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सेक्स( जेंडर से इतर अर्थों में ), शिव, कामसूत्र और किन्नर समुदाय:

 युवा शोधार्थी प्रियंका नारायण बहुत सामान्य लगने वाले विषयों पर बहुत असामान्य ढंग से लिखती हैं। हिंदी में ऐसे युवा बहुत कम हैं जो परम्परा ज्ञान से भी समृद्ध हों। उदाहरण के लिए यह लेख पढ़िए-

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सेक्स वैसे तो एक सहज प्राकृतिक शारीरिक प्रक्रिया है। यह जितना शारीरिक है उतना ही मनोवैज्ञानिक भी। जितना सामाजिक है उतना ही सांस्कृतिक भी। यह जितना कलात्मक है उतना ही दार्शनिक भी और इन सबसे ऊपर उतना ही मिथकीय भी। जेंडर से इतर अर्थों में यह समाज की जितनी बड़ी सच्चाई है उससे कहीं बड़ा मिथ भी- जितना इसे परिभाषित करना कठिन है उससे कहीं ज्यादा यह निर्धारित करना कठिन है कि आखिर क्यों सेक्स को लेकर अभी तक हमारे समाज में ( अगर हम सिनेमा और पोर्न की दुनिया छोड़ दें,यहाँ दूसरी तरह की सहजता है ) सहजता नहीं है। वह भी तब जबकि प्रजनन एवं वंश वृद्धि एक अनिवार्य घटना है। यह समझ पाना बहुत मुश्किल है कि जिसकी समानता साहित्य में ‘ब्रह्मानंद सहोदर’ और दर्शन में जिसे ‘उच्च सत्य’ तक पहुंचने का मार्ग बताया गया हो उस पर खुल कर बात कर पाना इतना असहज क्यों बना देता है सभ्य समाज को।

अगर समूची वैश्विक सभ्यता को देखें तो ‘भूख’ और ‘सेक्स’ ही इनकी जननी रही है। सभ्यता के प्रस्थान बिंदु के साथ ही  मनुष्य के संघर्षों में भी वृद्धि होती चली जाती है। संघर्ष भावों का विस्तार करते हैं और भाव आवश्यकताओं को जन्म देती हैं और अंततः ये आवश्यकताएं ( ये आवश्यकताएं पुन: संघर्ष व भाव को जन्म देती हैं ) आविष्कारों को जन्म देती है। सभ्यता के आरम्भ में कुछ बाह्य भौतिक, अभौतिक अविष्कार स्वत: भी हुए होंगे लेकिन भूख और सेक्स मनुष्य के साथ ही जन्मा होगा। इससे बस थोड़ा – सा आगे जाने पर अकेले न रह पाने की स्थितयों ने लगाव और फ़िर प्रेम जैसी स्थिति को जन्म दिया होगा। एकांत, अकेलेपन और प्रकृति के हाहाकार के बीच कभी आदम ने घबराकर खोजा होगा इव को और इव को भी आदम के मिलते ही एक सुरक्षा और आत्मीयता के अजनबी भाव ने घेर लिया होगा। उसमें अचानक पा जाने का उल्लास भी मिश्रित हो गया होगा। ऐसे जन्मा होगा हर्षातिरेक और फिर उल्लास। और फिर इनकी गर्माहट ने जन्म दिया होगा प्रेम को। घृणा शायद बहुत बाद में उपजी होगी जब अधिकार और प्रभुत्व की भावना ने जन्म लिया होगा। फ़िर धीमे – धीमे वैचारिकी समृद्ध हुई होगी और मनुष्य के बीच सामर्थ्यहीनता और अपने बौनेपन की अनुभूतियों के बीच क्रमशः ईश्वर, पूजा, कर्मकाण्ड और अंततः धर्म ने अपनी जगह बनाई होगी।

सभ्यता ने जब लम्बा सफ़र तय कर लिया तब एक नयी और समूची सभ्यता को बदल देने वाले अविष्कार के रूप  में विनिमय और क्रमशः बहुत बाद में मुद्रा का अविष्कार हुआ होगा ।लेकिन घूम कर बात वहीं आ जाती है कि चाहे कितने भी बड़े भौतिक और अभौतिक अविष्कार ( चाहे वे आधुनिक वैज्ञानिक रहे हो या फिर दार्शनिक ) क्यों न हुए हों यहाँ तक कि हम वर्तमान समाज तक की बात कर लें, भूख और सेक्स मनुष्य की जन्मजात आवश्यकताएं हैं।

प्रकृति के सौन्दर्य की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति उसके सृजन में ही है। मोर का नृत्य करना हो या फूल का खिलना, कोयल का कूकना हो या मंजरों का बौराना, प्रजातियों का यौवन हो या मानवीय भावों का उद्दाम आवेग, ये सेक्स की ही अभिव्यक्ति है। इनसे वंचित होना वृद्धत्व को प्राप्त करना है। सौन्दर्य के इस स्वरूप का चिंतन, सराहना और उसकी उद्दाम शक्तियों के आगे सम्पूर्ण विश्व नतमस्तक होता है। एक बच्चा भी खिलते फूल, नाचते मोर और कूकते कोयल को देख सुनकर किलक उठता है। वृद्ध की झूर्रियों में भी खिंचाव आने लगता है वसंत के आगमन पर, फिर युवाओं का कहना ही क्या ? रक्त में उठने वाले उष्ण प्रवाहों से कौन लड़ पाया है ?

