गीताश्री के उपन्यास राजनटनी की विस्तृत समीक्षा लिखी है प्रखर युवा शोधार्थी सुरेश कुमार ने। यह उपन्यास हाल में ही राजपाल एंड संज प्रकाशन से आया है-
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स्त्रीविमर्श की सिद्धांतकार गीताश्री ने शोध और अनुसंधान से चमत्कारित कर देने वाला ‘राजनटनी’ नामक इतिहासपरक उपन्यास लिखा है। यह उपन्यास अभी हाल में ही राजपाल एण्ड सन्ज़, प्रकाशन से प्रकाशित होकर आया है। गीताश्री ने गहन अनुसंधान के बाद इस उपन्यास में बारहवीं सदी की राजनटनी मीनाक्षी के प्रेम और उसकी शौर्यगाथा को बड़ी शिद्दत के साथ कथा सूत्र में पिरोया है। गीताश्री उपन्यास की कथा में मिथिलांचल की स्त्रियों से लेकर बंग प्रदेश की स्त्रियों तक की सामाजिक, शैक्षिक और राजनैतिक उपस्थिति को बड़ी गंभीरता से चित्रित किया है। इस उपन्यास का पाठ करते हुये महसूस होता है कि बारहवीं सदी में राजसत्ता, वर्णसत्ता और पुरुषसत्ता की आपसी जुगलबंदी में स्त्री का अस्तित्व और प्रेम कैसे चकनाचूर हो जाता है, इसकी शिनाख्त यह उपन्यास करता दिखाई देता है। उपन्यास की कथा इस विमर्श को आगे बढ़ाती है कि बारहवीं सदी हो चाहे इक्कीसवीं सदी लेकिन स्त्रियों के रास्ते में पुरुषतंत्र का अहम खंदक बना ही रहता है। यह उपन्यास इतिहास और कल्पना के कोरस में स्त्री के अस्तित्व और उसके प्रेम की थाह लेने के साथ ही उसकी कला और देश के प्रति प्रतिबद्धिता का आख्यान हैं।
इस उपन्यास की कथा का केंद्र राजनटनी मीनाक्षी और बल्लाल सेन का प्रेम है। मीनाक्षी के पूर्वज बंजारे समुदाय के थे। जो विविध कालाओं के माहिर होने के साथ ही स्त्रियों पर अंकुश रखने के पक्षपाती नहीं थे। इसीलिये बंजारे समुदाय की स्त्रियां अपनी संस्कृति और कला में विशिष्ट होती थीं। मीनाक्षी के पूर्वज एक ऐसे नागर की तलाश में थे, जहां स्त्रियों पर कोई अंकुश न हो और वहां अपनी कला का प्रर्दशन बिना किसी रोक टोक के कर सकती हों। आखिर में मीनाक्षी के पूर्वज मिथिलांचल को अपना स्थायी निवास बना लेते हैं क्योंकि यह नागरी विद्या वैभव से भरी होने के साथ यहां की स्त्रियां पुरुषों के साथ बहस कर सकती थी। मिथलांचल की संस्कृति और वातावरण में मीनाक्षी की नाट्य कला का रुप निखरता और परवान चढ़ता गया। मीनाक्षी ने बंजारे की कला को इस कदर साध लिया था कि जिसकी चर्चा ग्रामीण अंचलों से होकर राजा-राजवाड़ों तक पहुँच गई थी। मीनाक्षी की नृत्य और नाट्य कला से मिथला नरेश गंगदेव इस कदर सम्मोहित हुये कि उन्होंने मीनाक्षी को राजनटनी की पदवी देने की घोषणा कर डाली। मीनाक्षी की अस्मिता और चेतना को यह पसन्द नहीं था कि उसकी कला को किसी राज दरबार की सीमाओं में बाँध दिया जाये। वह मिथला नरेश गंगदेव से आग्रह करती है कि मेरी कला को किसी महल और दरबार की चौखट तक सीमित न किया जाये। मुझे और मेरे नट समुदाय को राज्य के बाहर अपनी कला का हुन्नर दिखाने की इजाजत दी जाये; तभी वह राजनटनी के पद को