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सतीनाथ भादुड़ी बनाम रेणु

सुलोचना वर्मा कविताएँ लिखती हैं, बांग्ला से हिंदी अनुवाद करती हैं और दोनों भाषाओं पर उनक समान अधिकार है। उनका यह लेख सतीनाथ भादुड़ी बनाम रेणु विवाद पर है। यह सुचिंतित लेख ‘माटी’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। साभार प्रस्तुत है-

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हम किसी किताब का पढने के लिए चयन कैसे करते हैं? अमूमन या तो उस किताब के लेखक/लेखिका के लेखन शिल्प के हम प्रशंसक होते हैं या फिर उस किताब के विषय में प्रशंसा या ऐसा कुछ सुनकर जो कौतुहल पैदा करता हो, हम उस किताब का चयन करते हैं| सतीनाथ भादुड़ी रचित “ढ़ोंड़ाई चरित मानस” सिर्फ यह जानने के लिए पढ़ा गया कि “मैला आँचल” को लेकर फणीश्वरनाथ रेणु पर जो आरोप लगे वो क्यूँ लगे। किसी ने कहा कि रेणु का “मैला आँचल” भादुड़ी रचित “ढ़ोंड़ाई चरित मानस” का हिंदी अनुवाद भर है, तो किसी ने उन पर भादुड़ी के शिल्प की चोरी का आरोप लगाया|

विश्व के प्रथम उपन्यास होने का श्रेय बाणभट्ट तथा भूषण भट्ट रचित ‘कादम्बरी’ को दिया जाता है। बाणभट्ट ने स्वयं इसे पूर्ववर्ती दो कथाओं पर आधारित होने की बात की। विद्वानों के अनुसार ये दोनों कथाएँ क्रमशः गुणाढ्य (समयकाल अज्ञात, संभवतः 200 से 700 मध्य ईसा पूर्व) रचित बड्डकथा (बृहत्कथा) और सुबंधु रचित वासवदत्ता थीं।

पुनर्जागरण काल के बाद भारत भूभाग का प्रथम उपन्यास सन 1857 में प्रकाशित हुआ। बांग्ला भाषा में प्रकाशित इस उपन्यास का नाम है “आलालेर घ’रेर दुलाल”। इस पुस्तक के लेखक थे प्यारीचाँद मित्र जो टेकचंद ठाकुर के छद्मनाम से लिखा करते थे। हालाँकि बहुधा लोग बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय रचित ‘दुर्गेशनंदिनी’ को भारत का प्रथम उपन्यास कहते हैं जबकि इस पुस्तक का प्रकाशन 1865 में हुआ था। बंकिम जी के उपन्यास पर जहाँ वाल्टर स्कॉट के उपन्यास “आइवनहो” का प्रभाव बताया गया, वहीं 1893 में टेकचंद के उपन्यास का जी डी ओसवैल कृत अंग्रेजी अनुवाद “The spoilt child” नाम से आया जिसे एक भारतीय ने बाद में संशोधित किया।

हिंदी भाषा के प्रथम उपन्यास का श्रेय लाला श्रीनिवास दास रचित “परीक्षा गुरु” (1882-1883) को दिया जाता है। लेखक ने इस पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि उन्हें महाभारत के अतिरिक्त फ़ारसी, आंग्ल तथा अन्य विदेशी भाषाओं के लेखकों के लेखों और उस समय के स्त्री विमर्श के रिसालों से इस पुस्तक को लिखने में बहुत सहायता मिली। संभवतः उन्होंने बांग्ला उपन्यासों को भी पढ़ा था |

यदि बाणभट्ट और बंकिमचन्द्र प्रेरणा ले सकते हैं, तो रेणु भी ले सकते हैं| प्रेरणा का मतलब किसी किताब का किसी प्रकार से हु-ब-हु पुनरुत्पादन करना नहीं वरन उस कहानी को आगे बढ़ाना होता है जैसा कि बाणभट्ट ने किया|  दुनिया की तमाम कहानियाँ किसी विषय, स्थिति या आस-पड़ोस की घटनाओं से प्रेरित होती हैं| फ़ोर्ड विलियम कॉलेज (कोलकाता विश्वविद्यालय) देश का प्रथम हिन्दी अध्यापन केंद्र था और हिन्दी में एम ए करने वाले प्रथम भारतीय नलिनी मोहन सान्याल थे, जो बांग्लाभाषी थे। ऐसे में साहित्य पर स्थान और काल का प्रभाव पड़ना लाजिमी है|

