Home / Featured / कविता शुक्रवार 17:जोशना बैनर्जी आडवानी की कविताएँ रवींद्र व्यास के चित्र

कविता शुक्रवार 17:जोशना बैनर्जी आडवानी की कविताएँ रवींद्र व्यास के चित्र

कविता शुक्रवार के इस अंक में जोशना बैनर्जी आडवानी की कविताएं और रवींद्र व्यास के चित्र शामिल हैं।
जोशना बैनर्जी आडवानी का जन्म 31 दिसंबर, 1983 में आगरा, उत्तर प्रदेश में हुआ था। आगरा में ही शिक्षा पूरी की। सेंट कॉनरेड्स इंटर कॉलेज से स्कूलिंग की। ग्रैजुएशन, पोस्ट ग्रैजुएशन, बी.एड, एम.एड, पी.एच.डी आगरा विश्वविद्यालय से किया। थियेटर किया कई सालों तक। थियेटर से बहुत कुछ सीखा। कई सालों तक पी.जी.टी लेवल पर अंग्रेज़ी पढ़ाने के बाद प्रधानाचार्या पद पर पिछले पाँच सालों से कार्यरत हैं। कला से लगाव बचपन से ही रहा है। पढ़ाई के अलावा कई प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया और पुरस्कार प्राप्त किया। अजायबघर, पहाड़, नदी, पुस्तकालय इन जगहों पर देर तक रहना अच्छा लगता है। कविताएँ लिखने का शौक बचपन से ही है। अंग्रेज़ी और हिंदी में कई कविताएँ लिखी। कवियत्री रूप में पहचान पहले कविता संग्रह “सुधानपूर्णा” से मिली जो दीपक अरोड़ा स्मृति सम्मान के तहत बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। जब भी समय मिलता है, शांतिनिकेतन में समय व्यतीत करती हैं। एकांत पसंद हैं। भीड़ में रहना पसंद नहीं।
कुछ कविताओं के अनुवाद बांग्ला, नेपाली और अंग्रेज़ी में हुए हैं। अलग अलग शहरों में सीबीएसई से जुड़े कई सेमिनार्स और वर्कशॉप्स करवा रही हैं। सीबीएसई की किताबों का पिछले पाँच वर्ष से संपादन कर रही हैं। नीलेश मिश्रा माईक पोएट्री में पोएट्री आर्टिस्ट हैं। साहित्यिक आयोजनों में भागीदारी रही है।
आइए, रवींद्र व्यास के चित्रों के साथ जोशना बैनर्जी आडवानी की कविताएं देखते-पढ़ते हैं।
=============================================
वो केतली में कोलकाता भर लाया था
—————
 
एक व्यापार चौकी की स्थापना ने कितने
मन्मथलेख लिखवाये
जॉब चार्नोक ने जब कोलकाता की स्थापना की थी
तो उसने सोचा भी नहीं होगा कि असंख्य लोगों के दिलों
को जोड़ने का काम उसके हाथों हो रहा है
उन दिनों माँ अक्टूबर में ही स्वेटर पहना दिया करती थीं
उनके हाथों से बने गर्म गफ स्वेटर जिसमें से
नेफ्थलीन गोलियों की गंध आती थी
पच्चीस साल कोलकाता में रहने के बाद
कोलकाता मात्र शहर नहीं रह जाता
शरीर का एक अंग बन जाता है
एक इंद्रिय
और दिन का एक महत्वपूर्ण पहर बन जाता है
 
कच्ची उम्र में मिला था वो
लड़कियों जैसे मन वाला लड़का
रॉयल कोलकाता गोल्फ क्लब के बाहर की सड़क उसकी पसंदीदा जगह थी
घंटों खड़ा रहता था वहाँ
गोल्फर बनना चाहता था
अंदर जाने के लिए प्रयत्न करता था
जुगाड़ लगाता था
बुबुकता था
मैं उन दिनों सांत्वना देना नहीं सीख पाई थी
जोरासांको ठाकुरबाड़ी में घंटों घूमते हुए लगता था जैसे रवींद्रनाथ हमारे आस पास ही टहल रहे हों
अतीन्द्रनाथ मुखर्जी लेन से गुज़रते हुए
मैं उसके लिए झालमुड़ी खरीदती थी
वो मुझे बताता था
कि लँहगें अच्छे गरियाहाट में मिलते हैं
अपनी बहन के विवाह में वही से खरीदेगा
 
