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प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’ के उपन्यास ‘सीगिरिया पुराण’ का अंश

प्रसिद्ध शायर प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’ का दूसरा उपन्यास आया है ‘सीगिरिया पुराण’, जो प्राचीन श्रीलंका की पृष्ठभूमि में लिखा एक ऐतिहासिक उपन्यास है। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित इस उपन्यास का एक अंश पढ़ते हैं-

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मदिरापान से उन्मत्त मिगार का एकालाप

अनुराधापुर / सन् 478 ई.

 धधकती हुई चिता जैसी है मेरे हृदय में प्रतिशोध की ज्वालाl माँ का भाई नहीं,  पिता के इस …स्साले धातुसेना को नहीं छोडूँगा, चाहे मेरे प्राण ही क्यों न चले जाएँl …अपने औरस से जनमे उत्तराधिकारी की कामना में न जाने कहाँ से उठा लाया उस वेद्दा दासी को!  नहीं तो इस भीरु-हृदय दासी पुत्र कश्यप के बदले मैं होता मामे का उत्तराधिकारीl … और अब तो उस डायन सुमनवल्लरी ने भी जन दिया एक कुलीन कुमार – आज्ञाकारी और सुशील होने का स्वांग करता वह धूर्त मोगल्लानl  घृणा करता हूँ मैं इन सबसे –  यह दो कौड़ी का राजा धातुसेना तो इस लायक़ भी नहीं कि अपने बल-बूते पर युद्ध के लिए पर्याप्त धन संग्रह कर सकेl हर तीन-चार महीने में भीख माँगने चला जाता है महाविहार!

…बेटी मुझ पर रीझ गई तो मैं, इसका सगा भागिन स्वीकार्य नहीं हुआ; केवल अयोग्य और दुराचारी ही नहीं कहा, मेरे पुरखों को भी घसीट लिया अपशब्दों के बीच! समझते थे मुझे कुछ पता ही नहीं चलेगा –  समागम के लिए छटपटाती संघा ने तो उसी दिन एक-एक शब्द बता दिया मुझेl  मेरे पिता ने इस राज्य की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी, फिर भी उनके पुरखों को गालियाँ!  …चैतन्य होते ही मेरी माँ ने बता दिया था कैसे इस ससुर ने मेरे पिता को अकेले तमिलों का सामना करने के लिए भेज दिया; स्वयं नहीं गया कायर!  और अब उस वीरगति-प्राप्त योद्धा की विधवा … अपनी बहन पर, ऐसा अत्याचार!

नहीं… बदला तो अवश्य लूँगा मैं – और बदला भी ऐसा जिसे लोग बरसों तक नहीं भूलेंगेl

        …हाँ, हाँ, मैं हूँ बुरा …बहुत बुरा हूँl मदिरा बहुत पसंद है मुझेl मैंने जानबूझ कर कश्यप को भी अपने रंग में रंग लिया है –  बहुत अधम रक्त है न मेरी धमनियों में … तो हूँ पापी  …अभी-अभी मदिरा की एक मटकी ख़ाली की है, दूसरी पर हूँl  …बहुत अच्छा लगता है मुझे उन्मत्त होकर वेश्यालयों में जाना;  नई-नई कुँवारी युवतियों का अपने नीचे कसमसाना … हाँ, बहुत नीच हूँ, दूषित वीर्य से उत्पन्न  … तो ये सब कौन से दूध के धुले हैं? …ये यक्कों, वेद्दाओं और आर्यों की मिश्रित संतानें!

     जैसा व्यभिचारी बाप वैसी ही बेटी! संघा चाहती थी कि मैं रात-रात भर केवल उसी से लिपटा,  उसकी कभी न बुझने वाली कामाग्नि को बुझाता रहूँl … क्यों करता मैं! …वह कहती,  मैं रात भर तड़पती रहती हूँ और तुम मदिरा से उन्मत्त यहाँ-वहाँ मुँह मारते फिरते हो … मैं कहता,  मैं तुम्हारा पति हूँ, दास नहीं, चुपचाप सो जाओ …नींद आ रही है मुझे l … सब सत तो वेश्यालय की नाली में बहा आए,  अब क्या खाकर मेरा ताप हरोगे! … हाँ, मुझे संघा के घमंड भरे तानों का जवाब अक्सर थप्पड़ से देना पड़ता – वह रो-रो कर मेरी नींद खराब करती रहती … मैंने सबसे लड़ कर तुम्हें प्रेम किया, तुमसे विवाह के लिए सबको छोड़ दिया … तो क्या मैं तुम्हारा क्रीत-दास हो गया कि जब चाहो, जितनी बार चाहो मैं तुम्हारी सेवा करता रहूँ?