स्वीकार करेगी। यहां महसूस किया जा सकता है कि मीनाक्षी कैसे अपनी अस्मिता और कला की मुक्ति के लिये वह राजा गंगदेव से भी प्रतिवाद करती है। यह अंदाजा लगाया जा सकता जब स्त्रियों को अपनी बात कहने की आजादी नहीं थी उस दौर में मीनाक्षी अस्मिता और कला की स्वतंत्रता पर किसी राजा के पहरे को उसकी चेतना को बर्दास्त नहीं है। इस उपन्यास में यहीं वह क्षण है जहां स्त्री विमर्श के बिंदू को पकड़ा जा सकता है।
इतिहास बताता है कि बल्लाल सेन बंग प्रदेश का राजा था। वह अपने विचारों में वर्ण-व्यवस्था का प्रबल समर्थक था। एक तरह से बल्लाल सेन वर्ण-व्यस्था के सिद्धांतों का रक्षक था। वह अपने सारे बौद्धिक औजारों का इस्तेमाल वर्ण-व्यवस्था को कायम करने के लिये इस्तेमाल करता था। वह ज्ञान और शौर्य से वर्ण-व्यवस्था का विस्तार करना चाहता था। इसके लिये वह बौद्ध मठों को भी उजाड़ने में कोई हिचक नहीं दिखाता है। ऐसे बल्लाल सेन को मीनाक्षी से प्रेम हो जाता है। वह अपने प्रेम प्रस्ताव को मीनाक्षी की सखी के द्वारा भेजवता है। मीनाक्षा के छीजते मन पर बल्लाल सेन के प्रेम प्रस्ताव का गहरा असर पड़ता है। मीनाक्षी के प्रेम में किसी तरह की न तो कोई रणनीति है और नही कोई लालसा। एक तरह से यह कहा जाये कि मीनाक्ष का प्रेम न तो समर्पण वाला और न तो छलावे वाला है। लेकिन बल्लाल सेन मीनाक्षी के प्रेम के बहाने वह मिथला की ज्ञान परंपरा पर अपना वर्चस्व चाहता था। यहां आकर उपन्यास की कथा स्त्री और पुरुष के प्रेम के उदेश्य का अंतर हमें समझा जाती है। बल्लाल सेन अपने छल बल से मिथला को जीतने निकल पड़ता है। उसकी जल और थल सेनाओं ने मिथला की ज्ञान परपंरा और पंडुलिपियों पर कब्ज़ा करना शुरु कर देती हैं। इधर, मीनाक्षी के मन में बल्लाल सेन को लेकर कई सवाल उमड़ रहें थे। मीनाक्षा का सोचना था कि प्रेम करने वाला पुरुष इतना क्रूर कैसे हो सकता है! और, बल्लाल सेन एक स्त्री के प्रेम को पाने के लिए वह मिथला को ध्वस्त कैसे कर सकता है। मीनाक्षी इस बात का अंदाजा लगा लेती है कि बल्लाल सेन का मकसद केवल मीनाक्षी का प्रेम पाना नहीं बल्कि वह मिथला की ज्ञान परपंरा और ग्रंथगार को हासिल करना चाहता है। बल्लाल सेन की इस आंकाक्षा पूर्ति में सहायक बनता है सौमित्र। बल्लाल सेन सौमित्र के द्वारा अपना करारनामा पहुँचा देता है। बल्लाल सेन का करारनामा था कि मिथला नरेश यदि अपने राज्य के ग्रंथगार और पांडुलिपियों के साथ यदि मीनाक्षी को उसे सौंप दिया जाय तो वह अपनी सेनाओं के साथ वापस लौट जायेगा।