ठंड की एक सुबह माँ रसोईघर में रोहू पकाती हुई पिता पर चिल्लाये जा रही थी
पिता ने तोतों को नहलाने में देर कर दी थी
पिंजड़ा भी गंदा पड़ा था
दादी छोटे भाई को खुदीराम बोस की
कहानी गाकर सुना रही थी
मैंने देखा केतली हाथ में लिए
आँगन में आ खड़ा था
लड़की जैसे मन वाला लड़का
दालचीनी की चाय बना के लाया था
उस दिन माँ को मंगलाहाट जाना था
चाय की गंध ने सबको आँगन में ला खड़ा किया
 
आँगन में धूप थी
चाय पीते पीते सब उसे ऐसे सुन रहे थे जैसे
पृथ्वी पर सबसे मधुर जिह्वा उसी की हो
रौब इतना जैसे कोलकाता का ज़मींदार हो
बोनोमाली चैटर्जी लेन और धरमतल्ला के
कितने मनमोहक किस्से कहता हुआ
माँ को हँसा रहा था
पिता तोतों को नहलाते हुए माँ को घूर रहे थे
 
उसकी माँ कोसीपुर की थी
पिता मानिकतल्ला के
उसके सपने बड़े नहीं थे
चण्डीपाठ का शब्द शब्द रटा हुआ था उसको
काठी रोल बनाना जानता था
किस्से कहता था
कोलकाता की हर गली का अलग किस्सा
वो समय बाँध लाया था
वो केतली में कोलकाता भर लाया था
 
 
 
 
 
उनाकोटि के रहस्य तले
————-
 
शैलचित्र एंव मूर्तियाँँ हैं
संकीर्ण पगडंडियाँँ, चहुँ ओर कानन
नदी की कलकल ध्वनि है यहाँ
यहाँ रहस्य पसरा है हर दिशा
हर दिशा में रहस्मयी मौन
 
अशोकाष्टमी मेले वाले दिन
अपने सोलहवें साल में मैं अगरतला होते हुए
घने जंगलों के बीच से पहुँची थी यहाँ
यह एक पहाड़ी इलाका था
पत्थरों पर उकेरी गई थीं कृतियाँ
पत्थरों को काटकर बनाई गई थीं मूर्तियाँ
पैरों को छू कर दौड़ रहे थे कंठगर खरगोश
दो एक बैंजनी रंग की चिड़ियाँ दिख रही थीं आस पास
 
वहाँ के पत्थर बहुत ठंडे थे
एक डूँगर पर पिता थककर बैठ गये थे
एक तीस फीट ऊँची शिव की उनाकोटेश्वर मूर्ति
के पैरों पर माँ ने मेरा मस्तक झुका दिया
माँ को तो शिव के दर्शन होते ही लगता था
शिव सामने ही खड़े हैं
टीवी पर शिव दिखते तो पूरे परिवार से
हाथ जुड़वा लेती थीं माँ
शिव ने ही हरा होगा मेरी माँ को
वापस नहीं लौटाते अब
 
एक पौराणिक कथा जुड़ी थी इस जगह से
वहाँ के सुंदर छोटी आँखों वाले लोग बताते हैं
कालू नाम का एक शिल्पकार
शिव पार्वती के साथ कैलाश जाना चाहता था
शर्त रखी गई कि एक रात में
जो एक करोड़ मूर्तियाँँ बनायेगा
वही जा सकेगा कैलाश
पूरी रात मूर्तियाँँ बनने के बाद जब सुबह गिनती हुई
तो एक करोड़ से एक संख्या कम निकली
एक करोड़ से एक संख्या कम को उनाकोटि कहते हैं
 
उनाकोटि के रहस्य तले
कुछ रहस्य रह ही जाते हैं जानने को
 
 
(अर्थ: उनाकोटि- अगरतला से कुछ दूर एक पहाड़ी इलाका। कंठगर- मोटा ताज़ा। डूँगर- टीला)
 
 
 
 
 
 
 
