Home / Featured / कविता शुक्रवार 12: राकेश मिश्र की कविताएँ मीनाक्षी झा बैनर्जी के चित्र

कविता शुक्रवार 12: राकेश मिश्र की कविताएँ मीनाक्षी झा बैनर्जी के चित्र

कविता शुक्रवार के इस अंक में राकेश मिश्र की कविताएं और मीनाक्षी झा बैनर्जी के चित्र हैं।
राकेश मिश्र का जन्म जनपद बलिया में हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से विधि स्नातक राकेश मिश्र उत्तर प्रदेश में भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत हैं। उनके पिता उत्तर प्रदेश पुलिस से सेवानिवृत्त हैं। स्नातक शिक्षा के दौरान ही अवसाद के शिकार हुए तथा चार वर्षों तक अवसाद से लड़ते रहे। अवसाद के अन्तिम दिनों में कविता लिखना शुरू किया। पुस्तकें पढ़ने का शौक घर में उपलब्ध गुलशन नन्दा के उपन्यासों से शुरू हुआ। यह सफर मार्क्सवादी व रूसी साहित्य, विवेकानन्द साहित्य, जिद्दू कृष्णमूर्ति से होता हुआ आगे बढ़ता रहा। दर्शन, इतिहास, संस्कृति एवं मनोविज्ञान में रुचि तथा अध्ययन। हिन्दी साहित्य से परिचय स्कूली दिनों की पाठ्य पुस्तकों से शुरू हुआ। भारतीय एवं विश्व साहित्य को पढ़ने की इच्छा रखते हैं। अभी हाल में कहानियॉं भी लिखनी शुरू की हैं। पिछले 24 वर्षों से उत्तर प्रदेश के विभिन्न प्रशासनिक पदों पर कार्य करते हुए वर्तमान में अम्बेडकरनगर के जिलाधिकारी हैं। इनका प्रथम काव्य संग्रह ‘‘शब्दगात’’ वर्ष 2001 में प्रकाशित हुआ । इनके तीन काव्य संग्रह ‘‘अटक गई नींद’’, ‘‘चलते रहे रात भर’’, ‘‘जिन्दगी एक कण है’’ राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित हुए हैं। कविता का नया संग्रह प्रकाशनाधीन है।
आइए पढ़ते हैं उनकी कविताएं- राकेश श्रीमाल
====================================
उन्हीं के पास
 
उन्हीं के पास है
मेरी ठोकरों का हिसाब
जो सोचते हैं
मैं गिरुँगा एक दिन
वही रखते हैं
मेरे नीदों की लाग-बुक
जो डरते हैं
मेरे सपनों से
मेरी चुप्पियों को
मेरा गूंगापन समझने वाले
अनजान हैं,
मेरे आसपास की
मुखरता से !
 
 
कहो
 
कहो
तभी कहना आयेगा
कहो
तभी सुनेंगे लोग
कहो
क्योंकि रोकनी हैं अफवाहें
कहो
ताकि लोग बाहर निकलें
कहो
ताकि सुनना न भूल जायें लोग
कहो
ताकि चौपालें चलती रहें।
 
 
 
रहने दो
 
रहने दो
मन को मन में
देह को देह में
मन में देह
देह में मन
एक असम्भव यात्रा है ।
 
 
झूठ था
 
झूठ था
जब पिता हार गये थे
पंजा-लड़ाई
और मैने लड़ना सीख लिया
जिन्दगी से
झूठ था,
जब मेरा बिलियर्ड कोच
हार गया अंतिम अंक
और मुझे जीतना आ गया
झूठ था
जब उसने कहा
किसी और से प्रेम करती है
और खत्म हो गया था
मेरा ठहराव,
मैं सोचता हूँ
पहला झूठ
माँ ने बोला होगा,
जब कहा होगा
देखो !
ये चला अपने पैरों पर
और मुझे चलना आ गया ।
 
 
 
मुर्गे
 
मुर्गों की बांग से
आजिज आदमी ने ही
शुरू की खेती
मुर्गों की
ताकि खत्म हों
संकट
नैतिकता के ।
 
 
 
 
उसका प्रेम
 
कसाई की छूरी जैसा
अचूक प्रेम है
उसका
तराजू पर जिन्दा मछली की
व्याकुलता है
उसमें ।
 
