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‘अमेठी संग्राम’ का अमेठी और संग्राम

अनंत विजय की किताब ‘अमेठी संग्राम’ जब से आई है लगातार चर्चा में है। अभी हाल में इसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी प्रकाशित हुआ है। इस किताब की विस्तृत समीक्षा लिखी है राजीव कुमार ने-

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ऐसे में जब राजनीतिक परिदृश्य उसके उथल पुथल और महती परिणामों  पर गंभीर बातें करना एक विडंबना सदृश हो तो एक संसदीय क्षेत्र के दूरगामी परिणामों पर पुस्तक लिख देना, एक शोध को विचार की गरिमा में निर्णयात्मक रूप में रखना बहुत बड़ा दायित्व है। अनंत विजय ने पूरी कोशिश की है अपनी पुस्तक “अमेठी संग्राम” में इस गुरूतर दायित्व के निर्वहन की।

जो स्रष्टा अपनी खुद की बनाई चीज के बारे में गंभीर न हों तो दूसरे प्रबुद्ध लोग गंभीर होकर स्वयं ही विश्लेषण का मार्ग क्यों प्रशस्त करें। राजनीति न ही यह चुनौती लेती है, न ही यह चिंतन  करती है परंतु क्रोनिकलर, क्रिटिक  और पर्यवेक्षक करते हैं, अपने समय और काल में सामने हो रही घटनाओं का वर्णन स्वीकार है उन्हें।

 अनंत के पास चुनौती थी कि इस तथाकथित लोकल इश्यू, अमेठी के मुद्दों  तक ही सीमित, पर रहते हुए इसका मूल्यांकन और अंकन ग्लोबल भाव लिए हुए हो। अनंत संसदीय क्षेत्र के विश्लेषण से बहुत आगे गए हैं। चर्च, संघ, राजनीति, सियासी कद्दावरी के मूल्यांकन और चुनाव में लोगों से जुड़ने के सनातन मुद्दों में  प्रारंभ से अंत तक अनंत विजय वृहत्तर दृष्टि अपनाए रखते हैं।  इस दृष्टि से अनंत साधुवाद के पात्र हैं।

सियासत, धर्म, संस्थाएं, चुनाव , सरकार जैसी गहरी चीजों पर लेखकों ने ऐसे लिखा है कि सारी गरिमा भरी शब्दावली के बावजूद मानवीय चिंतन  छोटी बूंद समान अपरिभाषित और अनुद्घाटित करनेवाली तंतु एवं अर्थहीन जान पड़ती है। निष्कर्ष यह कि जो विषय आसान दिखता है उसका विश्लेषण भी उतना ही आसान हो जरूरी नहीं इस के लिए दृष्टि को सूक्ष्मता अपनानी होगी । लेखक ने स्थूल मानकों को बहिष्कृत करते हुए सूक्ष्म औजारों का सहारा लिया है।

“अमेठी संग्राम” कुछ मूल सर्जनाओं को, अनिवार्य स्थापनाओं को पकड़कर चलता है। संसदीय क्षेत्र की विशिष्टता, कांग्रेस और विशेषकर एक राजनीतिक परिवार का राजनीतिक स्वामित्व, निषेध यथादृष्टि का और जनता से जुड़े सरोकार, संघ और राजनीति , दो कद्दावर नेताओं का व्यक्तित्व, महत्त्वपूर्ण संवेदनशील घटनाएं, चुनावी  रण – नीति आदि। पुस्तक अपनी विविधता और विस्तार में चुनौती दे रही थी  मूल भावनाओं के टूट फूट  जाने का। लेकिन दृष्टि लेखक की रही कि बहुत भटकने से बचा जाय।

2019 के संसदीय चुनावों में अमेठी लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र से स्मृति ईरानी की जीत में उनके व्यक्तित्व, लोगों से तत्काल जुड़ने की उनकी क्षमता, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता, संघ के कार्यकर्ताओं की तपस्या का एक ऐसा समुच्चय है जिसका प्रतिफल  नियति ही निर्धारित करती है। यह सूत्र वाक्य अनंत  लेखक के तौर पर प्रथमतया देकर ही नहीं अंतरात्मा से मानकर भी चलते हैं।