 
रवींद्र कानन में घूमते हुए
——————-
 
दिनास्त का समय था
लोग कानन को नहीं अपने साथियों को देख रहे थे
ढेर सारे पुष्पों के बगल में बैठे थे दो प्रेमी
पहाड़ जैसी पीड़ाएँ किसी महावत को दे आये थे
प्रेयस के हाथ में एक किताब थी
प्रेयसी के हाथ में एक कुमुद
पृथ्वी, आकाश, पहाड़, नदी
उनके बीच इस समय कुछ नहीं था
मात्र सांस लेने भर की हवा थी उनके बीच
 
दूसरी तरफ एक व्यस्क जोड़ा
चावल, तिलहन, चाय और
रमास के हिसाब को लेकर बहस कर रहा था
प्रेम शायद ऐसे ही वयस्क होता होगा
 
थोड़ा आगे चलने पर दो लड़कियाँ बैठी थीं
उसमें से एक इतना रो रही थी जैसे उद्यान को
अभी रूद्रसागर झील में बदल देगी
दूसरी लड़की पर ज़िम्मेदारी थी
वह उसे समझा बुझा रही थी
मेरे निकट आने पर दोनों चुप हो गई
 
पाँच लड़के एक वृक्ष के नीचे कुछ योजना बना रहे थे
थोड़ी थोड़ी मूँछें आई हैं सभी को
जीवन अभी उनके लिए मौज है
मुझे शक हुआ या तो किसी लड़की को
प्रेम प्रस्ताव देने की योजना रही होगी
या परीक्षा में नकल की योजना बना रहे होंगे
लड़को को देखते ही ऐसी भावना
उनकी कुटिल मुस्कान को देखकर
मेरे मन में आई थी
इसमें मेरा दोष नहीं
 
कुछ बूढ़े पचौनी के लिए टहल रहे थे
जितने लोग, उतनी कहानियाँ, रहस्य उतने ही
रवींद्र कानन में एक कोने से
सब तरफ आँखें घुमाने पर
लग रहा था दोलोत्सव चल रहा हो
रवींद्र उद्यान में
पूरब की हवा हरोआ नदी से होकर
घासों को चूमती हुई
ढिल्लड़ हो जाती है
 
 
(अर्थ: रवींद्र कानन- अगरतला में एक पार्क। पचौनी- पचाने की क्रिया। दोलोत्सव- फागुन की पूर्णिमा में होनेवाला उत्सव)
 
 
 
 
 
 
 
एक बार लावणी की थी मैंने
——————-
 
भावों से भरे इस मन में मात्र एक पृथ्वी नहीं थी
कई पृथ्वियाँ, कई खीरगंगाएँ
कई अंतरिक्ष, कई इन्द्र
कई आस्थाएँ, कई टिढ़-बिंगे रास्ते
कई नृत्य कलाएँ थींं
 
उस दिन कॉलेज के वार्षिकोत्सव वाले दिन लगा
पृथ्वी की सबसे सुंदर नृत्यांगना हूँ मैं
हम पंद्रह लड़कियाँ थीं
तीन महीने से लावणी कर रहे थें हम
आज मंच पर हमारा उत्सव था
नौ मीटर लम्बी पारम्परिक साड़ियाँ पहनी थी हमनें
गहने, रुप सज्जा, घुँघरू, आलता, कमरपट्टा
इन सब में अप्सराएं लग रही थीं हम सब
 
मनुष्य ही नहीं नृत्य कलाएँ भी भरी हैं भावों से
भक्ति, प्रेम, वीरता, पीड़ा, प्रसन्नता
कितने भावों से भरी लावणी सीखी थी हमने
पेशवा शासन के समय से चरम पर है लावणी
धुन, ढोलक, परंपरा से युग्मित होती
लयबद्ध कर देती है देह को
 
चमकदार रौशनी, थापें, तालियों के बीच
हम मंच पर महाराष्ट्र खींच लाये थे
गुरू माँ की आँखें भर आई थी
दर्शकों ने हथेलियाँ लाल कर ली थीं
ताली बजा बजाकर
हम कुछ नहीं देख पा रहे थे
हम सुन रहे थे लावणी के बोल और लावणी का संगीत
लावणी नर्मदा की तरह बह रही थी
रज रहे थे हम
पुलिनमय हो रही थी आत्मा हमारी
 
