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मंगलेश डबराल की कविताएँ

एक कवि हमेशा अपनी कविताओं के जरिए हम सबकी स्मृतियों में रहता है। जानकी पुल का उपक्रम ‘कविता शुक्रवार’ मंगलेश डबराल की इन कुछ कविताओं से उन्हें नमन करता है। उनकी कविताएँ सदा हमारे साथ रहेंगी-
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स्मृति : एक
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खिड़की की सलाख़ों से बाहर आती हुई लालटेन की रौशनी
पीले फूलों जैसी
हवा में हारमोनियम से उठते प्राचीन स्वर
छोटे-छोटे बारीक बादलों की तरह चमकते हुए
शाम एक गुमसुम बच्ची की तरह छज्जे पर आकर बैठ गई है
जंगल से घास-लकड़ी लेकर आती औरतें आँगन से गुज़रती हुईं
अपने नंगे पैरों की थाप छोड़ देती हैं
 
इस बीच बहुत-सा समय बीत गया
कई बारिशें हुईं और सूख गईं
बार-बार बर्फ़ गिरी और पिघल गई
पत्थर अपनी जगह से खिसक कर कहीं और चले गए
वे पेड़ जो आँगन में फल देते थे और ज़्यादा ऊँचाइयों पर पहुँच गए
लोग भी कूच कर गए नई शरणगाहों की ओर
अपने घरों के किवाड़ बन्द करते हुए
 
एक मिटे हुए दृश्य के भीतर से तब भी आती रहती है
पीले फूलों जैसी लालटेन की रोशनी
एक हारमोनियम के बादलों जैसे उठते हुए स्वर
और आँगन में जंगल से घास-लकड़ी लाती
स्त्रियों के पैरों की थाप।
 
 
स्मृति : दो
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वह एक दृश्य था जिसमें एक पुराना घर था
जो बहुत से मनुष्यों के साँस लेने से बना था
उस दृश्य में फूल खिलते तारे चमकते पानी बहता
और समय किसी पहाड़ी चोटी से धूप की तरह
एक-एक क़दम उतरता हुआ दिखाई देता
अब वहाँ वह दृश्य नहीं है बल्कि उसका एक खण्डहर है
तुम लम्बे समय से वहाँ लौटना चाहते रहे हो जहाँ उस दृश्य का खण्डहर न हो
लेकिन अच्छी तरह जानते हो कि यह संभव नहीं है
और हर लौटना सिर्फ़ एक उजड़ी हुई जगह में जाना है
एक अवशेष, एक अतीत और एक इतिहास में
एक दृश्य के अनस्तित्व में
 
इसलिए तुम पीछे नहीं बल्कि आगे जाते हो
अन्धेरे में किसी कल्पित उजाले के सहारे रास्ता टटोलते हुए
किसी दूसरी जगह और किसी दूसरे समय की ओर
स्मृति ही दूसरा समय है जहाँ सहसा तुम्हें दिख जाता है
वह दृश्य उसका घर जहाँ लोगों की साँसें भरी हुई होती हैं
और फूल खिलते हैं तारे चमकते है पानी बहता है
और धूप एक चोटी से उतरती हुई दिखती है।
 
 
सोते-जागते
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जागते हुए मैं जिनसे दूर भागता रहता हूँ
वे अक्सर मेरी नीन्द में प्रवेश करते हैं
 
एक दुर्गम पहाड़ पर चढ़ने से बचता हूँ
लेकिन वह मेरे सपने में प्रकट होता है
जिस पर कुछ दूर तक चढ़ने के बाद कोई रास्ता नहीं है
और सिर्फ़ नीचे एक अथाह खाई है
 
जागते हुए मैं एक समुद्र में तैरने से बचता हूँ
सोते हुए मैं देखता हूँ रात का एक अपार समुद्र
कहीं कोई नाव नहीं है और मैं डूब रहा हूँ
और डूबने का कोई अन्त नहीं है
 
जागते हुए मैं अपने घाव दिखलाने से बचता हूँ
ख़ुद से भी कहता रहता हूँ — नहीं, कोई दर्द नहीं है
लेकिन नीन्द में आँसुओं का एक सैलाब आता है
और मेरी आँखों को
अपने रास्ते की तरह इस्तेमाल करता है
 
दिन भर मेरे सर पर
बहुत से लोगों का बहुत सा सामान लदा होता है
उसे पहुँचाने के लिए सफ़र पर निकलता हूँ
नीन्द में पता चलता है, सारा सामान खो गया है
और मुझे ख़ाली हाथ जाना होगा
 
दिन में एक अत्याचारी-अन्यायी से दूर भागता हूँ
उससे हाथ नहीं मिलाना चाहता
उसे चिमटे से भी नहीं छूना चाहता
लेकन वह मेरी नीन्द में सेन्ध लगाता है
मुझे बाँहों में भरने के लिए हाथ बढ़ाता है
और इनकार करने पर कहता है
इस घर से निकाल दूँगा, इस देश से निकाल दूँगा
 
कुछ ख़राब कवि जिनसे बचने की कोशश करता हूँ
मेरे सपने में आते हैं
और इतनी देर तक बड़बड़ाते हैं
कि मैं जाग पड़ता हूँ घायल की तरह ।
 
 
भूलने का युग
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याद रखने पर हमला है और भूल जाने की छूट है
मैं अक्सर भूल जाता हूँ नाम
अक्सर भूल जाता हूँ चेहरे
एक आदमी मिलता है बिना चहरे का एक नाम
एक स्त्री मिलती है बिना नाम का एक चेहरा
कोई पूछता है आपका नाम क्या है
उसे यक़ीन नहीं होता
जब मैं भूला हुआ कुछ याद करने की कोशिश करता हूँ
कुछ देर किसी के साथ बैठता हूँ
तो याद नहीं आता उसका नाम
जो कभी झण्डे की तरह फहराता था उस पर
उसका चेहरा लगता है
जैसे किसी अनजान जगह की निशानदेही हो
 
यह भूलने का युग है जैसा कि कहा जाता है
नौजवान भूलते हैं अपने माताओं-पिताओं को
चले जाते हैं बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठकर
याद रखते हैं सिर्फ़ वह पता वह नाम
जहाँ ज़्यादा तनख़्वाहें हैं
ज़्यादा कारें ज़्यादा जूते और ज़्यादा कपड़े हैं
बाज़ार कहता है याद मत करो
अपनी पिछली चीज़ों को पिछले घर को
पीछे मुड़ कर देखना भूल जाओ
जगह-जगह खोले जा रहे हैं नए दफ़्तर
याद रखने पर हमले की योजना बनाने के लिए
हमारे समय का एक दरिन्दा कहता है — मेरा दरिन्दा होना भूल जाओ
भूल जाओ अपने सपने देखना
मैं देखता रहता हूँ सपने तुम्हारे लिए।
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8 comments

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