आज राही मासूम रज़ा की पुण्यतिथि है। उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘टोपी शुक्ला’ का एक अंश पढ़िए और उनको याद कीजिए। अंश राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास से साभार प्रस्तुत है-
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टोपी और अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी! हो सकता है कि आपमें से बहुत-से लोगों को यह बात आश्चर्य में डाल दे, क्योंकि हमने टोपी को जनसंघी बनने की हालत में देखा था। तो वह अलीगढ़ क्या करने आया जो मुसलिम साम्प्रदायिकता का गढ़ है?
मैं अगर केवल कथाकार होता तो इस प्रश्न का जवाब टाल जाता। परन्तु मैं आपको एक जीवनी सुना रहा हूँ। टोपी अलीगढ़ केवल इसलिए आया कि वह यह देख सके कि मुसलमान नौजवान किस तरह के ख़्वाब देखता है।
देखिए बात यह है कि पहले ख़्वाब केवल तीन तरह के होते थे- बच्चों का ख़्वाब, जवानों का ख़्वाब और बूढ़ों का ख़्वाब। फिर ख़्वाबों की इस फ़ेहरिस्त में आज़ादी के ख़्वाब भी शामिल हो गए। और फिर ख़्वाबों की दुनिया में बड़ा घपला हुआ। माता-पिता के ख़्वाब बेटे-बेटियों के ख़्वाबों से टकराने लगे। पिताजी बेटे को डॉक्टर बनाना चाहते हैं, और बेटा कम्युनिस्ट पार्टी का होल टाइमर बनकर बैठ जाता है। केवल यही घपला नहीं हुआ। बरसाती कीड़ों की तरह भाँति-भाँति के ख़्वाब निकल आए। क्लर्कों के ख़्वाब। मज़दूरों के ख़्वाब। मिल-मालिकों के ख़्वाब। फ़िल्म स्टार बनने के ख़्वाब। हिन्दी ख़्वाब। उर्दू ख़्वाब। हिन्दुस्तानी ख़्वाब। पाकिस्तानी ख़्वाब। हिन्दू ख़्वाब। मुसलमान ख़्वाब। सारा देश ख़्वाबों की दलदल में फँस गया। बच्चों, नौजवानों और बूढ़ों के ख़्वाब ख़्वाबों की धक्कमपेल में तितर-बितर हो गए। हिन्दू बच्चों, हिन्दू बूढ़ों और हिन्दू नौजवानों के ख़्वाब मुसलमान बच्चों, मुसलमान बूढ़ों और मुसलमान नौजवानों के ख़्वाबों से अलग हो गए। ख़्वाब बंगाली, पंजाबी और उत्तर प्रदेशी हो गए।
राजनीति वालों ने केवल यह देखा कि एक दिन हिन्दुस्तान से एक टुकड़ा अलग हो गया और उसका नाम पाकिस्तान पड़ गया। यदि केवल इतना ही हुआ होता तो घबराने की कोई बात न होती। परन्तु ख़्वाब उलझ गए और साहित्यकार के हाथ-पाँव कट गए। ख़्वाब देखना व्यक्ति, देश और उम्रों का काम है। परन्तु हमारे देश में आजकल व्यक्ति ख़्वाब नहीं देखता। जागते-जागते देश की आँखें दुखने लगती हैं- रही उम्रें- तो वे ख़्वाब देखना भूल गई हैं।
आख़िर कोई किस बूते पर ख़्वाब देखे !
परतु Ûाइसिस यह है कि किसी को ख़्वाबों के इस Ûाइसिस का पता ही नहीं है क्योंकि अपने ख़याल में सब कोई-न-कोई ख़्वाब देख रहे हैं।
इसलिए टोपी भी ख़्वाब देख रहा था। हुआ यह कि एक स्कालरशिप का क़िस्सा था। टोपी भी उम्मीदवार था। परन्तु वह स्कालरशिप एक मुसलमान को मिल गया ! वह मुसलमान लड़का कोई बहुत क़ाबिल-वाबिल भी नहीं था। स्कालरशिप देनेवालों में उसका कोई रिश्तेदार भी नहीं था। परन्तु उसके पिता के एक दोस्त (जो जनसंघी थे) कमेटी के सदर थे। राजनीति अपनी जगह है, दोस्ती अपनी जगह। वह स्कालरशिप उस लड़के को मिल गया। सात सौ बाईस हिन्दू लड़कों को काटकर जब एक मुसलमान लड़के को स्कालरशिप मिल गया तो टोपी को बड़ा ताव आया। चुनाँचे वह अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से कोई स्कालरशिप पाने के लिए ख़्वाब देखने लगा।
दूसरी तरफ़ उसकी चेतना बार-बार यह प्रश्न करती रहती थी कि पाकिस्तान बन जाने के बाद किसी मुसलिम यूनिवर्सिटी की ज़रूरत क्या है ?