चार मिनट की लावणी के लिए
जैसे चारों धाम नाप चुके हों हम
बहा चुके थे चार जन्मों का पसीना
अंत में कुछ ना याद रहा
बस ये याद रहा कि
एक बार लावणी की थी मैंने
 
 
 
 
 
 
कतिपय सुख के लिए
—————–
 
कतिपय सुख के लिए
कभी नहीं दुखाया किसी का हृदय
कंठ ऊँचा कतई नहीं किया
नहीं तरेरी आँखें हरगिज़
वे जो छोटी छोटी चीज़ो के लिए लड़े थे मुझसे
वे लड़ाईयाँ भुला दी है मैंने
बस की सीट घेरने के लिए
जो दो कदम तेज़ भागी थी मुझसे
वो लड़की ठीक से मुझे याद नहीं
 
जिस छुरी ने मेरी ऊँगली चीरी थी
परवल काटते हुए
उसी छुरी को इस्तेमाल करती हूँ हर दिन
 
प्रेमिका के लिए जब उसके प्रेमी ने तोड़ लिया वो पुष्प
जिसे मैं देख रही थी स्नेह से
उद्यान में
तब भी उस प्रेमी से कुछ नहीं कहा
वह पुष्प दिनों तक याद रहा मुझे
 
दोस्त के किताब ना वापस करने पर
यह सोच कर मौन रही कि उस किताब की आवश्यकता उसे अधिक है
 
जिन दोस्तों ने मेरी जगह जगह निंदा की
उन्हें विश्वास दिलाया कि उनके हिस्से के तिमिर में
मेरी धवलिमा उन तक अवश्य पहुँचेगी
 
जिन मछलियों को मैं दाना डाल रही थी
उन्हें एक मछरंगा खा गया
मैंने मछलियों के लिए प्रार्थनाएं की
मछरंगे को श्राप नहीं दे सकी
 
सूर्य ने मेरी पीठ कई दफे झुलसा दी
ताप सूर्य का कर्म है सोचकर
अपना कर्म करने में लगी रही
 
क्षमा कर पाने की भावना मन में उत्पन्न नहीं होने दी
ऐसा करने से पहले लोगों को दोषी मानना पड़ता
जिन कविताओं ने एकांत में सेंध लगाई
उन्हीं को सौंप दिया अपना हृदय
 
 
 
 
 
 
मन में कितने अहह
—————
 
मन भारी हो चुका था
एक जोड़ी दुःखी आँखों के जल में गड़प से डूब गया
भारी चीज़े डूब जाती हैं
 
किसी जीव के दंताघात से नहीं
तलवे के किसी बिवाई से नहीं
किसी के द्वारा किये गये छल से भी नहीं
ये मन अपने ही अहह में बहुत बार डूब के मरा है
अपनी ही शवयात्रा में मीलों चला है
 
जीवन के आघात छोटे छोटे खुराक में मिले
कुछेक बार अभिमान में अहमेव बना ये मन
जलछार स्मृतियों को बहा दिया हरोआ नदी में
पेड़ों से सीख लिया शत्रुओं से भी मीठा बोलना
चीज़े संसार में बाद में आईं
पहले वे मन में ही आईं
मन से वहीं चीज़े निकल सकी
जो जटिल ना थीं
वे जो जटिल हैं, अभी मन में ही हैं
वे समय लेंगी निकलने में
निकलेंगी एक दिन
मन पर अपने अधोबिन्दु छोड़ते हुए
महौषध की तरह उपचार करेंगी
संसार में जितने भी दुःखी मन हैं
छुएँगी उन्हें
देंगी संदेश “चेतो मनुष्यों चेतो”
 
 
(अर्थ: अहह- दुःख, क्लेश, आश्चर्य और संबोधन सूचक उद्गार।
अहमेव- स्वयं को सबकुछ समझना। अधोबिन्दु- पैरों के नीचे के निशान। महौषध- अति गुणकारी दवा)
 
 
 
 
 
 
 
जीवन लाया है मुझे तुम तक
——————-
 
हाथ पकड़ कर
दमित विषाद में
क्लान्त पेड़ों के झुरमुटों से होता हुआ
हिमशीतल हवाओं के बीच से निकालकर
पराग कणों से भिगोता हुआ
मनुष्यों, कीटों, पशुओं की आँख बचाकर
जीवन लाया है मुझे तुम तक
 
