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मीरां का कैननाइजेशन

मीरां के समय और समाज एकाग्र पुस्तक ‘पचरंग चोला पहर सखी री’ (2015) का प्रदीप त्रिखा द्वारा अनूदित अंग्रेज़ी संस्करण ‘मीरां वर्सेज़ मीरां’ वाणी बुक कंपनी, नयी दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। यहाँ इस पुस्तक के पाँचवें अध्याय ‘कैननाइजेशन’ का मूल हिन्दी पाठ दिया गया है। विद्वान आलोचक माधव हाड़ा का यह काम मीरां के जीवन और काव्य को देखने का एक नया नज़रिया देता है और इसके अंग्रेज़ी अनुवाद से यह किताब बड़े पाठक वर्ग में मीरां की रूढ़ छवि के बरक्स उसकी एक नई छवि को लेकर जाएगी। माधव हाड़ा आजकल इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी में फ़ेलो हैं और पद्मिनी पर शोध कर रहे हैं-

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इतिहास में मीरां की रहस्यवादी और रूमानी संत-भक्त और कवयित्री छवि का बीजारोपण उपनिवेशकाल में लेफ्टिनेंट कर्नल जेम्स टॉड ने किया। टॉड पश्चिमी भारत के राजपूताना की रियासतों में ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकारी और पोलिटिकल एजेंट था। इससे पहले तक मध्यकाल में प्रचलित तवारीख़, ख्यात, बही, वंशावली आदि पारंपरिक भारतीय इतिहास रूपों में मीरां का उल्लेख नहीं के बराबर था। अलबत्ता मध्यकालीन धार्मिक चरित्र-आख्यानों और लोक समाज की स्मृति में मीरां की मौजूदगी कई तरह से थी। मध्यकालीन धार्मिक चरित्र-आख्यानों में उसकी छवि एक असाधारण और अतिमानवीय लक्षणों वाली संत-भक्त स्त्री की थी, जब कि लोक उसे एक ऐसी स्त्री के रूप में जानता था, जो सामंती पद प्रतिष्ठा और वैभव छोड़कर भक्ति के मार्ग पर चल पड़ी है। मध्यकालीन सामंती समाज के कुछ हिस्सों में उसकी पहचान एक ऐसी स्त्री के रूप में भी थी, जिसके स्वेच्छाचार से कुल और वंश की मान-मर्यादा कलंकित हुई। उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में टॉड ने पहले अपने विख्यात इतिहास ग्रंथ एनल्स एंड एंक्टिविटीज़ ऑफ़ राजस्थान में और बाद में अपने यात्रा वृत्तांत ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इंडिया में मीरां का उल्लेख एक रहस्यवादी संत-भक्त और रूमानी कवयित्री के रूप में किया। यह एक तरह से मीरां का कैननाइजेशन था। मीरां की यह छवि यथार्थपरक और इतिहाससम्मत नहीं थी। इसमें उसके जागतिक अस्तित्व के संघर्ष और अनुभव को अनदेखा किया गया था, लेकिन टॉड के प्रभावशाली व्यक्तित्व और वैदुष्य ने इसे मान्य बना दिया। मीरां के इस छवि निर्माण में यूरोप के राजनीतिक और सैद्धांतिक हितों और राजपूताना के सामंतों और उनके अतीत के संबंध में टॉड के व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। उपनिवेशकाल और बाद में राजस्थान की मेवाड़ और मारवाड़ रियासतों में भी इतिहास लेखन के लिए विभाग क़ायम हुए और इनमें टॉड से प्रभावित-प्रेरित श्यामलदास, गौरीशंकर हीराचंद ओझा और मुंशी देवीप्रसाद जैसे देशी विद्वानों को इतिहास लेखन का ज़िम्मा दिया गया। ये लोग विद्वान थे, इन्होंने बहुत परिश्रमपूर्वक यह काम किया, लेकिन इनका नज़रिया उपनिवेशकालीन यूरोपीय इतिहासकारों से अलग नहीं था। ये उनसे बहुत गहराई तक प्रभावित थे, इसलिए इन्होंने टॉड द्वारा निर्मित मीरां की छवि में कुछ तथ्यात्मक भूलों को दुरुस्त करने के अलावा कोई रद्दोबदल नहीं किया।

1.