 ऐसे में यदि प्रकृति के उत्सव से कदम – ताल करते हुए उनके पैर थिरक उठते हैं तो इतना शोर क्यों ? उनके प्रेम के प्रवाह पर इतना हंगामा क्यों ? किसी युवती को प्रेम में पड़ते देखकर इतनी बंदिशे और कानाफूसी क्यों? जबकि जड़ वृक्ष भी अपने को झाड़कर रक्तिम किसलयों के प्रसव पर आनंद मनाने लगते हैं। न जाने किसका बीज प्रसव का कारण होता होगा लेकिन कोई द्वंद्व नहीं, कोई लज्जा नहीं, कोई शोक नहीं, बस है तो केवल एकमात्र सृजनोत्सव और क्या यह आश्चर्य नहीं कि हम भी इस उत्सव में सोल्लास सम्मिलित होते हैं।

सम्पूर्ण प्रकृति में कहीं द्वंद्व नहीं है सेक्स और सृजन को लेकर, है तो एकमात्र मनुष्य में। सेक्स का हमने इतना विरोध किया है कि सेक्स कुंठा बनकर हमारे फन फैलाये बैठ गयी और जब तब अपना जहर उगलने लगी। कुंठा ने कभी बलात्कार को उकसाया तो कभी स्त्री – पुरुष के संबंधों की रसपूर्ण कहानियों, कविताओं में ही हम उलझ कर रह गयें। किताबें इस तरह से भरने लगीं कि हम उसकी शास्त्रीयता, उसकी आवश्यकता, व्यावहारिकता और सहजता की चर्चा न करके उसके उत्तेजक भावों में ही डूबे रह गये। उत्तेजना और रस भाव में डूबे रहने के नैरंतर्य से सेक्स का प्राकृतिक स्वभाव नष्ट होता चला गया और जबकि अन्य प्रजातियों में सेक्स ऋतु अनुसार या निश्चित समयावधि में बंधी रही मनुष्य में यह  पूरे वर्ष में फैल गया।

युवाओं का जो कर्म और उत्थान का समय है उसका अधिकांश भाग सेक्स और उससे संबंधित क्षणों के विवेचन और कल्पना में ही गुजरने लगा। सच तो यह है कि  हम इसकी गणना करने में बुरी तरह असफल  हैं। प्रत्येक पल जितने ही नियंत्रण की बात की  उतने ही अनियंत्रित होते गये हैं हम। क्या हमने कभी सोचा है कि सभ्यता और संस्कृतियों के बोझ को ढोते – ढोते हम कितने कृत्रिम हो चुके हैं कि हम स्वयं से ही बिछड़ गयें हैं। कृत्रिमता के इतने लिहाफ़ हमने ओढे हैं कि अपनी नैसर्गिकता को ही खो दिया है। एक अकड़ – मनुष्य होने की, सभ्य होने की हमेशा हमसे चिपकी रहती है। दंभ है हमें अपने सभ्य और सुसंस्कृत होने पर और दिलचस्प यह है कि इस दंभ ने हमें अपने ही समाज के अपने ही अंगों को काटकर अलग कर दिए जाने पर मजबूर कर दिया  है।

हिजड़ा वर्ग की व्युत्पत्ति, उनका अलगाव, उनका दर्द, तनाव, संघर्ष, उनके जीवन का अंधकार, उनकी छटपटाहट का अधिकांश सेक्स सम्बन्धी इन्हीं अनर्गल मानसिकताओं की देन है। हमने भूख को तो स्वीकार कर लिया, लेकिन सेक्स को लेकर असहजता बनी रही हमारे समाज में और बनी रही असहजता हिजड़ा समुदाय या इस प्रकार के अन्य लैंगिकता को लेकर। हमने दो सीधी लकीर खींच दी। बना दिया एक स्त्री और बना दिया एक पुरुष। इससे दायें नहीं इससे बायें नहीं। क्योंकि संभवतः प्रकृति की ये श्रेष्ठ कृति थी।

जितना ज्यादा सौन्दर्य उतनी ज्यादा स्वीकृति और इन दोनों में भी स्त्री सर्वश्रेष्ठ कृति सिद्ध हुई इस  प्रकृति की ।सारी सभ्यता साष्टांग दण्डवत के भाव में आ गयी ।इतना कि सौन्दर्य को पूजने के भाव जन्में , आरम्भ हुआ पूजन , अर्चन और स्त्री बन गयी देवी। [ फिर क्या था हो गया सत्यानाश । स्त्री न मानवी रही न मानवता के प्रति आदरणीय ही, हो गयी पूजनीय। उसे आदत पड़ गयी पूजे जाने की, (देखिये न सिन्धु घटी की सभ्यता मात्त्री सत्तात्मक थी ) पूजे जाते – जाते,पूज्य होने के छद्म गर्व और छद्म पूजन में ही उसकी बुद्धि चली गयी ।बचा रह गया सिर्फ़ ह्रदय और देह। सभ्याताकारों ने उसके ह्रदय को भी न छोड़ा ।उसके ह्रदय को लेकर इतने कसीदे काढ़े कि वह उसे ही लेकर इतराने लगी और हर जगह ह्रदय ही लेकर डूब जाती। बुद्धि गयी, ह्रदय गया ( वैदिक युग से मध्य युग ) फिर बची रह गयी है देह। अब आया है आधुनिक युग – उपभोगतावाद और बाजारवाद का दौर, बची रह गयी है देह। सो उसे भी चमकाया जा रहा है, गुण गाया जा रहा है, पूजा जा रहा है देखिए कब डूबती है यह देह। बुद्धिमान होकर हम देह पूजा करा रहे हैं। लेकिन देह के वास्तविक अर्थों से वाकिफ़ भी नहीं हैं, अब इसे भी जाना तय है फिर शुरू होगा कोई नया युग] खैर तब जबकि यह पूजन – कीर्तन चल रहा था, प्रकृति की नैसर्गिकता पर बोझ लादे जा रहे थे एक वर्ग था जो न स्त्री था न पुरुष छूटा जा रहा था। वह खींची गयी दो लकीरों से अलग था इसलिए छूट गया। पुराणों के बिल्कुल आरम्भ में प्रजनन के आगे बढ़ने के समय ही सुद्युम्न या इला की बार – बार होने वाली चर्चा इनके असितत्व और इनके सम्मान पर मुहर लगाती है। फिर आख़िर ऐसा क्या, क्यों और कैसे हुआ कि ये छूटते चले गये।

हाँ यह वर्ग था, हमारे जैसा था, हममें से था, सुद्युम्न या इला का राजपद बार – बार यहीं दुहराता है कि कहीं कोई दुराव नहीं था। लेकिन जैसे – जैसे सभ्यता के सांचों ने आकर लेना शुरू किया, संघर्ष ने जन्म लिया, भावों में विस्तार आना शुरू हुआ, काम की दुनिया में भी नये – नये प्रयोग होने शुरू हुए। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार विभागों का जन्म हुआ…

कहते हैं “ प्रजापति ब्रह्मा ने मानव जीवन को नियमित और व्यवस्थित बनाने के उद्देश्य से, त्रिवर्ग के साधनभूत, एक लाख अध्यायों वाले एक शास्त्र का प्रवचन किया था। इस सुविशाल संविधान से मनु ने धर्मविषयक अंश को पृथक कर ‘मनुस्मृति’ की रचना की, वृहस्पति ने अर्थविषयक अंश को पृथक कर ‘बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र’ की रचना की और महादेव के अनुचर नंदी या नंदकेश्वर ने कामविषयक अंश को पृथक कर ‘कामसूत्र’ की रचना की” (१.) फिर श्वेतकेतु , आचार्य बाभ्रव्य से होते हुए कामशास्त्र एक अखण्ड चिंतन परम्परा के रूप में विकसित होती चली गयी।  वात्स्यायन के यहाँ तृतीय लिंग या तृतीय प्रकृति के रूप में इनकी चर्चा भी मिलती है। चूकि वात्स्यायन ने काम चिंतन को दो सम्प्रदायों के आचार्यों के विचारों के रूप में उल्लेखित किया है इसलिए निश्चित है कि इनसे पहले के आचार्यों के यहाँ भी तृतीय लिंग की चर्चा निश्चित रही होगी। लेकिन बाभ्रव्य ने इस शास्त्र को अधिकरणों में विभक्त कर दिया। साधारण, साम्प्रयोगिक, कन्यासम्प्रयुक्त, भार्याधिकारिक, पारदारिक, वैशिक और औपनिषदिक इन सात अधिकरणों में विभक्त करके उसका संक्षिप्तीकरण कर दिया तब बहुत कुछ ऐसा रहा होगा कि उसके छूटने की प्रक्रिया शुरू हुई होगी।

इसके बाद अलग – अलग अधिकरणों के मांग की परम्परा ने जन्म लिया। पाटलीपुत्र की वेश्याओं के अनुरोध पर आचार्य दत्तक ने वैशिक भाग का स्वतंत्र संपादन किया। चारायण ने साधारण, आचार्य सुवर्णाभ ने साम्प्रयोगिक, आचार्य घोटकमुख ने कन्यासम्प्र्युक्तक को, आचार्य गोनर्दीय ने भार्याधिकारिक को , आचार्य गोनिकापुत्र ने पारदारिक को और आचार्य कुचुमार ने औपनिषदिक को बाभ्रव्य के शास्त्र से पृथक कर उसका स्वतंत्र विकास एवं संपादन किया। जहाँ वैश्याएँ वैशिक को महत्त्व देती तो अमर्यादित पुरुषों की रूचि पारदारिक में थी। जिस अधिकरण की मांग जितनी हुई उस पर उतना लिखा गया। अंततः कामसूत्र बिखर गया । जनसंख्या के आनुपातिक रूप और मांग की परिकल्पनाओं के बीच कामसूत्र का वास्तविक रूप सिमट गया और यहीं से सिमटना शुरू हुआ होगा बहुत  कुछ।

      दूसरी तरफ़ इन्हीं प्रयोगों के बीच जो मापदंड बनाये गयें उन्होंने एक मनोविज्ञान को जन्म दिया। एक नैसर्गिक मानव के अन्दर काम सम्बन्धी मनोलोक का निर्माण हुआ होगा। एक तरफ़ उसकी अभिरुचियों को समझने की कोशिश की तो दूसरी तरफ़ उसे निर्मित करने की प्रक्रिया को भी गति दी।

 प्रकृति की नैसर्गिक कामेच्छा ने कलात्मकता सीखनी शुरू की होगी  ऐसे नहीं इस तरह , फिर इस प्रकार और इस तरह की आवृत्ति ने आसनों को  जन्म दिया होगा जो कामानंद को शिखर प्रदान कर सके। ओशो लिखते हैं कि मानव ने विषयानंद के उत्कर्ष पर ही समझा होगा कि परमानन्द या परम शांति या विचार मुक्ति का आनंद क्या होता है? लग गयी होगी समाधि ।और तब उसने जानने की चेष्टा की होगी कि  क्या काम से पृथक होकर भी इस तरह के आनंद को प्राप्त किया जा सकता है ? इस विचार के जन्म से ही शुरू हुई होगी चिंतन, कला, दर्शन अंततः ध्यान और योग। ऐसे काम ने पाया होगा अपना परिष्कार। कामानंद ने की होगी यात्रा ब्रह्मानंद की ।

मापदंड उच्च से उच्च स्थापित किये जा रहे होंगे। कलात्मकता बढ़ती जा रही होगी। दर्शन घनीभूत होता जा रहा होगा लेकिन मापदंडों की श्रेष्ठता, कला की उच्चता और दर्शन की घनीभूतता तनिक भी विक्षेप सहन नहीं करती। ऐसे में तृतीय प्रकृति ने सामंजस्य बिठाना चाहा होगा। उसकी देह पृथक थी, भावनाएं पृथक। पुरुष देह में स्त्री भावनाएं छटपटाती होंगी। जब उसने पहली बार सम्भोग को छुआ होगा, हतप्रभ रह गया होगा वह। ये क्या? उभरा होगा अंतर और बाह्य के बीच का द्वन्द्व। शरीर ने कुछ और किया होगा और मन ने कुछ और चाहा होगा या फिर कौन जाने इस स्थति तक आने से कहीं पहले कई संघर्ष गुजर चुके होंगे देह और मन के बीच। तो कुछ और ही चाहा होगा तृतीय प्रकृति ने।

पुरुष देह( हिजड़ा के सन्दर्भ में है हिजड़ी नहीं ) में होते हुए भी उसने चाहा होगा पुरुष को लेकिन योनि कहाँ थी उसके पास, जहाँ पुरुष प्रविष्ट हो पाता और छू पाता उसके अन्दर के प्रेम को। लेकिन अभी समय था उसके पास ।अभी काम को समझा जा रहा था। पुरुष और स्त्री भी अभी समझ ही रहे थे सब कुछ। इसलिए वह भी बना रहा। लेकिन ज्यों – ज्यों विकसित होता गया होगा कामशास्त्र, ज्यों – ज्यों काम कला के आसनों को समझा जा रहा होगा और गढ़ा जा रहा होगा दर्शन, त्यों – त्यों समझा जाने लगा होगा कि तृतीय प्रकृति का अधूरापन क्या, कहाँ और कैसे है ? उसके पुरुष जननांग, अविकसित योनि कहाँ कामानंद में बाधा दे रहे हैं। कहाँ पुरुषों के साथ सम्भोग में व्यवधान आ रहा है और कहाँ स्त्री के साथ। फिर पहली बार हल्की – सी उपेक्षा शुरू हुई होगी। जन्मा होगा बीज भाव उपेक्षा का लिंगों के बीच ।फिर गहराता चला गया होगा। अलग कर दिया गया होगा तृतीय लिंग समाज से। दो पूर्ण और समानांतर लकीरों के बीच तीसरी लकीर के लिए स्थान ही नहीं रह गया होगा। कामकला के परिष्कृत चौंसठ आसनों के बीच जगह ही शेष नहीं रह गया होगा इनके लिए|

अधूरी रह गयी होगी काम से प्रेम तक की यात्रा। अधूरी रह गयी होगी कामाध्यात्म की यात्रा। एक छटपटाहट , पागल बना देने वाली बेचैनी उभरी होगी। जन्म लिया होगा अधूरेपन के भाव ने। चीत्कार कर उठा होगा उसका अंतस थोड़ा – सा भी विलगाव हमारे आनन्द पर हावी न हो इसलिए लिंग व संलग्न योनि को पूजने तथा सम्पूर्ण विश्व को स्त्री ( शक्ति) का गर्भ मानने वाली (हम सब गर्भ के अन्दर हैं ऐसी परिकल्पना पौराणिक मिथकों में मिलती है) हमारी प्रजाति ने इन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। इस तरह कामसूत्र के ‘औपरिष्टक प्रकरण’ को रचा गया जहाँ तृतीय लिंग की प्रकृति  उसके सम्भोग सम्बन्धी स्थतियों और उसकी आजीविका के सम्बन्ध में विस्तार से निर्देश दिए गये हैं।

यह जानकर थोड़ा आश्चर्य भी होता है कि कैसे जबकि वर्तमान सभ्यता अपने विकास के बिल्कुल आरंभिक दौर में थी गहन चिंतन, विश्लेषण के द्वारा तृतीय लिंग के कर्म और आजीविका को निर्धारित कर दिया गया और उससे भी बड़ा आश्चर्य यह है कि सभ्यता ने इतनी यात्राएं की, पड़ाव डालें और फिर आगे के सफ़र की ओर कदम बढ़ाया, लेकिन इनके लिए निर्धारित कर्म में कोई तब्दीली  नहीं ही आने पाई।

शिव, कामसूत्र और औपरिष्टक प्रकरण :

