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सरला माहेश्वरी की कविताएँ शबनम शाह के चित्र

कविता शुक्रवार के इस अंक में प्रस्तुत हैं सरला माहेश्वरी की कविताएं और शबनम शाह के चित्र। सरला माहेश्वरी के अब तक आठ कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें ‘आसमान के घर की खुली खिड़कियां’, ‘लिखने दो’, ‘तुम्हें सोने नहीं देगी’ और ‘जिंदगी का पाठ’ शामिल हैं। उन्होंने स्त्री विषयक पुस्तकें भी लिखी हैं, जिनमें ‘नारी प्रश्न’ और ‘समान नागरिक संहिता’ प्रमुख हैं। उन्होंने कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद भी किया है, इनमें ‘मार्क्सवाद और नारी मुक्ति’, ‘जूलियस सीजर के अंतिम सात दिन’, ‘खेतु बागदी और गोपाल कहार’ इत्यादि हैं। उन्होंने पर्यावरण, आर्थिक विषय और उपभोक्ता सरंक्षण पर भी पुस्तकें लिखी हैं। जनवादी लेखक संघ, कोलकाता की अध्यक्ष रह चुकी सरला माहेश्वरी ने ‘कलम’ साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन भी किया है। वे सीपीआई (एम) के साप्ताहिक मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ के संपादक मंडल की सदस्य रह चुकी हैं। वे वर्ष 1990 से 96 और 1999 से 2005 तक राज्यसभा सांसद रह चुकी हैं। वे विदेशी मामलों की स्टैंडिंग कमेटी की सदस्य और पर्यटन एवं संस्कृति मंत्रालय की सलाहकार समिति की सदस्य रही हैं। लगभग तीस देशों की यात्रा कर चुकी सरला माहेश्वरी की साहित्य साधना अनवरत जारी है। पढ़ते हैं उनकी कुछ नई कविताएं-

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वे उत्सव मनाते हैं
 
वे
उत्सव मनाते हैं
तुम्हारी आस्था का
तुम्हारी अज्ञानता का
तुम्हारी मासूमियत का
तुम्हारी कायरता का
 
वे
उत्सव मनाते हैं
अपनी सत्ता का
अपनी दबंगई का
अपनी धूर्तता का
 
वे
तुम्हारे नाम पर
तुम्हारे लिये
तुम्हारे भगवान का
उत्सव मनाते हैं
 
वे
तुम्हारे भगवान के लिये
तुमको पागल बनाते हैं
वे तुमको ही
तुमसे लड़ाते हैं,
मारते और मरवाते हैं
 
वे
तुम्हारे भगवान को
तुमसे छीनकर
खुद
भगवान बनते हैं
तुमको डराते हैं
 
 
 
 
 
 
अंग्रेज़ी में फ़ॉर्म भरो
 
 
चलते-चलते थक कर
पटरियों के बीच सो गये
वो मज़दूर
मालगाड़ी से कुचलकर मर गये वो
कुछ सूखी रोटियाँ
मना रही है उनकी मौत का शौक़
गाँव में अभी-अभी बुझाए गये चूल्हे से
उड़ रहा है धुआँ
 
जो मज़दूर अभी पीछे हैं
सरकारी ग़ैर-सरकारी खिचड़ी के भरोसे ?
घर जाना चाहते हैं
ट्रेन और बसों से ?
शिक्षा से वंचित,
इंटरनेट से दूर,
उनसे भी कहा जा रहा है
पहले
अंग्रेज़ी में फ़ॉर्म भरो
ऑन लाइन रजिस्ट्रेशन करवाओ
 
जिन ज़िंदगियों ने
कभी कोई बदलाव नहीं देखा
आज उन्हें पीट कर
सिखाया जा रहा है
भारत न्यू इंडिया हो गया है
डिजिटल सरकार
ख़ाली पेट की
परीक्षा ले रही है
 
 
 
 
 
 
 
आँकड़ों की कहानी
 
 
पुलिस के खाते में दर्ज है
दुर्घटनाओं से औरतों की मौत के आँकड़े
 
आँकड़े रोते नहीं, हँसते नहीं
आँकड़े मृत इंसान की तरह बोलते नहीं
 
आँकड़े किसी लिखी जाने वाली इबारत के
अक्षर भर होते हैं
 
आँकड़े जब सिर्फ संख्या या अक्षर नहीं रहते
उनके अर्थ बदल जाते हैं, वे बोलने लगते हैं
 
