महीना
धूप बहुत है तेज
ज़रा देर बस झाँको बाहर
आँख चिलकती है
 
कुछ दिन बाद छाते बंद हुए
काम की पाली खत्म
हरा रंग ओढ़े
अब झूम रहे दोनों गुलमोहर
 
छाया का रंग
अब भी वही
वही ज़रा सुस्ताने के आमंत्रण का रंग
 
और दुनिया भी
ढीठ रंग बिरंगी
000
 
 
 
 
 
एक संभावित किताब की भूमिका
 
इन लिखी हुई
ठहर ठहरकर
सधे कदमों से लिखी हुई
सुचिंतित इबारतों में
तुम अगर मुझे ढूँढ़ भी लो
गलती करोगे
 
मैं जो हूँ
वह नहीं लिखता
लिख भी नहीं सकता
भला यह भी कभी संभव है
कि बीते हुए या बीत रहे पल का
हूबहू कोई चित्र खींच दे ?
 
मैं वह लिखता हूँ
जो मैं होना
या नहीं होना चाहता हूँ
मैं एक झिलमिलाते भविष्य की
दिखती – गुम होती आभा से पनपे
रोशन खयाल लिखता हूँ
 
मैं अपने स्वप्न लिखता हूँ
जो सचमुच की नींद में
सायास उभरते हैं
मैं दुःस्वप्न लिखता हूँ
जो कच्ची नींद में कुलबुलाते हैं
 
