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कैंजा, साबुली कैंजा और मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास ‘कसप’

कुछ उपन्यासों के प्रमुख किरदार इतने हावी हो जाते हैं कि कई संगी किरदारों पर ध्यान ही नहीं जाता। मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कसप’ की साबुली कैंजा ऐसी ही एक किरदार हैं। मुदित विकल ने उस किरदार पर, कैंजा शब्द पर बहुत सुंदर लिखा है। साजा कर रहा हूँ कि आप लोग भी पढ़ सकें-

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शिवानी के मशहूर उपन्यास ‘कैंजा’ का एक अंश है ,जिससे शायद आपको कुमाउनी शब्द ‘कैंजा’ का कुछ अर्थ मिल सके.

‘‘पूछता है, मां, यह कौन है ! अरे; यह क्या तेरी मां है ? यह तो मेरी #कैंजा है, #कैंजा – तेरी सौतेली मां। मां तो तेरी मर गई…।’’

वैसे कुमाऊँ के पहाड़ में इजा और कैंजा प्रचलित शब्द रहे हैं .इजा मतलब माँ और कैंजा सम्भवतः विमाता ।शेष उत्तराखंड के मित्र स्पष्ट कर पाएंगे।

फिर कौन है ये , #साबुली कैंजा ?

कसप में साबुली का परिचय पाठकों से इस तरह से होता है –

“लड़कियों की देखरेख के लिए उदैसिंह के अतिरिक्त साबुली कैंजा भेजी गयी हैं जा बालविधवा हैं, बुढ़िया हैं, प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका रही हैं, मस्तमौला हैं और लड़कियों को, ख़ासकर बेबी को, बहुत पसन्द हैं।”

इनका शिवानी के उपन्यास से कोई लेना देना नहीं है. यह ‘साबुली कैंजा’ मनोहर श्याम जोशी के प्रसिद्ध उपन्यास ‘कसप’ की एक सहायक पात्र हैं .

‘कसप’ जिसके नायिका और नायक क्रमश: बेबी और डीडी हैं , का लगभग हर पात्र अपने आप में बहुत खूबसूरती से गढ़ा गया है, इसलिए उतना ही रोचक होने के साथ प्रमाणिक भी लगता है. मुख्य नायक-नायिका पसंद होने के बावजूद मैं साबुली कैंजा और इन जैसे दूसरे सहायक पात्रों के बारे में बात करना चाहता हूं, क्योंकि इनके मुख्य नायक नायिका के सापेक्ष बिसर जाने का खतरा बना रहता है।

कसप के बारे में की गई मेरी पहली संक्षिप्त टिप्पणी में मैंने इसके पात्रों और भाषा इत्यादि पर कुछ और पोस्ट करने की बात की थी मगर वह सिलसिला अपने किसी मुकाम तक नहीं पहुंच पाया था. सो इस पर लिखते रहेंगे.

कसप बहुत पुराना और लोकप्रिय नॉवेल है और बहुतों का पसंदीदा तो शायद नए पढ़ने वालों को कुछ जरूरी प्रेरणा मिल जाए और पुराने पाठकों की यादें ताज़ा हो जाएंगी.

साबुली कैंजा का किरदार मुझे इसलिए पसंद है क्योंकि वह उम्र दराज़ होने के बावजूद अपनी बातचीत में उपन्यास की मुख्य नायिका से कम ‘लड़कैंधी’ नहीं लगती. ‘लड़कैंधी’ इस शब्द और पद का आविष्कार कम से कम मैंने नहीं किया है. इस विशेषण का इस्तेमाल मनोहर श्याम जोशी अपनी नायिका बेबी के लिए करते हैं.

अब साबुली कैंजा ‘लड़कैंधी’ कैसे हैं? उसकी कुछ मिसाल भी देख लीजिए..

“मैं जाऊँगी अगले हफ्ते गणानाथ, यहाँ आयी लड़कियों के साथ। मैंने कह दिया है गुड़िया से—लिख दे उस लाटे को, मिलना हो तो गणानाथ पहुँच जाये बीस तारीख को किसी भी हालत में।”

जब उपन्यास की नायिका बेबी , अपनी सहेलियों के दल के साथ नायक डीडी से मिलने उनके घर से दूर ‘गणानाथ (स्थानीय मंदिर)’ नामक स्थान पर मिलने की दुस्साहसिक मगर गुप्त योजना बनाती है तो उस दल की अभिभाविका के तौर साथ में ‘साबुली कैंजा’ का आना होता है .