जैसे मनिपाल के गवेषक ने जिंदा कर दिये थे
पुलिस के मुर्दा आँकड़े
 
स्टोव से जल कर मरी औरतों के आँकड़े
जिनमें उन्तीस प्रतिशत के घरों में स्टोव ही नहीं थे
 
देखते ही देखते बदल गये आँकड़े
दुर्घटना के आँकड़े हत्या के आँकड़ों में बदल गये
 
आँकड़ों के खातों में ये भी दर्ज है कि
देश में जवान पुरुषों की तुलना में तीन गुना ज़्यादा औरतें ‘जलकर’ मरती हैं
 
कि पूजा या उत्सव के बाद
अस्पतालों के बर्न वार्ड में महिलाओं की संख्या बढ़ जाती है
 
कि हाई कोर्ट का एक वक़ील बता रहा था
‘दहेज माँगने का तरीक़ा आजकल बहुत रिफाइंड हो गया है’
 
शादी से पहले जो होता है आपकी लड़की, आप जानें का निजी मामला
शादी के बाद बन जाता है माँगों का अलिखित घोषणापत्र, धमकीपत्र
 
हँसी-मज़ाक़ में पूछे जाते हैं प्रश्न
आजकल एक आईएस दूल्हे की रेट क्या है
 
क्या डावरी कैलकुलेटर वेबसाइट जानते हैं ?
दूल्हे की जात,पेशा,मासिक आय के आँकड़े
भरते ही बता देता दूल्हे का दाम ?
 
कुछ अव्यावहारिक, नैतिकता के शिकार
लोग जब झिड़कते हैं तो
ज्ञानी पुरूष समझाते हैं,
दहेज तो भारतीय समाज का मर्म है
क्या ख़ाक बनोगे आईएएस
 
पुलिस के खाते बताते हैं
‘हर एक घंटे में दहेज के लिये एक औरत की मौत’
 
आँकड़ों की ज़ुबानी
हमारी आधी-अधूरी, झूठी-सच्ची कहानी
 
 
 
 
 
 
दशरथ माँझी से दीना माँझी तक
 
 
दशरथ माँझी से
दीना माँझी तक
जिंदगी का एक ही सच
पहाड़ ही पहाड़
समस्याओं के पहाड़
भूख और ग़रीबी के पहाड़
दुखों के पहाड़
अचल ! अटल ! शास्वत !
मजबूरी के पहाड़
 
शान से खड़े हैं
सत्ता की मनमानी के पहाड़
शाइनिंग इंडिया के पहाड़
डिजिटल इंडिया, मूविंग इंडिया के पहाड़
सफरिंग इंडिया के पहाड़
ग़ुलामी से आज़ादी तक
बेशर्मी से टिके हुए हैं पहाड़
 
गण के तंत्र पर बैठे हुए
तुमको
ठेंगा दिखाते हुए
गर्व से हँसते हुए,
जमे हुए हैं राजसी पहाड़
मजे में सोये हुए हैं पहाड़
 
दशरथ माँझी ! दीना माँझी !
जिंदगी से मौत तक
तुम्हारे लिये खड़े हैं
दुखों के अनगिन पहाड़
अकेले ही काटना पड़ता है पहाड़
काट लिया तो जयजयकार
मर गये तो दुर्भाग्य
 
यहाँ मुर्दों के राज में
जिंदगी को क्या
मौत को भी मिलता नहीं
चार कंधों का साथ
चार पहियों का साथ
एक कंधे पर उठाकर
ले जाओ अपनी लाश
सरकारी अस्पताल में टीबी से मरी
अपनी पत्नी की लाश
 
वे देखेंगे तुम्हारी मैराथन दौड़
कैमरों से देखेंगे
बारह किलोमीटर की
ये रोमांचक
कभी न देखी-सुनी गई दौड़
लाश के साथ दौड़
एक ख़बर की तरह
दौड़ोगे तुम
एक ख़बर की तरह मर जाओगे तुम
 
जाओ दीना माँझी
कर दो अंतिम संस्कार
राम नाम सत है
रोटी नाम सत है
दीना माँझी सत है
 
 
 
 
 
 
करना चाहता हूँ तुमसे कुछ बातें
 
 
हाथों में बंदूक़ लेकर
बिना सोचे-समझे निर्दोषों की हत्या करने वालों
 
एक बार, नहीं
गोली चलाने से पहले
बार -बार देखो
अपने हाथों को गौर से देखो
 
छू कर महसूस करो अपने हाथों को
माथे पर ज़ोर डालकर याद करो उन हाथों को
अपनी माँ के उन हाथों को ..
अनगिनत बार उन हाथों ने प्यार से चूमा था तुम्हें
तुम्हारी हर गल्ती के लिये खुद को ही कोसा था उसने
 