जीवन के पास कोई सड़कनक्शा नहीं था
जीवन ने पढ़ी थी तुम्हारी कविताएं
जीवन ने देखी थी तुम्हारी कर्मठता
जीवन के पास थी तुम्हारी बूबस बातें
जीवन के लिए तुम एक अहूँठा थे
जीवन को पता था तुम्हें छूने के लिए
हाथों की आवश्यकता नहीं
 
जीवन मुझे तुम तक ले आया
जीवन जानता था हमारे सूर्य
एक दूसरे में अस्त हो सकते हैं
जीवन जो चीज़े हमारे लिए नष्ट कर देगा
वह हम कला से साध लेंगे
हम साध लेंगे एक दूजे को बिना निकट आये
कविता हमसे खेलेगी एक इच्छामृत्यु की तरह
इच्छामृत्यु हममें
एक दूसरे की चाह में
जीने की आस जगायेगी
 
(अर्थ: बूबस- नासमझ। अहूँठा- साढ़े तीन का पहाड़ा)
 
 
 
 
 
 
 
 
म से बहुत सारे म
—————
 
मनोदेवता के हाथों में एक मनोकांक्षा थी
मनस्तल में एक शिशु की तरह खेलती थी
मदालापी सी कूँकती थी
मनोमालिन्य की भावना से परे
मार्तंड की तरह सुनहरी थी
मधुत्सव में नृत्यरत हो उठती थी
मन्मथलेख पढ़ना चाहती थी अनेकों
मेरे और जीवन के मध्यस्थ थी ये मनोकांक्षा
मंगलगान गाती हुई
मैना की तरह उड़ती थी
महीप की तरह जो व्यतीत करती थी जीवन
मलकाती नहीं है अब
मारात्मक पीड़ाएँ सह चुकी है
महिका पर इतनी ध्वनियों के बीच
मौन है अब
मातृवत पोसती है मुझे
मांगल्य कामना की तरह जगाती है आस
मेरी मनोकांक्षा
 