और तीसरी बात यह थी कि वह जानना चाहता था कि हिन्दुस्तान का मुसलमान नवयुवक किस प्रकार सोचता है और किस रंग के ख्वाब देखता है।
परन्तु अलीगढ़ आकर वह ऐसे लोगों में फँस गया कि उसका सारा प्रोग्राम धरा रह गया। सरदार जोेगेन्द्रसिंह। हामिद रिज़वी। इक़तिदार आलम। के.पी. सिंह…हिन्दू, मुसलमान और सिख लड़कोें का एक छोटा-सा गिरोह यूनिवर्सिटी में एक और ही लड़ाई लड़ रहा था।- ये एस.एफ. के लोग थे।
मुन्नी बाबू ने चलते-चलते उसे होशियार कर दिया था कि वहाँ मुसलमानों से ज़्यादा कम्युनिस्टों का डर है। परन्तु वह अपने-आपको इन लोगों से न बचा सका।
वह उस इक़तिदार आलम का मुँह कैसे बन्द करता जो पाकिस्तान का उतना ही बड़ा विरोधी था जितना कि खुद टोपी था। वह उस हामिद रिज़वी को अपने पास से कैसे हटा देता जिसे कुछ मुसलमान लड़कों ने इसलिए पीटा था कि वह यह माँग कर रहा था कि मुशायरे के साथ कवि-सम्मेलन भी होना चाहिए और यूनियन की तरफ़ से केवल लेक्चर्ज ऑन इसलाम की जगह तमाम धर्मों पर लेक्चर कराना चाहिए। मीलाद-ए-नबी के साथ-साथ जन्माष्टमी भी मनानी चाहिए…
यही वे लोग थे जो यूनियन के चुनाव में हिन्दू लड़कों को खड़ा करते थे और
उनके चुनाव का काम करते थे, मार खाते थे, चुनाव हारते थे, परन्तु हिम्मत नहीं हारते थे।
”तुम क्यों डरते हो ?“ एक दिन हामिद ने कहा। ”तुम मिजारिटी कम्युनिटी के हो ? चार करोड़ मुसलमान तीस करोड़ हिन्दुओं का क्या बिगाड़ सकते हैं ?“
”चार करोड़ से भी कम थे साले जब उन्होंने मन्दिर तोड़कर मसजिदें बनवा ली थीं।“
”हिन्दुओं ने तोड़ने क्यों दीं ?“ जोगेन्द्र ने सवाल किया।
”देखो शुक्ला,“ के.पी. बोला। ”बात यह नहीं है। कल का हिसाब-किताब करने बैठ गए तो सवेरा हो जाएगा। यहाँ चार करोड़ मुसलमान हैं। और वह यहीं रहेंगे।“
”क्यों रहेंगे ?“
”क्योंकि हम यहीं के हैं।“ इक़तिदार को गुस्सा आ गया। इक़तिदार को गुस्सा आता था तो उसका सफ़ेद रंग गुलाबी हो जाता था। ”इसी का नाम हिन्दू शावनइज़्म है। क्यों रहेंगे ? यूँ पूछ रहे हो जैसे यह मुल्क तुम्हारे बाप का है !“
”वह तो है।“ टोपी ने कहा। ”मेरे बाप का नहीं तो क्या तुम्हारे बाप का है। आ गए जने कहाँ से बहे बिलाने और घर वाले हो गए।“
”और तेरे बाप-दादा तो सिरफल के पेड़ की तरह यहीं उग आए थे !“
”प्लीज इक़तिदार !“ जोगेन्द्र ने कहा।
”नहीं म्याँ !“ इक़तिदार ने उसका हाथ झटक दिया। ”इन हिन्दुओं का दिमाग़ चल गया है। हिस्ट्री पढ़ो, हिस्ट्री ? यहाँ सभी बाहर से आए हैं…“
बात बहुत बढ़ गई। टोपी खड़ा हो गया, मगर इक़तिदार बैठा ही रहा। और जब टोपी बन-बिगड़ चुका तो वह खिलखिलाकर हँसने लगा।
”चलो चाय पिलाओ और कांग्रेस वालों के लिए अपने बाप के नीले तेल की दो शीशियाँ मँगवा दो। उनकी पॉलिटिक्स के रगपट्ठे लुजलुजा गए हैं।“
”अमें यह तुम्हारे यहाँ दाढ़ी वाला कौन आ गया है ?“ हामिद ने जोगेन्द्र से पूछा।
”निकले जूनियर ही ना ?“ जोगेन्द्र हँसा। ”अरे भई यह वही जगर्शम साहब हैं। बुलबुलिया के ज़माने में हुआ करते थे। मगर बाईगॉड क्या स्पीकर है ! सईद अण्डा तो कहा करता था कि सुलतान न्याज़ी और मूनिस साहब से भी अच्छा स्पीकर है।“
”अमें जाओ।“ के. पी. बोला। ”कहाँ सुलतान न्याज़ी और मूनिस भाई और कहाँ यह चौंघट।“
”एम.ए. में टॉप किया था इन्होंने।“ जोगेन्द्र बोला। ”और डॉक्टर ताराचन्द ने इनके डेसर्टेशन की इतनी तारीफ़ की कि क्या कहा जाए !“
”मगर यह तो बड़ी थर्ड रेट हरकत है कि एम.ए में टॉप करके दाढ़ी रख ली।“ इक़तिदार ने कहा।
”यह जरगाम साहब हैं कहाँ के ?“ टोपी ने पूछा।
”जर्गाम नहीं, र्ज्ग़ाम !“ के. पी. बोला।
”वाह !“ जो, इक़तिदार और हामिद ने एक साथ नारा मारा। ग़ की बिन्दी खा जाने पर जुर्माना हुआ और के.पी. उर्दू ज़बान और अरबी शब्दों को गाली देता हुआ सबको केफ़े डी फूँस तक ले गया।
बग़ल वाली मेज़ पर बैठे हुए लड़के किसी लड़की की बात कर रहे थे। और दूसरी तरफ़ कोई सीनियर मुल्ला लड़कों के एक गोल को चाय पिला रहा था। और कम्युनिस्टों के इख़लाक़ पर तक़दीर कर रहा था।
”… इस यूनिवर्सिटी को हिन्दुओं का डर नहीं है। मगर कम्युनिस्टों का डर है। डॉक्टर ज़ाकिर हुसैन ने पुरानी दुश्मनी निकाली है। कोई डिपार्टमेन्ट ऐसा नहीं जिसमें कम्युनिस्ट न घुस आए हों। खु़दा की शान कि मुसलिम यूनिवर्सिटी की लड़कियाँ नाचती हैं और कलचर के नाम पर ऐनटनी कुलोपेट्रा खेलती हैं।“
”यह बात तो बिल्कुल ग़लत है।“ के.पी. ने कहा। ”मुसलमान लड़कियों को लैला-मजनूँ और शीरीं-फरहाद खेलना चाहिए।“
कई मेज़ों के लड़के हँस पड़े। हँस पड़नेवालों में हिन्दू कम और मुसलमान ज़्यादा थे।
”इस नीले तेल वाले रंगरूट को क्यों बिगाड़ रहे हो पार्टनर !“ सीनियर मुल्ला ने कहा।
के. पी. अवश्य जवाब देता परन्तु उसी वक़्त इफ़्फ़न एक और लेक्चर के साथ आ गया।
”साँलेक।“ के. पी. ने सलाम किया।
”साँलेक !“ इफ़्फ़न ने जवाब दिया। ”कहिए कौन कट रहा है ?“
”के.पी. कट रहे हैें साहब।“ ‘जो’ ने कहा। ”आइए।“
दोनों लेक्चरर वहीं बैठ गए।
”सुना कि आपका ड्रामा बड़ा शानदार हुआ।“ इफ़्फ़न ने के.पी. से कहा। ”मैें तो उसी दिन दिल्ली चला गया था। बड़ा अफसोस हुआ। यह कौन साहब हैं ?“ उसने टोपी की तरफ़ इशारा किया।
”भाई अपना नाम ले डालो।“ भाई खाँ ने कहा। ”इनका नाम ज़रा राष्ट्रीय भाषा में हो गया है साहब।“ इफ़्फ़न मुसकरा दिया।
”बलभद्रनारायण शुक्ला।“
इफ़्फ़न चोैंक पड़ा।
”कहाँ से आए ?“
”बनारस से।“
”अरे तुम डॉक्टर भिरगूनरायन साहब के लड़के तो नहीं हो ?“