याद करो पिता के उन हाथों को
तुम्हारी हँसी के लिये प्यार से हवा में उछालते थे तुम्हें
और भर लेते थे सावधानी से अपने हाथों में
हाँ, हाँ, याद करो उस प्यार को
उस विश्वास को
 
जीने के लिये,जिंदगी के लिये
बहुत, बहुत ज़रूरी होता है
किसी का प्यार, किसी का विश्वास
किसी का साथ
हर एक अंदद इंसान के लिये
 
याद करो !
याद करो कि तुम एक इंसान हो
तुम नहीं हो एक मशीन
कम्प्यूटर के पर्दे पर
नादान बच्चे की तरह नक़ली दुश्मन को मारकर
तुम नहीं कर सकते अपना मनोरंजन
 
सोचो क्या हो …
गर गलती से उस बच्चे के हाथ में आ जाए
तुम्हारी असली बंदूक़
खेल-खेल में चलाने लगे वो अंधाधुँध गोलियाँ
लगा दे तुम पर ही निशाना
धाँय ! धाँय ! धाँय !
 
काँप रहे हैं ना तुम्हारे हाथ
सोचो ! सोचो ! क्या होगा ..
गर हम सब बन जायें एक मशीन
एक हत्यारी मशीन
चलाने लगें एक-दूसरे पर ऐसे ही गोलियाँ
 
बन जायें अपने-अपने
इलाक़ों के सरदार
फिर रात-दिन जाग-जागकर बनाएँ रणनीतियाँ
घात की, प्रतिघात की, विस्तार की
शक और भय के घेरों में बंद
 
आये नजर चारों ओर
बस दुश्मन और दुश्मन
जैसे राजमहलों के षड़यंत्र
बेटा कर दे बाप की हत्या
भाई कर दे भाई की हत्या
 
हम सब बन जायें
बस लोभ-लालच
नफ़रत और सत्ता के पुर्ज़े
बिना सोचे-समझे रणभूमि में सज जाएँ
मिलते ही आदेश, चला दें गोली
 
गर नहीं बनना चाहते
तुम सत्ता के पुर्ज़े
तो आओ मेरी हत्या से पहले
मैं तुमसे करना चाहता हूँ
अपने घर में शांति से कुछ बातें
 
मुझे पूरा यक़ीन है
मैं समझा सकता हूँ तुमको
इंसान को मशीन में तब्दील करने का राज
सभी तानाशाहों को चाहिये होती है
तुम जैसी मशीनें ! तबाही की मशीनें !
मशीनें नहीं जानती, फिर भी वे करती हैं
 
वे बहुत
हाँ, हाँ बहुत डरते हैं इंसानों से
देखो ! तुम्हें भी तो डरा दिया था उन्होंने
पानसारे, डाभोलकर, कलबुर्गी
और मुझ जैसे बुढ्ढे इंसानों से
अब बताओ तुम मेरे पास बैठे हो
लग रहा है कोई डर मुझसे
 
नहीं ना
इंसान नहीं डरा करते इंसानों से
सिर्फ हैवान ही डरा करते हैँ इंसानों से
ये धरती बहुत सुंदर है
आओ ! इसे ख़ुशहाल बनाएँ
आओ मिलकर इंसान बनाएँ
 
 
 
 
 
 
 
सिर्फ सुनना
 
 
सुनना ! सिर्फ सुनना !
सचमुच कला है
एक चुनौती है
मनुष्य बनने की चुनौती
खुद से सवाल करने की चुनौती
अपने स्व के अतल से निकलने की चुनौती
 
अक्सर
सामने आ खड़ी होती है ये चुनौती
खुद में डूबी हुई मैं
अचानक सुनती हूँ, पतली सी आवाज – भाभी
 
झिझकती हुई कह रही है तसलीमा की माँ
पीड़ा में डूबी हुई –
 
रिक्शा चलाने वाले उसके बेटे को
पकड़ कर ले गयी है पुलिस
 
वो सुनाती है पूरी कथा
आँसुओं से लिखी गई कथा
पुलिस के ज़ुल्म और घूसख़ोरी की कथा
 
मेरा सुनना
उसके काग़ज़ों पर सरसरी नज़र डालना
पुलिस को गरियाना
इतना भर उसकी पीड़ा को कम करता है
मैं कुछ कर पाँऊ या नहीं, कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता
 