 
आज रात
 
आज रात
तूफान और बारिश है
इस ठंड में
मेरा कमरा गर्म है
मैं सुरक्षित महसूस करता हूँ
फिर ध्यान आता है
इस रात भी
धरती चल रही है
और बहुत ठंड है
अन्तरिक्ष में
और धरती के उपर तो
छत भी नहीं
फिर मैं महसूस करता हूँ
कि मेरा कमरा, बिस्तर और मैं
बहुत ठंडे हो गये हैं ।
 
 
 
सप्ताहांत
 
सप्ताहांत पर
धीमी बहती है
हवा
थोड़े थिर होते हैं
पेड़ों पर पत्ते
सप्ताहांत में ही
थोड़ी सफेद होती हैं मूछें
पिता की
थोड़े कम स्थिर होते हैं शब्द
माँ के
सप्ताहांत पर ही लौटती हैं
अनिश्चितताएँ घर ।

=============================================

मीनाक्षी झा बैनर्जी: विश्वास भरे रंग
 — राकेश श्रीमाल
           मीनाक्षी झा बैनर्जी एक ऐसी चित्रकार हैं, जिन्हें सामाजिक सरोकारों के प्रति भी बेइंतहा लगाव हैं। वे चित्र बनाती हैं, तब भी वे अपने ही उस जुनून में रहती हैं, जब वे उम्मीद भरी नजरों के लिए कुछ काम कर रही होती हैं।
         वे बचपन में अपने घर की पुरानी छत की रेलिंग पर जमी काई में उभरते कई डरावने चेहरे देखती थी। कभी किसी को बताया नहीं, पर वह बड़े भयानक होते थे। जो कभी भी पलक झपकते ही आँखों में आ जाते थे, डराते थे। उन आकृतियों ने उनके मन पर गहरी छाप छोड़ रखी थी। ये बातें भी उन्हें बढ़ती उम्र के साथ पता चली। अपने बचपन की कई सारी स्मृतियां उनके पास हमेशा होती हैं। जैसे कभी-कभी सूरज से आँखें मिलाते वक्त अभी भी उनकी आँखों में वैसे ही  अनगिनत रंगों की झिलमिलाहट दिखने लगती हैं, जैसे बचपन में दिखती थी। रंगों का यह रहस्य उन्हें कुछ खोजने को उकसाता है और वे उसे अपने चित्र बनाने में तलाशती रहती हैं। उनकी अपनी कल्पना उनके चित्रों की संकल्पना के साथ-साथ चलती है। उन्हें कभी अनायास चिड़ियों की आवाज़ घड़ी की टिक टिक से ऊँची सुनाई पड़ती है, तो उनका मन किसी अंधेरी कोठरी में एक सुराख से आती रोशनी से खुश होने जैसा हो जाता है। गोया सालों से अनजानी उम्मीद बाँधे कोई बैठा हो। वे कहती हैं कि मेरी कला ने मेरे जीवन जीने की दृष्टि को प्रखर किया है। मन उदास हो या खुश। रंग, लकीरें, आकृतियाँ से बातें करना मन को भाता है। मुझे अभिव्यक्ति का यही तरीका आता है।
            अमूमन उनके कैनवास का साईज बड़ा होता है। लेकिन इन दिनों उन्होंने जमकर पेपर पर काम किया। उनके लिए दिन किसी जलते अखबार सा होता है और दोपहर, बंद बक्से में घुटती ज़िन्दगी सी। लेकिन इन सबके बीच किसी चित्र जैसा ही कई रंगों से भरा होता है उनके मन का विश्वास और उसमें  पनपती आशा।
     उनका मानना है कि मन कलाकार है, कलाकार भावनाओं की करवटें लेता है। जब खबरें आपके पास फांद बनाए फिरती हो, तो आप फंसे बिना नहीं रह सकते। आप शातिर नहीं, इसलिए तेज रफ्तार से भाग नहीं सकते। क्योंकि आपने इतने साल बतौर कलाकार भागने की नहीं, समाज को समझने की कोशिश की है। उन्होंने पिछले कुछ वर्षों से आर्थिक रूप से कमजो़र बच्चों को लेकर काम किया है। इसके तहत ‘कहानीघर’ नामक संस्था का निर्माण उन्होंने किया, जहाँ हर शाम विधिवत पढ़ाई होती है। इसमें उन बच्चों के बचपन को सहेजने की कोशिश होती है, जो अभावग्रस्त हैं। उन्होंने कुछ वर्षो़ से उन बच्चों के परिवारों की भी चिंता की है। जो बच्चे आते हैं, वे कहानीघर परिवार का हिस्सा हैं। करीब तीस चालीस परिवार को उनसे उम्मीद जुड़ी है।