बारहवीं सदी में राजसत्ता कैसे स्त्री की अस्मिता को दांव पर लगा देती है। अब मीनाक्षी पर मिथला की राजसत्ता और ज्ञानसत्ता बचाने की जिम्मेदारी थी। मिथला नरेश के आदेश पर मीनाक्षी बल्लाल सेन से मिलने जाती है। मीनाक्षी इस बात को जानती है कि वर्ण व्यवस्था और उसके समर्थर्कों ने स्त्री को मानवीय गारिमा से वंचित करने का काम किया है। इसी वर्ण- व्यवस्था ने स्त्रियों की स्वतंत्रा पर अंकुश लगाने का काम किया है। मीनाक्षी जाने और अंजाने में वर्ण-व्यवस्था के पक्षपाती बल्लाल सेन से प्रेम तो करती है लेकिन मीनाक्षी की चिंता है कि वर्ण-व्यवस्था के रक्षकों से आने वाली पीढ़ी को कैसे बचाए। मीनाक्षी बल्लाल सेन से कहती है कि आप सेना साहित बंग प्रदेश वापस लौट जायें और मैं दूसरे दिन मिथला के ग्रन्थागार और पांडुलिपियों को लेकर बंग प्रदेश आऊंगी। बल्लाल कहता है कि मीनाक्षी के बगैर वह वापस नहीं जा सकता है। मीनाक्षी बल्लाल सेन को समझाती है कि सोचों लोग क्या कहेगें जब उन्हें पता चलेगा कि बल्लाल सेन एक नटनी को अपने साथ लेकर आयें है। मीनाक्षी वादे के मुताबिक दूसरे दिन बल्लाल सेन के सैनिकों के साथ किताबों और पांडुलिपियों से भरी संदूकें लेकर बंग प्रदेश के लिए रवाना हो जाती है। मीनाक्षी अपनी चालाकी से ही रास्ते में किताबों से भरी संदूकें और पंडुलिपियाँ मिथला के सैनिकों को बुलाकर उतरवा देती है। इधर, बंग प्रदेश में बल्लाल सेन को साम्राज्य सौंपने की तैयारी चल रही थी। बल्लाल सेन ने जब संदूकों को देखा तो वह खाली थी। और, दूसरी संन्दूक में मीनाक्षी अचेत अवस्था में थी। बल्लाल सेन के स्वप्न को मीनाक्षी ने अपनी चेतना से ध्वस्त कर दिया था।
मीनाक्षी उस बल्लाल सेन और प्रेमी को ज्ञान की परपंरा कैसे सौंप सकती थी जो वर्ण-व्यवस्था का विस्तार करना चाहता था। मीनाक्षी जानती थी कि यदि वर्ण-व्यवस्था का विस्तार होगा तो स्त्रियों को मानवीय गरिमा और अधिकारों से वंचित किया जायेगा। यह समाज और स्त्रियां ज्ञानसत्ता के बिना वर्ण-व्यवस्था के पैरोकारों से नहीं लड़ सकती हैं। इसलिए मीनाक्षा आने वाली पीढ़ियों की अस्मिता और स्वतंत्रा लड़ाई को मजबूती प्रदान करने के लिये, वह ज्ञानसत्ता को बचाना उचित समझती है। ज्ञान को बचाने का अर्थ प्रेम और चेतना को बचाना। दूसरी तरफ उपन्यास में मीनाक्षी के बहाने इस विमर्श को दिशा मिलती कि वर्ण-व्यवस्था के समर्थक भले ही छल प्रपंच और बल से स्त्री की देह को हासिल कर ले लेकिन स्त्री मन में जगह नहीं बना सकते हैं। क्योंकि प्रेम का दर्शन ‘बराबरी’ के सिद्धांत पर टिका है जबकि वर्ण-व्यवस्था का ढ़ांचा गैर बराबरी की वकलता करता है। यदि उपन्यास का लक्षित उद्देश्य प्रेम और ज्ञान को बचाना है तो अलक्षित वर्ण-व्यवस्था का प्रतिकार है। यह उपन्सास बताता है कि राजसत्ता, वर्णसत्ता और पितृसत्ता की खनक ने मीनाक्षी जैसी न जाने कितनी स्त्रियों के स्वप्न और प्रेम को चकनाचूर कर डाला है जिसको किसी इतिहास में दर्ज नही किया गया है। उपन्यास कथा के व्यौरे बड़े दिलचस्प हैं और भाषा में एक गज़ब की जीवतंता और रवानगी है।
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उपन्यास – राजनटनी (बारहवीं शताब्दी के बंग-राजा और मिथला की राजनटनी की अदभुत प्रेम-गाथा)
लेखिका – गीताश्री
प्रकाशक – राजपाल एण्ड सन्ज़
मूल्य -225
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