सुनना सचमुच कला है
पिता ख़ूब जानते थे ये कला
“शूलों से बतियाता कोई आए मुझ तक पाँव तो मैं दो का भेद बिसार दूँ, बाँहों को विस्तार दूँ”
 
माँ और मंजरी दी
दोनों सुनते हैं घंटों एक-दूसरे को
बांग्ला और राजस्थानी में ख़ूब बतियाते हैं
बिना समझे भी दोनों सुनते हैं
 
महत्वपूर्ण यह नहीं है कि क्या और किसे सुनते हैं
महत्वपूर्ण यह है कि कैसे सुनते हैं
सुनना-सुनाना दोनों की ज़रूरत
जीवन की ज़रूरत
इस सुनने का कितना महत्व है
 
जब माँ नहीं होती
मंजरी दी चाहती है मैं सुनूँ उसे
उससे बात करूँ
उसके घर की बात, गाँव की बात
वह छोटी से छोटी बात को लंबी कथा की तरह सुनाती
 
विभूति बाबू के विस्तृत ब्यौरे वाले
एक बड़े कथाकार के सारे गुण है उसमें
कभी-कभी बहुत भारी लगता है
पर सुनना पड़ता है
मुस्कुराना पड़ता है
अपनी ऊब को दबाना पड़ता है
 
सच है
भूलते जा रहें हैं हम ये कला
भूलते जा रहें हैं यह तक पूछना कि – कैसे हो यार
जीने की ये कला
बहुत ज़रूरी कला
आज सीखनी पड़ रही है, साधनी पड़ रही है
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शबनम शाह : भूली-बिसरी रेखाओं का संयोजन
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– राकेश श्रीमाल
 