टॉड ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में नियुक्त ब्रिटिश अधिकारियों में से एक होकर भी कुछ मायनों में अलग था। अन्वेषण और संग्रह की नैसर्गिक प्रवृत्ति, यूरोपीय इतिहास और साहित्य की क्लासिकल परंपरा का ज्ञान, अपने कार्य क्षेत्र राजपूताना से गहरा लगाव आदि विशेषताओं के कारण उसको इनमें अलग पहचाना जा सकता है। उसका जन्म 20 मार्च, 1782 ई. को इस्लिंगटन में हुआ। उसने अपने पैतृक व्यापार के व्यवसाय को छोड़कर सैन्य जीवन अपनाने का निश्चय किया। उसे बहुत कम उम्र में ईस्ट इंडिया कंपनी में कैडेटशिप मिल गई। 1798 ई. में वह बूलविच रॉयल मिलिटरी एकेडमी में प्रशिक्षण के लिए भेजा गया। वहाँ से वह बंगाल आया, जहाँ 9 जनवरी, 1800 ई. को उसे दूसरी यूरोपीयन रेजिमेंट में कमीशन मिला। कुछ समय तक मोलक्का और मेराइन द्वीप पर रहने के बाद 29 मई, 1800 ई. को वह देशी पैदल फ़ौज की 14वीं रेजिमेंट में लेफ्टिनेंट नियुक्त हुआ। 1801 ई. में दिल्ली में नियुक्ति के दौरान उसे एक पुरानी नहर के सर्वेक्षण का महत्त्वपूर्ण दायित्व दिया गया। उसके चाचा का मित्र ग्रीम मर्सर 1805 ई. में जब दौलतराव सिंधिया के दरबार में रेजिडेंट होकर गया,  तो उसे भी अपने साथ ले गया। यहीं से उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण की शुरुआत हुई। उसने आगरा, जयपुर और उदयपुर के अब तक अज्ञात मार्गों की खोज और सर्वेक्षण का कार्य शुरू किया और अपने प्रयत्नों से इसे पूर्ण कर लिया। उसके इस कार्य की बहुत सराहना हुई। इस दौरान वह राजपूताना के भूगोल से भी अच्छी तरह परिचित हो गया। मर्सर के भारत छोड़ने के बाद सिंधिया के दरबार में जब रिचार्ड स्ट्रेची रेजिडेंट नियुक्त हुआ, तो टॉड की कैप्टन के रूप में पदोन्नति हुई। स्ट्रेची के दरबार छोड़ने के बाद उसे रेजिडेंट द्वितीय के सहायक का दायित्व दिया गया। इस दौरान उसने अपना अधिकांश समय सिंधु और बुंदेलखंड तथा यमुना और नर्मदा के बीच के प्रदेशों से संबद्ध भौगोलिक सामग्री एकत्र करने में लगाया। राजपूताना के संपर्क में वह इसी दौरान आया। उसने अपने इतिहास में इस दौरान राजपूताना में भय, आतंक और विनाश के माहौल का भावपूर्ण और चामत्कारिक भाषा में वर्णन किया है। मराठों ने यहाँ बहुत पहले से अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी और अब वे यहाँ के आंतरिक झगड़ों का लाभ उठाकर लूट-खसोट में लगे हुए थे। पिंडारियों और उनके संरक्षणकर्ता मराठों ने टिड्डी दल के तरह फैल कर लगभग संपूर्ण राजपूताना को उजाड़ में तब्दील कर दिया था। मेवाड़ की दुर्दशा के संबंध में उसने अपने इतिहास में लिखा कि “मेवाड़ बरबादी की ओर तेज़ी से बढ़ रहा था, सभ्यता का प्रत्येक चिह्न जल्दी से लुप्त होता जाता था, खेत पड़त पड़े थे, शहर बरबाद हो गए थे, प्रजा मारी-मारी फिर रही थी, ठाकुरों और जागीरदारों की नीयतें बिगड़ गई थीं और महाराणा व उसके परिवार को जीवन की साधारण से साधारण सुविधा भी सुलभ नहीं थी।”1 1817 ई. में मार्कुइस हेस्टिंग्ज़ के पिंडारियों को समाप्त करने के निर्णय से टॉड को पिंडारियों और उनके संरक्षणकर्ता मराठों के साथ युद्ध में संलग्न होना पड़ा। इस युद्ध में उसके भौगोलिक ज्ञान, दूरदर्शिता और सूझ-बूझ का कंपनी सरकार ने ख़ूब फ़ायदा उठाया।2 उसने इस सैन्य अभियान में निर्णायक भूमिका निभाई और सभी सैन्य कमांडरों से उसे सराहना पत्र मिले। राजपूताना पिंडारी-मराठा आतंककारियों से जब मुक्त हो गया तो यहाँ की लगभग सभी रियासतों ने 1817-18 ई. में कंपनी सरकार के साथ संधिया कर लीं। गवर्नर जनरल ने टॉड को इन सभी के लिए अपना राजनीतिक प्रतिनिधि नियुक्त किया। उदयपुर पहुँच कर टॉड ने पिंडारियों-मराठाओं द्वारा तहस-नहस कर दी गईं राजपूताना की रियासतों के पुनर्निमाण पर अपना ध्यान एकाग्र किया। उसकी पहल पर इन रियासतों में कई सुधार लागू किए गए। उसने 1819 ई. में जोधपुर और 1820 ई. में कोटा और बूंदी रियासतों की यात्राएँ कीं। राजपूताना के सामंतों से वह बहुत प्रभावित हुआ। यहाँ के ‘राजपूत अपने महान कार्यों से संसार के सामने आ जाएं’3 इसके लिए उसने उनका इतिहास लिखने का निर्णय किया। यहाँ रहकर उसने राजपूतों से संबंधित शिलालेख, ख्यात, बही, वंशावली, ताम्रपत्र, सिक्के आदि एकत्र किए। उसने यहाँ के चारण-भाटों और ब्राह्मणों से वृत्तांत-कथाएँ आदि सुने और उनको लिपिबद्ध किया। यहाँ के सामंतों से उसके रिश्ते बहुत आत्मीय हो गए थे। उसकी सामंतों से निकटता की जानकारी कंपनी सरकार को भी हुई और उच्चाधिकारी उस पर संदेह करने लगे। निरंतर परिश्रम और यात्राओं से उसका स्वास्थ्य भी बहुत बिगड़ गया था। अंततः जून, 1822 ई. में इस पद से त्यागपत्र देकर वह उदयपुर से विदा हुआ और गोगूंदा, रणकपुर, सिरोही, माउंट आबू, चंद्रावती, सिद्धपुर, पाटण, बड़ौदा, भावनगर, पालीताना, जूनागढ़, द्वारिका, सोमनाथ और कच्छ होता हुआ मुंबई गया। वहाँ से वह 1823 ई. में इंग्लैंड रवाना हो गया। यहाँ पहुँच कर उसने केन्द्रीय भारत और राजपूताना संबंधी अपनी अब तक एकत्र शोध सामग्री को व्यवस्थित कर उसका अध्ययन शुरू किया। पाँच-छह वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद उसने राजपूताना का पहला विस्तृत इतिहास एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान लिखा, जिसका पहला भाग 1829 ई. और दूसरा भाग 1832 ई. में प्रकाशित हुए। यह कार्य संपूर्ण कर लेने के बाद उसने अपनी अंतिम पश्चिमी भारतीय यात्रा का वृत्तांत लिखना शुरू किया। इसके प्रकाशन से पूर्व ही 1835 ई. में उसका आकस्मिक निधन हो गया। यह यात्रा वृत्तांत उसके मरणोपरांत ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इंडिया के नाम से 1839 ई. में प्रकाशित हुआ।

टॉड में अन्वेषण और संग्रह की नैसर्गिक प्रवृत्ति थी। उसने अपने इस स्वभाव के संबंध में एक जगह लिखा है कि “ये खोजबीन की बातें जो किसी निरुद्योगी पुरुष को यकायक थका देने वाली और भयावह प्रतीत होंगी, मेरे लिए राजकाज से अवकाश के समय मन बहलाव के सौदे बन जाती हैं।”4 उसने अपने कार्यकाल के दौरान यहाँ से कई शिलालेख, ताम्रपत्र, सिक्के, पांडुलिपियाँ आदि अपना धन व्यय करके एकत्र किए और वह इनको इकतालीस बक्सों में भर कर इंग्लैंड ले गया। अपना इतिहास ग्रंथ पूरा करने के बाद यह सामग्री उसने इंडिया हाऊस और रॉय़ल एशियाटिक सोसायटी मे जमा करा दी। टॉड को यूरोपीय इतिहास और क्लासिकल साहित्य का भी विस्तृत ज्ञान था। उसका जन्म फ्रांस की राज्य क्रांति से तत्काल पहले हुआ था, इसलिए वह मोंटेस्क्यू, ह्यूम, गिबन आदि के विचारों से प्रभावित था।5 कॉलरिज़ और वर्ड्सवर्थ की कविताएँ भी उसके मन-मष्तिष्क में थीं। वह रोम, ग्रीस, सीरिया, इजिप्ट आदि के इतिहास से भी बख़ूबी वाक़िफ़ था। उसने उसमें वर्णित आख्यानों, चरित्रों आदि की तुलना यहाँ से उपलब्ध ऐसी ही सामग्री से करने की कोशिश की। उसके व्यक्तित्व का सबसे उल्लेखनीय पहलू यह था कि उसे राजपूताना और यहाँ के सामंतों से गहरा लगाव था। वह उनमें घुल-मिल गया था। उसके सौहार्दपूर्ण व्यवहार और सहयोगात्मक रुख़ के कारण सामंतों का नज़रिया भी उसके प्रति स्नेह और सम्मान का था। इस कारण एक बार तो उसने यहीं बस जाने का विचार भी किया। राजपूताना के सामंतों के शौर्य, पराक्रम, त्याग आदि  से वह लगभग अभिभूत था। उसके अनुसार “नैतिकता के मूलभूत सौंदर्य के प्रति कोई भी मानव राजपूत के बराबर सजग नहीं है; और कदाचित् वह स्वभाववश अपने आप इसका पालन नहीं कर पाता है तो कोई भी अनुभवी सूत्र उसको मार्गदर्शन कराता रहता है।”6 राजपूताना में भी ख़ास तौर पर मेवाड़ के शासकों के बारे में उस की राय बहुत ऊंची थी। 1806 ई. में दौलतराव सिन्धिया के साथ एक युवा अधिकारी के रूप में जब वह मेवाड़ के महाराणा से मिला, तो उसकी शान और सद्व्यवहार ने उसी समय उसके मन में गहरी जगह बना ली थी।

2.