(अर्थ: मनोदेवता- अंतरात्मा। मनस्तल- हृदय।मदालापी- कोयल। मनोमालिन्य- मनमुटाव। मार्तंड- सूर्य। मधूत्सव- चैत्र की पूर्णिमा। मन्मथलेख- प्रेमपत्र।
महीप- राजा। महिका- पृथ्वी)
========================
रवींद्र व्यास: शहर, छटपटाहट और ठिठके हुए रंग
—————————————
-राकेश श्रीमाल
इंदौर में श्रीकृष्ण टॉकीज़ के सामने सरकारी स्कूल में पढ़े हैं रवींद्र व्यास। पांचवी से आठवीं तक। स्कूल की दो मंज़िला इमारत में नीचे स्कूल लगता था और ऊपरी मंज़िल पर फाइन आर्ट्स कॉलेज। कभी कभार किसी कौतुहल में वे ऊपरी मंज़िल की सीढ़ियां चढ़कर देखने की कोशिश करते कि वहाँ आखिर क्या होता है। वहाँ लगी मूर्तियां और ईज़ल पर रखे रंगीन कैनवास उन्हें आकर्षित करते। वे किसी रोमांच में, मंत्रमुग्ध होकर वहाँ चले जाते। लड़के-लड़कियां रंग-ब्रश लिए चित्र बनाते रहते।
तब उन्हें नहीं पता था कि बरसों बाद उनकी ज़िंदगी में रंगों की रोमांचक दुनिया इस तरह खुलेगी कि कोई औपचारिक शिक्षा लिए बिना वे चित्र बनाने लगेंगे।
रवींद्र ने पत्रकारिता की शिक्षा ली थी और बतौर ट्रेनी वे एक ऐसे अख़बार में काम करने लगे, जिसके प्रधान संपादक साहित्यकार प्रभाकर माचवे थे। इसके पहले देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के युवा उत्सव में निकलने वाले अख़बार में कला-संस्कृति की गतिविधियों की रिपोर्टिंग किया करते थे। बाद में इसी अखबार में ख्यात साहित्यकार श्रीनरेश मेहता प्रधान संपादक होकर आए। तब तक इस अख़बार में नियमित रूप से इंदौर की कला प्रदर्शनियों, संगीत सम्मेलनों, नाटकों और साहित्यिक कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग वे करने लगे थे। इस दौरान कई कलाकारों-संगीतकारों-साहित्यकारों से मिलना-जुलना होता रहा।
शहर के तमाम युवा और वरिष्ठ चित्रकारों के साथ मेल-मिलाप, उनके इंटरव्यू करना और उनकी प्रदर्शनियों पर रिपोर्टिंग करने लगे। लेकिन चित्र बनाना अब भी शुरू नहीं किए थे।
इंदौर में कई बड़े कलाकार आते रहते थे। उनको सुनते, उनके लाइव डेमॉन्स्ट्रेशन देखते। स्कूली दिनों में अपने स्कूल की दूसरी मंज़िल पर लड़के-लड़कियों को चित्र बनाते देखने की स्मृति धुंधली नहीं पड़ी थी। उन्होंने अपने अख़बार में कविताओं और कहानियों पर रेखांकन बनाने शुरू किए। ये दोस्तों को पसंद आते थे। सिलसिला शुरू हुआ। लेकिन वे चित्रकारी की बाकायदा शिक्षा लेना चाहते थे। वे अपने चित्रकार मित्रों के साथ फाइन आर्ट्स कॉलेज इंदौर में एडमिशन लेने गए। प्रिंसिपल थे श्रेँणिक जैन। उन्होंने कहा आपकी उम्र तो 27 हो चुकी। आपको एडमिशन नहीं मिल सकता। वे निराश हुए। लेकिन चित्रों को देखना, चित्र प्रदर्शनियों में जाना बदस्तूर जारी रहा। चित्रकारों से मिलना जुलना होता रहा। रेखांकन बनाना रूका नहीं। लेकिन वे रंगों की संगत में रहना चाहते थे।
अख़़बार में काम करते हुए वे महानगरों में लगने वाली प्रदर्शनियों पर कला समीक्षकों की समीक्षाएं पढ़ते, नेट खंगालते, तमाम चित्रकारों की चित्रकारी देखते-निहारते, उनकी किताबें खरीदते-पढ़ते, लेकिन अब भी रंगों से दूर ही थे।
एक दिन उनके पिता बहुत बीमार पड़े। अस्पताल से उन्हें लाने के बाद पिता कभी-कभी आंगन में बैठते। वे उनकी मालिश करते, कई बार बाहर ही आंगन में नहलाते। वे फिर बीमार पड़े। फिर अस्पताल गए। फिर डिस्चार्ज होकर उन्हें घर लाए। उन्हें तीन बार अस्पताल में भर्ती किया। इसी दौरान एक रात अचानक रंगों का सोता उनके मन में फूटा और उन्होंने नीले रंग में अपना पहला चित्र बनाया। सुबह पिता को दिखाया। वे खुला-खिला नीला देख खुश थे। रवींद्र उनकी खुशी में फिर लगातार चित्र बनाते रहे। एक दिन हरे रंग में चित्र बनाया तो पिता की आंखों में एक अलग ही चमक उन्होंने देखी। इस तरह हरे रंग में चित्र बनाने की उनकी शुरुआत हुई।
रवींद्र चित्र बनाने लगे, चित्रकारों को दिखाने लगे, कला शिविरों में भागीदारी की, रिसॉर्ट और होटलों के लॉन में कई चित्रकारों के बीच चित्र बनाए। कई चित्रकारों से दोस्ती हुई। चित्र प्रदर्शनी की योजना बनाई और भोपाल, जयपुर और अहमदाबाद में वन मैन शोज़ किए।
यह सब तो वह है, जो दिखता है यानी सार्वजनिक है, लेकिन रवींद्र तो वह चाहते हैं जो उन्हें अपने शहर के परिवेश में नहीं मिला। वे कहते हैं– “लगता है कि यदि मैं किसी महानगर में होता तो शायद और बेहतर चित्र बनाता। बड़े चित्रकारों से मिलता, उनसे संवाद होता। शायद दृष्टि बनती-खुलती। एक शहर में ही रह जाने के अपने नफा-नुकसान हैं।
लेकिन मुझमें कभी फ्रस्ट्रेशन नहीं आया। मैं किसी भी तरह की महत्वाकांक्षा से मुक्त हूँ। यह मेरी एक कमज़ोरी भी रही। मेरे दो-एक बेहतरीन कवि और चित्रकार मित्र यह बात गाहे बगाहे कहते हैं। मैंने अपनी धुन में चित्र बनाए, मस्ती में बनाए, लगातार बनाए। अब भी चित्र बना ही रहा हूँ।”
सोचा जा सकता है कि जिस शहर की वे बात कर रहे हैं, वह देवलालीकर, डी जे जोशी, सक्सेना सर, हुसैन इत्यादि बड़े कलाकारों के नाम से जाना जाता है। आखिर वे क्या कारण हैं कि उस शहर का वातावरण चित्रकला के अपने क्षेत्र में इतना पिछड़ा कैसे रह गया। क्या अच्छे और प्रतिभाशाली कलाकार केवल इसलिए समय की गर्त में गुम होते जा रहे हैं कि उन्होंने शहर छोड़ने की हिम्मत नहीं की। उसी शहर के छोटे दायरे में रहते हुए क्या उन्होंने अपनी रचनात्मकता की ही बलि दे दी। क्या इंदौर का ठेठ मालवी परिवेश इसका दोषी है, जहाँ आरामतलबी में रहते हुए और आलसीपन को किसी गुण की तरह स्वीकारते हुए अपनी नाममात्र की सक्रियता को स्वप्न-पटल पर बहुत बड़े काम की तरह देखा जाता है।
रवींद्र व्यास अपनी रचनात्मक छटपटाहट इस तरह व्यक्त करते हैं– “देश दुनिया के तमाम चित्रकार हैं जिनके काम मुझे पसंद हैं। उनके रंग-रूपाकर, रंगों को बरतने का तरीका, रंग-युतियां, रूपांकन का तरीका, नाचती-झूमती-थरथराती रेखाएं। स्वप्निलता और यथार्थ। कितने वाद और कितनी शैलियां। बदलते दौर के बदलते बदलाव, समकालीन कला के ट्रेंड। एक भरी-पूरी जादुई दुनिया। भारतीय कला और परंपरा। उसके दिग्गज कलाकार। उनका अथाह और अथक काम। यह सब जानना देखना महसूस करना मेरे लिए रोमांचकारी है। मैं इन सबके बीच रहना चाहता हूँ, जीना चाहता हूँ। इस शहर की दुनिया मेरे लिए नहीं है। मेरी दुनिया इस शहर में नहीं रहती है। इस सब परिवेश में, जैसा कि मैं मानता हूँ कि मैं चित्र की देहरी पर ठिठका एक रंग हूं।”
===================
राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलावार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
===========================
दुर्लभ किताबों के PDF के लिए जानकी पुल को telegram पर सब्सक्राइब करें
 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