जब कोई पीछे मुड़कर कर देखता है, तो प्रायः चकित अवश्य होता है कि इसी जीवन में जो उसने व्यतीत किया है, वह ऐसे परिवेश की कल्पना भी नहीं करता था, जिसमें वह आज जी रहा है। शबनम शाह भी उन्हीं में से एक है। मध्यप्रदेश के एक फाईन आर्ट्स कॉलेज में चित्रकला का अध्यापन कर रही इस चित्रकार के लिए अपने स्कूली जीवन की यादों में उतरना किसी एलिस के वंडरलैंड पहुँचने जैसा ही है।
इंदौर के ललित कला संस्थान में प्रवेश के बाद जब एक शैक्षणिक दौरे पर वे अपने सहपाठियों के साथ उसी शहर के लालबाग पैलेस गई, तो उन्होंने एक संजीदे बुजुर्ग चित्रकार को वहाँ चित्र बनाते देखा। यह उनके जीवन में पहली बार हुआ कि वे अपने संस्थान से बाहर किसी चित्रकार को चित्र बनाते देख रही थीं। उनसे बातें की। किसी अपरिचित व्यक्ति का परिचित व्यवहार देख उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ। वे रामजी वर्मा थे। उन्होंने अपने कई अन्य चित्र भी दिखाए और आलमारी से कला पर केंद्रित किताबें निकाल उन्हें देखने को दी। परस्पर बातचीत से उन्हें पता चला कि वे ललित कला संस्थान से हैं, तो वे खुश हुए। उन्होंने बिना टिकिट लिए लालबाग पैलेस आने की अनुमति दिलवाई और यह सुविधा भी दी कि वे वहाँ के पुस्तकालय का उपयोग भी कर सकती हैं। शबनम के लिए यह किसी कलाकार के व्यक्तित्व को जानने का पहला अवसर था। वे इससे बहुत प्रभावित हुई। यह वर्ष 1993 की बात है और यहीं से उनके जीवन में एक कलाकार के होने का मतलब समझ आया।
ललित कला संस्थान के ही एक आयोजन में उन्होंने मकबूल फिदा हुसैन को देखा और उनके ‘गज गामिनी’ सीरीज के रेखांकन भी। यह उनके जीवन में एक ऐसी दुनिया में प्रवेश था, जहाँ उन्हें रंगों और रेखाओं के तिलिस्म ने जीवन भर के लिए मानों घेर लिया था। यह संसार उन्हें अच्छा लगने लगा। वे उस रहस्य के भीतर उतरती चली गईं। रंग और रेखाओं से उनका परिचय प्रगाढ़ होता गया। वे उनके साथ रहने लगी और उनसे खेलने लगीं। वहीं के एक अध्यापक जब छात्रों की हाजिरी लगाते, तब वे एक नए बने स्केच से ही उन सबकी उपस्थिति दर्ज करते। ऐसे में उन्हें प्रतिदिन स्केच करने की जरूरत हुई, जो धीरे-धीरे आदत में बदलती गई। वे शहर के सेंट्रल म्यूजियम के पुस्तकालय भी जाने लगी और वहाँ उपलब्ध किताबों से अपने संसार को चित्रों और दुनिया भर के चित्रकारों से रूबरू होने लगी। खाली समय में वे रेल्वे स्टेशन, कृष्णपुरा की छत्रियाँ, बस स्टैंड, राजबाड़ा, बर्तन बाजार इत्यादि जगह जाती और स्केच बनाने का अभ्यास करतीं।
स्केचिंग करते-करते उनसे कुछ नए आकार जन्म लेने लगे। यह उनके लिए उत्साहवर्धक था। वे और अधिक स्केच बनाने लगीं। पढाई में जल-रंगों को वापरना सिखाया जा रहा था। वे अब जलरंग से भी स्केच करने का प्रयास करने लगी। साथ ही पोट्रेट, ड्राइंग, लैंडस्केप, स्टिल लाइफ, मूर्तिकला इत्यादि का औपचारिक अध्ययन चल ही रहा था। इन सबका प्रभाव उनके स्केचिंग पर आने लगा। रेखाओं से यह उनका कुतूहल से भरा पहला प्रेम था, जो आजतक अनवरत जारी हैं। वे रेखाओं की अहमियत और उनके व्यक्तित्व से मिलनसार होने लगीं। अब उनके स्केच मानव आकृतियों की परिधि से बाहर निकल विस्तृत आकाश पाने लगे। उनके ‘देखने’ का नजरिया बदलने लगा। वे सभी जगह, हर जर्रे, प्रकृति और सभी दृश्य में रेखाओं की उपस्थिति को छूने-पहचानने लगी। उन्हें समझ आने लगा कि रंग भी अंततः रेखा का ही पर्याय होते हैं और रेखा को ऐसा परिधान देते हैं, जिससे सीधे-सीधे रेखा को पहचाना नहीं जा सकें। चित्र का यह रचनात्मक खेल अब उनकी पकड़ में आने लगा।
चित्रकला का अध्ययन करते हुए और अब कला-अध्यापक के रूप में उन्हें सबसे महत्वपूर्ण ‘अभ्यास’ ही लगा है। वे तब भी यही अभ्यास करती रही और अभी भी उसी में अधिक से अधिक व्यस्त रहना चाहती हैं। यह जानते हुए कि घर-परिवार, अध्यापन और सामाजिक औपचारिकताओं से बचा हुआ समय उनके लिए बहुत कीमती हैं और यकीनन अभ्यास करने के लिए है। वे चित्र नहीं बनाती, वे चित्र बनाने का अभ्यास करती हैं और उनके चित्र बन जाते हैं।
जीवन के खाते-बही में उनके पास अपनी एकल नुमाइशो के अतिरिक्त कई सारे ग्रुप शो भी हैं। लेकिन वे कला की राजनीति से दूर अपने भीतर के कलाकार के एकांत में रहकर खामोशी से अपनी कला-यात्रा जारी रखे हुए हैं। उनके चित्रों की रेखाएं असल में उनकी स्मृतियाँ का ऐसा प्रतिबिंब हैं, जिसमें वे अपना भुला-बिसरा समेट कर उसे अपने साथ पुनः उपस्थित कर देती हैं। उनके चित्रों के परिचित आकार भी अपरिचय की आभा लिए होते हैं, इसलिए वे दृश्य को जिज्ञासा में बदलने की सहज इच्छा के साथ हमारे देखे हुए के अप्रतिम अनुभव हो जाते हैं।
कला जगत को उनसे वे अपेक्षाएं हैं, जो उन जैसे चित्रकार से होती हैं। वे मालवी आलस्य की निर्रथकता को शायद अब तक समझ गई होंगी और सम्भवतः इसको भी कि उनके होने का असल मतलब क्या है। भविष्य में सतत रचनात्मक रहने के लिए उन्हें शुभकामनाएं दी जा सकती हैं।
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राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलावार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
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2 comments

  1. उमर चंद जायसवाल

    सरला माहेश्वरी जी की कविता पढ़ कर अच्छा लगा।प्रभात रंजन जी को कविता पढ़वाने के लिए बधाई।

  2. डॉ कनक लता

    सरला जी,
    आपकी कविताएँ दिल को भीतर तक स्पर्श करती हैं, काफी प्रभावशाली एवं मर्मस्पर्शी अंदाज में आपने समाज के दबे-कुचले तबकों को, उनकी तकलीफों को, उनकी स्थिति-परिस्थितियों को उकेरा है …

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