काम संबंधी चिंतन और किन्नर की समुदाय दोनों की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी शिव से जुड़ती है और यह परम्परा अंततः किरात जाति से जाकर जुडती है| शिव के सम्बन्ध में एक सामान्य मान्यता रही है कि शिव आर्येत्तर देवता थे। कभी उनके कबिलाई होने तो कभी उनके द्रविड़ होने सम्बन्धी मान्यताएं व्यक्त की जाती रही है और शिव का किरात रूप तो परम्परा से मान्य हैं ही। ऐसे में अगर शिव एक पद या परम्परा रहा हो तो यहाँ हम मान सकते हैं कि एक शिव किरात जाति से भी रहे हों और उन शिव के अनुचर (या पदानुक्रम के अनुरूप) नन्दीश्वर ने ‘कामसूत्र’ की रचना की हो। कहते तो यह भी हैं कि शिव और पार्वती हजार वर्षों तक रमण करते रहें और नन्दीश्वर उसी का वर्णन कामसूत्र के एक हजार अध्यायों में करते हैं। तत्पश्चात इसी कामसूत्र को उद्दालक ऋषि के पुत्र श्वेतकेतु ने पांच सौ अध्यायों में संक्षिप्त किया और कामाध्य्य्न की परम्परा चल पड़ी।

यहाँ यह भी सम्भावना बनती है कि आर्यों की जीवंत और चिंतन प्रधान सभ्यता का काम सम्बन्धी व्यावहारिक चिंतन (क्योंकि सैद्धांतिक चिंतन की चर्चा ऋग्वेद में है) किरातों से ही प्रेरित हुआ हो। क्योंकि शिव के किरात रूप की चर्चा और आर्य अर्जुन की शिव से दीक्षा (हालांकि वह धनुर्विद्या की चर्चा है ) लेने का उल्लेख भी पुराणों, महाभारत, एवं प्राचीन संस्कृत साहित्य में मिलता है।

      यह सच है कि वैश्विक सभ्यताएं तब इस पक्ष में खुला और निर्द्वन्द्व दृष्टिकोण रखती होंगी क्योंकि ऐसा नहीं होता तो एक ही समय में तब जबकि भारत में वात्स्यायन कामसूत्र की रचना कर रहे थे ठीक उसी समय चीन में इसे आराधना के सोपान के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा रहा होता या फिर संत ऑगस्टीन ‘कान्फेशनस’ नहीं लिख रहे होते। हालांकि यह भी उतना ही बड़ा तथ्य है कि आदम और हौआ की कहानी में संतति एक अपराध से जन्मा बताया गया है और मिथकीय स्वरुप में गढा जाने वाला बाग और सेब दरअसल सेक्स, उसके आनंद और उसके विध्वंस की ओर ही संकेत कर रहा है। संभवतः यहाँ यह संकेत किया जा रहा है कि कैसे यह एक तरफ़ आनन्द का विषय हो सकता है और दूसरी तरफ़ विध्वंस का।

 यहाँ विस्तार से चर्चा करते हुए हम कामसूत्र में हिजड़ा या हिजड़ी समुदाय के लिए निर्धारित औपरिष्टक प्रकरण के माध्यम से हम समझ सकेंगे कि कैसे इनके लिए निर्देश तैयार किये गयें। पहले एक बार कामसूत्र की स्थितियों का मूल्याङ्कन देख लें।

आचार्य वात्स्यायन के पहले भारत में कामशास्त्र की विस्तृत परम्परा थी लेकिन उनके समय तक आते- आते यह परम्परा ध्वस्त हो चुकी थी| कहा जा सकता है कि अध्ययन के इस अनुशासन को वात्स्यायन ने फिर से जीवन प्रदान किया| उन्होंने कामसूत्र के बिखरे हुए अध्यायों को संकलित कर उसकी शास्त्रीयता और सर्वांगीण अध्ययन को ध्यान में रख कर कामसूत्र का प्रणयन किया। यद्यपि महर्षि वात्स्यायन वैयक्तिक स्वतंत्रता के पक्षधर अवश्य हैं लेकिन उच्छृंखलता के नहीं। उन्होंने काम के ऊपर मर्यादित प्रतिबंधों की अनिवार्यता को  अवश्य स्वीकार किया है। काम संबंधों की एकनिष्ठता उन्हें मान्य रही है।

कामसूत्र में निर्देशित औपरिष्टक प्रकरण :

कामसूत्र में कुल सात अधिकरण , छत्तीस अध्याय, चौंसठ प्रकरण और एक हजार दो सौ पचास सूत्र हैं। कामसूत्र के सात अधिकरण क्रमशः साधारण, संप्रयोग, कन्यासम्प्रयुक्त, भार्यधिकारिक, पारदारिक, वैशिक एवं औपनिषदिक हैं। प्रथम अधिकरण ‘साधारण’ है। इसमें पांच अध्याय और पांच प्रकरण है। यह अधिकरण कामसूत्र की पूर्व पीठिका है ।दूसरा अधिकरण ‘साम्प्रयोगिक’ है। इस अधिकरण में दस अध्याय और सत्रह प्रकरण है। इसमें स्त्री पुरुष की सम्भोग की विधियाँ वर्णित है। इसी अधिकरण का नवां अध्याय “औपरिष्टक प्रकरण” है जो मुख्यतः किन्नर समुदाय पर केन्द्रित है। कामसूत्र का तृतीय अधिकरण ‘कन्यासम्प्रयुक्तक’ है। इस अधिकरण में पांच अध्याय और नौ प्रकरण है। यह अधिकरण मूल रूप से अविवाहित कन्या के चुनाव से विवाह तक की स्थितियों का वर्णन है। चतुर्थ अधिकरण ‘भार्यधिकारिक’ है। इसमें पति का पत्नी और पत्नी का पति के प्रति कर्तव्यों की चर्चा की गयी है। पंचम अधिकरण पारदारिक  है। इसमें छ: अध्याय और दस प्रकरण है। इस अधिकरण में परस्त्री और परपुरुष के प्रेमसंबंधों की गहन विवेचना की गयी है। छठा अधिकरण वैशिक है। इसमें छ : अध्याय और बारह प्रकरण है। इसमें वेश्याओं को मार्गदर्शन दिया गया है। सातवाँ और अंतिम अधिकरण ‘औपनिषदिक’ है। इसमें दो अध्याय और छ : प्रकरण है। यह कामसूत्र का परिशिष्ट मात्र है।

कामसूत्र के दूसरे अधिकरण के नवें अध्याय के रूप में औपरिष्टक प्रकरण की चर्चा की गयी है। औपरिष्टक का सामान्य रूप से अर्थ मुख – मैथुन (ओरल सेक्स) होता है। यह एक जुगुप्सित मैथुन की प्रक्रिया मानी गयी है। इसका सम्बन्ध मुख्य रूप से तृतीय प्रकृति से बताया गया है। सामान्य स्त्री – पुरुषों के लिए इस प्रकार के सम्बन्ध को वर्जित बताया गया है । आलिंगन से लेकर विपरीत रति तक चारों प्रकार की नायिकाओं कन्या, पुनर्भु, वेश्या और परकीया के विषय में बताने के बाद वात्स्यायन  तृतीय प्रकृति के लिए ‘तृतीय प्रकृति: पंच्मीत्येके’ अर्थात् नपुंसक को पांचवी नायिका के रूप में स्वीकार करते हैं।

 वात्स्यायन लिखते हैं

                 “द्विविधा तृतीयाप्रकृति: स्त्रीरुपिणीपुरुषरूपिणी च”

तृतीय प्रकृति के दो भेद हैं – एक स्त्री रूपधारी और दूसरा पुरुष रूपधारी। तृतीय प्रकृति को नपुंसक कहते हैं। एक स्तन आदि से युक्त होने के कारण स्त्री – जैसा होता है, दूसरा मूंछ – दाढ़ी आदि होने से पुरुष जैसा। इन दोनों की जीविका के लिए औपरिष्टक का विधान है। ( १) डॉ. रामानंद शर्मा स्पष्टीकरण देते हुए लिखते हैं – “ जो न पुरुष है और न स्त्री , उसे नपुंसक कहते हैं। वस्तुतः पुरुष या स्त्री होते हुए भी उपस्थ ( लिंग ) विषयक दोष के कारण ये नपुंसक कहलाते हैं। जिस पुरुष का शिश्न ही न हो, अथवा इतना छोटा हो कि वह समागम में असमर्थ रहे , वह नपुंसक है।

 इसी प्रकार जिस स्त्री को योनि ही न हो अथवा इतना छोटा हो कि समागम में असमर्थ रहे वह नपुंसक है। महर्षि वात्स्यायन ने इन्हें ही क्रमशः पुरुषधारी और स्त्री रूपधारी नपुंसक कहा है। हिंदी भाषा में इन्हें क्रमशः हिजड़ा और हिजड़ी कहते हैं ।” ( ५१०)

वात्स्यायन आगे लिखते हैं

                “सा ततो रतिमाभिमानिकीं वृत्तिं च लिप्सेत ||४||”

 स्त्रीरूपिणी नपुंसक नायिका औपरिष्टक कर्म अर्थात् मुखमैथुन से रतिसुख प्राप्त करती है और अपनी जीविका चलाती है। यहाँ वात्स्यायन इनकी जीविका के रूप में इस कर्म का उल्लेख करते हैं जबकि वात्स्यायन औपरिष्टक कर्म को वेश्याओं के अतिरिक्त पति – पत्नी के संबंध में वर्जित मानते हैं। इस प्रकार के कर्म करने वालों में वे परिचारक, दास, महावत, नागर व वेश्याओं का उल्लेख करते हैं। लेकिन सीधे – सीधे कहते हैं कि संसार में, समाज में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो शुचि – अशुचि , उचित- अनुचित , कर्तव्य – अकर्तव्य का विचार नहीं करते और चुम्बन, औपरिष्टिक ( मुख मैथुन ) और रतिक्रिया में प्रवृत्त रहते हैं। इसी प्रकार कुछ ऐसे देश हैं जहाँ इस प्रकार के कुकर्म करने की परम्परा है। हालांकि उस समय भी समाज में हिजड़ा समुदाय के लिए आजीविका की कोई अन्य वृत्ति नहीं थी। इसलिए वे हिजड़ा समुदाय के लिए इस प्रकार से जीवन – यापन को सही मानते हैं।

स्त्रीरूपधारी नपुंसक ( हिजड़ी )

ऊपर स्त्री रूपधारी और पुरुष रूपधारी नपुंसक की चर्चा की गयी है। स्त्री रूपधारी नपुंसक के सम्बन्ध में वात्स्यायन लिखते हैं –

इसमें जो स्त्री रूपधारी नपुंसक ( हिजड़ी ) है , उसे स्त्रियों की वेशभूषा, बोल – चाल, लीला, भाव, मृदुता, भीरुता, मुग्धता, असहिष्णुता, और सल्लज्त्ता का अनुकरण करना चाहिए ।।२।।

इनमें जो स्त्री रूपधारी है, उसे अपना स्त्रीत्व दिखाने के लिए सभी स्त्रीधर्मों का अनुकरण करना चाहिए। उसे स्त्रियों के समान ही केशसज्जा करनी चाहिए और उसी प्रकार वस्त्रधारण एवं श्रृंगार करना चाहिए , स्त्रियों के समान ही धीमी आवाज में बोलना चाहिए , उन्हीं के समान मंद – मंद गमन और हाव – भावों का प्रदर्शन करना चाहिए। स्त्रियों के ही समान सुकुमारता, भीरुता, सरलता, असहिष्णुता और सल्ल्जता धारण करनी चाहिए।