अमेठी लोकसभा क्षेत्र 1967 में बना था और तब से ज्यादातर चुनावों में कांग्रेस को ही सफलता मिलती रही। लेकिन इस इलाके का विकास नहीं हुआ। कांग्रेस कहती रही कि इस विशिष्ट क्षेत्र का अप्रतिम विकास हुआ है। जो  अनंत ने खारिज किया है। इस इलाके में गरीबी अशिक्षा और भूखमरी थी जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया था। सच तो यही था कि अमेठी में कांग्रेस कभी लोकप्रिय नहीं रही ही नहीं  ।  वह तो हमेशा धन बल के आधार पर चुनाव लड़ती रही थी।  फिर 2014 में नरेंद्र मोदी के बनारस से चुनाव जीतने के बाद वहां हुए विकास कार्यों की तुलना अमेठी से होने लगी।

संघ और चुनाव

संघ अपने विस्तार में अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं का विश्लेषण और चिंतन भी करता है। चिंतन के अनुसार उसकी वैचारिक सोच और व्यवहारिक कार्यशैली में समय समय पर परिवर्तन भी दिखता है। 2014 का चुनाव स्मृति ईरानी हर चुकी थीं। लेकिन 2019 के चुनाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी स्मृति ईरानी के साथ पूरी ताकत से अमेठी में खड़े थे। इस समय चुनाव आयोग भी बेहद सक्रिय था। इसके चलते प्रशासन के स्वार्थी तत्व भी अपनी मनमानी नहीं कर पा रहे थे।

किताब इस विवरण को सधे कदमों से प्रासंगिक बनाए रखती है। 2019 के लोकसभा चुनाव में जब स्मृति ईरानी फिर से भारतीय जनता पार्टी की प्रत्याशी घोषित की गईं तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने चुनाव की जिम्मेदारी जिला प्रचारक रहे परमेश्वर जी को सौंपी।

2019 के चुनाव को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग काफी पहले से सक्रिय हो गए थे। 2018 के नवंबर से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अमेठी में काम करना शुरू कर दिया था। पूरे अमेठी लोकसभा क्षेत्र को 116 न्याय पंचायतों में बांटा गया था और इनमें से आधे से अधिक न्याय पंचायतों में संघ के पूर्णकालिक और मंडल कार्यवाह की नियुक्ति कर दी गई थी। नवंबर 2018 से ही इनकी नियमित बैठकर भी शुरू हो गई थी और अमेठी पर काम भी शुरू हो गया था । सन 2019 के लोकसभा चुनाव की घोषणा के तुरंत बाद अमेठी लोकसभा क्षेत्र के 16 ब्लॉक की जिम्मेवारी जिम्मेदारी संघ के पूर्णकालिक प्रचारकों को दे दी गई थी।

यह संघ की कार्य पद्धति का हिस्सा है कि जब क्षेत्र विशेष में कोई बड़ा अभियान चलाना होता है तो वहां पूर्णकालिक पर्यवेक्षकों की नियुक्ति की जाती है  पूर्णकालिक के काम करने का तरीका भी एकदम निराला होता है । यह लोग निर्धारित लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्राण प्रण से जुट जाते हैं । वह सिर्फ संगठन के निर्देशों का पालन करते हैं वे न तो उम्मीदवार  की सुनते हैं और न ही स्थानीय स्तर के नेताओं की बात मानते हैं।

एक तरफ जहां संघ ने त्रिस्तरीय चुनावी व्यूह रचना रची थी और उसके आधार पर काम कर रहा था, वहीं कांग्रेस के नेता और बचे खुचे कार्यकर्ता इस गुमान में रहे कि उनका पुराना फार्मूला काम कर जाएगा। अमेठी में कांग्रेस से जुड़े एक नेता ने बताया कि वे लोग इस बात को लेकर निश्चिंत थे कि जनता राहुल गांधी को जीत दिला देगी।