पवित्रात्मा संत-भक्त और असाधारण रहस्यवादी-रूमानी कवयित्री के रूप में मीरां के कैननाइजेशन और छवि निर्माण करने वाली टॉड की मीरां विषयक टिप्पणियां टॉड के ग्रंथों, एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान और ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इन वेस्टर्न इंडिया में आई हैं। टॉड के समय तक राजस्थान के इतिहास से संबंधित बहुत सारी सामग्री उपलब्ध नहीं थी। रासो, ख्यात, वंशावली आदि कुछ उपलब्ध ग्रंथों का सहयोग लेने के अलावा टॉड ने भाट, चारण, यति, ब्राह्मण आदि लोगों से सुन-सुन कर ही अपना इतिहास लिखा था। मीरां का उल्लेख मेवाड़ की किसी भी ख्यात, बही, वंशावली आदि में नहीं था, इसलिए टॉड को इसके लिए धार्मिक चरित्र-आख्यानों और जनश्रुतियों पर ही निर्भर रहना पड़ा होगा। यही कारण है कि मीरां विषयक उसकी टिप्पणियों में तथ्यात्मक भूलें रह गई हैं। उसने अपने इतिहास में मीरां को राणा कुंभा (1433 ई.) की पत्नी लिखा है, जबकि यात्रा वृत्तांत में वह उसे राणा लाखा (1382 ई.) की पत्नी बताता है। इस संबंध में वह गहरी उलझन में था। उसने अपने इतिहास में इस उल्लेख से संबंधित पाद टिप्पणी में यह लिखा कि यह ग़लत भी हो सकता, क्योंकि मेवाड़ का इतिहास अभी अनिश्चित है। परवर्ती इतिहासकारों ने नवीन शोधों के आधार पर यह स्पष्ट किया कि मीरां राठौड़वंशी राव जोधा के मेड़ता के संस्थापक पुत्र राव दूदा के चौथे पुत्र रत्नसिंह की पुत्री थी, जिसका विवाह राणा सांगा (1482-1528 ई.) के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ था। टॉड की ये टिप्पणियाँ मीरां के जन्म, विवाह आदि की तथ्यात्मक जानकारियों के लिए तो उपयोगी नहीं है, लेकिन इनका इतर महत्त्व बहुत है। इनसे इतिहास में मीरां की प्रतिष्ठा एक असाधारण संत-भक्त और रूमानी और रहस्यवादी कवयित्री के रूप में हो गई। टॉड के इतिहास के पहले भाग के मेवाड़ का इतिहास अध्याय में मीरां विषयक टिप्पणी इस प्रकार है:

“कुंभा ने मारवाड़ के श्रेष्ठतम में से एक, मेड़ता के राठौड़ कुल की पुत्री से विवाह किया। मीरांबाई सौंदर्य और रूमानी भक्ति की दृष्टि से अपने समय की सर्वाधिक यशस्वी राजकुमारी थी। उसके द्वारा रचित पद फक्कड़ चारणों की तुलना में कृष्ण भक्तों में अधिक प्रचलित हैं। कृष्ण को संबोधित और उसकी स्तुति में रचित उसके कुछ पद सुरक्षित हैं तथा सराहे जाते हैं। हम यह निश्चपूर्वक नहीं कह सकते कि मीरां ने अपने पति से काव्यात्मक भक्ति प्राप्त की या उनके पति ने उनसे वह अनुभूति प्राप्त की, जिससे वह गीत गोविंद और उत्तर कथा  रच सके। मीरां का इतिहास एक प्रेमाख्यान है और यमुना से लेकर दुनिया के छोर (द्वारिका) तक पूरे भारत में हर मंदिर में उसके आराध्य के प्रति भक्ति की अतिशयता ने अनेक प्रवादों को जन्म दिया।”7

मीरां विषयक टॉड की दूसरी टिप्पणी उसके यात्रा वृत्तांत ट्रेल्वस इन वेस्टर्न इंडिया में है। इस वृत्तांत के बीसवें प्रकरण में वेरावल, आरमरा, गुरेजा, बेट, समुद्री लुटेरों के दुर्ग, विष्णु मंदिर सहित मीरां निर्मित कृष्ण मंदिर का वर्णन आते हैं। टॉड यहाँ भक्त और कवयित्री राजपूत रानी मीरां संबंधी अपनी धारणाएँ इस प्रकार रखता है:

“परन्तु जो देवालय मेरे लिए सबसे अधिक आकर्षण की वस्तु सिद्ध हुआ, वह था मेरी भूमि मेवाड़ की रानी लाखा की स्त्री सुप्रसिद्ध मीरांबाई का बनवाया हुआ सौरसेन के गोपाल देवता का मंदिर, जिसमें वह नौ (आठ पटरानियाँ और नवीं मीरांबाई) का प्रेमी अपने मूल स्वरूप में विराजमान था, और निस्संदेह यह राजपूत रानी उसकी सबसे बड़ी भक्त थी। कहते हैं कि उसके कवित्वमय उदगारों से किसी भी समकालीन भाट (कवि) की कविता बराबरी नहीं कर सकती थी। यह भी कल्पना की जाती है कि यदि गीत गोविंद या कन्हैया के विषय में लिखे गए गीतों की टीका की जाए तो ये भजन जयदेव की मूल कृति की टक्कर के सिद्ध होंगे। उसके और अन्य लोगों के बनाए भजन, जो उसके उत्कृष्ट भगवत् प्रेम के विषय में अब तक प्रचलित हैं, इतने भावपूर्ण और वासनात्मक (Sypphi) हैं कि संभवत: अपर गीत उसकी प्रसिद्धि के प्रतिस्पर्धी वंशानुगत गीत पुत्रों के ईर्ष्यापूर्ण आविष्कार हों, जो किसी महान कलंक का विषय बनने के लिए रचे गए हों। परन्तु यह तथ्य प्रमाणित है कि उसने सब पद प्रतिष्ठा छोड़कर उन सभी तीर्थ स्थानों की यात्रा में जीवन बिताया जहाँ मंदिरों में विष्णु के विग्रह विराजमान थे और वह अपने देवता की मूर्ति के सामने रहस्यमय रासमंडल की एक स्वर्गीय अप्सरा के रूप में नृत्य किया करती थी इसलिए लोगों को बदनामी करने का कुछ कारण मिल जाता था। उसके पति और राजा ने भी उसके प्रति कभी कोई ईर्ष्या अथवा संदेह व्यक्त नहीं किया यद्यपि एक बार ऐसे भक्ति के भावावेश में मुरलीधर ने सिंहासन से उत्तर पर अपनी भक्त का आलिंगन भी किया था। इन सब बातों से अनुमान किया जा सकता है कि (मीरां के प्रति संदेह करने का) कोई उचित कारण नहीं था।”8