सतीनाथ जी की किताब पढ़ते ही जो बात सबसे पहले ज़ेहन में आई वह यह कि इस किताब को बांग्ला में ही क्यूँ लिखा गया, हिंदी में क्यों नहीं। लेखक का तो हिंदी भाषा पर भी अच्छा दखल रहा होगा। वह पूर्णिया, बिहार के बासिंदे थे और उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से एम ए किया था| शायद ही कोई पृष्ठ ऐसा हो जिसमें पाद टिप्पणी (फुटनोट) न हो, बांग्ला भाषी जनता को बिहार की आंचलिक बोली समझाने के लिए। प्रश्न तो यह भी उठता है कि क्या “ढ़ोंड़ाई चरित मानस”  बंगाल की जनता को ध्यान में रख कर लिखा गया था? बिहार में बसे बांग्ला भाषियों को तो फुटनोट की जरूरत नहीं पड़ेगी। मूल भाषा में पढ़ते हुए भी यह उस परिवेश की बोली (जिसके हर शब्द को लेखक ने फुटनोट के जरिये पाठकों को समझाया है) के अत्यधिक प्रयोग के कारण अनूदित पुस्तक होने का आभाष देती है। किताब पढकर यह भी जानने का मन करता है कि जब यह किताब प्रकाशित हुई होगी तो उस समय के बंगाल के पाठकों की क्या प्रतिक्रिया थी इस पुस्तक पर! रबीन्द्रनाथ और शरत साहित्य की रुमानियत में डूबी बंगाल की जनता को क्या यह पुस्तक सहज ग्राह्य रहा होगा! बिहार के किसी गाँव में पले बढ़े लोगों को तो यह अपने आस पड़ोस की कहानी ही लगेगी।

सन १९४२-४३ के बीच राष्ट्रीय आन्दोलन में सतीनाथ भादुड़ी और फणीश्वर नाथ “रेणु” भागलपुर के सेंट्रल जेल में साथ थे| कहा जाता है कि रेणु पहले कवितायेँ लिखते थे और जेल में जब उन्होंने अपनी किसी कविता का पाठ किया, तो उस कविता की कटु आलोचना हुई| तब भादुड़ी जी ने रेणु जी से कहा कि उनके गल्प और कथा में दम है और उन्हें वही साधना चाहिए| यह भी कि उन्हें कहानियाँ और उपन्यास लिखना चाहिए| कहा जाता है कि यहीं से रेणु अपने गुरु की बात मान गाँव, खेती, राजनीति और सामाजिक मुद्दों पर एक उपन्यास की कल्पना करने लगे, जो आगे चलकर “मैला आँचल” के रूप में पाठकों तक पहुँचा|

अब मूल प्रश्न पर आती हूँ। क्या रेणु रचित “मैला आँचल” इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद भर है? नहीं। बुधनी, मंगला देवी और राम्या और ऐसे कई अन्य पात्रों में मिलान के बावजूद नहीं। दोनों कहानियों में परिस्थितियों के मिलान के बावजूद नहीं। बिहार के किसी भी अंचल में ऐसे पात्र मिल जायेंगे। पर शिल्प में समानता दृष्टिगोचर होती है। कहा जाता है कि रेणु जी भादुड़ी जी के साहित्य शिल्प के बड़े प्रशंसक थे और उन्हें अपना साहित्यिक गुरु मानते थे। ऐसे में सम्भव है कि गुरु और अपने प्रिय लेखक के प्रभाव के कारण उनका शिल्प और कुछ शब्द रेणु की रचनाओं में स्वतः आ गए, जो अमूमन एक गैर बांग्ला भाषी इस्तेमाल नहीं करेगा; जैसे धत की जगह धेत (बांग्ला उच्चारण: ধ্যাত) का प्रयोग करना। कहा जाता है कि रेणु पर मैथिली, बांग्ला और नेपाली संस्कृतियों की छाप समान रूप से पड़ी| उनके गाँव औराही हिंगना से पश्चिम बंगाल भी करीब है और नेपाल भी| यह भी हो सकता है कि साझा संस्कृति का हिस्सा होने के कारण वे शब्द उनके अपने अभिधान का हिस्सा बन गए हों| रेणु की कहानी में झूलनी, फगुआ, झुमुर, बारहमासा और विद्पतिया साझा संस्कृति के ही द्योतक हैं|

“ढ़ोंड़ाई चरित मानस” बिहार प्रान्त के तात्मा (ताँती/जुलाहा) नामक अनुसूचित जनजाति के अस्तित्व की लड़ाई की कहानी है| इस पुस्तक का मुख्य चरित्र ढ़ोंड़ाई वर्ग संघर्ष का भुक्तभोगी भी है और वर्ग संघर्ष की लड़ाई में तात्मा जनों का प्रतिनिधि भी | उसकी माँ, बुधनी से उसके पिता कहते हैं “यह लड़का बड़ा होकर एक दिन रामायण पढ़ना सीखेगा और अन्य दस लोगों को पढ़कर सुनाएगा”| एक जुलाहा यह स्वप्न देखता है कि उसका बेटा बड़ा होकर समाज में रामायण बाँचेगा, जो अमूमन ब्राह्मण वर्ग करता आया है| एक गरीब जिसे बमुश्किल एक समय का खाना नसीब होता है, आगे चलकर गाँधी जी के आह्वान पर स्वदेशी आन्दोलन का हिस्सा बनता है| फिर कुछ समय बाद हताश होकर अपने गाँव लौट आता है और जब वह एस डी ओ के समक्ष आत्मसमर्पण करता है तो उसके बगल में रामायण दबा होता है| कुल मिलाकर पुस्तक की पृष्ठभूमि समाज में तथाकथित राम राज्य की स्थापना करने के संघर्ष की कहानी है|

मैला आँचल का कथानक भी स्वतंत्रता प्राप्ति के ईद-गिर्द की घूमता रहता है, वहाँ भी गाँधीवादी दर्शन है, वहाँ भी वर्ग संघर्ष है| मेरीगंज में गरीबी हटाने के लिए चरखा-सेंटर खुलता है जिसे चलाने के लिए पटना से दो मास्टर आते हैं – चरखा मास्टर और करघा मास्टर। औरतों को चरखा सिखाने के लिए एक मास्टरनीजी, मंगला देवी भी आती हैं| वहाँ भी एक टोला संथालों (अनुसूचित जनजाति) का है, जहाँ की झोपड़ियों तक पर उनका अधिकार नहीं है| वहाँ यादवों और क्षत्रियों में भी तनातनी चलती है|

दोनों उपन्यासों में स्वतंत्रता संग्राम के आसपास की घटनाओं, वहाँ की सामाजिक संरचना, बदहाली, वर्ग संघर्ष का तानाबाना है| दोनों उपन्यासों की पृष्ठभूमि में बिहार के गाँव हैं जहाँ शहर से नयी राजनैतिक चेतना आती है| दोनों उपन्यासों में कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टी का ज़िक्र है| “ढ़ोंड़ाई चरित मानस” में जहाँ गाँधी जी भगवान राम के अवतार की तरह विद्यमान हैं, वहीं “मैला आँचल” के गाँधी हाड़- मांस के इंसान हैं| जहाँ “ढ़ोंड़ाई चरित मानस” की कहानी सन १९१२ से १९४२ के काल को दर्ज़ करती है, वहीं “मैला आँचल” सन १९४२ से १९४८ के काल को | `संभवतः यह भी एक कारण हो सकता है कि “मैला आँचल” जहाँ बिहार या हिंदी के पाठकों के लिए प्रेमचंद काल के बाद आंचलिक महक लिए एक बड़े फलक की बड़ी कहानी थी, बंगाल के पाठक दोनों उपन्यासों में कई विषयों और परिस्थितियों के मिलान की वजह से “मैला आँचल” में “ढ़ोंड़ाई चरित मानस” की छाया देखने लगे जबकि “मैला आँचल” आज़ादी के बाद के घटनाक्रमों को भी बयाँ करती है| राजनीति से जुड़े होने के कारण रेणु की कहानी में राजनैतिक चेतना प्रबल है जबकि सतीनाथ के जातिवादी आन्दोलन से जुड़े होने के कारण उनकी कहानी का कथानक जिरानिया का ही ढ़ोंड़ाई बनता है| मेरीगंज की स्थिति बताने के लिए रेणु को मेरीगंज में कोई नहीं मिलता, डॉक्टर प्रशांत को दुसरे शहर से मेरीगंज लाना पड़ता है|

सन २००४ में पश्चिम बंगाल के पत्रकार अरूप बसु बिहार का चुनावी माहौल समझने के लिए कटिहार गए| वहाँ उन्हें पता चला कि पूर्णिया पास में ही है| पूर्णिया, वह शहर जहाँ सतीनाथ भादुड़ी रहते थे, जहाँ वह घर अब भी मौज़ूद है| अपने प्रिय लेखक का घर देखने के लिए वे पूर्णिया चले गए| उन्होंने पाया कि उस जगह का आज़ादी के तीस बरस पहले का जैसा ज़िक्र सतीनाथ ने अपने उपन्यास में किया है, आज़ादी के पचासाधिक बर्षों बाद भी वहाँ कुछ विशेष नहीं बदला| वहाँ के स्थानीय लोगों के साथ जब वे भादुड़ी जी के घर गए, वहाँ उस गाँव के एक व्यक्ति ने उनसे अपनी किशोरावस्था की एक घटना का ज़िक्र किया जब भादुड़ी जी के घर रबीन्द्रनाथ जयंती का आयोजन था| सतीनाथ के लेखन कक्ष में दो कुर्सियाँ रखी गईं थी, बाकी लोगों के बैठने का इंतजाम फ़र्श पर किया गया था| सतीनाथ अभी कक्ष में नहीं आये थे| रेणु आते ही अन्य दिनों की भाँती फ़र्श पर बैठ गए, तो उनसे कहा गया कि दूसरी कुर्सी उनके लिए ही है| रेणु ने जवाब दिया “इस कमरे में कुर्सी पर बैठते हैं सतीनाथ भादुड़ी| हम क्या उस ऊँचाई पर बैठ सकते हैं?” ऐसा था रेणु का अपने साहित्यिक गुरु के प्रति सम्मान|

इसमें कोई संशय नहीं कि प्रेमचंद काल के बाद “मैला आँचल” अलहदा आंचलिक भाषा और रूप विधान लिए हिंदी की सबसे बड़ी कहानी है| मैला आँचल में समाज में व्याप्त अशिक्षा, अन्धविश्वास, शोषण (मठों में स्त्रियों का और जमींदारों द्वारा गरीबों तथा दबे-कुचले वर्गों का) और रुढ़िवाद को भी बखूबी उकेरा गया है| रेणु हिन्दी के पहले ऐसे कथाकार थे जिनकी जीविका का आधार कृषि था और शायद यह किसान मन ही था जिसने गाँव को भारतमाता का आँचल कहा और कहानी का शीर्षक “मैला आँचल” रखा|

जब हिंदी के किसी साहित्यकार ने भादुड़ी जी को “मैला आँचल” बनाम “ढ़ोंड़ाई चरित मानस” प्रकरण पर उनके विचार जानने के लिए पत्र लिखा तो भादुड़ी जी ने रेणु जी को बांग्ला में पत्र लिखकर उस साहित्यकार का नाम बताते हुए लिखा कि अमुक लेखक ने “मैला आँचल” और उनकी कृति में समानता को इंगित किया| उन्होंने “मैला आँचल” के विषय में अपने विचार प्रकट करते हुए उसे मौलिक कृति बताया| उन्होंने रेणु जी से इस विवाद का अंत करने के लिए “ढ़ोंड़ाई चरित मानस” के हिंदी अनुवाद का सुझाव भी दिया| इसके बाद “मैला आँचल” के प्रकाशक राजकमल प्रकाशन के ओमप्रकाश जी ने भी सतीनाथ जी को इस विवाद के बाबत पत्र लिखा था जिसका जवाब भादुड़ी जी ने अंग्रेजी में दिया| उस पत्र का भावानुवाद कुछ इस प्रकार है-

“आपके पत्र के लिए धन्यवाद| मुझे लगता है कि आपमें से किसी ने भी मेरी किताब “”ढ़ोंड़ाई चरित मानस” को नहीं पढ़ा है| मेरा उपन्यास १९०५-१९४५ के मध्य एक अपेक्षाकृत पिछड़े संप्रदाय की सामाजिक, राजनीतिक चेतना को व्यक्त करता है जबकि “मैला आँचल” १९४५ के बाद के घटनाक्रम पर केन्द्रित है| दोनों अलग हैं| “मैला आँचल” एक मौलिक कृति है और उसके लेखक पर ऐसा आरोप लगाना अन्याय होगा”

वैसे इस विवाद का अंत तभी हो जाना चाहिए था जब स्वयं सतीनाथ भादुड़ी ने इन आरोपों को खंडित किया; पर यह विवाद खत्म नहीं हुआ| कुछ साहित्यकारों ने इसे भादुड़ी जी की किसी किस्म की मज़बूरी बताया|

मामला यहीं खत्म न हुआ| “मैला आँचल” के प्रकाशन के बाद रेणु जी के गाँव के एक व्यक्ति ने उन पर मुकदमा कर दिया| उन्हें लगा कि “मैला आँचल” का तहसीलदार उनकी ही छवि है|

यह विवाद सतीनाथ भादुड़ी और फणीश्वर नाथ “रेणु” की मृत्यु के बाद भी ख़त्म न हुआ| १९७९ में नेशनल पब्लिशिंग हाउस से प्रकाशित पुस्तक “Regionalism in Hindi Novels” में प्रख्यात आलोचक इन्दुप्रकाश पाण्डेय ने न सिर्फ़ रेणु की लेखनी बल्कि उनके पूरे व्यक्तित्व पर सतीनाथ का प्रभाव बताते हुए लिखा “Renu was so much impressed by Satinath that he even adopted some of his mannerism of speech and behavior, his style of doing things and even his hand writing. Their hand writing is so similar that it is often difficult to decide which of the two men the author of a piece of writing is.” (भावानुवाद: रेणु सतीनाथ से इस कदर प्रभावित थे कि उन्होंने उनके जैसे बोलने और बर्ताव करने और अन्य कामों को करने की आदत, यहाँ तक कि उनकी लिखावट तक को भी को आत्मसात कर लिया था| उन दोनों की लिखावट में इतनी समानता है कि शायद ही कोई बता पाए कि उन दोनों लेखकों में किसकी लिखावट है|)

कुछ लोगों का यह भी मानना है कि “मैला आँचल” की अपार लोकप्रियता के चलते उस समय के साहित्यकारों में उनके प्रति ईर्ष्या-द्वेष का भाव पनपा और वे कभी रेणु तो कभी उनकी रचनाधर्मिता पर तरह-तरह के आरोप लगाते रहे| उन दिनों “अवंतिका” पत्रिका में “मैला आँचल” पर लगे आरोपों को निरस्त करता लेख, जो गौरा नामक लड़की के नाम से प्रकाशित हुआ, वह भी विवादित हुआ| उस लेख की लिखावट को देख उनके जाननेवालों ने उसे रेणु की लिखावट बताया|

प्रकाशन समाचार (राजकमल प्रकाशन) के एक लेखनुमा साक्षात्कार में रेणु ने प्रेमचन्द और नागार्जुन को महान बताते हुए खुद को बांग्ला के ताराशंकर बंद्योपाध्याय, सतीनाथ भादुड़ी आदि की परम्परा का बताया था| संभवतः रेणु के इस वक्तव्य के कारण भी उन पर सतीनाथ से प्रभावित होनेके आरोप को बल मिला|

रेणु पर लगे आरोप सही हैं या गलत, ये सारे सवाल हमारे साथ ही ख़त्म हो जाएंगे। शहर में पले बढ़े अंग्रेजी मीडियम के हमारे बच्चे क्या इन किताबों को कभी पढ़ेंगे! पढ़ेंगे भी, तो क्या इन कहानियों के मर्म तक पहुँच सकेंगे!

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8 comments

  1. अजय कुमार झा.

    देश काल के मध्य सामाजिक – सांस्कृतिक धरोहर की विवेचना श्लाघनीय है. सकारात्मक सोच के लिए साधुवाद.
    स्वतंत्रतासंग्राम के मध्य इन विभूतियाँ की सामाजिक- सांस्कृतिक सोच व सृजन विवेचन का उत्स होना चाहिए. नमन.

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