नेताओं का तथाकथित जुड़ाव

केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान के हवाले से लेखक ने यह कहा है कि स्मृति ईरानी का अमेठी की मिट्टी से न तो कोई पुराना जुड़ाव था न ही कोई पूर्व लगाव। उन्हें तो वहां की स्थानीय बोली भाषा तक की जानकारी नहीं थी । लेकिन सिर्फ 5 साल में उन्होंने अमेठी को जिस तरह से अपना बना लिया था और खुद अमेठी की हो गई थी उससे उनके काम करने का जुनून और जज्बा देखकर मैं बहुत प्रभावित हुआ था।

नेहरू गांधी परिवार की राजनीति का एक अहम हिस्सा तिलोई विधानसभा रहा है ।।इस विधानसभा की राजनीति की धुरी में तिलोई का राजघराना ही रहा है। अमेठी की धरती पर जब राजीव गांधी ने कदम रखा तो उन्होंने भी तिलोई के राजघराने को अहमियत दी। तिलोई राज घराने से संबंधित मोहन सिंह 1969 में भारतीय जनसंघ से विधायक बने थे, जो बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए थे। उसके बाद वे लगातार दो बार 1974 और 1977 में कांग्रेस के विधायक रहे। तिलोई के राजघराने, संजीव बालियान जी, स्मृति ईरानी जी और आर एस एस के अथक परिश्रम से चीजें कैसे पलटी इसका विस्तार से अनंत ने वर्णन किया है जो इनकी शोध क्षमता और आंकड़ों  को सही जगह रख पाने और उचित निष्कर्ष तक पहुंच पाने के प्रयत्नों को प्रकाशित करता है।

जब मनोहर पारिकर ने मुझसे कहा था कि स्मृति की राजनीतिक समझ बहुत तीक्ष्ण है और जनता की नब्ज को समझने वाले चंद नेताओं के बीच वह शीर्ष पर हैं,  तो मुझे लगा था कि वह अपनी पार्टी नेता की यूं ही तारीफ कर रहे हैं लेकिन अमेठी के चुनाव के दौरान स्मृति ने कुछ ऐसे प्रयोग किए जो पारिकर की बात को पुष्ट करते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में स्मृति ईरानी ने अमेठी चुनाव क्षेत्र को कलस्टर में बांटकर दुरदुरिया व्रत का आयोजन करवाने की योजना बनाई। इस योजना के तहत स्मृति ईरानी की जीत का संकल्प लेकर सुहागिन महिलाओं ने 100 से अधिक स्थानों पर एक साथ गुरुवार को पूजा की। इन 100 स्थानों पर जिन महिलाओं ने स्मृति की जीत का संकल्प किया उसके उनसे पूरे क्षेत्र की महिलाओं के बीच एक सकारात्मक माहौल बना।

सियासी कद्दावरी

लोकतंत्र में नेता का अर्थ ही है, सभी को साथ लेकर चलना । जो असहमत हैं उन्हें भी अपना बनाने की कोशिश करना। जो विरोधी हैं, उनसे हर स्तर पर संवाद कायम करना। अगर किसी कार्यकर्ता ने या सहयोगी ने कोई गलती की है, तो उसको उसकी गलती बता कर सुधारने के लिए कहना । अगर किसी नेता का कोई कदम गलत दिशा में उठ गया है, तो उसको इस बात का एहसास करवाना भी नेतृत्व का एक काम है, न कि उसे दुत्कारना व छोड़ देना।

राहुल गांधी के बारे में लिखते हुए अनंत यह स्थापना देते हैं कि उनके राजनीतिक व्यवहारों का नतीजा यह हुआ कि राहुल गांधी ने नए लोग तो बनाए नहीं , उल्टे पुराने लोगों से नाराज होते चले गए। अच्छे लोगों की पहचान नहीं कर पाना भी राहुल गांधी की शख्सियत की एक कमजोरी है। वह पुराने लोगों से अपने संबंध बरकरार नहीं रख पाए, और नए कार्यकर्ताओं से आत्मीय संबंध भी नहीं बना पाए।

राहुल गांधी के पास अमेठी में अपने पूर्वजों की लंबी राजनीतिक विरासत है, साथ ही वह स्वयं भी तीन बार से अमेठी लोकसभा क्षेत्र से ही सांसद हैं।  लेकिन यह राहुल गांधी के लिए तभी संभव हो पाया जब अमेठी की जनता का राजीव गांधी से एक भावनात्मक रिश्ता कायम हुआ। अमेठी के सभी विधानसभा चुनावों में विभिन्न दलों के नेता भी लोकसभा चुनावों में गांधी परिवार को ही अपना प्रतिनिधि चुनते रहे हैं । राहुल को अमेठी में स्मृति ईरानी से चुनौती मिल रही है, अगर गांवों में आग लगती है तो स्मृति ईरानी पहले पहुंच जाती हैं और राहत सामग्री बांटने लगती हैं, फिर राहुल पहुंचते हैं।

लेखक प्रत्याशियों की जीत में  उनके निर्वाचन क्षेत्र से जिस भावनात्मक रिश्ते को अहमियत देते हैं वह शुरू से अंत तक बार बार कभी स्थूल और कभी सूक्ष्म तरीके से पुस्तक के विवरण का जीवंत हिस्सा रहा है।

प्रतिरोध के अवसर

2009 में अमेठी में बिजली को लेकर बड़ा आंदोलन हुआ था, जिसकी गूंज लंबे समय तक सुनाई देती रही और जिस की पीड़ा स्मृति ईरानी के अमेठी पहुंचने तक मिटी नहीं थी। अमेठी में उस दौर में बिजली की दुर्दशा का मसला उत्तर प्रदेश विधानसभा में भी उठा था, पर केवल वह सुघर सवालों से लोगों के अंधेरे तो मिटते नहीं । इस आंदोलन के हैं आंदोलन में परिवर्तित हो जाने और समस्या की भीषणता को कांग्रेस द्वारा हल्के में लिए जाने को अनंत ने बहुत विस्तार से चित्रित किया है।

उस दौर में अखबार में छपी खबरों को देखें तो यहां की भयावह स्थिति और भी स्पष्ट हो जाती है। जुलाई 2009 में अमेठी की जनता बिजली को लेकर इस कदर हलकान थी कि उसकी बदहाली की खबर दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, स्वतंत्र भारत और जनमोर्चा जैसे अखबारों में लगभग रोज ही जगह पातीं, पर इलाके के सांसद राहुल गांधी व स्थानीय कांग्रेसी विधायकों को इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था । उस दौर को देखने वाले अमेठी के स्थानीय निवासी सुबोध मिश्रा ने बताया ऐसा लगता था कि अमेठी का अंधेरा सांसद की आंखों पर भी छा गया था।  उस दौरान अखबारों के शीर्षक थे “बिजली के लिए आंदोलन तेज”, ” विद्युत समस्या को लेकर होगा धरना प्रदर्शन”, ” व्यापारियों का उत्पीड़न बर्दाश्त नहीं”, ” बिजली के लिए तरस रहे हैं अमेठी के लोग”, ” सड़क पर उतरे कस्बे के लोग”,  “बिजली कटौती को लेकर फूटा गुस्सा”,  “आए दिन बदल रहे बिजली के रोस्टर से लोग परेशान”, ” ज्ञापन देकर मांगी शहर में दो चरणों में विद्युत आपूर्ति” आदि पर इन खबरों से कुछ भी नहीं हुआ तो अंधेरे की मार से जूझ रहे लोगों ने मशाल जुलूस ज्ञापन प्रदर्शन का सहारा लिया और अंततः धरना शुरू करने का फैसला लिया जो अंततः नगर बंद में तब्दील हो गया।  पर प्रशासन तभी बेपरवाह बना रहा। उस दौर में ना तो लखनऊ को अमेठी की चिंता थी ना ही दिल्ली को अमेठी की पड़ी थी । जबकि आंदोलन की खबरों में हर जगह तत्कालीन स्थानीय सांसद राहुल गांधी का नाम छप रहा था।

कांग्रेस की ही विधायक अमिता सिंह का भी कोई प्रतिनिधि अमेठी की जनता द्वारा किए गए इतने विराट प्रदर्शन में नजर नहीं आया था।  लोगों ने अपने जनप्रतिनिधियों की बेरुखी पर भी काफी नाराजगी जाहिर की थी।  कहने को तो यह भी वीआईपी इलाका था,  पर यहां की दुर्दशा उसके नेताओं के बयानों से दूर होने वाली नहीं थी।  सड़क पर उतरी जनता का जवाब पुलिस ने घरों में जबरदस्ती घुस कर दिया था।

 विशिष्टता बोध और दुष्परिणाम

विशिष्ट होने का बोध इतिहास में हार जाने के प्रथम रूपक को दर्शाता रहा है। प्रजा और आधुनिक संदर्भ में जनता से नहीं जुड़ पाना चुनावी प्रक्रिया में सफल होने के लिए घातक है। अनंत राहुल को इस ऐतिहासिक गलती करने के दोषी मने हूं। उनके विश्लेषण निष्कर्षों को वहीं ले जाते हैं। राहुल गांधी 2004 के आम चुनाव में पहली बार अमेठी से सांसद बने और उनके प्रतिनिधियों ने क्षेत्र के विकास की जिम्मेदारी संभाली। हालांकि अमेठी उनके समूचे संसद के काल में स्मृति ईरानी की कोशिशों वाले महीनों को छोड़ दे तो विकास की उस किरण को तरस रही थी जिसकी वहां के लोगों ने उम्मीद लगाई थी। अगर हम उदाहरण के तौर पर देखें तो कई लोग सभा क्षेत्र ऐसे हैं जिन्होंने अपने प्रतिनिधियों की बदौलत विकास का उजाला देखा।

राजदीप सरदेसाई ने अपनी पुस्तक 2019 “हाउ मोदी वन इंडिया” में अमेठी के बारे में लिखते हुए इस लोकसभा क्षेत्र की तुलना महाराष्ट्र के बारामती से की है, जहां से राष्ट्रवादी कांग्रेस ही कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार लंबे समय तक सांसद रहे। उनके मुताबिक शरद पवार ने सांसद के तौर पर अपने क्षेत्र का बहुत विकास किया । लेकिन नेहरू गांधी परिवार का अपने संसदीय क्षेत्र के लोगों के लिए कम उपलब्ध होना उनकी परंपरा का हिस्सा रहा है।  यह परिवार महाराजाओं जैसा बर्ताव करता रहा है,  जिसमें उनके प्रतिनिधि ही उनका कामकाज देखते थे यह प्रतिनिधि भी जमींदारों जैसा बर्ताव करते थे।

राहुल गांधी के नुमाइंदों का दावा था कि उनकी नुमाइंदगी के चलते इस संसदीय क्षेत्र को विशेष विशिष्ट क्षेत्र का दर्जा हासिल है। उनके प्रयासों से अमेठी में विकास की कई योजनाएं क्रियान्वित हुई हैं तथा अनेक प्रस्तावित हैं लेकिन यह दावे हकीकत कम हवाई अधिक हैं। शिक्षा, चिकित्सा, सड़क, परिवहन आदि के मामले में अमेठी प्रदेश की  ही वीआइपी संसदीय सीटें तो दूर आम सीटों से भी पिछड़ा रहा।  इस बात की चर्चा विनोद मेहता से लेकर कई लेखकों पत्रकारों ने अपनी किताबों और लेखों में की है।

सामान्य जन की छवि

अनंत अपने विश्लेषण में इन हिस्सों में बहुत ही सधे हुए कदम रखते हैं।  “तो फिर अमेठी ने 2019 में गांधी को वोट क्यों नहीं दिया? इसका सीधा जवाब यह था कि स्मृति ईरानी को चुनने में मुख्य भूमिका युवा मतदाताओं ने निभाई थी।  कांग्रेस इसके पीछे भले ही उन्माद की राजनीति मानती हो, लेकिन अमेठी की जनता झूठे वादों से आजिज आ चुकी थी । उसकी इस उम्र का सार्वजनिक प्रदर्शन तब हुआ जब चुनाव प्रचार के दौरान गौरीगंज विधानसभा क्षेत्र में राहुल गांधी को काले झंडे दिखाए गए। चुनावों के दौरान कांग्रेस दिखावे के तौर पर भले ही कुछ भी कहती रही, लेकिन जिस तरीके से राहुल गांधी को 2019 में पार्टी के अंदर और बाहर विरोध का सामना करना पड़ रहा था, वह कहीं न कहीं लोगों की उपेक्षा और क्षेत्रीय लोगों से दूरी का नतीजा था।”

स्मृति ईरानी के पारिवारिक माहौल, बचपन और किशोरावस्था के संघर्ष ने उनको कई सीख दी । एक संघर्षशील और दृढ़ निश्चय परिवार में पैदा होने की वजह से वह बहुत कम उम्र में ही अपने पैरों पर खड़ी हो गई। जीवन में अभाव थे, संघर्ष था, पर आधुनिक परिवेश में पलने के चलते कम से कम घुटन वह व्यवस्था तो कतई नहीं थी ।   बचपन की उस परवरिश से गढ़े गए व्यक्तित्व ने उनमें वह जीवट भरा जिससे भी आज इस मुकाम तक पहुंची हैं, जहां देश की सबसे बड़ी पार्टी ने उन्हें एक समय तक देश के सबसे ताकतवर करार दिए जाने वाले परिवार के राजनीतिक वारिस के खिलाफ, उसी के गढ़ में उसकी अपराजेय समझी जाने वाली सीट पर अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा।

दरअसल स्मृति को श्रम की कीमत पता है और उनका मानना है कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। इसीलिए अखबारों में उनके पुराने दिनों को लेकर बहुत तेरी बातें छपती रहती हैं । किशोरावस्था में ही दिल्ली में जनपथ पर सामान बेचा, मिस इंडिया प्रतियोगिता की प्रतिभागी भी बनी । मैकडोनाल्ड में क्लीनर का काम भी किया।  केंद्रीय मंत्री बनने के बावजूद उन्होंने अपने संघर्ष को लेकर कभी कुछ छुपाया नहीं।  संघर्ष के उस दौर में भी स्मृति यह सोचती थी कि जब कभी उन्हें देश सेवा का अवसर हासिल होगा, वे जरूर कुछ करेंगी।  कुछ ऐसा जो समाज को बदल सके, देश की तरक्की में योगदान दे सकें, स्थाई हो और लंबे समय तक याद रखा जा सके।

विशिष्ट : संदर्भ से इतर छवि

राजनीति में सक्रिय होने के पहले स्मृति ईरानी टीवी की सुपरस्टार बन चुकी थीं। उन्हें एकता कपूर की अगुवाई वाली बालाजी टेलीफिल्म्स के सीरियल क्योंकि सास भी कभी बहू थी में तुलसी के किरदार से खासी प्रसिद्धि मिली थी। सिनेमा से स्मृति को लगाव था पर साहित्य, संस्कार और सेवा की भावना का रंग कुछ अधिक ही गाढ़ा था । शूटिंग के दौरान भी उनके हाथ में कोई न कोई किताब हुआ करती थी। सिनेमा का तिलिस्म, अदाकारी का हुनर, मुंबई से ठेठ राजनीतिक भूमि पर आगमन स्मृति जी को एकदम अलग पहचान देने में कामयाब रहा। केंद्रीय मंत्री बन  जाने के बाद भी जहां से हार चुके थे  उसी कहते को फिर से चुनना ने उन्हें बहुत बड़ा सियासी लाभ भी दिया।