इस तरह कुल मिलाकर टॉड ने मीरां के संबंध में धारणा बनाई कि (1) असाधारण सौंदर्य और रूमानी भक्ति के कारण वह अपने समय की सर्वाधिक यशस्वी राजकुमारी थी, (2) उसका इतिहास एक प्रेमाख्यान है, (3) वह उत्कृष्ट कोटि की कवयित्री थी और उसकी कविता जनसाधारण में लोकप्रिय थी, (4) उसने पद-प्रतिष्ठा छोड़ कर कृष्ण के मंदिरों की यात्राएँ कीं, (5) अतिशय भक्ति, नृत्य और देशाटन के कारण समाज में उसके संबंध में कुछ लोकावाद भी चले और (6) उसके पति और राणा ने उस पर कभी संदेह नहीं किया। जाहिर है, टॉड ने मीरां के जागतिक स्त्री अस्तित्व के संघर्ष और अनुभव से जाने-अनजाने परहेज करते हुए अपने संस्कार, रुचि और ज़रूरत के अनुसार उसका एक अमूर्त रहस्यवादी और रूमानी संत-भक्त और कवयित्री रूप गढ़ दिया।

जेम्स टॉड के इस कैननाइजेशन के दूरगामी नतीज़े निकले। राजवंशों के ख्यात, बही, वंशावली आदि पारंपरिक इतिहास रूपों में लगभग बहिष्कृत मीरां को अब राज्याश्रय में लिखे जाने वाले इतिहासों में भी जगह मिलने लगी। श्यामलदास ने मेवाड़ के राज्याश्रय में 1886 ई. में लिखे गए अपने इतिहास वीर विनोद (मेवाड़ का इतिहास) में मीरां का उल्लेख बहुत सम्मानपूर्वक किया है। उन्होंने मीरां के राणा कुम्भा से विवाह की कर्नल टॉड की तथ्यात्मक भूल को दुरुस्त करते हुए लिखा कि “मीरांबाई बड़ी धार्मिक और साधु-संतों का सम्मान करने वाली थी। यह विराग के गीत बनाती और गाती, इससे उनका नाम बड़ा प्रसिद्ध है।”9 स्पष्ट है कि मीरां का यह रूप कर्नल टॉड की मीरां संबंधी कैननाइजेशन से प्रभावित है और इसमें भक्ति और वैराग्य को ख़ास महत्त्व दिया गया है। अलबत्ता श्यामलदास ने पाद टिप्पणी में यह उल्लेख ज़रूर किया है कि “मीरां महाराणा विक्रमादित्य व उदयसिंह के समय तक जीती रही, और महाराणा ने उसको जो दुःख दिया, वह उसकी कविता से स्पष्ट है।”10 श्यामलदास का वीर विनोद मेवाड़ के समग्र इतिहास पर एकाग्र था और उसमें मीरां विषयक केवल कुछ पंक्तियाँ और पाद टिप्पणियाँ  ही थीं। वीर विनोद के प्रकाशन के कुछ वर्षों बाद ही 1898 ई. में जोधपुर रियासत के मुहकमें तवारीख़ (इतिहास विभाग) से संबद्ध मुंशी देवीप्रसाद ने एक पुस्तकाकार विनिबंध मीरां का जीवन चरित्र लिखा। उन्होंने और भी कई इतिहास पुरुषों पर भी इसी तरह के शोधपूण विनिबन्ध लिखे। मुंशी देवीप्रसाद ने दावा किया कि उनकी जानकारियाँ भक्तमालों और कर्नल टॉड कृत इतिहास से ज़्यादा सही और प्रामाणिक हैं। उनके अनुसार मध्यकालीन ग्रंथो की मीरां विषयक जानकारियाँ ‘तवारीख़ी सबूत और तवारीख़ी दुनिया से बहुत दूर’ और ‘अटकलपच्छू और सुनी-सुनाई बातों’ पर आधारित हैं।11 मीरां  के जीवन से जुड़ी कुछ बहु प्रचारित घटनाओं; जैसे अकबर और तानसेन की मीरां से भेंट और मीरां का तुलसीदास से पत्राचार को मुंशी देवीप्रसाद ने ‘भोले-भाले भक्तों की मीठी गप्पें’ कहा।12 उनके अनुसार “भक्तों ने मीरंबाई के सलूक और अहसानों का बदला ऐसी-ऐसी मनोरंजन कथाओं के फैलाने से दिया।”13 इस विनिबन्ध से मीरां के पति, पिता ससुर, जन्म, विवाह आदि से जुड़ी कुछ भ्रांतियों का निराकरण हुआ। उसके पीहर के राठौड़ और ससुराल के सिसोदिया वंश के संबंध में कुछ नई जानकारियाँ सामने आईं। मुशी देवीप्रसाद ने दावा तो यह किया था कि वे मीरां विषयक वर्णन में भक्तमाल और कर्नल टॉड से ‘ज़्यादा सही‘ हैं, लेकिन यथार्थ में ऐसा था नहीं। उनके इस विनिबंध ने भी मीरां के संत-भक्त रूप को ही पुष्ट और विस्तृत किया। उन्होंने भी सहारा तथ्यों के बजाय जनश्रुतियों का ही लिया। इतिहास पर निर्भर रहने के दावे के बावजूद उनकी कुछ सीमाएँ थीं। एक तो वे सामंतों के यहाँ आश्रित थे, इसलिए उनके अतीत के संबध में कोई अप्रसन्नकारी टिप्पणी करने का साहस उनमें नहीं था और दूसरे, मीरां संबधी अपनी अधिकांश जानकारियाँ उन्होंने श्यामलदास और इतिहासकार गौरीशंकर ओझा से पत्राचार कर जुटाई थीं14, जिनका नज़रिया सामंती अतीत से अभिभूत कर्नल टॉड से प्रभावित था। मुंशी देवीप्रसाद ने अपने इस निबंध में मीरां से संबंधित कुछ घटनाओं को गप्पें कहकर खरिज कर दिया, लेकिन दूसरी तरफ उससे संबंधित कुछ अपुष्ट संकेतों को बढा-चढ़ा कर इसमें शामिल भी कर लिया। उनके द्वारा अतिरंजित ये संकेत इस प्रकार हैं:

  1. “मीरांबाई को भी बचपन से ही गिरिधरलाल जी का इष्ट हो गया था और वे उनकी मुरति से दिल लगा बैठी थीं और ससुराल में गई जब भी उसको अपने साथ इष्टदेव की तरह ले गई थीं और अब जो विधवा हुईं तो रात-दिन उसी मूरति की सेवा पूजा जी जान से करने लगीं।”15
  2. (पति भोजराज की मृत्यु के बाद) “मीरांबाई ने इस तरह ठीक तरुणावस्था से संसार के सुखों से शून्य हो कर अपनी बदक़िस्मती का कुछ ज़्यादा संताप और विलाप नहीं किया, बल्कि परलोक के दिव्यभोग और विलासों की प्राप्ति के लिए भगवत् भगति में एकचित्त रत होकर इस असार संसार को स्वप्न तदवत संपति का ध्यान एकदम से छोड़ दिया।”16
  3. (चितौड़ से लौटकर) “मीरांबाई का क्या परिणाम हुआ यह तवरीख़ी वृत्तांत की तरह तो कुछ मालूम नहीं लेकिन भगत लोग ऐसा कहते हैं कि वे द्वारिका जी के दर्शन करने को गईं थीं, वहाँ एक दिन ब्राह्मणों के धरना देने से जिन्हें राणा ने उनको लौटा लाने के वास्ते भेजा था, यह पद गाया- मीरां के प्रभु मिल बिछड़न नहीं कीजे– और रणछोड़ जी की मूरति में समा गई।”17