शिरीष खरे की किताब ‘नदी सिंदूरी’ की समीक्षा

शिरीष खरे के कहानी संग्रह ‘नदी सिंदूरी’ की कहानियाँ जैसे इस बात की याद दिलाती …

6 comments

  1. कला का यह संयुक्त प्रचालन प्रियकर है।
    जोशना की कविताओं से गुज़रना, किसी आत्मीय के साथ उसके विस्तृत विगत और कुछ आगत के सुख से अवगत होना है। उनकी काव्यात्मक स्मृति में भी उछाह है। बांग्ला संस्कृति सहयात्री है। वह एक नैतिक पुकार भी है।
    रवि अपने किए-धरे में हर बार एक विस्मय भर देता है। एक रंग के आधार में इतनी रोशनी, इतनी व्युत्पत्ति और इतनी असमाप्यता दुर्लभ है। जानता हूँ कि उसने एकलव्य की तरह शिक्षा ली है। उसके पहले द्रोणाचार्य Van Gogh हैं और फिर अनेक। लेकिन उसने अपना अँगूठा किसी को नहीं दिया। इन दोनों को बधाइयाँ।
    शुभकामनाएँ।
    -कुमार अम्बुज।

  2. बेहद सुंदर प्रस्तुति… कहना मुश्किल है …शब्द सुंदर है या रंग…दोनो ने ही मन और आँखों को सिक्त कर दिया .😊