           बहुत कम उम्र में ही वे कला के प्रति जागरूक और संवेदनशील रही। अपनी समझदारी से इसके तत्वों को समझने की कोशिश करती रही और विषय वस्तु और माध्यम को लेकर कई प्रयोग करती रहीं। कई वर्षों के बाद जो शैली स्वभाविक रूप से उनकी कला में उतर कर आई, उसमें मिथिला की लोक कला का प्रभाव देखा जा सकता है। वे अपने चित्रों में कभी मुम्बई में बार गर्ल्स पर पाबंदी के समय की व्यथा रचती हैं, तो कभी एसिड अटैक की बढ़ती सँख्या को। उन्होंने लम्बे समय तक ट्रान्सजेन्डर पर कई संवेदनात्मक काम किए।
             स्त्री के कई सशक्त रूप भी उनके कैनवास का मुख्य विषय रहे हैं। कोमल मन की अभिव्यक्ति से शुरू हुई यह यात्रा समाजिक परिवेश को अहम रूप से गढ़ने लगी। कला की विधिवत कोई शिक्षा उनकी नहीं हुई, लेकिन छोटी  उम्र में ही कला के प्रति रूझान ने तय कर लिया था कि कला साधना ही करना है। वे
प्रायः अपने चित्रों को थियेटर या सिनेमा से जोड़ देती हैं। इन विधाओं के रंग, मिज़ाज, पात्र और कहानियाँ  सब कुछ उन्हें प्रभावित करता है। बंगाल की कला उन्हें कुछ ऐसे भींगा देती है, जैसे चाशनी में रसगुल्ला। उन्हें बंगाल कला से लगाव तो वर्षों पुराना रहा, पर  तकरीबन बीस साल पहले बंगाली परिवार में शादी होने से, उनके काम में बंगाल का थोड़ा असर दिखने लगा। उनके अपने शब्दों में–“कला में दृष्टि और अंतरदृष्टि का फर्क समझना कला में  एक मुकाम पाने जैसा है। मैं अपने रंगों, आकृतियों  को लेकर कभी बहुत गहरे नहीं उतर पाती, ये सहज हैं, मेरे अन्य काम करने के जैसे। मेरे चित्रों में मौलिक अवशेष मिलते हैं जो मेरे व्यक्तित्व के अवशेष है। ये मौलिकता और लोकपन मेरे स्वभाव को दिखाती है।”
नीचे दिए गए लिंक पर उनसे एक मुलाकात देखी जा सकती है।
=========================
राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलावार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
 
 

======================दुर्लभ किताबों के PDF के लिए जानकी पुल को telegram पर सब्सक्राइब करें

https://t.me/jankipul

 
 
 
 
 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

तसनीम खान की कहानी

विभाजन त्रासदी को क्या किसी एक दिन या एक साल से जोड़ कर देखा जा …

9 comments

  1. कला और साहित्य दोनों ही मेरे लिए लिए अभिव्यक्ति का तरीका है। राकेश जी की सीधी बात मेरे चित्रों की तरह ही सीधी पर गहरी बात करता है। मुझे उनकी कविताऐं भी भा गई मन को। आप लिखते रहें यूँही अनवरत, अनन्त शुभकामनाएं। जानकीपुल को साधुवाद, यूँ कड़ियों को जोड़ने के लिए, पथ सुलभ और सचेत रहे, राकेश। श्रीमाल जी को धन्यवाद मुझे इस कड़ी में जोड़ने के लिए, मंगलकामना।

    मीनाक्षी 🙏😊

  2. डॉ कनक लता

    बेहद शानदार कविताएं…
    चित्र भी बेहतरीन और विचारोत्तेजक हैं …

  3. I don’t think the title of your article matches the content lol. Just kidding, mainly because I had some doubts after reading the article.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *