आज बापू की पुण्यतिथि है। उनकी अनेक जीवनियाँ लिखी गई हैं। उनकी जीवनियों को लेकर यह लेख लिखा है जाने माने पत्रकार श्री विवेक शुक्ला ने। विवेक जी चलते फिरते एनसाइक्लोपीडिया की तरह हैं। नवभारत टाइम्स में उनको रोज पढ़ना दिल्ली को नए सिरे से जानना होता है। आज बापू को याद करते हुए यह लेख पढ़िए। लेख के साथ जो चित्र कोलाज है वह प्रसिद्ध चित्रकार-लेखक सीरज सक्सेना ने बनाया है-
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महात्मा गांधी को दिवंगत हुए सात दशक से अधिक हो रहे हैं, पर जरा देखिए कि उनके व्यक्तित्व के किसी पक्ष या उनके विचारों पर कलम चलाने की लेखकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों वगैरह में प्यास बुझी नहीं है। दुनियाभर के सैकड़ों लेखकों का उन पर लिखने का सिलसिला निरंतर जारी है। ये सभी गांधी की वर्तमान में प्रासंगिकता से लेकर उनकी शख्सियत के तमाम पक्षों पर लिख रहे हैं।
सच बात तो ये है कि महात्मा गांधी पर अब तक लिखी गईं जीवनियों की गिनती करना असम्भव है। गांधीवादियों से लेकर सारी दुनिया के विद्वानों ने उनके ऊपर सैकड़ों की संख्या में जीवनियां लिखी जा चुकी हैं। अब भी उन पर जीवनियां बाजार में आ रही हैं। उन्हें पढ़ा जा रहा है,उन पर चर्चा हो रही है, लिखा जा रहा है।
पर गांधी जी को जानने –समझने के लिए दो जीवनियों को पढ़ लेना अनिवार्य है। पहली, ईसाई मिशनरी जोसेफ डोक द्वारा लिखी गई जीवनी -‘ एम.के. गांधी—एन इंडियन पैट्रियाट इन साऊथ अफ्रीका’। ये गांधी जी पर लिखी पहली जीवनी है। ये तब लिखी गई थी जब बापू को एम.के.गांधी के रूप में दक्षिण अफ्रीका में ही जाना जाता था। वे वहां पर भारतवंशियों और अश्वेतों के हक में सक्रिय थे।
दूसरी, महान लेखक लुई फिशर की कलम से लिखी ‘दि लाइफ आफ महात्मा’। अमेरिका के यहूदी लेखक लुई फिशर ने यदि बापू की जीवनी ना लिखी होती तो संभव है कि दुनिया की बापू के बारे में अधिक से अधिक जानने की प्रबल इच्छा ही नहीं होती। दरअसल रिचर्ड एटनबर्ग ने इस तथ्य को बार-बार माना कि उन्होंने ‘दि लाइफ आफ महात्मा’ को पढ़ने के बाद ही गांधी पर फिल्म बनाने के संबंध में सोचना चालू किया था। निश्चित रूप से ‘गांधी’ फिल्म को देखकर सारे संसार के करोड़ों लोग गांधी को और करीब से जानने लगे हैं। गांधी फिल्म मूलत: और अंतत: लुई फिशर की लिखी जीवनी पर ही आधारित है।
गांधी फिल्म के ‘गांधी’ बेन किंग्सले ने 1991 में इस खाकसार को राजधानी के मेरिडन होटल में एक इंटरव्यू के दौरान कहाथा, “ मैंने गांधी फिल्म की शूटिंग करने से पहले लुर्इ फिशर द्वारा लिखी बापू की जीवनी को कई बार पढ़ा था। उसे पढ़ने के बाद मैं बापू और उनके सत्य तथा अहिंसा के सिद्धांतों को जान पाया। मैं उसके बाद भी गांधी पर तमाम लेखकों के लिए निबंध या जीवनियां पढ़ चुका हूं, पर लुर्इ फिशर ने गांधी जी की शख्सियत को बेहतरीन तरह से पाठकों के सामने रखा। मैं मानता हूं कि गांधी को समझने के लिए ‘दि लाइफ आफ महात्मा’ को पढ़ लेना चाहिए।” उस इंटरव्यू के दौरान हिन्दुस्तान टाइम्स के फिल्म समीक्षक और कवि अनिल सहारी ( अब स्मृति शेष) भी मौजूद थे।
लुई फिशर ने जीवनी बिल्कुल उपन्यास शैली में लिखी है। इसे पढ़ते ही आप इससे जुड़ जाते हैं। इसका आप पर चुंबकीय तरीके से असर होता है। कहना न होगा कि गंभीर साहित्य अध्येताओं से लेकर विद्यार्थियों के लिए यह एक समान उपयोगी जीवनी है। लुई फिशर की लिखी जीवनी का पहला अध्याय बापू की हत्या से लेकर उनकी शवयात्रा पर आधारित है। यानी उन्होंने अंत को सबसे पहले ले लिया है। इस तरह का साहस फिशरही कर सकते हैं। ये जीवनी गांधी जी के जीवन में गहरे से झांकती है। इसे पढ़ते हुए कहीं भी पाठक बोर नहीं होता। पाठक को ये नहीं लगता कि ये तथ्य तो उसे पहले से ही मालूम था। निस्संदेह फिशर की कलम से निकली जीवनी महात्मा गांधी को ब्राजील, रूस, मैक्सिको, फ्रांस, घाना, अमेरिका, मिस्र, अरब देशों में लेकर जाती है। घाना के पूर्व राष्ट्रपति और अफ्रीकी स्वतंत्रता संघर्ष के अप्रतिम सेनानी और कवि नक्रुमा ने अपने स्वतंत्रता संघर्ष पर अपनी कविता में कहा, ‘घने जंगल में थका हारा सिपाही, हताश सो गया। उसके सपने को कृतार्थ किया एक महात्मा ने।’ उन्होंने भी दि लाइफ आफ महात्मा को अश्वेतों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले मार्टिन लूथर किंग की तरफ पढ़ा था।
दरअसल लुई फिशर चमत्कृत थे महात्मा गांधी से। वे कहते हैं- ‘गांधीजी से हाथ मिलाते ही मेरे भीतर अहंकार की ग्रंथि पिघलने लगी। उन्होंने मुझे सबसे पहले बात करने के लिए एक घंटे का समय दिया और अपराह्न साढे तीन बजे से शुरू वार्तालाप जैसे ही साढ़े चार बजे पहुंचा, उन्होंने बीच में टोकते हुए कहा बस समय हो गया, अब बात बंद।’
अमेरिकी लेखक लुईस फिशर 25 जून,1946 को दिल्ली आते हैं। वे सफदरजंग एयरपोर्ट पर विमान से उतरने के बाद सीधे टैक्सी से जनपथ (तब क्वींस एवेन्यू) पर स्थित इंपीरियल होटल पहुंचे। तब तक पालम एयरपोर्ट नहीं बना था। वे जल्दी में हैं। फिशर लॉबी में ही अपना समान रखकर होटल से पंचकुईया रोड पर निकल जाते हैं। उन्हें वाल्मिकी मंदिर में महात्मा गांधी से मिलना है। वे बापू की जीवनी लिख रहे हैं। बापू तब वाल्मिकी मंदिर परिरसर के भीतर बने एक छोटे से कमरे में ही रहते थे।
फिशर शाम पांचेक बजे वाल्मिकी मंदिर पहुंचे। उन्हें जनपथ से पंचकुईया रोड पर पहुंचने में 15 मिनट से अधिक नहीं लगा होगा। वे कनॉट प्लेस और गोल मार्किट से होते हुए वाल्मिकी मंदिर में पहुंच गए होंगे। तब दिल्ली की सड़कों पर आज की तरह ट्रैफिक कहां होता था। हालांकि तब तक मंदिर मार्ग पूरी तरह से आबाद था। बिड़ला मंदिर, काली बाड़ी, हारकोर्ट बटलर स्कूल, सेंट थामस स्कूल वगैरह थे। वे जब वहां पर पहुंचे तब उधर पंडित जवाहरलाल नेहरु और मृदुला साराभाई वगैरह समेत बहुत से लोग मौजूद थे। कुछ ही पलों के बाद बापू अपने मंदिर के कमरे से प्रकट होते हैं। बापू उन्हें तुरंत पहचान लेते हैं। वे फिशर का हाल-चाल पूछते हैं। दोनों में प्रेम से कुछ देर तक बातचीत होती रहती है। लुई फिशर इन सब बातों का गांधी पर लिखी जीवनी ‘दि लाइफ आफ महात्मा’ में उल्लेख करते हैं।
लुई फिशर दिल्ली में रोज गांधीजी से एक घंटे के लिए मिलने लगे। वे मौलाना आजाद के किंग जॉर्ज रोड ( अब मौलाना आजाद रोड) स्थित आवास में भी जाते। ( जिधर अब विज्ञान भवन है, वहीं होता था मौलाना आजाद का सरकारी बंगला)। वे मौलाना आजाद से बापू की शख्सियत को समझने की कोशिश करते। लेनिन और हिटलर की जीवनियां लिखकर सारी दुनिया में एक महान लेखक के रूप में साख बना चुके लुर्इ फिशर दिल्ली में आचार्य कृपलानी, डा.राजेन्द्र प्रसाद, बापू की निजी डाक्टर डा. सुशीला नैयर वगैरह से भी मिल रहे थे।
लुर्इ फिशर यहां आम-खास लोगों से मिलने के लिए टैक्सी पर ही सफर कर रहे थे। उन दिनों काली-पीली रंग की टैक्सियां चलती थीं। उन्हें एक दिन मोहम्मद अली जिन्ना से भी उनके 10, औरंगजेब रोड ( अब एपेजी कलाम रोड) वाले आवास में मिलना था। जिन्ना ने उन्हें सुबह साढ़े दस बजे मिलने का समय दिया। फिशर अपने होटल से जिन्ना से मिलने टैक्सी पर निकले। पर अभी टैक्सी कुछ ही देर चली थी कि उसमें गड़बड़ चालू हो गई । टैक्सी के सिख ड्राइवर के लाख चाहने के बाद भी बात नहीं बनी। इस बीच जिन्ना से मिलने का वक्त भी हो रहा था। वे किसी तरह टांगे पर बैठकर ही जिन्ना के घर 35 मिनट देर से पहुंचे। तब नई दिल्ली की सड़कों पर टांगे भी दौड़ा करते थे।
जाहिर है, फिशर उनसे भी गांधीजी और मुस्लिम लीग की भारत को बांटने की मांग वगैरह पर गुफ्तुगू करने ही गए होंगे। पर जिन्ना उनके देर से पहुंचने से कुछ उखड़ गए थे। बातचीत का श्रीगणेश होने के चंद मिनट के बाद ही जिन्ना ने फिशर को कह दिया-“ मुझे कहीं निकलना है।” तो क्या जिन्ना अपने राजनीतिक शत्रु गांधी जी के संबंध में उनके जीवनी लेखक से बात करने के मूड में नहीं थे? लुई फिशर 18 जुलाई, 1946 को गांधी जी से अंतिम बार मिलने के बाद अमेरिका लौट गए। वे लगभग डेढ़ महीने भारत में रहे। इस दौरान उनका अधिकतर समय दिल्ली में गुजरा। यहां पर रहते हुए उन्होंने गांधी जी पर पर्याप्त सामग्री जुटा ली।
अब बात करेंगे डोक की बापू पर लिखी जीवनी की। महत्वपूर्ण यह है कि जब डोक ने इसकी रचना की थी तब तक महात्मा गांधी ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में भी अपनी दस्तक नहीं दी थी। दरअसल वे जब दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों के हितों के लिए संघर्षरत थे तब ही उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर डोक ने उन पर जीवनी लिखने का फैसला कर लिया था।