  3. मैं चित्र की देहरी पर ठिठका एक रंग हूं।”
    यह वाक्य एक चित्रकार ही कह सकता हैं। यह और बात हैं कि इस चित्रकार को शहर पहचानता हैं या नहीं। पर रवीन्द्र व्यास के चित्रों में करवट दर करवट फैलते शहर के बाहर और भीतर जो प्राकृतिक पर्यावरण हैं,वह हैं। वे अपने ही शहर में एक प्रवासी चित्रकार की तरह रहते हैं।हर कलाकार का संघर्ष भिन्न होता हैं रवीन्द्र जी का भी हैं। उनके चित्रों में शहर के पेड़ हैं, पत्तियां हैं जो हवा के साथ बहते हरे रंग और उस हरे के सहचर अन्य रंगों को चित्र सतह पर रखते हैं।उनके रंग लगाने का अंदाज़ कभी एक छापा कलाकार की तरह तो कभी एक फोटोग्राफर की तरह लगता हैं।इस मायने में वे एकाधिक कला विधाओं (और उनकी विधियों) को सिर्फ अपने रंग लगाने के तरीके से ही शामिल कर लेते हैं।
    यह मालवा की खुशबू हैं जो उनके चित्रों में,उनके रंगों में बिखरी हैं। पर चित्र में आते ही यह खुशबू (जैसा की खुशबू का स्वभाव हैं ) अपनी भौगोलिक सीमाएं लाँघती हैं और देहरी पार कर जब चित्र देखते हैं तो दिखाई देता हैं एक रहस्यमयी.सुन्दर और आकर्षक पार्श्व (अमूर्त)। इस पार्श्व में अपनी ज़मीन को छूती हुई हवा अपनी ज़मीन को भी अपने साथ अपने रंगीन सफ़र पर ले जाती हुई हमें दिखती हैं। ज़मीन कभी हवा की व्याकुलता को सहलाती हैं तो कभी हवा ज़मीन को हवा हो जाने का आग्रह करती है। यह अमूर्तन बिम्ब ही रवीन्द्र व्यास के चित्रों का एक व्यक्त और ख़ामोश गुण हैं। उनके चित्रों में कुछ रूप भले ही नहीं हैं पर उन अभी न दिख रहे रूपों को मन की आँख अपने दृश्य अनुभव में पूर्ण कर लेती हैं।
    रवीन्द्र व्यास ने अपने शहर और शहर में आए अन्य प्रदेशों के कलाकारों के कला कर्म पर निरंतर लिखा हैं। उनका देखना उनके लिखे में हम पढ़ते हैं। अब उनके चित्रों को देख उनका लिखा हुआ भी उनका देखा हुआ एक परिपक्व अनुभव ही लगता हैं।
    इधर वरिष्ठ कवि और कला समीक्षक श्री प्रयाग जी ने भी चित्र रचना आरम्भ किया हैं। और वे अनवरत चित्र और रेखांकन बना रहे हैं।
    रवीन्द्र जी के चित्रों को देखने से अधिक उनके चित्रों को पढ़ने में आनंद आता हैं। अपने चित्रों के बारे में उन्होंने कभी अनावश्यक प्रसार नहीं किया। कला उनके लिए एक पेशा मात्र नहीं बल्कि जीने के लिए एक महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य राशन की तरह हैं। उनकी कला के प्रति सच्ची आस्था बिरली हैं।
    रवीन्द्र अपने चित्रों नीले फिर हरे और अब अनेकों रंगों में दिन ब दिन खिल रहे हैं उनका कवि मन सब देख रहा हैं।
    और उनकी यह हरे नीले रंग में डूबी पंक्ति रह रह कर दिखाई देती हैं –
    मैं चित्र की देहरी पर ठिठका एक रंग हूं।”
    रवीन्द्र जी पर राकेश जी की लिखी परिचयात्मक टिप्पणी भी बहुत रोचक है।राकेश जी व रवीन्द्र जी को बधाई।

  4. For my thesis, I consulted a lot of information, read your article made me feel a lot, benefited me a lot from it, thank you for your help. Thanks!

  5. I may need your help. I tried many ways but couldn’t solve it, but after reading your article, I think you have a way to help me. I’m looking forward for your reply. Thanks.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *