पेशे से पुलिस अधिकारी सुहैब अहमद फ़ारूक़ी उम्दा शायर हैं और निराला गद्य लिखते हैं। आज अभिनेत्री मीना कुमारी की पुण्यतिथि पर उनका लिखा पढ़िए-
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जाने वालों से राबिता रखना
दोस्तो रस्मे फ़ातिहा रखना
निदा फ़ाज़ली…
एक शायर होने के नाते मेरी अदबी ज़िम्मेदारी है कि मैं इस शायरा की बरसी पर ख़िराजे अक़ीदत पेश करूँ।
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ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएंगे यह जहाँ तन्हा
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खिराज़-ए-तहसीन यूँ तो महजबीं बानों उर्फ़ मीना कुमारी उर्फ़ मीना कुमारी ‘नाज़’ को उनकी बरसी में रस्मन बनता है ही लेकिन, मेरा उनसे इलाक़ाई रिश्ता भी है। इलाक़ाई यूँ कि मेरा आबाई गाँव तब की अमरोहा तहसील में पड़ता था और गाँव से देहली का रास्ता अब भी ‘अमरोहे’ से होकर जाता है। ख़ुश होने के लिए हम उनको अपनी ‘बहू’ मानते हैं। जब मैं सिन-ए-बलाग़त पर पहुंचा मतलब इस नश्वर शरीर में श्रंगार रस की अनुभूति जब शुरू होना हुई तब मुझे ‘चलते चलते कोई मिल गया था’ पहला गीत था, जो याद आता है। पोस्ट इमरेजन्सी के माहौल में ‘लैला-मजनूँ’ के गानों को ‘पाकीज़ा’ के गीत तब भी बराबरी से टक्कर दे रहे थे। उन दिनों गाँव-क़स्बों की शादियों के मौक़ों पर शादी के ख़ास दिन से तीन-चार दिन पहले ही क़व्वालियों के साथ इन दोनों फिल्मों के ही गानों के रिकॉर्ड बजते थे। शादी वाले घर-ख़ानदान को बेशक आवाज़ न पहुँचे मगर पूरे गाँव और दूसरे मुहल्लों में आवाज़ पहुँचाने के लिए अवेलेबल सबसे ऊंची छत पर बड़ा वाला लाउडस्पीकर लगवाया जाता था जो अज़ान-नमाज़-आरती के समय को छोड़कर मुतवातिर बजता रहता था। मेरी जैसी उम्र के बच्चे ,रेशमी-पाज़ेब, का लिटरेरी अर्थ लैला-मजनूँ से ही जान सके थे। अलबत्ता सीनियर पीढ़ी वाले अभी भी ‘दिलदार को चांद के पार’ ले जाने की फेंटेसी में जी रहे थे। अमरोहा-मुरादाबाद में पाकीज़ा की पॉपुलैरिटी का यह आलम था कि पता नहीं चलता था कि फ़िल्म पिक्चर हॉल से उतरती कब थी और कब लग जाती थी। दरअसल पाकीज़ा हमारे सोशल और रीजनल कल्चर की सुनहरी अलफ़ाज़ में लिखी मुकम्मिल शायरी है जो कमाल अमरोहवी साहब ने सिल्वर स्क्रीन पर पूरी भव्यता के साथ पेश की थी। माँ, मौसी, ताई, चाची वगैरह सब मीनाकुमारी वाले स्टाइल व अटायर में रहना पसंद करती थीं। आज भी मुझे उन सब का दो छल्लों का हेयर स्टाइल याद आता है जिसमें एक छल्ला माथे के पास और दूसरा कान के नीचे रुख़सारों पर रहता था। आह! मुझे जावेद अख़्तर साहब का मिसरा ‘अपनी महबूबा में अपनी माँ देखें’ याद आ गया। कहने का मतलब यह कि मीना कुमारी उस पीढ़ी की महिलाओं की रोल-मॉडेल व पुरुषों की फ़न्तासी थीं। उन्हीं दिनों वालिद साहब के रिसालों में से एक पॉकेट बुक की शक्ल में गुलज़ार साहब, अजी वही सरदार सम्पूर्ण सिहं कालड़ा, दीना, जेहलम, पंजाब वाले द्वारा संकलित मीना कुमारी की शायरी की एक किताब से सामना हुआ था। तब दौलते सुख़न से ज़्यादा रग़बत नहीं हुई थी मगर उपरोक्त लाइनें अब भी मुझे उसी किताब की याद दिला जाते हैं। जब भी गाँव जाना होता है, हासिल वक़्त में उसकी तलाश जारी रहती है मगर गुम हुए बचपन की तरह वह भी अदम पता है। अस्ल मायनों में मीना कुमारी बॉलीवुड की सिंड्रेला थी। लाजवाब व लासानी । जब भी मुझे उदास होना होता है मैं पाकीज़ा देख लेता हूँ । पाकीज़ा की पाकीज़गी को महसूस सब करना चाहते हैं। सब पाकीज़ा होना चाहते हैं मगर ‘साहिब जान’ कोई नहीं होना चाहता, बनना चाहता। एक बात और, मेरी रिकवेस्ट पर एक बार ‘मेरे अपने’ का गाना ‘कोई होता जिसको अपना’ सुनिए मतलब देखिए। जब विनोद खन्ना उदासी और निराशा में घिरे होते हैं तो गाने के आख़ीर में ममता की मूरत बनी मीना कुमारी के फ़ेशियल एक्सप्रेशन देखिए। आह आह आप को अपनी माएँ याद आने लगेगीं। सिर्फ चेहरे से पूरी दास्तान बयान कर देने का हुनर मीना कुमारी को ट्रेजडी क्वीन बनाता है। आज मीना कुमारी उर्फ़ महजबीं बानों ‘नाज़’ साहिबा की बरसी है। यूंही नेट-विचरण के दौरान के मालूम हुआ कि हिन्द पाकेट बुक्स से गुलज़ार साहब द्वारा संकलित मीना कुमारी साहिबा की शायरी की किताब छपी है जो एमेज़ोन पर भी उपलब्ध है। ख़ैर! मीना कुमारी साहिबा के इन अशआर के साथ खिराज मुकम्मिल करते हुए बिदा लेता हूँ :-

टुकड़े टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली
जिसका जितना आँचल था, उतनी ही सौग़ात मिली
जब चाहा दिल को समझें, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझ को मात मिली
मातें कैसी ? घातें क्या? चलते रहना आठ पहर
दिल सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली
दुआओं मे याद रखिएगा।
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