गांधी जी और जोसेफडोक के बीच मैत्री और फिर घनिष्ठ संबंधों का श्रीगणेश दिसम्बर 1907 में हुआ। ये बातें हैं जब दोनों दक्षिण अफ्रीका के शहर जोहांसबर्ग में पड़ोसी थे। कहते हैं,पहली ही भेंट के बाद दोनों में मिलना-जुलना चालू हो गय़ा था। दोनों में पहली मुलाकात के दौरान धर्म,धर्मतंत्र और दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों की दयनीय हालत पर गम्भीर और लम्बा मंथन होने लगा। हालांकि गांधी जी और डोक की काफी व्यस्त दिनचर्या थी पर दोनों आपस में मिलने का वक्त प्राय: हर रोज ही निकाल लिया करते थे। उन बैठकों के दौरान तमाम मसलों पर सारगर्भित संवाद होता था। डोक अपने मित्र के व्यक्तित्व और तमाम मुद्दों पर उनकी समझदारी से इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने उनपर (गांधी जी) पर जीवनी ही लिखने का निर्णय ले लिया। जीवनी का शीर्षक था- ‘ एम.के. गांधी—एन इंडियन पैट्रियाट इन साऊथअफ्रीका’।
एम.के. गांधी—एन इंडियन पैट्रियाट इन साऊथअफ्रीका का पहला संस्करण 1919 में मद्रास के एक प्रकाशक डीएनटेशन ने प्रकाशित किया। डोक ने जीवनी के लिए सामग्री गांधी जी के साथ चलने वाले अपने नियमित सत्संग और उनसे जुड़े दूसरे लोगों के माध्यम से जुटाई थी।
डोक ने जीवनी में बापू की पारिवारिक पृष्ठभूमि,बचपन और भारत में अंग्रेजी राज और अश्वेतों की हालत पर उनकी राय को खासतौर पर जगह दी। जीवनी में एक अध्याय बापू के लंदन प्रवास पर भी समर्पित था।डोक ने यह भी लिखा कि गांधी जी ईसा मसीह की शिक्षाओं से बहुत प्रभावित हैं। मुझे लगता है कि ईसाई धर्म और बाइबल से गांधी का पहला साक्षात्कार डोक के साथ रहने के चलते हुआ। अमेरिका के मिल्टन न्यूबेरी फ्रैंट्ज में ईसाई धर्मगुरु को छह अप्रैल 1926 को लिए अपने खत में बापू ने कहा ‘‘ईशु मानवता के सबसे महान गुरुओं में से एक थे।’’ उन्होंने 13 फरवरी, 1926 को पत्र में लिखा : ‘‘मैं ईसा मसीह को ईश्वर का एकमात्र पुत्र या ईश्वर का अवतार नहीं मानता, लेकिन मानव जाति के एक शिक्षक के रूप में उनके प्रति मेरी बड़ी श्रद्धा है ।’’
गाँधीजी ने अनेक बार कहा और लिखा कि वे ईसा को अन्य महात्माओं और शिक्षकों की तरह ‘मानव प्राणी’ ही मानते हैं । ऐसे शिक्षक के रूप में वे ‘महान’ थे परन्तु ‘महानतम’ नहीं थे । (गाँधी वाङ्मय : खंड 34, पृ. 11)
गाँधीजी ने यह भी अस्वीकार किया कि ‘धर्मांतरण ईश्वरीय कार्य है ।’ उन्होंने ए. ए. पॉल को उत्तर देते हुए ‘हरिजन’ के २८ दिसम्बर, १९३५ के अंक में लिखा कि ईसाई धर्म-प्रचारकों का यह कहना कि : ‘वे लोगों को ईश्वर के पक्ष में खींच रहे हैं और ईश्वरीय कार्य कर रहे हैं…’ तो मनुष्य ने यह कार्य उसके हाथों से क्यों ले लिया है ? ईश्वर से कोई कार्य छीननेवाला मनुष्य कौन होता है तथा क्या सर्वशक्तिमान् ईश्वर इतना असहाय है कि वह मनुष्यों को अपनी ओर नहीं खींच सकता ?