औपरिष्टक का स्वरुप

 औपरिष्टक का स्वरुप विवेचन करते हुए वात्स्यायन लिखते हैं

“ तस्या वदने जघनकर्म । तदौपरिष्टकमाचक्षते ।। ३।।”

नपुंसक के मुख में जो मैथुन किया जाता है , उसे ही औपरिष्टक कहते हैं।

पुरुष  लिंग और स्त्री योनि सम्भोग के दौरान जो कर्म करता है , वह कर्म स्त्री रूपधारी नपुंसक ( हिजड़ी ) के मुख में करना ही औपरिष्टक कहलाता है । ऊर्ध्वं होकर जो कर्म मुख में संपन्न किया जाये , वह औपरिष्ट है ।

औपरिष्टक का फल

सा ततो रतिमाभिमानिकीं वृतिं च लिप्सेत |।४ ||

ऐसी हिजड़ी आलिंगन, चुम्बन, कुचमर्दन आदि उपक्रियाओं से आभिमानिकी ( संकल्प मात्र से होने वाली ) रति का सुख प्राप्त करे और औपरिष्टक कर्म द्वारा अपनी जीविका भी चलाये, यानि आलिंगन आदि उसकी सुखानुभूति के साधन हैं और औपरिष्टक कर्म जीविका का साधन है ।

जो स्त्री रूपधारी नपुंसक है ( हिजड़ी ) है , वह आलिंगन , चुम्बन , कुचमर्दन आदि उपक्रियाओं से रतिसुख प्राप्त करे। अभिमानिकी प्रीति को दर्शाएं। औपरिष्टक कर्म से आजीविका चलानी चाहिए। इससे जो भी धन मिल जाये , वहीं जीवन यापन का साधन बने।

वात्स्यायन लिखते हैं  –

              “ वेश्यवच्चरितं  प्रकाशयेत। इति स्त्री रूपिणी” ।। ५।।

इसे वेश्या के सामान ही आचरण करना चाहिए ।

यह स्त्री रूपधारी ( हिजड़ी ) वेश्या के समान ही आचरण करती हुई , गम्यों के साथ औपरिष्टक कर्म में प्रवृत्त होती हुई रति और धृति को प्राप्त करती है।

 

पुरुष रूपधारी नपुंसक ( हिजड़ा )

पुरुष रूपधारी ( हिजड़ा , जिनके दाढ़ी – मूंछ होते हैं ) तृतीय प्रकृति पुरुष जैसी आकृति होने के कारण अपनी कामनाओं को छिपाये रखता है , किंतु रति के लिए चाहता पुरुष को ही है अतएव उसे मर्दन और संवाहन – मालिश और हाथ – पैर दबाने का कार्य करना चाहिए।नपुंसक स्त्री रूपधारी हो या पुरुष रूपधारी , रतिरूप औपरिष्टक दोनों में समान है परन्तु दोनों के चरित में अंतर है ।वह  भी आलिंगन , चुम्बन आदि के सुख को चाहता है, लेकिन उसकी कामनाएं छिपी हुई ही रहती है। पुरुष के समान आकृति होने के कारण उसके साथ कोई सहसा संप्रयोग नहीं कर सकता , अत:  वह रति सुखप्राप्ति की इच्छा करते हुए भी कह नहीं पाता । अत: उसे मर्दन और संवाहन ( मालिश और हाथ – पैर दबाना ) से अपनी आजीविका चलानी चाहिए।

इसके बाद वात्स्यायन उसकी परिस्थतियों का विचार करते हुए कहते हैं कि संवाहन कर्म करने पर भी विश्वास के आभाव में रति कैसे प्राप्त करेगा, अत : विश्वास प्राप्त करने की रीति कहते हैं –

“ संवाहने परिष्वजमानेव गात्रैरूरू नायकस्य मृदनीयात”।। ४.।।  

संवाहन कर्म में अपने शरीर से लगाते हुए ही नायक की जांघें दबानी चाहिए। संवाहन कर्म में, लेटे हुए नायक की जांघों को अपने शरीर से लगाते हुए ही दबाना चाहिए। चूंकि अभी विशेष परिचय नहीं हुआ है, इसलिए अपनी भावनाओं को छिपाते हुए अधिक नहीं करना चाहिए।

इस प्रकार धीमे – धीमे विश्वास में लेने के बाद ही वात्स्यायन पुरुष रूपधारी नपुंसक को औपरिष्टक कर्म में प्रवृत्त होने की अनुमति देते हैं। साथ में यह भी निर्देश देते हैं कि तृतीय प्रकृति को मुखमैथुन के पहले नायक से विवाद करना चाहिए और फिर बहुत ही कठिनाई से औपरिष्टक के लिए तैयार होना चाहिए। भले ही नायक ने यह समझ लिया हो कि यह नपुंसक मुखमैथुन कराता है और नायक इसके लिए कहे फिर भी उसे आसानी से सहमति नहीं देनी चाहिए। लेकिन यहाँ वात्स्यायन यह भी निर्देश देते हैं कि यदि नपुंसक स्त्री रूपधारी है तो वह काम का प्रकट चिन्ह है , इसलिए उसे तो बिना प्रेरित हुए भी सभी उपक्रम प्रारंभ के देने चाहिए ।