निर्जन गणानाथ मंदिर के पास के एक विद्यालय में जहां इस दल का रात्रि प्रवास होता है .वहां चुहुल और चकल्लस करती लड़कियों में हमारी कैंजा भी पीछे नहीं रहती बल्कि आगे-आगे रहती हैं. देखिए-

‘कैम्पफायर’ में सबसे ज्यादा धमाचौकड़ी साबुली कैंजा ही कर रही हैं। उन्हें सिनेमा के सारे गाने याद हैं लेकिन गलत-सलत, एक में दूसरे को मिला देती हैं। कहीं-कहीं वह हिन्दी गाने में अंग्रेजी के कोई शब्द अथवा कुमाऊँनी की कोई पंक्ति ठूँस देती हैं।

बहुत मुमकिन है , कुछ कारणों से यदि आप सम्बद्ध न हो सकें तो इस किरदार की हरकतों को शायद एंजॉय भी नहीं कर पाएंगे. चलिए एक मिसाल और लेते हैं।रात्रि प्रवास में एक अघोषित कौथिक (मेले) में होने की अनुभूति के बीच हंसी-ठट्ठे में साबुली गाती है-

‘शाबण के नझारे हैं ल-ला-ल-ला’ वह गाती हैं और फिर मुँह से साइकिल की घण्टी बजाती हैं। लड़कियाँ लोट-पोट होती हैं।

लड़कियां हंसती है और वो गाती जाती है-

‘शाबण के नझारे हैं ल-ला-ल-ला, लालज्यू हो सनलाइट सापण किले नी दिण्या?’ वह गाती हैं और लड़कियों हँसी से दोहरी होती हैं।

‘शाबण के नझारे हैं ब्रिंग-ब्रिंग-ब्रिंग-ब्रिंग’ वह गाती हैं और एक-दूसरे पर गिरती-पड़ती लड़कियों को धराशायी कर जाती हैं साइकिल की आवाज जोड़कर ‘ट्रिंग-ट्रिंग-ट्रिंग-ट्रिंग।

दोबारा से ध्यान दीजिए. ऊपर की गई चुहल बाजी एक ज़िंदादिल प्रौढ़ा की ज़िंदादिली का नमूना भर है. वास्तव में वह इतनी उम्र दराज़ हैं कि जब बेबी और उसका दल तेज़ी से पहाड़ की चोटी की ओर बढ़ता है तो बूढी साबुली कैंजा, हाँफकर कह रही हैं, “नानतिनो नानतिन्योल नी करौ!”—बच्चो, बचपना मत करो!

इस सबके बीच नायक और नायिका का मिलन होता है .मतलब नायिका अपने प्रच्छन्न मिशन में कामयाब होती है. इस पूरे प्रकरण के अंत में ‘साबुली कैंजा’ को ‘इस’ लापरवाही का दोषी मान लिया जाता है , जबकि वह इस पूरे उपक्रम से बड़ी हद तक अनजान है.

मेरी समझ से तो लोगों का यह पूर्वाग्रह, उसके बाल विधवा और प्रौढ़ावस्था में होने के बावजूद अलमस्त रहने की आदत की वजह से पैदा हुआ है. लड़की के घरवालों में उसके लिए कुछ ऐसी राय बनती है-

“अगर इन लड़कियों के साथ कोई सयानी भेजी गयी होती तो इतनी मुसीबत न होती। भेजी इन्होंने वह साबुली कैंजा जो खुद सिरफिरी है।”

आप बताइए क्या आपको साबुली सिरफिरी लग रही है?

क्यों भाई ऐसी सब महिलाएं सिरफिरी ही होती हैं,क्या?

बहरहाल उपन्यास की नायिका बेबी के अलावा, नायक डीडी भी साबुली के लिए दिल में एक नरम कोना रखता है. संघर्ष के दिनों से पार पाकर डीडी जब स्थापित हो जाता है तो वह इस ‘कैंजा’ को नहीं भूलता.कसप का सूत्रधार पाठकों को बताता है-

“सबसे पहले उसने साबुली कैंजा नामक उस बाल-विधवा के लिए तीन सौ रुपये भिजवाये थे जो गणानाथ में बेबी की रखवाली के लिए आयी थी।”

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One comment

  1. डॉ कनक लता

    काफ़ी शानदार लिखा है मुदित जी ने । वस्तुत: सच तो यही है, कि किसी कहानी , उपन्यास या फिल्मों के भी छोटे छोटे किरदार, महत्वपूर्ण होने के बावजूद, भुला दिए जाते हैं । लेखक ने इसपर अपनी लेखनी चलाकर जैसे पाठकों/दर्शकों को उनकी ओर भी देखने को विवश – सा कर दिया है…

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