मैं संभावनाएँ लिखता हूँ
जो बुद्धि के दुर्ग में
लहू से सिक्त
दिल के राग छेड़ती है
 
मैं वह नहीं लिखता
जो कि मैं
अकसर
होता हूँ.
000

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सफदर शामी : कैलिग्राफी से कैनवास तक
                              -राकेश श्रीमाल   
                 मुंबई के अपने एक दशक के रहवास में कायदे यानी तसल्ली से जिन कुछ लोगों से मेरी निजी निकटता बढ़ी, उनमें सफदर शामी एक हैं। मेरे आग्रह पर वे जनसत्ता  की रविवारीय पत्रिका ‘सबरंग’ के लिए हर सप्ताह किसी एक व्यक्ति का पेन पोट्रेट भी बनाया करते थे। इससे उन्हें आर्थिक मदद से अधिक आत्मविश्वास मिलता था और जिस रास्ते पर चलने के लिए वे मुंबई आए थे, उसके दिशा-संकेत भी मिलते थे। वे अत्यंत मृदुभाषी स्वभाव के हैं और कुछ अन्य चित्रकारों की तरह चाहे जहाँ, अपना अधिकार जताने से बचते हैं। अन्य कला अनुशासनों के प्रति उनमें शुरू से रुचि रही है और बहुत कुछ पढ़ने की ललक भी।                   पढ़ाई, रोज़गार और कारोबार को व्यक्ति सोच समझ कर या परिस्थितियों और आवश्यकता के अनुसार चुनता है। वांछित परिणाम न मिलने पर निर्णय बदला भी जा सकता है। लेकिन कला के प्रति रुचि, इरादतन लिया हुआ निर्णय नहीं होता। मन-मस्तिष्क में क़ुदरतन कोई पुर्ज़ा मौजूद होता है जो कलाकर्म के लिए उकसाता रहता है। वो न हिसाब-किताब का कोई मौक़ा देता है न सुविधाओं और संभावनाओं की चिंता की गुंजाइश। मध्य प्रदेश के देवास ज़िले के छोटे से गाँव भौंरासा में न कला का माहौल था, न परंपरा, न सुविधा। उस गाँव के सरकारी स्कूल में चौथी कक्षा के एक शिक्षक राधेश्याम लाहोटी विद्यार्थियों से अक्सर ‘सुंदर लेखन’ (कैलीग्राफी) करवाते रहते थे। इकहरे बदन के दुबले-पतले बालक सफ़दर शामी की इसमें विशेष दिलचस्पी देख, उन शिक्षक ने रेखांकन करने के लिए प्रोत्साहित किया। यहीं से सफ़दर को कला के प्रति अपने रूझान का पहला पता मिला। घर वालों और मित्रों की सच्ची-झूठी तारीफों ने भी उसकी रुचि को बरक़रार रखा। गाँव के ही दो मित्र मुकेश कुमार चौधरी और इक़बाल ख़ान की साहित्य और संगीत में और सफ़दर की चित्रकला में रुचि के कारण रोज़ मिल बैठना और संभावनाओं पर चर्चा करना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। सोचा जा सकता है कि उस बचपने में कला-जिज्ञासाओं को लेकर कैसी-कैसी बातें की जाती होंगी।
             एक ज़माने में शादियों के मौसम में भौंरासा में बुरहानपुर से तवाइफ़ें आया करती थीं। तब आसपास के छोटे छोटे गांवों में शादियों में मनोरंजन के लिए तवायफ़ के नाच गाने का आम रिवाज था। साजिंदों के साथ इक़बाल ख़ान के संगीत की रियाज़ के लिए सफ़दर और उसके मित्र भी इक़बाल के साथ तवायफ़ों के घर जाया करते थे। लोगों की टीका टिप्पणी की चिंता से बेपरवाह। छोटी सी बस्ती में कलाकार होने की ख़ुशफ़हमी ने उन में झिझक या शर्मिंदगी का भाव पैदा नहीं होने दिया। शायद ये साहस वो इसलिए भी कर पाते थे कि उन्हें ऐसा करना अपने कलाकार होने की आम घोषणा की तरह लगता रहा था।
           पेंटर के नाम पर गाँव में दो साइन बोर्ड पेंटर अवश्य थे। उन्हीं दिनों ख़िलजी नाम के एक उमर रसीदा चित्रकार कुछ अरसे के लिए कहीं से भौंरासा में आए थे। पोर्ट्रेट बहुत अच्छा करते थे। ख़िलजी साहब मात्र उतने पैसों के एवज़ में भी पोर्ट्रेट बना दिया करते थे जितने में उनके पीने का इंतज़ाम हो सके। सफ़दर ने पहली बार कला के तौर पर अगर कोई काम देखा था, तो उन्हीं के पोर्ट्रेट देखे थे।
            हायर सेकण्डरी के बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए सफ़दर देवास आया। उन दिनों डिग्री की पढ़ाई के लिए विषय का चुनाव भविष्य में नौकरी की संभावनाओं के आधार पर तय किया जाता था, रुचि के आधार पर नहीं। इसी सोच के चलते सफ़दर ने भी कॉमर्स चुना। बी. कॉम. प्रथम वर्ष में फ़ैल हो जाने पर उसे एहसास हुआ कि उसका काम बही-खाते पर क़लम चलाना नहीं, कैनवास पर ब्रश चलाना है। लिहाज़ा चित्रकला विषय के साथ बी.ए. किया।  देवास के कॉलेज में तब कला शिक्षक अफ़ज़ल साहब थे। कॉलेज की वो अपनी सब से बड़ी कमाई यही मानता है कि वहाँ अफ़ज़ल साहब जैसे प्रतिभावान चित्रकार से मिलने का, उनसे सीखने का और उनके असाधारण काम देखने का अवसर मिला। यहीं पर पहली दफ़ा उस ने आर्ट मटीरियल देखा और उसके उपयोग का तरीक़ा भी।
            सफ़दर ने इंदौर में साप्ताहिक प्रभात किरण के साथ कुछ समय कार्य किया और फिर लगभग तीन साल के लिए सऊदी अरब चला गया। वहां अल ख़ोबर की एक गैलेरी ‘हैरिटेज’ में अपने चित्र भी प्रदर्शित किए। 1994 में सफ़दर ने इंदौर छोड़ दिया और मुंबई में बसा गया। तब उस महानगर में कला की दुनिया तो क्या, शहर से भी ठीक से वाक़िफ़ नहीं था। मगर प्रीतिश नंदी और अयाज़ मेमन जैसे लोगों का सहयोग मिला। शुरुआती दिनों में ही टाईम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, मिड-डे, जनसत्ता, सबरंग आदि महत्वपूर्ण समाचार पत्रों के लिए फ्रीलांस आर्टिस्ट की हैसियत से कार्य किया। 1995 में इंडियन एक्सप्रेस ने जॉब का ऑफ़र दिया। कुछ महीनों के बाद ही आशीष बलराम नागपाल की गैलेरी में उसकी पहली एकल प्रदर्शनी भी होनी थी। लिहाज़ा शदीद आवश्यकता के बावजूद एक बड़े अख़बार में नौकरी के अवसर पर उसने चित्रकला को ही तरजीह दी।
           सफ़दर आरंभ में आकृतिमूलक चित्र बनाता रहा। लेकिन उसे अमूर्त काम हमेशा आकर्षित करते थे। उसे ये चित्र चुनौती भी देते थे और आनंद भी। मुंबई के उसके पहले शो में पहले ही दिन सारे पेंटिंग्स बिक जाने के बावजूद ख़ुशी तो थी पर संतोष नहीं था। जो चाहता था वो न कर पाने की एक ख़लिश मन में थी। हालांकि उसे यह अपनी इच्छाओं पर ज़्यादती की तरह लगता था। लेकिन अमूर्त पेंटिंग बनाना है, इसलिए बनाने के बजाय वो उसे गंभीरता से लेना चाहता था। सफ़दर का कहना है कि “मेरे लिए अमूर्त कला कैनवास पर फैला दिए गए रंगों का आकस्मिक प्रभाव नहीं है। जहाँ चित्रकार की भूमिका लाचार तमाशाई से अधिक न हो। जहाँ कलाकृति का अस्तित्व में आना रंगों का स्वभाव तय करे, कलाकार का प्रयास नहीं। दरअसल चित्रकार के अनुभवी हस्तक्षेप से ही अमूर्त कृति को वल्दियत मिलती है। मानवाकृति या अन्य किसी तत्व की चित्र में उपस्थिति मुझे बाहरी हस्तक्षेप की तरह लगती है। जबकि ख़ालिस अमूर्त कला में रंग और चित्रकार के बीच निजी संबंध जैसा मामला लगता है। निजता की इसी प्रकृति के कारण अमूर्त कृति अपने हर दर्शक के साथ अलग और ज़ाती रिश्ता बनाती है। कृति से मानवीय कोलाहल को निर्वासित कर एकाकीपन को पेंट करना ही अमूर्त है। आकृतिमूलक चित्रों की अपनी नागरिकता होती है जबकि अमूर्त चित्रों में अंतरराष्ट्रीयता होती है। यही विशेषताएं मुझे अमूर्त चित्रण के लिए प्रेरित करती रहीं और मैं अमूर्त चित्र बनाने लगा।”
             सफ़दर अब एक लंबे अरसे से अमूर्त पेंटिंग ही कर रहे हैं। उसका कहना है कि “नुमाइशों में आज भी दर्शक या ख़रीदार अमूर्त कृति की व्याख्या की अपेक्षा करते हैं, उसका अर्थ जानना चाहते हैं। कलारसिक की अमूर्त कृति में अर्थ तलाशने की मानसिकता और कलाकार का उसे शब्दों में समझाने का प्रयास ये दर्शाता है कि अभी हम अमूर्त को अमूर्त की तरह स्वीकार नहीं कर पाए हैं। या फिर कला की भाषा को नाकाफ़ी मानते हैं।”
             कला की भाषा में वाचाल सफदर, रूबरू कम बोलने में ही विश्वास करते हैं। वे अपने निकट के मित्रों से भी बतियाते हुए मर्यादा की सीमा नहीं लांघते। कुछ अन्य मित्र चित्रकारों की तरह की स्वच्छन्दता और लम्पटपन उनमें नहीं है। वे मित्रों के साथ चीयर्स के मूड में नहीं, विमर्श की मनोस्थिति में रहते हैं। ऐसे विरोधाभासी परिवेश का मुंबई की कई उत्साही शामों ने मुझे गवाह भी बनाया है। ऐसे मौकों पर वे चुप रहते और मुस्कराते रहते। समय और ऊर्जा वे सोच-समझकर खर्च करते हैं। लेकिन इस बार मुंबई जाने पर सफदर का एक पूरा दिन (देर रात सहित) मेरे साथ खर्च कराने की जिद लेकर ही जाऊँगा।
            अंत में यह बताने में कोई हर्ज नहीं है कि सफदर के चित्रों को पसंद करने वालों में जावेद अख्तर, राहुल बजाज, टीना अम्बानी, नितिन मनमोहन, वसुंधरा राजे, वरुण धवन इत्यादि कई नाम हैं, जो अपने घर में उनके बनाए चित्र लगाए हुए हैं।
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राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलावार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
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2 comments

  1. प्रयाग शुक्ल

    बसंत की कविता गुलमोहर के दो पेड बहुत अच्छी लगी।
    एक बोध पैदा करती है।भीतर तक उतर जाती है।

  2. बसंत की कविताएँ तो अच्छी हैं ही। कुछ नया करने की कोशिश भी है। सफ़दर के चित्रों और व्यक्ति से तीन दशक पुराना नाता है। वे अद्भुत चित्रकार और उतने ही शानदार मनुष्य हैं। उनके बारे में राकेश ने अच्छी तरह लिखा है हालाँकि और लिखे हो सकने की इच्छा शेष रह जाती है। दो मित्रों को अपने कलानुशासनों में एक साथ देखने का मौक़ा मिला।
    दोनों को बधाई।

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