 कलह का अंत न था हमारे बीचl

 पहले मुझे लगता था कि अपने प्यारे दासी पुत्र के मोह में धातुसेना कश्यप को युवराज बना देगाl एक बार वह राजा हो जाता और मैं सेनाध्यक्ष, फिर तो मेरा रास्ता आसान हो जाता – मैं उसे कठपुतली की तरह  नचाताl  किंतु सेनाध्यक्ष भी नहीं,  उप-सेना अध्यक्ष!  ऐसा घोर अपमान! चलो …वह भी सह लेता…

किंतु इस कमीने धातुसेना ने तो विधि-विधान की आड़ लेकर मेरी माँ को जीवित ही जला दिया! और उस पर से मुझे उसका साक्षी बनने को बाध्य कियाl  कितने घमंड से कहा – न्यायाधिकरण का आदेश है कि दंड उप-सेनाध्यक्ष की निगरानी में दिया जाए जैसे मुझे पता ही नहीं कि न्यायाधिकरण किसके इशारे पर चलता हैl …नहीं,  अब न इस नराधम को छोडूँगा, न संघा को, जिसके कारण यह कांड हुआl नाग-नागिनों के इस पूरे वंश को निर्मूल कर दूँगा मैं!

 आह ! …फिर भी आग की लपटों में चीत्कार करती हुई माँ के भस्म होने का वह दृश्य आजीवन न भूल पाऊँगाl

***

मदिरापान से मत्त कश्यप का एकालाप

 अनुराधापुर / सन् 478 ईसवी

 अब तक समझ नहीं पाया कि इस वैभवपूर्ण राज-प्रासाद में कौन मेरा मित्र है, और कौन शत्रु!  या वास्तव में मेरा कोई शुद्ध-हृदय शुभचिंतक है भी या नहींl

      मिगार समझता है मैं जानता नहीं कि वह मुझे कायर और दुर्बल मानता हैl  हमवयस हैं, साथ-साथ पले-बढ़े हैं –  मैं बुद्धिमान न सही लेकिन इतना मूर्ख भी नहीं कि यह न जान सकूँ कि अन्दर-अन्दर वह बचपन ही से मुझे कितना दीन-हीन समझता आया हैl  मुझे याद  है, हम दोनों पाँच-छः बरस के थे तो तलवारबाज़ी लकड़ी के तलवारों से सिखाई जाती थीl कभी-कभी मुझे लगता कि यदि प्रशिक्षक ध्यान लगाए देख न रहा होता तो मिगार तलवार मेरी पेट या छाती में भोंक देताl

एक विचित्र-सा संबंध रहा है हमदोनों के बीच – वह हमेशा मुझे अपने साथ रखना चाहता है किन्तु अपने अँगूठे के नीचेl  वैसे कहने को मित्र कहता है, और बहुधा दोहराता है –  किशु, देखना एक दिन तू राजा बनेगाऔर मैं अपने पिता की भाँति तेरा सेनाध्यक्ष; तेरे लिए अपने प्राण भी दे सकता हूँl  पर साथ ही साथ मुझे नीचा दिखाने का एक अवसर भी नहीं छोड़ता –  किसी खुसर-पुसर में एक बार दासी पुत्र सुनाई दे जाए तो रोष एवं सहानुभूति की आड़ में दस बार उसको दोहराताl  मैं उसकी दबंगई और दुष्कर्मों का सहभागी बनने में आनाकानी करता, तो ऐसी कड़वाहट से मुझे घूरता कि लगभग सम्मोहन की स्थिति में उसका कहा मानने पर विवश हो जाताl  तब वह शाबाशी देते हुए पीठ थपथपा कर कहता –  यह हुई न मित्रता!

मिगार की संगत में अब तो मैं भी ख़ूब दबा के पीने लगा हूँ, उसके साथ वेश्यालयओं में जाने लगा हूँl  उसकी निडरता और व्यसनों के प्रति एक अबूझ प्रशंसा-भाव और आत्मग्लानि दोनों एक साथ मेरे मन-मस्तिष्क को उद्वेलित किए रहते हैंl

    …उस युवती के सामूहिक बलात्कार व हत्या के बाद जब मैंने क्षुब्ध होकर कहा था –  तुम मेरे मित्र हो, इतना  क्रूर, जघन्य अपराध करोगे यह तो सोच भी नहीं सकता था,  तो वह अट्टहास करते हुए बोला –  अरे किशु,  कुछ सीख मुझसे;  राजा बनना है तुझे तो क्रूरता से क्या डरना!  वह तो करनी ही होगीl …मैं उसका मुँह देखता रह गया, कुछ समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दूँl उसी ने हँसते हुए कहा, ‘चल, चिन्ता न कर, अगली बार तुझे भी शिकार पर ले चलूँगाl’ उस दिन बड़ी घिन-सी आयी मुझे उससेl

      मित्र हो या शत्रु, मिगार के मस्तिष्क में कुछ विकार तो अवश्य है – संघा से प्रेमालाप के बारे में भी मुझसे कुछ नहीं छिपाताl  उल्टे विस्तार से बताता है कि कब, क्या कहा या किया दोनों ने एक दूसरे के साथ! अक्सर चिढ़ाता है …जल बिन मछली की तरह छटपटाती रहती है तेरी बहन मेरे लिए! …फिर एक दिन महल के एक निर्जन से खंड से निकलता हुआ मुझसे टकरा गयाl  मुझे देखते ही हँस पड़ा; बड़ी अभद्रता से कूल्हे का अग्रभाग मेरी ओर उचकाते हुए बोला  – ‘ले किशु, आज पूरी कर दी संघा की लालसा … बड़ी अद्भुत है रे वह तो,  चौदह की भी नहीं हुई पर कुवाँरी नहीं निकलीl  चल… उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता, अब तू मुझे अपना बहनोई होना तो निश्चित ही मानl  तेरे पिता भी सेनाध्यक्ष के साले हैं;  तू राजा बनेगा तो तू भी सेनाध्यक्ष का साला होगाl’  फिर बड़े भौंडेपन से दाँत निपोरे मेरे कंधे पर हाथ डालकर बोला, ‘चल कहीं बैठकर चैन से थोड़ी मदिरा पीते हैंl’

       संघा की कामुक उच्छृंखलताएँ किसी से छिपी नहीं है –  क्या कहता मैं! फिर भी मेरे नथुने फड़क उठे, जी में आया तड़ से पलट कर कहूँ, साले मिग्गू,  तुझे तो देख लूँगा, एक बार राजा तो बन लेने दे मुझे! किंतु बचपन से ही दासी पुत्र की हीन-ग्रंथि गले में ऐसे अटकी पड़ी है कि वही किशु कहता है मुझे, मैं उसे अब तक मिग्गू न कह पाया, न शायद आगे कभी कह पाऊँगा l

       पटरानी सुमनवल्लरी को बचपन से ही रानी माँ कहता आया हूँl अब तो यह भी पक्का नहीं कह सकता कि रानी माँ मेरी हितैषी हैं या केवल यश-कीर्ति के लिए स्नेह का ढोंग करती आई हैंl हालाँकि सोचता तो रहता हूँ कि इतने वर्षों तक ऐसा जीवन्त अभिनय कोई कैसे करता रह सकता है भला!

जब मेरी माँ का देहांत हुआ तब मैं बहुत छोटा थाl  उसके पहले से ही रानी माँ की गोद में बैठा रहता सारे-सारे दिन, वही मुझे खिलाती-पिलातीं लाड़-प्यार से लोरियाँ गा-गा कर सुलातींl मोगल्लान के जन्म के बाद भी उससे अधिक स्नेह उन्होंने मुझे दियाl

 अभी कुछ दिनों पहले तक रानी माँ को अपनी माँ ही मानता आया था; मेरी अपनी सगी माँ तो बस एक धुँधली-सी स्मृति भर हैं, जैसे रानी माँ की ही एक श्यामल अनुकृतिl कुछ बड़ा होने पर पहली बार जब दासी पुत्र की खुसर-पुसर सुनी, तब एक दिन मैंने उनसे पूछा –  ‘क्या मेरी माँ दासी थी … वह  कहाँ गई?’  रानी माँ अवाक्-सी कुछ देर मुझे देखती रहीं, फिर कड़क कर बोली –  ‘कौन कहता है? बताओ, उसे अभी कठोर दंड दूँगी …मेरे बच्चे, तुम्हारी माँ तो मैं हूँ l हाँ, जन्म तुम्हें एक अप्सरा ने दिया था और मुझे सौंप कर तथागत की शरण में चली गईl तुम लोगों की बातों पर ध्यान न देना कभी; मैंने महाराज को कह दिया है, तुम ज्येष्ठ पुत्र हो, उत्तराधिकारी तुम्हें ही बनाएँl’

        जब कुछ और बड़ा हुआ तो मैंने किसी से भी कुछ पूछना छोड़ दियाl मिगार ही बहुत था मुझे अपनी हीनता का स्मरण कराते रहने के लिए –  यह सब ढोंग है, देखना ये सब मिलकर युवराज तो मोगल्लान को ही बनाएँगे l पर मैं तुझे राजा बना कर ही रहूँगा, किशु !

     जिस दिन महाराज ने मोगल्लान को युवराज और मुझे सेनाध्यक्ष घोषित किया, मैं रानी माँ को प्रणाम करने गया थाl उनकी आँखों में पराजय की नमी थीl मुझे तब भी विश्वास था कि वह अभिनय नहीं कर रहीं –  मिगार झूठ बोल कर मुझ पर अपनी नकेल कसे रखना चाहता हैl किंतु उसके कुछ ही क्षणों बाद उन्होंने जो कुछ कहा, किया उससे मैं संशय में पड़ गयाl

‘तुम्हें … तुम्हें किसी बात का कष्ट नहीं होगा, कश्यप, यह ले जाओl’  उन्होंने पीछे मुड़कर काठ के एक संदूक की ओर इंगित किया, ‘यह तुम्हारी माँ की धरोहर है …स्वर्ण मुद्राएँ तथा आभूषणl समय आ गया है कि तुम्हें सौंप दूँ l’

          बिजली-सी कौंध गई मन में – निराशा की कोई चर्चा नहीं, कोई दिलासा नहीं, केवल एक पेटी स्वर्ण-आभूषण! मुझे किसी वस्तु की तरह ख़रीदा तो नहीं जा रहा कहीं, चुपचाप मोगल्लान को युवराज स्वीकार कर लेने का मूल्य दिया जा रहा है क्या? कहीं मिगार ठीक ही न कहता हो –  ये सब के सब स्वांग कर रहे हैंl  वास्तव में, दासी पुत्र तो दासी पुत्र ही रहेगाl … उस एक पल में रानी माँ के लिए मन में जो अगाध स्नेह था वह सहसा दरक-सा गयाl

         और तब, कुछ ही दिनों बाद हृदय को दहला देनेवाली वह घटना हुईl  मैं सोच भी नहीं सकता था कि सदा सौम्य और विनयशील दिखनेवाले मेरे पिता महाराज धातुसेना का हृदय भीतर से इतना क्रूर और नृशंस हो सकता हैl  इसमें संदेह नहीं कि संघा मरते-मरते बची थी किंतु किसने सोचा होगा कि उसके लिए वे इतनी चतुराई से षड्यंत्र रच कर अपनी बहन को ऐसा भयावह दंड दिलवाएँगेl किन्तु वह सब कुछ तो मेरी आँखों के सामने ही हुआ!an

         उस हृदय-विदारक  मृत्युदंड ने अंतिम रूप से मुझे मिगार के पाले में धकेल दियाl

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