
रवि रंजन दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज में राजनीति शास्त्र पढ़ाते हैं। उनकी कुछ कविताएँ पढ़िए
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जीवन की कविता में अलंकरण
ज़िंदगी की कहानी में संकलन
पूर्णता नहीं पूरकता को तय करती है
जीवनधारा यूं ही बहती है
जीव मरते पर जीवन अनंत
नहीं होता कविता का अंत
चलती रहती कहानी जीवन पर्यंत
जैसे बिन पानी जीना दुश्वार
जल ही है जीवन का आधार
जल की भांति जीवन तरल
फिर क्यों नहीं लगता जीना सरल
जीवन के भाव का भाव ना लगाइए
सपनों और भावनाओं को सीमा में ना लाइए
इज्जत, मान-सम्मान और पहचान
जब से बन गए जीवन का ज्ञान
कविता और कहानी पहुंच गए
असफलता और सफलता की दुकान
मेरी रचनाओं को तो सिर्फ मालूम है
खुशियों का भाव नहीं होता
संतुष्टि पर कोई दाव नहीं होता
नहीं है रचनायें डब्बे-बंद ‘भाव’ के फुटकर विक्रेता
वह तो है उन भावनाओं के है ‘भाव’ निर्माता
जो पहुंचता आप तक बिना किसी कीमत के
न जीएसटी की मार है, न बिक्री कर की दरकार है
रचनायें तो अपने आप की सरकार हैं
कविता और कहानी तभी तो जीवंतता की रसधार है
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शुभरात्रि
अंधेरी हो रही अब रात की पहर
चलो चलते हैं करने नींद का सफर
सपनों में दिखे खेल के मैदानवाला दोपहर
कुछ दोस्त खेले कबड्डी कुछ वॉलीबॉल या क्रिकेट
बचे हुए अंतराक्षी में गीत गाते बनके गायक अलहर
सुनकर स्कूल की घंटी जब घड़ी पर पड़ी नजर
भागे सब अपने साइकिल और बसों में लगाकर दौड़
सपनों की पूरी रात और ख्वाबों का सफर
महसूस हुआ हम सब लौट गए हो बचपन का शहर
मित्र नींद खुला तो मालूम हुआ
ये कैसा शुभरात्रि का सलाम है
रात में तो दिखा दोस्ती का पैगाम
अब सुबह का चमकता आसमान है।
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मुल्क की तक़दीर
मैं बड़े लोगों से छोटी बात करता नहीं
और छोटे लोगों को बड़ी बात समझता नहीं
मेरे दोस्त ये तो मुक़द्दर का फेर है
गधा भी ख़ुद को समझता शेर है
झेलना पड़ता है चोर और मक्कार को
सहना पड़ता है तानाशाही अहंकार को
पहचाना है फ़रेब में छुपे प्यार को
क्या हुआ जो मेरे हाथों में ज़ंजीर है
वक़्त आने पर बता देंगे
आज भी जिगर में ज़मीर है
बदल दो रहबरों को
वो चाहे कुछ भी हो कोई हो
नहीं वो हमरी क़िस्मत की लकीर है।
वो भी हमरी तरह है मुशफिर
क्यों समझते अपने को मुल्क की तक़दीर है
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अजीब फलसफा है जिंदगी
धन्यवाद संवादों के तकनीक
आज तूने मिलाए मीत
वर्षों बाद जब हुई मुलाकात
चैटिंग चली देर रात
संबंधों की औपचारिकता में
जब सर ने दोस्त को मैडम कहा
मैडम को लगा बिना नाम लिए
किसी ने पुराना गम कहा
मुद्दतों बाद माहौल मिलन का नम रहा
यादों में खोए दोस्तों को लगा
देर रात तक के चैटिंग में भी कम कहा
फिर एक ने दूसरे से चाहा जानना
क्या आज भी याद है दोस्तों से बिछड़ना
दूसरे ने कहा नाम तुम्हारा लेकर
वो ठिकाना मुझसे पूछते थे
क़सम देकर मुलाक़ातों का
वो दोस्ती का पैमाना पूछते थे
आज भी याद है सिलसिला रूखसती का
किस्सा जुदाई का और गीत तनहाई का
तुम्हारे साथ होने के भ्रम को ही
हसीन मुलाकात समझकर
मैं खुद को यादों में उलझता रहा
मैं अपने में तो था ही नहीं
और स्वयं को दूसरों में ढूँढता रहा
खुद को खोने का गम नहीं
अपने को और में तलाशता रहा
अजीब फलसफा है जिंदगी मेरे दोस्त
जीवन में बदलाव और बेहतरी में बाहर ढूंढता है
दुनिया में होते हुए भी ख़ुद में ही संसार ढूंढता है
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