लेखक अनंत अपनी पुस्तक नायिका श्रीमती स्मृति ईरानी के व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया में अटल बिहारी बाजपेई और उनकी कविताओं को उद्धृत करते हुए बड़े साधक के रूप में दिखाई पड़ते हैं लेकिन जब चर्च और राज्य के संघर्ष और दो  शीर्ष पदस्थ व्यक्तियों के संघर्ष की ऐतिहासिक व्याख्या करते हैं तो वहां थोड़ी जल्दबाजी में काम लेते हैं । निर्णय  की त्वरित चिंतना विश्व  इतिहास के विवादास्पद मर्म को बहुत तह तक जाने की विवेचनात्मक और अनुशासित आलोचनात्मक पद्धति से बचती है लेकिन जैसे ही वह अपनी मूल कथा पर आते हैं लेखक अनंत फिर शक्तिशाली हो उठते हैं।

वंशवाद और आक्रामक राजनीति

अनंत विजय व्यक्तिवाद बनाम भारतीय राजनीति के आगामी चित्रण में उत्कृष्ट दिखाई पड़ते हैं। उनकी ही एक बानगी से यह और अधिक स्पष्ट हो जाएगा। मूलतः इसका उस मूर्ति भंजना में है, व्यक्तिवाद का इल्जाम इस पुस्तक के प्रतिनायक और उसकी विरासत पर है पर अपने भावानुक्रम और सधी हुई स्पष्टवादिता में अप्रतिम है। “भारतीय राजनीति अवधारणाओं का खेल है और इन अवधारणाओं का मौलिक आधार व्यक्ति परक है यह मानने में किसी को गुरेज नहीं होना चाहिए। व्यक्ति ही यहां नायक है, खलनायक है, महानायक है, यहां तक कि पूजनीय और वंदनीय भी । इस हद तक कि दूसरे आदर्श लोकतांत्रिक मूल्य उसके पिछलग्गू दिखते हैं यह कई अर्थों में जनता का, जनता द्वारा जनता के लिए से अलग किसी खास व्यक्ति का,  किसी विशेष परिवार का ,  किन्ही प्रभावशाली व्यक्तियों और समूहों का उन्हीं के लिए चुना गया विधिवत शासन है । यह भले ही पुरातन राजतंत्र और वंश वादी शासन व्यवस्था से अलग दिखता हो, पर यह तय है कि यह निश्चय ही पूरी तरह से अगर व्यक्तिवादी नहीं है तो पूरी तरह से लोकतांत्रिक भी नहीं है।  यही वजह है कि व्यक्ति केंद्रित होने के चलते वयक्तिक करिश्मा हमेशा ही यहां बेहद प्रभावी रहा है।  देश में नेहरू गांधी परिवार ने भारतीय जनमानस की इस भावनात्मक दुर्बलता को बहुत पहले, या यूं कहें कि अपने सियासी सफर की शुरुआत में ही ना केवल समझ लिया था, बल्कि उसका लाभ उठाना भी जान गया था; और यह क्रम पीढ़ी दर पीढ़ी चलता हुआ आज भी जारी रहता।

गांधी परिवार की राजनीतिक चतुराई वाले प्रसंग में लेखक अनंत विजय बहुत गहरे शोध को स्थान देते हैं  । हर चुनावी क्षेत्र नेहरू गांधी परिवार के हर सदस्य को प्राप्त मताधिकार और उनके द्वारा अपनाए गए तरीके इस अध्याय में शामिल किए गए हैं। यह अध्याय इस पुस्तक का बहुत ही कीमती स्तंभ इसलिए भी बन पड़ा है कि बहुत कड़ी मेहनत  की गई है और अपने निष्कर्षों तक पहुंचने के लिए डाटा को, सूचनाओं को और तर्क को बहुत प्रभावी ढंग से रखने की कोशिश की गई है। यह अध्याय इस पुस्तक का अद्वितीय हिस्सा है। लेखक यहां साधुवाद के पात्र हैं।

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3 comments

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