मीरां विषयक इन उल्लेखों का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं था। मुंशी देवीप्रसाद इनकी पुष्टि केवल ‘ऐसा कहते हैं’ से करते हैं। इस तरह कमोबेश वे भी उन्हीं जनश्रुतियों का सहारा लेते हैं, जिनको पहले वे ‘अटकलपच्छू और सुनी-सुनाई बातें’ कहकर ख़ारिज कर देते हैं। स्पष्ट है कि ऐतिहासिक होने के दावे के साथ प्रस्तुत इन अनैतिहासिक जानकारियों से मीरां के संत-भक्त रूप के विस्तार और पुष्टि में ही मदद मिली। सत्ता के साथ मीरां के तनावपूर्ण संबंधों पर भी मुंशी देवीप्रसाद कोई नई रोशनी नहीं डालते। इस संबंध में वे भी टॉड की तरह दोष मीरां के साधु-संतों से अत्यधिक मेलजोल को देते हैं। वे लिखते हैं कि “राणाजी ने मीरांबाई को तक़लीफ़ दी, क्योंकि उनकी भगति देखकर साधु-संत उनके पास बहुत आया करते थे। यह बात राणा जी को बुरी लगती थी और ये बदनामी के ख़याल से उन लोगों का आना-जाना रोकने के वास्ते मीरांबाई के ऊपर सख़्ती किया करते थे।”18

मेवाड़ के इतिहास कार्यालय के मंत्री गौरीशंकर हीराचंद ओझा भी 1928 ई. में मेवाड़ के राज्याश्रय में लिखे गए अपने उदयपुर राज्य के इतिहास में टॉड की धारणा को ही दोहराते हैं। मीरां की लोकप्रियता का उल्लेख जेम्स टॉड ने भी किया था और लगभग इसे ही दोहराते हुए ओझा लिखते हैं कि “हिन्दुस्तान में बिरला ही ऐसा गाँव होगा जहाँ भगवद् भक्त हिंदू स्त्रियाँ या पुरुष मीरांबाई के नाम से परिचित न हों और बिरला ही ऐसा मंदिर होगा जहाँ उनके बनाए भजन न गाए जाते हों।”19 ओझा मेवाड़ राजवंश की मीरां से नाराज़गी की बात तो स्वीकार करते हैं, लेकिन वे भी कर्नल टॉड, श्यामलदास और मुंशी देवीप्रसाद की तरह इसके लिए दोष मीरां के संत-भक्तों से अत्याधिक मेलजोल को देते हैं। वे लिखते हैं कि “मीरांबाई के भजनों की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी और सुदूर स्थानों से साधु-संत उससे मिलने आया करते थे। इसी कारण विक्रमादित्य उससे अप्रसन्न रहता था और उसको तरह-तरह की तक़लीफ़ें देता था।”20 उन्नीसवीं सदी में टॉड और उनके अनुकरण पर श्यामलदास और मुंशी देवीप्रसाद और बीसवीं सदी के आरंभ में गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इतिहास में मीरां की जो लोकप्रिय संत-भक्त स्त्री छवि निर्मित की, कालांतर में साहित्य सहित दूसरे प्रचार माध्यमों में यही छवि चल निकली।

4.

मीरां की असाधारण और पवित्रात्मा स्त्री संत-भक्त और रूमानी-रहस्यवादी कवयित्री छवि के निर्माण में जाने-अनजाने टॉड के भारतीय इतिहास विषयक ख़ास यूरोपीय नज़रिये और तत्कालीन राजपूताना के मेवाड़-मारवाड़ के सामंतों के संबंध में उसके वैयक्तिक पूर्वाग्रहों की निर्णायक और महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय इतिहास और समाज को जानने-समझने के उपक्रम उन्नीसवीं सदी के आरंभ में यूरोपीयन विद्वानों ने शुरू किए। इन विद्वानों में से अधिकांश ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत के विभिन्न भूभागों ऊँचे पदों पर नियुक्त अधिकारी थे, जिन्होंने अपने अधीनस्थ क्षेत्रों को अच्छी तरह से जानने-समझने के लिए के वहाँ के इतिहास, समाज, धर्म, कानून आदि का विस्तृत अध्ययन किया। इसी दौरान यूरोपीय विश्वविद्यालयों में भी भारतीय इतिहास, समाज और संस्कृति के अन्वेषण की शुरूआत हुई। उन्नीसवीं सदी में हुए इन विभिन्न अध्ययनों की विश्लेषण विधियों को अमर्त्य सेन ने विदेश प्रेमी, दंडाधिकारी और संग्रहाध्यक्षीय नाम से वर्गीकृत किया है।21 विदेश प्रेमी विश्लेषण विधि में ज़ोर भारत की अलग और विस्मयकारी गैर भौतिक बातों पर था। इसके अंतर्गत आने वाले फ्रीडरिख, श्लेगल, शेलिंग आदि विद्वानों ने यूरोप में भारत की अद्भुत और विस्मयकारी धार्मिक-आध्यात्मिक तस्वीर पेश की। दंडाधिकारी विश्लेषण विधि में यूरोपीय विद्वानों ने अपना अधीनस्थ और शासित क्षेत्र मानकर श्रेष्ठता और स्वामित्व के भाव से भारत को समझा और परखा। जेम्स मिल जैसे विद्वान इस विश्लेषण विधि से इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारत एक आदिम और असभ्य देश है, इसलिए इस पर ब्रिटिश साम्राज्य की सुधारवादी और उदारमना छत्रछाया अपेक्षित है। संग्रहाध्यक्षीय विश्लेषण विधि में बौद्धिक जिज्ञासा के तहत भारतीय इतिहास, समाज और संस्कृति को देख-समझकर उसके विश्लेषण और ‘प्रदर्शन’ पर बल दिया गया था। इस विधि में विदेश प्रेमी विश्लेषण विधि की तरह केवल अद्भुत और असाधारण का आग्रह नहीं था और यह दंडाधिकारी विश्लेषण विधि की तरह अधीनस्थ क्षेत्र की प्रशासनिक ज़रूरतों से भी प्रेरित नहीं थी, इसलिए अपेक्षाकृत निष्पक्ष थी। टॉड राजपूताना के इतिहास और समाज को जानने-समझने के लिए बौद्धिक जिज्ञासा के कारण ही आकृष्ट हुआ था, उसका नज़रिया  भी यहाँ से गहरे लगाव और सहानुभूति का था इसलिए उसकी विश्लेषण विधि को संग्रहाध्यक्षीय के अंतर्गत ही रखा जाएगा। इस विधि के अंतर्गत आने वाले विलियम जोन्स, थामस कोलब्रुक आदि अन्य विद्वानों की तुलना में यहाँ के संबंध में टॉड की धारणाएँ और निष्कर्ष कई बार ज़्यादा युक्तिसंगत थे। इनमें से कुछ धारणाएँ बाद में भारतीय शोधों से भी सही साबित हुई हैं। उन्नीसवीं सदी के आरंभ में उसने अपने राजपूताना विषयक शोध कार्यों से सिद्ध किया कि भारतीय अनैतिहासिक नहीं है और उनके पास अपने इतिहास से संबंधित पर्याप्त सामग्री है, जबकि उसके समकालीन अधिकांश यूरोपीय इतिहासकार मानते थे कि भारतीयों की अपना इतिहास लिखने में कभी दिलचस्पी नहीं रही। उसने एक जगह लिखा है कि “कुछ लोग आँख मींच कर यह मान बैठे हैं कि हिंदुओं के पास ऐतिहासिक ग्रंथों जैसी कोई चीज़ नहीं है।….मैं फिर कहूँगा कि इस प्रकार के अर्थहीन अनुमान लगाने में प्रवृत्त होने से पहिले हमें जैसलमेर और अणहिलवाड़ा (पाटण) के जैन ग्रंथ भंडारों और राजपूताना के राजाओं और ठिकानेदारों के अनेक निजी संग्रहों का अवलोकन का लेना चाहिए।”22 अन्य अधिकांश यूरोपीय इतिहासकारों से भिन्न टॉड की यह भी धारणा थी कि भारतीय सामंत प्रथा ठीक वैसी ही है जैसी यूरोप में पाई जाती थी। यूरोपीय इतिहासकार मानते थे कि भारत में भूमि का स्वामी राजा होता है, जबकि टॉड का निष्कर्ष इससे एकदम अलग था। उसके अनुसार राजस्थान में रैयत अथवा किसान ही भूमि का असली मालिक होता है।23 बाद में रोमिला थापर आदि भारतीय इतिहासकार भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे।24 टॉड की संग्रहाध्यक्षीय विश्लेषण विधि कुछ हद तक युक्तिसंगत और निष्पक्ष थी, लेकिन यह विदेश प्रेमी और दंडाधिकारी व्याख्याओं से पूरी तरह अप्रभावित नहीं रह पाई। यह बात टॉड सहित सभी संग्रहाध्यक्षीय विश्लेषणों पर लागू होती है। अमर्त्य सेन के शब्दों में “ये विश्लेषण पूरी तरह निष्पक्ष नहीं रह पाए, उनमें किसी न किसी तरह के रुझान अवश्य प्रभावी हुए।”25 विदेश प्रेमी विश्लेषकों की तरह कुछ हद तक टॉड का आग्रह भी यहाँ के ‘परम अद्भुत’26, धार्मिक-आध्यात्मिक, रहस्यमय और गैरभौतिक के प्रति ज़्यादा है। इसी तरह दंडाधिकारी विश्लेषकों की तरह टॉड भी यूरोपीय जाति को भारतीयों से श्रेष्ठ मानता था। कवि चंदरबरदाई के काव्यानुवाद से संबंधित एक हस्तलिखित टिप्पणी में उसने लिखा कि “मैंने इन लोगों के साथ हिलमिल कर इनकी भावनाओं को ग्रहण किया, यद्यपि उत्तमता में ये हमारी श्रेणी तक नहीं पहुँच सकते, परंतु यह ज्ञात कर लिया जाए कि अत्याचार और दमन से पूर्व ये कैसे रहे होंगे तो ग्राह्य प्रतीत होंगे।”27