(गाँधी वाङ्मय : खंड 61, पृ. 87 तथा 494)। बापू की प्रार्थना सभाओं में भी बाइबल का पाठ होता था। यानी डोक के सानिध्य में रहते हुए बापू ईसाई धर्म के करीब आए। उनके दीनबंधु सी.एफ. एन्ड्रूज से घनिष्ठता इस तथ्य की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त है।
बहरहाल, डोक ने गांधी जी के नेतृत्व में चले उस आंदोलन की भी पर्याप्त चर्चा की जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में प्रांतीय ट्रांसवेल सरकार द्वारा लाए गए उस कानून का प्रखर विरोध किया था जिसमें व्यवस्था की गई थी कि वहां पर रहने वाले एशियाई मूल के लोगों को हर वक्त अपना पहचान पत्र अपने पास रखना होगा। डोक की तरफ से लिखी गांधी जी की जीवनी के अंतिम अध्याय में उनके धर्म पर राय की विस्तार से चर्चा की गई। हालांकि गांधी जी और डोक के बीच धर्म के मसले पर तीखी मतभिन्नता थी, पर इससे दोनों के रिश्ते कभी प्रभावित नहीं हुए।
जिन दिनों गांधी जी अस्वस्थ थे तब बहुत बड़ी तादाद में गांधी जी के शुभचिंतक उनका कुशल-क्षेम जानने के लिए डोक के निवास पर पहुंचने लगे। और तो और, फरवरी 1908 में जोहांसबर्ग में एक जनसभा का आयोजन वहां पर बसे हुए भारतीय, यूरोपीय और चीनी मूल के लोगों ने किया। उस जनसभा में डोक दम्पती का आभार प्रकट किया गया क्योंकि उन्होंने बापू की सेवा की थी। वहां पर बसे चीनी मूल के लोगों ने 23 मार्च,1908 को एक अलग से भी सभा आयोजित इसी मकसद के लिए की।डोक का भी व्यक्तित्व खासा बहुआयामी था। मिशनरी होने के बावजूद वे मंजे हुए चित्रकार,कार्टुनिस्ट और छायाकार थे। उन्होंने उस दौर में इंडियन ओपिनयन का सम्पादन भी किया जब बापू को स्थानीय प्रशासन ने गिरफ्तार कर लिया था। अपने मिशनरी कार्य के सिलसिले में डोक जब उत्तर-पश्चिम रोडेशिया (अब जिम्बाव्वे) के दौरे पर थे तब उनका अचानक से 15 अगस्त,1913 को निधन हो गया था।
डोक की अचानक से हुई मौत की खबर सुनकरबापू भी सन्न रह गए थे। उन्होंने डोक पर लिखे एक शोक लेख में लिखा, “ मैं डोक को कभी भूल नहीं पाऊंगा। वे मिशनरी होने के बावजूद सभी धर्मों का आदर करते थे। वे बहुत ही नेक और मानवीय शख्स थे।
यदि बात डोक और फिशर की लिखी जीवनियों से हटकर बात करें तो राजमोहन गांधी द्वारा लिखित मोहनदास- ‘ए ट्रू स्टोरी आफ ए मेन, हिज पीपल एंड एन एम्पायर’ भी गांधी को समझने के लिहाज से उम्दा जीवनी है। वे बापू के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी के पुत्र हैं। राज्यसभा सांसद रहे राजमोहन गांधी को उनकी इस पुस्तक के लिए साल 2007 में इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस ने भी सम्मानित किया। ये जीवनी कई भाषाओं और देशों में छप चुकी है।