”जी हाँ।“
”तुम्हारी दादी ने तुम्हें उर्दू सीखने के लिए यहाँ तक भेज दिया ?“
”इफ़्फ़न !“ टोपी की आँखें चमकीं। ”इ तूँ दाढ़ी कब रख लियो ?“
”यह मेरे बचपन का दोस्त है।“ इफ़्फ़न ने के.पी. वग़ैरा से कहा। ”इसका छोटा भाई होनेवाला था और नौकरानी ने पूछा कि भाई चाहते हो या बहन ? तो इन्होंने पूछा, साइकिल नहीं हो सकती।“
इतने ज़ोर का क़हक़हा पड़ा कि ‘केफ़े डी फूँस’ की छत हिल गई और एक मेज़ पर बैठी शक्कर के दाने चुनती हुई चिड़िया घबराकर उड़ गई।
”साहब, हम इन्हें इतने गज़ब का नहीं समझते थे।“ इक़तिदार ने कहा।
”जभी तो हिन्दी में एम.ए. करने बनारस को छोड़कर अलीगढ़ आए हैं।“ के.पी. ने टुकड़ा लगाया।
”तो मियाँ लोगों का छुआ खाने लगे तुम ?“ इफ़्फ़न ने पूछा। ”और तुम्हारी वह ज़बरदस्त चुटिया क्या हुई ?“
”तुम्हारी दाढ़ी के काम आ गई।“ टोपी ने जलकर कहा। कोई नहीं हँसा। इफ़्फ़न मुसकरा दिया।
”खा-पी चुके हो तो हमारे साथ आओ।“ इफ़्फ़न खड़ा हो गया।
”साहब, वह चाय आ रही है।“ के.पी. बोला।
”इक़तिदार पी लेंगे।“
”साहब वह बिल भी आ रहा है।“ के.पी. ने कहा।
”वह नहीं आएगा।“
इफ़्फ़न बिल अदा करता हुआ टोपी को लेकर चला गया।
दोनों बहुत खुश थे। परन्तु दोनों यह राज़ छिपाए हुए थे। दोनों यादों को खँगाल रहे थे। परन्तु किसी के पास कहनेवाली कोई बात नहीं थी।
बात यह है कि दोनों हिन्दुस्तान की आज़ादी से पहले बिछुड़े थे।
”तुम्हारी दादी तो हिन्दी के राष्ट्रभाषा हो जाने से बहुत ख़फ़ा होंगी !“
”वह मर गईं।“
”अरे ?“
”अरे क्या ? कब तक जिन्दा रहती ?“
”आख़िर वह तुम्हारी दादी थीं।“
”मेरी दादी तो उस दिन मर गई थी जिस दिन हम पंचम की दूकान से केला ख़रीद रहे थे। मैंने दादी बदल ली थी। अब्बू कैसे हैं ?“
”उनका इन्तिक़ाल हो गया।“
”बाजी ?“ टोपी ने ‘अरे’ नहीं कहा, बल्कि दूसरा सवाल किया।
”बाजी पाकिस्तान चली गईं।“
”मुन्ना ?“ टोपी इस जवाब पर भी नहीं चौंका।
”मुन्ना यहीं है। मुन्नी भी यहीं है।“
बातें समाप्त हो गईं। दोनों चुप हो गए। दोनों उदास हो गए। दोनों के बीच में
कोई अनदेखी दीवार थी। दिलों के धड़कने की आवाज़ इधर से उधर नहीें जा पा रही थी।
”क्या पाकिस्तान के बिना काम नहीं चल सकता था ?“ टोपी ने उस दीवार पर पहला कुदाल मारा।
”पता नहीं।“ इफ़्फ़न ने कहा।
”और अब मैं पाकिस्तान को गाली भी नहीं दे सकता।“
”क्यों ?“
”बाजी जो वहाँ चली गई हैं। क्या करता है उनका पति ?“
”पाकिस्तान की एअरफ़ोर्स में फ़्लाइट लेफ़्टिनेन्ट हैं।“ इफ़्फ़न ने कहा। ”अब्बू बीमार थे तो बेचारों को आने की इजाज़त भी न मिली। बाजी भी नहीं आ पाईं।“
”तुम क्यों नहीं गए ?“
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