मीरां के छवि निर्माण में टॉड का नज़रिया जाने-अनजाने विदेशी प्रेमी और दंडाधिकारी रुझानों से प्रभावित रहा है। टॉड मीरां के भौतिक स्त्री अस्तित्व के जागतिक संघर्ष और अनुभव से अपरिचित नहीं था। सत्ता से मीरां के कटु और तनावपूर्ण संबंध की जानकारी भी उसको धार्मिक-सांप्रदायिक चरित्र-आख्यानों और जनश्रुतियों के माध्यम से थी। उसकी मीरां विषयक दोनों टिप्पणियों में इसके संकेत विद्यमान हैं। पहली में वह लिखता है कि “भक्ति की अतिशयता ने उसके संबंध में अनेक प्रवादों को जन्म दिया।”28 दूसरी में वह लिखता है कि “वह अपने देवता की मूर्ति के सामने रहस्यमय रासमंडल की अप्सरा की तरह नृत्य किया करती थी इसलिए लोगों को कुछ बदनामी करने का कुछ कारण मिल जाता था। इसी टिप्पणी में वह आगे लिखता है कि “(मीरां के प्रति संदेह करने का) कोई उचित कारण नहीं था।”29 टॉड मीरां के जागतिक सरोकार और संघर्ष के इन संकेतों को विस्तृत नहीं करता। वह विदेश प्रेमी व्याख्याओं के प्रभाव में उसके व्यक्तित्व से संबद्ध गैर भौतिक, रोमांटिक और धार्मिक-आध्यात्मिक संकेतों को आधार बनाकर अपनी कल्पनाशीलता से उसकी सर्वथा नयी और असाधारण छवि गढ़ता है। संग्रहाध्यक्षीय विश्लेषण विधि दंडाधिकारी विश्लेषण विधि से अलग थी, लेकिन उससे एकदम अछूती नहीं थी। अनजाने ही मीरां की यह गैरभौतिक, रहस्यवादी और रूमानी छवि गढ़ने में टॉड इससे भी प्रभावित हुआ। दंडाधिकारी विश्लेषण भारतीय समाज को गतानुगतिक और अपरिवर्तनशील मानकर यहाँ पर ब्रिटिश साम्राज्य की उपयोगिता का तर्क देते थे। यह धारणा सही नहीं थी। दरअसल यहाँ जब भी वर्चस्ववादी ताकतों का ज़ोर बढ़ा तो उनके विरुद्ध प्रतिरोध के स्वर भी मुखर हुए हैं। मध्यकालीन सामंती और पितृसत्तात्मक विचारधारा के अधीन अपने लैंगिक दमन ओर शोषण के विरुद्ध मीरां का आजीवन संघर्ष यहाँ की निरंतर सामाजिक गतिशीलता और द्वंद्व का ही एक रूप था, लेकिन दंडाधिकारी रूझान के प्रभाव में टॉड ने जाने-अनजाने इसकी अनदेखी की।