राजमोहन के अनुज रामचंद्र गांधी ने भी बापू पर कई नाटक लिखे और एक फिल्म भी बनाई। प्रख्यात नाटकार रामचंद्र गांधी ने गांधी जी की पुस्तक सच से साक्षात्कार के छठे और दसवें अध्यायों के आधार पर एक नृत्य नाटिका ‘सनमति’ लिखी। रामचंद्र गांधी बड़े चिंतक थे। कई विश्वविद्लायों में पढ़ाते भी रहे। अपने दोनों अग्रजों राजमोहन और रामचंद्र की तरह गोपालकृषण गांधी भी तगड़े लिक्खाड़ हैं। उन्होंने गांधी जी पर ‘गांधी एंड साउथ अफ्रीका’, ‘गांधी इज गोन- हू विल गाइड अस’ और ‘गांधी एंड श्रीलंका’ लिखी। वे पूर्व आईएएस अफसर हैं और पश्चिम बंगाल के गर्वनर भी रहे हैं। वे अपने बाकी भाइयों की तरह सच में सरस्वती पुत्र हैं। कई भाषाओं में स्तरीय लेखन करते हैं।
बापू के दक्षिण अफ्रीका में बसे संबंधी भी उन पर कलम चलाने में पीछे नहीं हैं। गांधी जी के दूसरे पुत्र मणिलाल की पुत्री इला गांधी ने अपने दादा पर कोई पुस्तक तो नहीं लिखी पर वे उन पर लगातार निबंध या अन्य सामग्री लिखती रहती है। इला जी दक्षिण अफ्रीका की सांसद भी रही। वह नेल्सन मंडेला की पार्टी अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की चोटी की नेताओं में हैं।
डा. उमा धुपलिया मिस्त्री मणिलाल गांधी की पौत्री हैं। उन्होंने ‘गांधी प्रिसनर’ लिखी। इसमें उन्होंने गांधी जी के अपने चारों पुत्रों के साथ संबंधों को आधार बनाया। इन सबके बीच हुए पत्र व्यवहार के आधार पर उन्होंने बापू के अपने पुत्रों से संबंधों को नए परिप्रेष्य में लिखा। इस पुस्तक को दक्षिण अफ्रीका में बहुत पसंद किया गया। नेल्सन मंडेला ने भी इसकी प्रशंसा की। डा. उमा केपटाउन यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाती हैं। उमा जी ने बताया कि साउथ अफ्रीका में गांधी जी से जुड़ी हर किताब हाथों-हाथ बिक जाती है।
महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी ने कुछ साक्ष्यों और जानकारी के आधार पर एक किताब लिखी ‘लेट्स किल गांधी।’ इसमें उन्होंने गांधी की हत्या के पीछे के अनसुलझे पहलुओं और वजहों को जानने की कोशिश की है। तुषार गाँधी का कहना है कि उनकी किताब लेट्स किल गाँधी बापू पर देश के विभाजन और मुसलमानों का पक्षधर होने जैसे आरोप लगाने वालों के लिए करारा जवाब है। वे कहते हैं, “मेरी किताब में उन लोगों के आरोपों का जवाब है जो बापू की हत्या को ये कहकर ज़ायज ठहराने की कोशिश करते हैं कि ‘बापू’ मुसलमानों के पक्षधर थे और हिंदुओं तथा भारत माता के लिए खतरा थे या फिर भारत के विभाजन के लिए ज़िम्मेदार थे।”
जैसी कि पहले भी चर्चा की गई है कि गांधी जी की आगे भी नई-नई जीवनियां और अन्य पुस्तकें आती रहेंगी। पर गांधी जी को समग्र रूप से जानने के लिए हमें जोसेफ डोक और लुई फिशर को तो पढ़ ही लेना चाहिए।
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धन्यवाद विवेक जी !
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