इसके बाद वात्स्यायन औपरिष्टक के आठ भेदों की चर्चा करते हैं और यह निर्देश देते हैं कि इन आठों क्रियाओं को नपुंसक अपनी मनोवृत्ति के अनुरूप नहीं बल्कि नायक के अभिप्राय के अनुरूप ही करे।

ये आठ भेद इस प्रकार हैं –

  • निमित
  • पार्श्वतोदष्ट
  • बहि: सन्दंश
  • अंत: सन्दंश
  • चुम्बितक
  • परिमृष्टक
  • आम्रचूषितक
  • संगर

आठों प्रकारों के विषद विवेचन के साथ ही कामसूत्र का ‘औपरिष्टक प्रकरण’ समाप्त हो जाता है और बहुत सारे प्रश्न हमारे सामने छोड़ जाता है। सबसे पहले तो यह कि सेक्स सभ्यता की आधारभूमि है लेकिन क्या सिर्फ़ इस वजह से ही एक पूरी की पूरी मानवीय स्थिति को नकार देना किस हद तक सही है? आगे आने वाले शोधकर्ता कई प्रकार के निष्कर्ष दे सकते हैं कि हिजड़ा समुदाय को समाज से बहिष्कृत करने के और भी कई कारण हैं। तमाम कारणों की संख्याएँ गिनवाई जा सकती है । लेकिन पूरे दावे के साथ कहा जा सकता है कि ‘तृतीय प्रकृति’ को समाज से बहिष्कृत करने का आधार कारण ‘सेक्स’ ही है। वात्स्यायन यह निर्णय तो देते हैं कि जो इस कर्म में लिप्त हैं उन्हें अपनी आजीविका इसी प्रकार चलानी चाहिए लेकिन प्रकारांतर से  ‘आजीविका’ इस प्रकार से चलाये जाने की सम्भावना व्यक्त करना भी अपने आप में बड़े सवालों को खड़ा करता है। वर्तमान सभ्यता मान्य इतिहास के इतने आरंभिक दौर में ही इस तरह की चर्चा आना और जिसकी परिणति हम आज तक की ट्रांसजेंडर संबधी जड़ स्थितियों में देखते हैं कितना सही है? क्या स्त्री और पुरुष जब सम्भोग करते हैं तो यह उनकी आजीविका की शर्तों तक पहुंचता है – नहीं। यह सभ्यता, संस्कृति और परम्परा के महान आदर्शों के साथ जुड़ जाता है। वेश्यावृत्ति को यहाँ आप कह सकते हैं लेकिन आप और हम सभी जानते हैं कि वेश्यावृत्ति भी सामान्य परिस्थतियों में नहीं पनपती है। स्वेच्छा का तो वेश्यावृत्ति से कोई सम्बन्ध ही नहीं है। फ़िर केवल यौनांग संबंधी दोषों या यौनांग से विपरीत सेक्स मान्यताओं के कारण एक बड़ी जनसंख्या (वर्त्तमान भारत में जनसंख्या संबंधी आंकड़ों सेन्सस २०११ के आंकड़ों के अनुसार ४.८८ लाख ) को समाज से बहिष्कृत कर देना किस हद तक उचित है , हमें एक बार समझना होगा ।

यह तो हुआ प्राचीन ऐतिहासिक और परिस्थातिजन्य विश्लेषण लेकिन उससे भी बड़ा प्रश्न यह है कि जिस धड़े के साथ जीवन- मरण का प्रश्न जुड़ा हुआ है उसे हम कितनी  संवेनशीलता से ले रहे हैं? क्या इसे चंद लेखों, शोधों और नये- नये विमर्श व आधुनिक फैशन तक सिमट कर रह जाना चाहिए या इनके जीवन में भी कुछ बदलाव आएगा ?

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9 comments

  1. शब्दशः जिसे एक सांस में पढ़ना कहते है वही हुआ इस लेख के साथ। एक ऐसे विषय पर जिस पर भारत का पुरुष समुदाय भी खुल कर बात करने में सक्षम नही है ((मैं इसे जानते हुए लिख रहा हूँ कि वो वास्तविकता में सक्षम नही है और इसे वो अपनी चुप्पी के पीछे चालाकी से छुपा ले जाता है) एक स्त्री द्वारा कलम चलाना साहस का काम तो है ही वो एक नए युग की दस्तक भी है। काम के संबंध में भारतीय वांग्मय में कितना कुछ लिखा गया है ये पहली बार पता चला इसके लिए व्यक्तिगत साधुवाद बनता है।
    कभी कभी ये प्रश्न भी मन मे उठता है कि काम पहले आया या भूख। मेरी दृष्टि में काम भूख से भी पुरातन है। ओशो का जिक्र काबिले तारीफ है क्योंकि आधुनिक काल मे पहली बार काम से उपजे सुख की ध्यान या समाधि से उपजे सुख से की। ये दीगर बात है कि जिस समाज मे अरबों पोर्न वीडियो तो बना डाले पर ओशो को सेक्स गुरु का दर्जा दे डाला। ट्रांसजेंडर की उत्पत्ति से लेकर उसके वर्तमान तक की अवस्था को इतने वैज्ञानिक तरीके से समझने की कोशिश उस वर्ग के लिए एक सीख है जो केवल विमर्श की भाषा ही समझते है पर उससे कोई हासिल नही होता(खुद के जुगाड़ से पाए पुरस्कारों के अलावा). बहुत सुंदर प्रस्तुति।

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