मीरां के छवि निर्माण में राजपूताना और यहाँ के सामंतों के संबंध में टॉड के वैयक्तिक पूर्वाग्रहों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। टॉड की राजपूताना के सामंतों से अंतरंगता थी और वह उनमें घुलमिल गया था। वह यहाँ के सामंतों को ‘अपने राजपूत’30 और मेवाड़ को ‘मेरी भूमि’31 कहता था। पोलिटिकल एजेंट के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान मिले अपार स्नेह और सम्मान के कारण यहाँ के सामंतों के प्रति उसके मन में गहरी कृतज्ञता थी। उसके इतिहास ग्रंथ के संपादक विलियम क्रूक के शब्दों में “वह राजस्थान के राजपूत राजाओं और उनमें भी ख़ास तौर पर मेवाड़-मारवाड़ का कुख्यात पक्षधर था।”32 वह यहाँ के सामंतों के शौर्य, पराक्रम, त्याग और निष्ठा से लगभग अभिभूत था। अपने इतिहास ग्रंथ की भूमिका में उनके संबंध में उसने एक जगह लिखा कि “अनेक शताब्दियों तक एक वीर जाति का अपनी स्वतंत्रता के लिए लगातार युद्ध करते रहना, अपने पूर्वजों के सिद्धांतों की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करना और अपनी मान-मर्यादा के लिए बलिदान हो जाने की भावना रखना, मनुष्य के जीवन की ऐसी अवस्था है, जिसको देखकर और सुनकर शरीर में रोमांच हो जाता है।”33 मीरां मारवाड़ की बेटी और मेवाड़ की बहु थी और उसका स्वेच्छाचार और विद्रोही तेवर इन दोनों राजवंशों के लिए निरंतर चुमने वाली कील की तरह असुविधा बन गया था। मीरां जनसाधारण में लोकप्रिय थी, इसलिए टॉड उसकी अनदेखी तो नहीं कर पाया, लेकिन उसने उसकी छवि इस तरह से गढ़ी कि सामंतों को असुविधा लगने वाली उसकी चारित्रिक विशेषताएं गौण होकर ध्यानाकर्षक नहीं रह गईं। उसने मीरां के संपूर्ण जीवन को एक रूमानी और रहस्यमय प्रेमाख्यान में बदल दिया। मीरां सामंती इतिहास और स्मृति में अब तक वर्जित थी, लेकिन उसका यह रूप अब इनमें स्वीकार्य हो गया। इतिहास और मीरां की कविता में इस बात के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि मीरां तत्कालीन सत्ता की कोप भाजन रही और उसे बार-बार प्रताड़ित भी किया गया लेकिन टॉड इसके लिए सामंतों पर दोषारोपण करने से साफ़ बच गया। उसने अपने यात्रा वृत्तांत में किंतु-परंतु के साथ यह लिखा कि “उसके पति और राजा ने भी उसके प्रति कभी कोई ईर्ष्या अथवा संदेह व्यक्त नहीं किया यद्यपि एक बार ऐसे भक्ति के भावावंश में मुरलीधर ने सिंहासन से उतरकर अपनी भक्त का आलिंगन भी किया था- इन सब बातों से अनुमान किया जा सकता है कि (मीरां के प्रति संदेह करने का) कोई कारण नहीं था।”34 टॉड ने यह तो स्वीकार किया कि समाज में मीरां के संबंध में लोकापवाद प्रचलित थे, लेकिन उसने इसके लिए दोषी सामंतों को नहीं माना। उसने इसकी ज़िम्मेदारी भी मीरां की भक्ति और देशाटन की अतिशयता पर डाल दी।

मीरां के विद्रोही तेवर की टॉड द्वारा की गई अनदेखी का एक कारण और था। दरअसल टॉड के मन में राजपूत स्त्री की जो छवि थी वो यथार्थ के बजाय चारण-भाटों के अंतिरंजनापूर्ण वृत्तांतों पर आधारित थी। राजपूताना के इतिहास में उसका सामना ऐसी स्त्रियों से हुआ था, जो अपने पति के प्रति निष्ठावान, समर्पित और अपने कुल-वंश के मान-सम्मान के लिए त्याग और बलिदान करनेवाली थीं। इन स्त्रियों ने अपने पिता या पति की मान-मर्यादा की रक्षा के लिए अवसर आने पर सती होना, जोहर करना या जहर पीना स्वीकार किया था। टॉड ने अपने इतिहास में राजपूत स्त्री की जमकर सराहना की है। उसने उसका वर्णन एक सच्चरित्र, स्नेहशील, समर्पित, घर-परिवार के निर्णयों में भागीदारी करने वाली, युद्ध और संकट में अपने पति का साथ देने वाली और कायर पति को प्रताड़ित करने वाली स्त्री के रूप में किया है।35 चारण-भाटों के वृत्तांतों के अलावा राजपूत स्त्री की यह छवि टॉड के मन में मेवाड़ की राजकुमारी कृष्णा के अमानुषिक बलिदान से मजबूत हुई, जिसका 1806 ई. में एक युवा अंग्रेज़ अधिकारी के रूप में वह स्वयं साक्षी था।36 आदर्श राजपूत स्त्री की यह छवि उसके मन में इतनी गहरी और मजबूत थी कि उसने अपने समय की राजपूत स्त्रियों की असली हैसियत और हालत के तमाम विवरणों को नज़रअंदाज़ कर दिया। पितृसत्तात्मक विधि निषेधों के अधीन उनका शोषण और दमन आम था, बहु विवाह के कारण वे औपचारिक दांपत्य जीवन व्यतीत करती थीं, उनके विवाह कूटनीतिक गठबंधन के लिए होते थे और उनमें उनकी इच्छा और उम्र को ध्यान में नहीं रखा जाता था, कन्या भ्रूण हत्याएँ भी होती थीं, लेकिन टॉड ने अपने इतिहास में कहीं भी इन पर विचार नहीं किया है। उसके इतिहास ग्रंथ के संपादक विलियम क्रूक के अनुसार वह राजवंशों में विवाह, इसके नियमन, और उत्सव आदि के वर्णन से परहेज़ करता है।37 ई.एम. केले के अनुसार उस समय एक वर्षीय पुरुष शिशुओं की तुलना में स्त्री शिशुओं की संख्या कम थी38, लेकिन टॉड इस तरह विवरणों में जाने से बचता है। मीरां का टॉड की इस आदर्श राजपूत स्त्री से कोई मेल नहीं था। निष्ठा, समर्पण और त्याग जैसे आदर्श राजपूत स्त्री के गुण उसमें नहीं थे। अवज्ञा और स्वेच्छाचार उसके व्यक्तित्व की विशेषताएँ थी और कुल-वंश की मान मर्यादा के लिए उसने सती होकर बलिदान भी नहीं दिया। देशाटन और सभी तरह के लोगों से मेलजोल के कारण उसने सामंती मान-मर्यादा का भी उल्लंघन किया था। सामंत समाज में उसकी चर्चा और उल्लेख भी कुछ हद तक वर्जित थे। वह राजपूत स्त्रियों में अपवाद थी और उसका यह रूप टॉड के मन में जमी आदर्श राजपूत स्त्री छवि के प्रतिकूल था, इसलिए उसने उसको अपनी निगाह में नहीं लिया। टॉड यूरोपीय साहित्य की क्लासिकल परंपरा से परिचित था। प्रेम और रोमांस इस परंपरा में ख़ूब थे, इसलिए उसने मीरां के जीवन और चरित्र के इन्हीं पहलुओं को उसकी छवि में सर्वोपरि कर दिया। इस तरह मीरां का जीवन संघर्ष के आख्यान के बजाय प्रेम, रोमांस और भक्ति का आख्यान बन गया।

इस तरह निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इतिहास में मीरां का प्रचलित और लोकप्रिय रूप पूरी तरह टॉड की निर्मिति है। इस निर्मिति में भारतीय इतिहास की यूरोपीय व्याख्याओं और विश्लेषणों की अलग-अलग विधियों के रुझानों के साझा प्रभाव के साथ टॉड के राजपूताना और यहाँ के सामंतों विषयक व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों का भी निर्णायक योगदान है। तत्कालीन राजपूताना में टॉड की वर्चस्वकारी हैसियत और वैदुष्य का ही प्रभाव था कि पारंपरिक इतिहास रूपों से लगभग बहिष्कृत मीरां आधुनिक इतिहास में रूमानी और रहस्यवादी संत-भक्त और कवयित्री के रूप मे मान्य हो गई। निरंतर स्वेच्छाचार और अवज्ञा के कारण मीरां के सत्ता से संबंध कटु और तनावपूर्ण थे और इस कारण उसका जागतिक अनुभव बहुत कष्टमय और त्रासपूर्ण था, लेकिन अपने वैयक्तिक पूर्वाग्रहों के कारण टॉड को उसका यह रूप स्वीकार्य नहीं हुआ। उसने अपने यूरोपीय संस्कार, ज्ञान और रुचि के अनुसार प्रेम, रोमांस और भक्ति के मेल से उसका नया स्त्री संत-भक्त और कवयित्री रूप गढ़ दिया। टॉड के बाद में हुए देशी इतिहासकारों ने मीरां के जीवन के संबंध में टॉड की कुछ तथ्यात्मक भूलों को तो ठीक किया, लेकिन उसकी छवि में बुनियादी रद्दोबदल की पहल उनकी तरफ़ से आज तक नहीं हुई।

संदर्भ और टिप्पणियाँ:

  1. एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, खंड-1, (संपादन: विलियम क्रूक) मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली (लंदन: प्रथम संस्करण, 1920), पुनर्मुद्रण, 1994, पृ.546
  2. ‘ग्रंथकर्ता विषयक संस्मरण’, पश्चिमी भारत की यात्रा (हिंदी अनुवाद: गोपालनारायण बहुरा) प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर (विलियम एच. एलन एंड कंपनी, लंदन: प्रथम संस्करण, 1839), द्वितीय संस्करण, 1996, पृ.11
  3. पश्चिमी भारत की यात्रा के विज्ञापन की पाद टिप्पणी में दिए गए टॉड के एक पत्रांश से उद्धृत। यह विज्ञापन हिंदी अनुवाद के आरंभिक पृष्ठों में सम्मिलित किया गया है।
  4. गोपीनाथ शर्मा: इतिहासकार जेम्स टॉड: व्यक्तित्व एवं कृतित्व (सं. हुकमसिंह भाटी), प्रताप शोध प्रतिष्ठान, उदयपुर, 1992, पृ.185
  5. ‘ग्रंथकर्ता विषयक संस्मरण’, पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ.4
  6. एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ राजस्थान, खंड-1, पृ.337
  7. पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ.442
  8. 9. वीर विनोद (मेवाड़ का इतिहास), प्रथम भाग, (राज यंत्रालय़, उदयपुर, प्रथम संस्करण, 1886) , मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, पुनर्मुद्रण, 1986, पृ.371
  9. 10. वही, पृ. 371
  10. मुंशी देवीप्रसाद: मीरांबाई का जन्म चरित्र, बंगीय साहित्य परिषद, कोलकाता, 1954 (प्रथम संस्करण, 1898), पृ.1
  11. वही, पृ.28
  12. वही, पृ.28
  13. वही, पृ.10
  14. वही, पृ.11
  15. वही, पृ.10
  16. वही, पृ.26
  17. वही, पृ.12
  18. 19. उदयपुर राज्य का इतिहास, (प्रथम संस्करण, 1928), राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, पुनर्मुद्रण, 1996-97, पृ.359
  19. 20. वही, पृ.360
  20. भारतीय अर्थतंत्र, इतिहास और संस्कृति (आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन का हिंदी रूपांतर), राजपाल एंड संस, दिल्ली, 2005, पृ.134
  21. एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, खंड-1, पृ.268
  22. ग्रंथकर्ता विषयक संस्मरण, पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ.39
  23. 24. आदिकालीन भारत की व्याख्या (हिन्दी अनुवाद: मंगलनाथ), ग्रंथ शिल्पी, नई दिल्ली, 1998, पृ.11
  24. 25. भारतीय अर्थतंत्र, इतिहास और संस्कृति, पृ.141
  25. ग्रंथकर्ता विषयक संस्मरण, पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ. 37
  26. पाद टिप्पणी, वही, पृ. 18
  27. एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, खंड-1, पृ.337
  28. पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ. 442
  29. ग्रंथकर्ता विषयक संस्मरण, वही, पृ.32
  30. वही, पृ.442
  31. संपादकीय, एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, खंड-1, पृ. XXVII
  32. लेखक का पूर्व कथन, वही, पृ. IXIII
  33. पश्चिमी भारत की यात्रा, पृ. 443
  34. ‘संपादकीय’, एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, खंड-1, पृ. XXXVIII
  35. यह घटना उस समय हुई जब फूट, आपसी प्रतिद्वन्द्विता और मराठों-पिंडारियों की निरंतर लूटपाट के कारण राजस्थान की अधिकांश रियासतों की हालत बहुत खराब थी। कृष्णाकुमारी मेवाड़ रियासत के महाराणा भीमसिंह की राजकुमारी थी, जिसका संबंध जोधपुर रियासत के महाराजा भीमसिंह के साथ हुआ था। भीमसिंह के देहांत के बाद उसका संबंध जयपुर के महाराजा जगतसिंह के साथ कर दिया गया। जयपुर से नाराज़ चल रहे ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया को यह बात नागवार गुजरी। उसने विवाह का प्रस्ताव लेकर आए जयपुर के प्रतिनिधि को उदयपुर से बाहर निकाल देने का आग्रह किया, जो महाराणा भीमसिंह ने नहीं माना। नाराज़ सिंधिया ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। विवश होकर भीमसिंह को उसकी बात माननी पड़ी। कृष्णाकुमारी का पहला संबंध जोधपुर में हुआ था, इसलिए वहाँ के महाराजा मानसिंह ने उसके जगतसिंह से संबंध को अपना अपमान समझा। नतीज़ा यह हुआ कि जोधपुर और जयपुर की सेनाएँ एक-दूसरे से भिड़ गईं। पिंडारी नवाब अमीर ख़ां ने इस लड़ाई मे जयपुर का साथ दिया, जिससे मानसिंह पराजित होकर जोधपुर लौट गया। जगतसिंह ने जोधपुर को घेर लिया, लेकिन इस बार मानसिंह ने घूस देकर अमीर ख़ां को अपनी तरफ़ मिला लिया। जगतसिंह पराजित होकर जयपुर लौट गया। अमीर खां ने मानसिंह की तरफ से उदयपुर पहुंच कर महाराणा भीमसिंह के सामने यह प्रस्ताव रखा कि कृष्णाकुमारी मानसिंह से विवाह करे या जहर पीकर मर जाए। असहाय भीमसिंह ने अपने राज्य को उपद्रव से बचाने के लिए यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। कृष्णाकुमारी ने अपने पिता की इच्छा के अनुसार जहर पीकर अपने प्राण दे दिए। टॉड ने अपने इतिहास में इस घटना का वर्णन बहुत भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी भाषा में किया है। उसने कृष्णाकुमारी की तुलना रोम के योद्धा वियूसियस की बेटी वर्जिनिया से की है। कहते हैं कि वियूसियस ने अपनी बेटी की हत्या उसके सतीत्व की रक्षा के लिए सबके सामने कर दी थी।
  36. ‘संपादकीय’, एनल्स एंड एंटिक्विटीज़ ऑफ़ राजस्थान, खंड-1, पृ. XXXVIII
  37. वही, पृ. XXXVIII

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